VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

स्त्री रोग और उनकी प्राकृतिक चिकित्सा

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

ऋतु आरम्भ में विलम्ब

यदि कोई जवान लड़की इस योग्य हो गयी हो कि उसे मासिक धर्म हो , फिर भी उसे मासिक धर्म न हो तो वह निश्चय ही रोगी है । यदि ऐसी लड़की में जवानी के सारे चिन्ह मौजूद हों मगर वे चिन्ह जो मासिक धर्म के जारी होने के समय स्त्रियों में प्रकृतितः कम या अधिक पाये जाते हैं , बिल्कुल मौजद न हों तो समझना चाहिए कि उसका गर्भाशय अथवा डिम्बाशय बहुत छोटा है या है ही नहीं । ऐसी हालत में रोग को असाध्य समझना चाहिये । इसी प्रकार यदि किसी युवती की मासिक धर्म होने के सारे चिन्ह मौजूद होते हुए भी ऋतु का रक्त जारी न हो तो जानना चाहिए कि उसके मुख का पर्दा किसी कारण से सख्त और पुष्ट हो गया है , जिसको छेदकर माहवारी का रक्त बाहर नहीं निकल पा रहा है । ऐसी दशा में भी माहवारी का रक्त जारी कराने में कोई चिकित्सा कारगर नहीं हो सकती । हां ऐसी हालत में आपरेशन से कुछ काम बन सकता है ।  इस सम्बन्ध में एक बात और जान लेनी चाहिये । वह यह कि प्रथम ऋतु होने के पहले भी स्त्री गर्भवती हो सकती है । अतः उस दशा में ऐसी स्त्री ' ऋतु में विलम्ब ' रोग से रोगी नहीं समझी जा सकती है । कारण –

ऋतु आरम्भ में विलम्ब प्रायः उन लड़कियों में अधिक होता है जिनके शरीर में रक्त की कमी होती है तथा जो पीलिया और राजयक्ष्मा जैसे शरीर को कमजोर करने वाले रोगों के चंगुल में फंसी होती हैं । इसके अतिरिक्त अविकसित गर्भाशय और डिम्बाशय , उनकी सूजन , गर्भाशय का अपनी जगह से टला होना , छूत वाले रोग , गंदी वायु में रहन - सहन , व्यायाम का अभाव , मिथ्या आहार , अधिक चिन्ता , शोक , भय आदि तथा कसकर साड़ी बांधना आदि भी इस रोग के कारण हो सकते हैं । ऋतु होने की उम्र में ऋतु आरम्भ न होने से लड़कियों को बड़ी तकलीफ होती है । सिर दर्द , चक्कर आना भूख का न लगना , मानसिक गड़बड़ी , पेट के रोग तथा छाती के अनेक रोग आ घेरते हैं ।

चिकित्सा –

इस रोग की चिकित्सा के लिए सर्वप्रथम रोग के कारणों को त्याग कर देना चाहिए और संयमी जीवन बिताना चाहिए । शुद्ध वायु में रहना , उचित व्यायाम करना , सदैव प्रसन्न रहना , साफ सुथरे वस्त्र धारण करना मिर्च मसाला , सफेद चीनी , नशीली चीजों तथा सभी उत्तेजक खाद्यों से परहेज करना इस रोग को दूर भगाने में मदद करते हैं | प्रतिदिन सुबह - शाम नियमित रूप से शक्ति - अनुसार मेहन स्नान अथवा कटि - स्नान कराना चाहिए । रात को या तीसरे पहर रोज आधा घण्टा के लिए गीली मिट्टी की पट्टी पेडू पर बांधनी चाहिए तथा महीने में एक - दो बार पूरे शरीर का या केवल पेडू का भाप स्नान लेना चाहिये । 

 

ऋतु का असमय में बंद हो जाना

 

 प्रथम बार माहवारी होने के बाद से प्रौढ़ावस्था में माहवारी के प्रकृतितः बंद होने तक के समय के बीच में ही माहवारी बन्द हो जाना अस्वाभाविक है , अतः रोगों में इसकी गिनती होती है । इस अवस्था को ऋतुरोध , रजःस्तम्भ , नष्टार्तव या अंग्रेजी में एमीनोरिया ' कहते हैं । परन्तु गर्भावस्था में और प्रसव के बाद बहुत दिनों तक , बच्चों को दूध पिलाने के समय स्वाभाविकतया माहवारी का बन्द होना रोग नहीं है ।

 

कारण :

मिथ्या आहार - विहार , आलस्य , अधिक परिश्रम , उत्तेजक औषधियों और नशीली वस्तुओं का सेवन , भय , क्रोधादि मानसिक उत्तेजनायें , रक्ताल्पता , क्षय , मलेरिया आदि रोग , सहसा जाड़ा लग जाना , बर्फ का पानी पीना , माहवारी के दिनों में भीगना , गर्भाशय के रोग जैसे गर्भाशय का मुंह फिर जाना , उसमें सूजन होना , उसका टल जाना , पाखाने के स्थान का रोग , तिल्ली या यकृत का रोग , गर्भपात , कम भोजन मिलना , अधिक पतला होना , अधिक मोटा होना तथा अधिक रक्त हो जाना और गुप्त इन्द्रिय की निर्बलता के कारण बजाय योनिमार्ग से शरीर के अन्य मार्गों - नाक , कान आदि से उसका निकलना आदि ऋतु के असमय में बन्द हो जाने के कारण हो सकते हैं । असमय में ऋतु बन्द हो जाने से स्त्री को बड़ा कष्ट होता है । पीठ , कमर और सिर में दर्द होता है । पेडू भरा - भरा सा प्रतीत होता है तथा मितली , वमन , श्वास - कष्ट , थकावट ,आलस्य , निद्रा आदि भी सताने लगते हैं ।

 

 चिकित्सा :

इस रोग की चिकित्सा के लिए भी संयमी । जीवन बिताना और स्वास्थ्य के अन्य नियमों को पालन करना जरूरी है , साथ ही जिन कारणों से यह रोग होता है उन्हें दूर कर देना चाहिए । तत्पश्चात् यदि रोगिणी बहुत कमजोर न हो तो उसे 3 दिन तक फलों या सब्जियों के जूस पर रहना चाहिये और आवश्यकतानुसार एक या दोनों समय एनिमा लेना चाहिये । उसके बाद 10 दिनों तक फल दूध या मट्ठा पर रहना चाहिये । फलाहार और फल - दूध पर रहने के दिनों में सुबह या शाम एक बार एनिमा भी लेना जरूरी है । यदि रोगिणी बहुत कमजोर है तो वह तीन दिन का रसाहार न चलावे अपितु अपने रोग की चिकित्सा का आरम्भ वह सात दिन के फलाहार से करे । फल और दूध आरम्भ करने के दिन से सवेरे मेहन स्नान और तीसरे पहर या रात में सहने लायक गरम पानी के टब में पैरों को बाहर निकालकर केवल बैठा जाये , पेडू को मलने की जरूरत नहीं है । शक्ति अनुसार 5 से 15 मिनट तक गरम पानी के टब में बैठे रहना चाहिए । पानी बराबर गरम रहे इस बात का ध्यान रखना चाहिए । इसके लिये थोड़ी - थोड़ी देर बाद टब से 2 - 3 जग पानी निकाल कर उतना ही गर्म पानी डालते रहना चाहिए । टब से निकलने के बाद स्नान ' करें या शरीर को पहले ठंडे पानी से भीगे और निचोड़े तौलिये से उसके बाद सूखे तौलिये से पौंछना चाहिए । भोजन और इस स्नान में 2 घंटे का अन्तर जरूर रखना चाहिए । कभी - कभी धूप स्नान और 15 दिनों में एक बार भाप स्नान लेने से इस रोग में जल्दी लाभ होता है । रोगिणी को शक्तिभर टहलना या कोई हल्की कसरत प्रतिदिन करना चाहिए , तथा सुबह - शाम , गहरी श्वास की कसरत भी । आवश्यकता पड़ने पर पेडू पर गीली मिट्टी और उस पर कभी कभी भाप - स्नान का प्रयोग भी लाभदायक सिद्ध होता है ।

यदि भीगने या सर्दी के कारण ऋतु बंद हुआ हो तो रजोदर्शन के समय के पूर्व पैरों का गरम स्नान करना चाहिये ; साथ - साथ कटि - स्नान और गुनगुने पानी का एनिमा भी लेना चाहिए । अनानास , तिल , मसूर , दही , पका पपीता , कच्चा ताजा दूध , कच्चे पपीते की तरकारी , प्याज , दालें , अंकुरित चना तथा मूंग जैसे फासफोरस वाले खाद्य पदार्थ इस रोग में लाभ करते हैं ।

 

दर्द के साथ ऋतु होना

 

यह रोग निम्नलिखित कारणों से होता है :

1 . योनिमार्ग के निचले भाग में दोष के कारण तनाव उत्पन्न हो जाने से ।

2 . शरीर में रक्त की कमी एवं कमजोरी से ।

3 . शरीर के रक्त के दूषित हो जाने से ।

4 . मिथ्या आहार ।

5 . वस्तिगह्वर में रक्त संचय के साथ स्थानीय प्रदाह ।

6 . पुरुष के सहवास से वंचित रहना ।

7 . आलसी जीवन बिताना , किसी प्रकार की कसरत अथवा परिश्रम न करना । दिन में सोना ।

8 . ऋतु के समय अथवा उसके पहले पुरुष - सहवास करना ।

9 . भय , शोक आदि मानसिक वेदना ।

10 . गर्भाशय - द्वार का पैदायशी तंग होना ।

11 . गर्भाशय के मुख पर बतौड़ी होना , उसका बाहर निकल आना , उलट जाना अथवा उसमें सूजन का होना ।

12 . खड़े होने , चलने एवं बैठने - उठने के गलत तरीके ।

 

इस रोग की चिकित्सा के लिये सर्वप्रथम उन कारणों को दूर कर देना चाहिए जिनकी वजह से रोग की उत्पत्ति हुई है । अर्थात् शरीर में विशेषकर पेडू में एकत्र दोषों को जो अप्राकृतिक खान - पान एवं आहार - विहार के नतीजे हैं , दूर कर देना चाहिए । इस रोग के जाने में 6 मास से साल भर तक लग सकता है जो शरीर में एकत्र दोष के कम अथवा अधिक परिमाण तथा रोगिणी के शरीर में मौजूद कम या अधिक जीवनी - शक्ति पर निर्भर करता है । रोग जब तक जड़ - मूल से चला न जाये तब तक पुरुष - सहवास से परहेज करना चाहिए । चाय , कहवा आदि सभी नशीली और उत्तेजक वस्तुयें त्याग देनी चाहिए । कब्ज न होने देना चाहिए । शक्ति अनुसार प्रतिदिन खुली वायु में सबेरे - शाम टहलना चाहिए । 

चिकित्सा :

 आरम्भ में मासिक शुरू होने के 7 दिन पहले 4 दिन रसाहार और तीन दिन केवल सुस्वादु मौसमी फलों पर रहना चाहिए । इन दिनों दोनों समय एनिमा लेकर पेट भी साफ करना चाहिए , और प्रतिदिन एक टब में 5 इंच सहने योग्य गरम पानी भरकर उसमें 5 से 30 मिनट तक केवल बैठना चाहिए । सिर के ऊपर ठंडी तौलिया अवश्य रहे । दर्द अधिक होने पर दर्द वाले स्थान पर दिन रात में 2 - 3 बार गर्म और ठंडे पानी की सेंक दें । कभी - कभी दर्द की हालत मेरुदण्ड के निचले भाग की मालिश करने के बाद उस पर और वस्ति देश में केवल गरम पानी की सेंक देने से भी लाभ होता है । रोग का दौरा होने पर गरम और ठण्डे जल की पट्टी के स्थान पर गरम और ठंडे जल से भरे टब में बारी - बारी से बैठना बहुत उपयोगी होता है ।

उपर्युक्त के अतिरिक्त रोगिणी को प्रतिदिन प्रातःकाल एक बार कटि - स्नान , तथा सायंकाल एक बार मेहन स्नान लेना जरूरी है , तथा रात में पेडू पर मिट्टी की पट्टी बांधकर सोना भी । इस रोग में स्थानीय भाप स्नान या केले की पत्ती रखकर धूप स्नान से भी बड़ा लाभ पहुंचता है । पेडू में दर्द हो तो मिट्टी की गरम पट्टी से आराम पहुंचता है।रक्त निकलने के दिनों में दर्द को शान्त करने के लिये गर्म पानी के टब में न बैठकर केवल सेंकों से ही काम चलाना चाहिये ।

 

अत्यधिक ऋतु रक्त स्राव

मासिक धर्म के दिनों में जब ऋतु का रक्त आवश्यकता से अधिक जाने लगता है तो उसे अत्यावि , रजाधिक्य अथवा अंग्रेजी में ' मेनोरेजिया ' रोग कहते हैं । 

कारण –

इस रोग में माहवारी के समय से पहले अथवा उसके बाद भी अधिक परिमाण में 3 से 7 दिनों तक रक्त निकलता रहता है । यह रोग प्रौढ़ा स्त्रियों को जो अधिक सन्तानों को जन्म देती हैं , अधिक होता है । शरीर में दोष एकत्र होकर डिम्बकोष अथवा डिम्बप्रणाली में बतौड़ी व कैंसर तथा गर्भाशय में प्रदाह व सूजन पैदा कर देते हैं जिसकी वजह से रक्त पतला एवं दूषित होकर स्राव अधिक मात्रा में होने लगता है । इस रोग में सिर , कमर , पीठ एवं पैरों में दर्द हुआ करता है , भूख बन्द हो जाती है , कभी - कभी जाड़ा सा मालूम होने लगता है और पैरों के तलुए ठंडे हो जाते हैं । रोग की बढ़ी हुई अवस्था में उचित उपचार के अभाव में रोगिणी के प्राणों पर भी आ बनती है । दर्द के साथ ऋतु होने के जो कारण ऊपर गिनाये गये हैं लगभग वे ही सब कारण इस रोग के भी समझने चाहिए । उनके अतिरिक्त अधिक पुरुष सहवास , बिगड़ी हुई माहवारी , ऋतु के अलावा गर्भाशय से रक्तस्राव , शरीर में रक्त की अधिकता , यकृत में शोथ अधिक भोजन तथा गर्मी का मौसम आदि भी इस रोग के कारण हो सकते हैं ।  

चिकित्सा :

रोग के असली कारण को ढूंढ कर उसको दूर करना ही इस रोग का उचित उपचार है । रोगी को रोग निवृत्ति तक बिस्तर पर लिटाये रखना चाहिये । बिस्तर का पायताना सिरहाने से थोड़ा ऊंचा रखना चाहिए । एनिमा द्वारा बीच - बीच में पेट साफ कर देना चाहिये । प्रतिदिन एक बार ठंडे पानी का डूस लेकर योनि मार्ग को धो देना भी जरूरी है । यदि खून अत्यधिक जाता हो तो कपड़े की एक थैली में बर्फ भरकर पेडू पर रखना चाहिए तथा योनि मार्ग में भी बर्फ के कुछ टुकड़े रख देने चाहिए । जब रक्त स्राव में थोड़ी कमी हो जाये तो योनिमार्ग में बारीक झीना कपड़ा लगा देना चाहिए ताकि रक्त को गाढ़ा होने का अवसर मिले । उसके बाद से हल्की कसरत या शुद्ध वायु में टहलना आरम्भ करना चाहिए तथा 24 घंटों में दो बार मेहन और दो बार कटि - स्नान लेना चाहिए । रोग की बढ़ी हुई अवस्था में रात भर के लिये कमर की गीली पट्टी का भी प्रयोग करना चाहिए । सब तरह के उत्तेजक भोजन का त्याग कर देना चाहिए । मिर्च - मसाला , सफेद चीनी आदि को हाथ से भी नहीं छूना चाहिए । फलों के जूस या फल - दूध या मट्ठा पर कुछ दिनों तक रहना चाहिए । उसके बाद उबली हरी साग - सब्जियां , सलाद और चोकर मिले गेहूं के आटे की रोटी या दलिया लिया जा सकता है । 

 

अत्यल्प ऋतु - रक्त स्राव

किसी - किसी स्त्री के स्वभाव एवं प्रकृति के अनुसार साधारणतः प्रति मास जितना मासिक स्राव होना चाहिए । उससे कम स्राव होता है उसे अत्यल्प ऋतु , अल्पार्तव , स्वल्परज अथवा अंग्रेजी में ' स्कैन्टी मेनस्ट्रेशन ' रोग कहलाता है । गर्भाशय रोग , क्षय रोग व मानसिक अवसाद आदि इस रोग के परिणाम होते हैं । पहले 3 दिन तक रसाहार फेर तीन दिनों तक फल - दूध पर रहकर और दोनों समय एनिमा लेकर पेट को साफ कर लेना चाहिए । तत्पश्चात् सबेरे - शाम 20 - 20 मिनट तक मेहन स्नान लेना चाहिए और रात के लिये पेडू पर गीली मिट्टी की पट्टी लगाना चाहिए ।

 

रजो निवृत्ति के बाद के कष्ट

40 - 45 वर्ष की अवस्था पार कर चुकने के बाद जब माहवारी सदा के लिये बन्द हो जाती है तब कुछ रोगी स्त्रियों की वह अवस्था बड़ी संकटपूर्ण हो जाती है । कारण - चक्कर आना , छाती में दर्द होना , जोड़ों में दर्द होना , पाचन शक्ति का बिगड़ जाना , कब्ज , चर्बी छा जाना पागलपन आदि कितने ही शारीरिक और मानसिक विकार सताने लगते हैं । लेकिन ऐसा होना सिर्फ इसलिये है कि ऐसी स्त्रियों का स्वास्थ्य पहले से ही गिरा होता है ।मासिक धर्म सदा के लिये बन्द हो जाने के बाद किसी प्रकार का कष्ट होने पर नीचे का उपचार चलाने में अवश्य लाभ होता है । 

 

चिकित्सा –

प्रतिदिन गहरी श्वास लेने की क्रिया करना , प्रातः काल दूर तक शुद्ध वायु में टहलना , बदन की सूखी मालिश और उसके बाद ठंडे जल से स्नान , साग - सब्जियों एवं फल - दूध या मट्ठा का सवेन , चोकरदार आटा , छिल्केदार दाल , ( कम परिमाण में ) कनदार चावल का सेवन , कटि या मेहन स्नान तथा पेडू पर गीली मिट्टी की पट्टी लगाना , सूर्य - स्नान सप्ताह में एक बार तथा कब्ज होने पर उपवास या रसाहार पर रहकर एनिमा द्वारा पेट साफ करना । 

 

अनियमित मासिक धर्म

इस रोग में यह नहीं पता रहता है कि मासिक धर्म कब होगा अथवा वह कितने दिनों तक रहेगा ? कभी मास में दो बार मासिक धर्म हो जाता है , कभी 3 - 4 मास बाद ऋतु आता है , तथा कभी एक या दो मास तक लगातार रक्तस्राव होता रहता है और कभी उससे कम दिनों तक । इस रोग में कमर , पेट , पेडू तथा दोनों स्तनों में भी दर्द होता है , तथा आंख , हाथ की हथेलियों एवं योनि में जलन होती है । कष्ट के साथ मासिक होने के जो कारण और उपचार ऊपर बताए गए हैं , वे ही कारण और उपचार इस रोग के भी हैं । 

 

ऋतु के अलावा गर्भाशय से रक्त - स्राव

मासिक धर्म के अलावा यदि अन्य समयों में भी गर्भाशय से रक्तस्राव हो तो उसे रोग जानना चाहिए । इस रोग को अंग्रेजी में ' मेट्रोरेजिया ' कहते हैं । गर्भाशय में रक्तस्राव और प्रसव के समय अधिक रक्त - स्राव इसी रोग के अन्तर्गत माने जाते हैं । 

कारण –

प्रसव के समय किसी पदार्थ का अन्दर रुक जाना , गर्भावस्था में इन्द्रिय चालन के फलस्वरूप गर्भाशय के बाहर रज और वीर्य का मिलन , गर्भाशय का अर्बुद तथा अन्य गर्भाशय सम्बन्धी गड़बड़ियां इस रोग का कारण होती हैं । खान - पान की गड़बड़ी , मानसिक उद्वेग , पेडू में चोट लगाना , औषधियों का अधिक सेवन की आदि इस रोग के अन्य कारण हैं । इस रोग में ज्वर रहता है , श्वास लेने में कष्ट होता है , पेट साफ नहीं रहता , शरीर में आलस्य और सिर में भारीपन रहता है तथा रक्त अधिक जाने के कारण रोगिणी कभी - कभी बेहोश भी हो जाती है । 

 

चिकित्सा :

इस रोग में रोगिणी को आराम से लिटाये रखना चाहिये । यदि रक्त - स्राव बहुत अधिक हो तो ठंडे पानी में साफ कपड़ा भिगोकर उससे योनिद्वार को बन्द रखना चाहिये । पेडू पर ठंडे पानी की पट्टी या मिट्टी की गीली पट्टी लगानी चाहिए तथा सुबह - शाम मेहन या कटि - स्नान लेना चाहिए । रोग का जोर रहने तक केवल रसाहार , मट्ठा या नींबू के रस अथवा फलाहार या फल - दूध पर रहना चाहिए । यदि पानी पीकर और एनिमा लेकर पूर्ण उपवास किया जाये तो अधिक लाभ होगा । रोग जब घटने लगे और काफी घट जाये तब धीरे - धीरे प्राकृतिक आहार पर आ जाना चाहिए । 

 

रक्त - गुल्म

गर्भाशय में जब ऋतु का रक्त किसी कारण से जमकर गोला का आकार धारण कर लेता है तब उसे रक्त - गुल्म रोग कहते हैं । रक्तगुल्म और गर्भ दोनों ही में धड़कन होती है और दोनों ही में मासिक स्राव बंद रहता है । अतः पेट में रोग है या गर्भ , इसका जानना बड़ा कठिन हो जाता है । इसलिए रोग का पूर्ण निश्चय हो जाने पर ही उसकी चिकित्सा आरम्भ करनी चाहिए , अन्यथा भ्रूण हत्या हो जाने की बड़ी सम्भावना रहती है । इसी बात को ध्यान में रखकर आयुर्वेदाचार्यों ने इस रोग की चिकित्सा के प्रसंग में लिखा है - ' मासे व्यतीते दशमे चिकित्स्यः ' अर्थात् दस मास पर्यन्त प्रतीक्षा कर लेने के बाद ही जब गर्भ न साबित हो तभी रक्त - गुल्म रोग समझ कर उसकी चिकित्सा करनी चाहिए । इस रोग की चिकित्सा वही है जो ऋतु का असमय में बंद हो जाने की है । 

 

 

 

श्वेत प्रदर ( Leucorrhea )

जब नवयौवन रस स्त्री शरीर में उत्पन्न होने लगता है तब उसको प्रतिमास मासिकधर्म होता है जो 3 से 6 दिन तक रहता है । यह स्वाभाविक है । पर 6 दिन से अधिक तक ऋतु का रक्तस्राव होते रहने से वह बिगड़कर प्रदर रोग का रूप धारण कर लेता है । प्रदर का श्लेष्मिक स्राव नीला , गुलाबी , सफेद , लाल , हरा , पीला , गाढ़ा , पतला , मांस के छिछडे सहित , फेनदार , लसीला , बेबदबू का तथा बदबूदार कई रूप - रंग का होता है । इस रोग को साधारण तौर पर श्वेतप्रदर तथा अंग्रेजी में ' ल्यूकोरिया ' या ' ह्वाइट्स ' कहते हैं ।

कारण –

प्रदर का स्राव गर्भाशय , योनि और उसके आसपास के यन्त्रों में प्रदाह होने के कारण होता है । यह स्राव कभी बहुत अधिक और कभी बहुत कम मात्रा में होता है । साधारणतः माहवारी के समय ही प्रदर का स्राव होता है । अधिक स्राव होने पर पेडू में भार पैदा हो जाता है , सिर में चक्कर आने लगता है , शरीर और हाथ - पैरों में दर्द और ऐंठन होने लगती है , मितली और वमन आने लगती हैं , कमजोरी बहुत बढ़ जाती है , स्त्री का सौंदर्य नष्ट हो जाता है , मुंह सूज जाता है , आंखों के चारों तरफ काला घेरा पड़ जाता है शरीर पीला पड़ जाता है , मुख पर झुर्रियां पड़ जाती हैं । किसी का शरीर ढीला और किसी का दुबला - पतला हो जाता है , कमर , पीठ और सारे शरीर में थोड़ा बहुत दर्द रहने लगता है , आंखों एवं हथेलियों और पांव के तलुओं में जलन होती है , तन्द्रा , ज्वर , मूर्छा , प्यास , कब्ज आदि रोगिणी को सताने लगते हैं , भूख मर जाती है , योनि में खाज , दाने एवं सूजन आ जाती है , पुरुष सहवास के समय दर्द होता है , पेशाब में जलन होने लगती है , किसी काम में मन नहीं लगता , मिजाज चिड़चिड़ा हो जाता है , श्वास फूलने लगती है , दिल की धड़कन का रोग हो जाता है , प्रदर के स्राव से योनिमार्ग में घाव होकर मवाद निकलने लगता है , पीलिया , हिस्टीरिया या राजयक्ष्मा रोग उत्पन्न हो जाता है तथा गर्भ - स्थिर नहीं होता और स्त्री बांझ हो जाती है । - इस रोग के मूल कारण अप्राकृतिक जीवन , अप्राकृतिक भोजन , गंदी आदतें एवं अस्वास्थ्यकर वातावरण हैं । इनके अतिरिक्त इस रोग के निम्नलिखित कारण भी हो सकते हैं अधिक पुरुष सहवास, दवाओं का अधिक सेवन, स्पंज आदि का योनि में प्रयोग,अजीर्ण और कब्ज । पिता के सुजाक दोष से कन्या को बचपन से ही यह रोग हो जाता है जिसे बचपन का श्वेत प्रदर या अंग्रेजी में इनफैंटाइल ल्यूकोरिया कहते हैं । कृमि और गण्डमाला आदि रोगों से भी बचपन में ही यह रोग हो जाता है । मदिरा , भांग आदि नशीली चीजों का सेवन । गर्भपात । निरन्तर शोक - चिन्ता । अधिक सवारी करना या चलना - फिरना । दिन में सोना । भारी बोझ उठाना । आलस्य और अकर्मण्यता । हर प्रकार की कमजोरी जो कठिन रोगों के बाद होती है । रक्तहीनता गर्भाशय का टला होना , उसमें घाव , सूजन खाज आदि का होना । बवासीर आदि के रोग । बहुमूत्र रोग और पेशाब - नली के रोग । पेट के भीतर वाले अंगों जैसे आंत , प्लीहा आदि के घाव । जल्दी सन्तान होना । मासिक धर्म की बीमारियां । पति या पत्नी को सुजाक होना । पुरुष सहवास से किसी कारणवश तृप्त न होना । गुदा के कीड़ों का किसी प्रकार से योनि में प्रवेश कर जाना । गुप्तांगों पर अधिक चोट लगना । मासिक स्राव के समय मैथुन ।

 

प्रदर - रोग की चिकित्सा –

आरम्भ करने के पहले सर्वप्रथम यह जरूरी है कि जिन कारणों से यह रोग होता है उन कारणों को सम्भवतः दूर कर दिया जाये और पूरे परहेज से रहा जाये ।

चिकित्सा :

प्रदर की वजह से यदि गर्भाशय या योनि में सूजन , प्रदाह , अथवा घाव आदि हो गया हो तो सबसे पहले उसे मिटाने या उसके जोर को कम करने का प्रयत्न करना चाहिये । इसके लिये प्रतिदिन सात दिनों तक नीम के हल्के गरम पानी का ड्रश योनि मार्ग में देना चाहिये । यह पानी नीली अथवा हरी बोतल का सूर्यतप्त हो तो अति उत्तम । सात दिनों तक निरन्तर डूस देन के बाद उसे प्रति दूसरे दिन देने लग जाना चाहिये । कुछ दिनों बाद हफ्ते में दो बार , फिर एक बार डूस देना चाहिए । गरम पानी के डूस के तुरन्त बाद रोगिणी को सहने योग्य गरम पानी के टब में 10 - 15 मिनट तक निवस्त्र होकर बैठना चाहिये । दो - तीन सप्ताह तक ऐसा करने से गर्भाशय या योनि की सूजन आदि बहुत कुछ कम हो जायेगी । डूस देते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि डूस का पानी अधिक गर्म न हो जो योनि मार्ग में फफोले डाल दे और न उसकी धार इतनी तेज हो कि उससे भीतर चोट लगे । डूस और उसके बाद गरम पानी के टब में बैठने के बाद मक्खन या गाय के घी से योनि - लेपन करना चाहिए । योनि की सफाई के बाद गर्भाशय - द्वार को एक विशुद्ध फाये या पोटली से बंद कर देना चाहिए और उसे दिन में 4 - 5 बार बदल देना चाहिए या 2 - 2 / इंच चौड़ी तथा 4 - 5 इंच लम्बी पानी से भीगी 5 - 6 तह कपड़े की गद्दी लंगोट के सहारे से योनि मुख पर 1 घंटा तक या यदि रात को सोते समय लगावे तो रात भर नींद खुलने तक रखे । स्थानीय तकलीफ के कम होने के बाद प्रदर रोग की जड़ को काटने के लिये निम्नलिखित चिकित्सा - क्रम चलाना चाहिए ।

रोगिणी को आरम्भ में शक्ति के अनुसार तीन से सात दिन तक का उपवास , रसाहार या फलाहार करना चाहिए । इन दिनों दोनों समय एनिमा तथा सारे शरीर का साधारण स्नान जरूर जारी रखना चाहिए । इसके बाद दूध का कल्प 6 सप्ताह तक करना चाहिए । एक बार ही इतने दिनों का दग्ध - कल्प यदि न हो सके तो बीच - बीच में कुछ दिन रसाहार के बाद फिर दो-तीन सप्ताह तक दूध पीना चाहिए । दो-तीन बार ऐसा करने से प्रदर रोग अच्छा हो जायेगा । 

 

दुग्ध - कल्प के स्थान पर अंगूर - कल्प और आम के मौसम में आम और दूध का मिश्रित कल्प भी करा सकते हैं । यदि किसी कारण से कोई भी कल्प सम्भव न हो तो उपवास रसाहार व फलाहार के बाद कुछ दिनों तक फल और दूध पर ही रह जाना चाहिए । फल और दूध आरम्भ करने के समय से गरम और ठंडा बैठक स्नान सप्ताह में 4 - 5 दिन करना चाहिए ।

आसनों में सर्वाङ्गासन , पश्चिामोत्तान , भुजङ्ग अथवा हलासन विशेष रूप से लाभप्रद सिद्ध होते हैं ।खुले स्थान में रहना, गहरी श्वांस लेना, प्राणायाम करना , शक्ति अनुसार सुबह शाम खुले मैदान में वायु सेवन को जाना व हल्की कसरत करना भी इस रोग की चिकित्सा के अंग हैं । इन्हें जरूर करना चाहिए । कसरत की जगह घर का काम - काज करना, चक्की आदि चलाना जिससे थोड़ा पसीना आजाये पर थकावट न हो यथेष्ठ है । श्रम के बाद ही साधारण स्नान करना चाहिए । तत्पश्चात् अपने हाथ की हथेलियों से पूरे शरीर का घर्षण - स्नान भी करना चाहिए ।

सप्ताह में एक या दो बार सारे शरीर का और कभी - कभी स्थानीय भाप - स्नान 10 मिनट तक लेकर पसीना निकालना चाहिए । गरम बालू की पोटली या गरम ईट या पत्थर को कपड़े में लपेटकर योनि स्थान को सेंकने से भी स्थानीय उपचार हो जाता है और पसीना निकलने लगता है । पसीना निकलने के बाद तुरन्त 10 मिनट तक मेहन स्नान करना चाहिए । योनि - दर्द की हालत में गरम कपड़ा पेट पर लपेटना , गरम पानी का सेंक , गरम जल पीना , गरम मिट्टी की पटटी 20 मिनट तक योनि और पेडू पर देना तथा गरम जल में बैठना लाभ करता है । इस रोग में आधा पीली बोतल का तथा आधा हरी बोलत का सूर्यतप्त जल मिलाकर 24 घंटे में 6 खुराकें देनी चाहिए तथा प्रतिदिन सारे शरीर पर विशेषकर योनि पर 15 मिनट तक हरा प्रकाश डालना चाहिए । हरे आंवले का रस 10 ग्राम , ताजी मूली का रस 10 ग्राम , शतावर का रस 10 ग्राम लेकर और सबको 20 ग्राम शुद्ध शहद में मिलाकर प्रतिदिन सवेरे सात बजे पीने से भी प्रदर रोग अच्छा हो जाता है । इस रोग में सदैव सादा और अनुत्तेजक भोजन करना चाहिए । कब्ज न होने देना चाहिए । मासिक धर्म के दिनों में उपचार बन्दकर परहेज जारी रखना चाहिए ।