सोम रोग
सोम
का दूसरा नाम शरीर स्थित जल व धातु है । सोम रोग को धातु - क्षीणता रोग कह सकते
हैं ।
लक्षण :
इस
रोग में स्त्री - शरीर की धातु पतली होकर पानी की भांति मूत्रमार्ग से बिना पीड़ा
व गंध के गिरती रहती है ,
जिसकी वजह से थोड़े ही दिनों में जीर्ण - शीर्ण हो जाती है । किसी
काम के करने में मन नहीं लगता , थोड़ा ही परिश्रम करने से
थकावट आ जाती है , प्यास अधिक और थोड़ी - थोड़ी देर बाद लगने
लगती है , रोग की बढ़ी हुई दशा में अधिक और घड़ी - घड़ी पर
पेशाब होने लगता है और कलेजा निर्बल पड़ जाता है पाचन बिगड़ जाता है , पर भोजन से तृप्ति नहीं होती । जंभाई और आलस्य अपनी चरम सीमा पर पहुँच
जाता है , शरीर कृश तथा त्वचा में रूखापन आ जाता है ,
सिर , कमर और पीठ में पीड़ा होती है , मुख और तालू सूखते रहते हैं , आंखों के सामने कभी -
कभी अंधेरा छा जाता है , प्रलाप होने लगता है , तथा कभी - कभी मासिक धर्म भी बिगड़कर अनियमित हो जाता है । इस रोग को लोग
भूल से श्वेतप्रदर समझते हैं वास्तव में यह मूत्र - नली का रोग है जबकि प्रदर रोग
गर्भाशय से है सम्बन्ध रखता है । सोम रोग में शरीर का जल मूत्र मार्ग से जाता है
और प्रदर - रोग में स्राव गर्भाशय से होता है ।
कारण :
मिथ्या
आहार एवं जीवन - यापन ,
अधिक पुरूष - सहवास , अधिक शोक , चिन्ता , भयादि , अधिक परिश्रम,
अधिक औषधि - सेवन , दस्तों की बीमारी ,
शराब आदि नशीली वस्तुओं का सेवन ।
चिकित्सा :
एक
किलो जल में 50
ग्राम फिटकिरी पीसकर डालने के बाद उसे गरम करें । जब जल 750 ग्राम रह जाये तो उतारकर थोड़ा ठंडा करलें और जब उस जल में शरीर की गर्मी
के बराबर गर्माहट रह जाये तो उससे डूश लेकर योनि मार्ग की सफाई कर डालें । डूश
सुबह - शाम दोनों समय लेना चाहिए । शेष उपचार प्रदर - रोग के उपचार की भांति ही
चलाना चाहिए ।
उपदंश
( गर्मी ) और सुजाक
इस
रोग से छुटकारा पाने के लिये धैर्य धारण करके कुछ दिनों तक निम्नलिखित उपचार चलाना
चाहिए । सफलता अवश्य मिलेगी । रोग के जड़ से जाने में 6 मास से 9 मास तक लग सकते हैं और कभी - कभी वर्षों लग
जाते हैं । उस वक्त घबड़ाकर चिकित्सा छोड़ नहीं देनी चाहिए । इन रोगों के रोगी को
बड़ी सफाई से रहना चाहिये । उसका शरीर , निवास - स्थान ,
कपड़े , बिस्तरा , तथा
खाने पीने के बर्तन आदि सभी कुछ पूर्णतः साफ और स्वच्छ रहने चाहिये । शरीर के रोगी
भाग को छूने के बाद अपने हाथों को अवश्य धो लेना चाहिए अन्यथा आंखों में गंदा हाथ
लगने से वे अंधी हो सकती है । इन रोगों में संयम से रहने की बड़ी जरूरत है । ऊषापान
करना, पूर्ण विश्राम करना , प्रातः
सायं शुद्ध वायु में टहलना और गहरी श्वास लेना , अधिक पानी
तथा नींबू का रस मिला पानी पीना आदि भी कम जरूरी नहीं है । उत्तेजक खाद्य पदार्थ ,
नशे की चीजें , धूम्रपान , जर्दा , मिर्च , मसाला ,
नमक , चीनी , मांस ,
अण्डा , मछली तथा चाय आदि इन रोगों में जहर का
काम करते हैं । अतः इनसे परहेज करना चाहिये ।
चिकित्सा :
आरम्भ
में रोग की शक्ति के अनुसार उसे 3
- 4 दिनों का उपवास या रसाहार करना चाहिये । साथ ही सुबह शाम या
केवल सुबह को पाखाना होने के बाद एनिमा लेना चाहिए । उसके बाद काफी अर्से तक फलों
या ताजी और उबली साग - सब्जियों पर रहना चाहिए । फलों में सभी मौसम्बी फल जैसे
खरबूजा , खीरा , ककड़ी , बेल , अनार , संतरा , नांरगी तथा मौसमी आदि लिए जा सकते हैं । बाद में रोटी सब्जी , अंकुरित गेहूं या चना , सलाद तथा दूध - फल आदि सादा
भोजन लेने लग जाना चाहिए । फलाहार आरम्भ करने के दिन से कमजोर रोगी को एक बार ,
पर कुछ दिनों बाद सबल होने पर दो बार रोज कटि - स्नान या मेहन स्नान
10 - 10 मिनट तक करना चाहिए , स्त्री
रोगी के लिये मेहन - स्नान अधिक लाभ करता प्रथम सप्ताह में दो बार , पर उसके बाद से सप्ताह में एक बार पूरे शरीर का भाप - स्नान , या किसी वजह से यदि यह सम्भव न हो तो केवल पेडू और आक्रान्त अंग विशेष का
भाप - स्नान जरूर लेना चाहिये । प्रतिदिन थोड़ी देर तक सुबह को धूप - स्नान लेने
के बाद स्पंज स्नान , फिर एक से दो घंटे तक गीली चादर से
पूरे शरीर को लपेट रखना चाहिए ताकि पसीना बह चले ।
उपदंश
में रोज रोगी के मेरूदण्ड पर गरम और ठंडी सेंक 5 - 5 मिनट के अन्तर से 20 - 30 मिनट तक देना बड़ा लाभ करता है , तथा साधारण स्नान
के पहले या रात को सोने से पहले समशीतोष्ण जल में कटि स्नान करना भी उपयोगी है ।
इस रोग में पीली बोतल का सूर्य - तप्त जल पहले सात दिनों तक 50 - 50 ग्राम दिन में चार - छ : बार पीना चाहिए , तत्पश्चात्
हरी बोतल का जल । तथा सादे पानी में भिगोई कपड़े की बत्ती मूत्र - मार्ग में रखकर
उस पर 15 मिनट तक हरा प्रकाश डालना चाहिए । सुजाक में सुबह
बिस्तर से उठते ही 10 ग्राम अलसी को आधा किलो पानी में
उबालें । जब एक पाव जल रह जाये तब उसे ठंडा करके पी लें । इसके अतिरिक्त इस रोग
में गहरी नीली बोतल का सूर्यतप्त जल तीन भाग तथा नारंगी रंग की बोतल का सूर्यतप्त
जल एक भाग मिलाकर 50 - 50 ग्राम दिन में चार - छ : बार पीना
बड़ा उपयोगी होता है । पेडू और लिंग पर रोज 15 मिनट हरा
प्रकाश भी डालना चाहिए । हरी बोतल के सूर्यतप्त जल की मूत्र नली में पिचकारी तथा
उसी रंग की बोतल के सूर्यतप्त तेल की आक्रान्त अंग पर प्रतिदिन एक बार मालिश बड़ी
उपयोगी होती है । रोगी अंग को दिन में 4 बार गरम पानी से
धीरे - धीरे रगड़कर धोना या उसे 10 मिनट तक गरम पानी में
कपड़ा भिगो भिगोकर सेंकना चाहिए । उसके बाद आधा घंटा के लिए पेडू और उस अंग पर तथा
गुदा तक गीली मिट्टी की पट्टी लगाना चाहिए । सुजाक के रोगी को सर्वांगासन ,
मत्स्यासन , और पश्चिमोत्तान आसन बड़ा लाभ
करते हैं । उपचार के अंत में दुग्ध - कल्प लेकर रोगी अपने स्वास्थ्य को और भी
उत्तम बना सकता है ।
हिस्टीरिया
हिस्टीरिया
रोग सेंतीस प्रकार का होता है । इसके दौरे आते हैं जो अधिकतर मासिक धर्म के दिनों
में ही आते हैं । दौरा कुछ मिनटों से लेकर 3
- 4 घंटों तक रहता है । कभी - कभी एक के बाद दूसरा दौरा भी आता है ।
हिस्टीरिया के दौरों में खास बातें ये होती हैं कि प्रथम तो दौरे जागने की हालत
में ही आते हैं , दूसरे मृगी के रोगी के समान इसके रोगी को
बिलकुल बेहोशी नहीं आती अपितु दौरे की हालत में भी चेतना बनी रहती है और न मुंह से
झाग ही निकलती है , तीसरे इस रोगिणी की मृत्यु बहुत कम होती
है । ।
कारण :
हिस्टीरिया
की रोगिणी के पेट में दर्द ,
उसमें गोला सा किसी वस्तु का उठकर छाती की ओर जाना भारीपन, गर्मी तथा खुश्की का अनुभव विशेष रूप से
करती है । दौरा आने पर वह चीखकर भूमि पर गिरकर छटपटाने लगती है , हाथ - पैर और छाती पीटने लगती है , कभी रोती है ,
कभी हंसती है , कभी लम्बी - लम्बी श्वास लेती
है , कूदती - उछलती भी है , दांतों को
जकड़ लेती है तथा अपने शरीर को संभाल नहीं सकती है । दौरा समाप्त होने को होता है
तब बेहोशी घटने लगती है , पर सिर में पीड़ा , सुस्ती और थकावट बनी रहती है तथा भूख भी गायब रहती है ।
चिकित्सा :
हिस्टीरिया
रोग की चिकित्सा आरम्भ करने से पहले इस रोग के कारणों का पता लगाकर पहले उन्हें
दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए । इस रोग से पीडित जवान लड़कियों का विवाह कर देने
से प्रायः यह रोग अच्छा हो जाता है । इसी प्रकार पुरूष - सहवास की प्रबल इच्छा
रखने वाली रोगिणी ,
पति - सहवास प्राप्त कर लेने पर हिस्टीरिया रोग से मुक्त होते देखी
गई हैं । सन्तान हो जाने पर भी स्त्रियों का यह रोग आप से आप चला जाता है । बेहोश
रोगिणी को होश में लाने के लिये ठंडे पानी के छींटे उसके चेहरे पर मारने चाहिये।
यदि मुंह बन्द हो तो उस पर धार बांधकर शीतल जल कुछ देर तक डालते रहने से मुंह खुल
जाता है । चूना और नौसादर समभाग लेकर और पानी में घोलकर सुंघाने से भी बेहाशी दूर
हो जाती है । रीढ़ के ऊपर ठंडे पानी की पट्टी देने से भी बेहोशी बहुत जल्द दूर हो
जाती है । बेहोशी दूर हो जाने के बाद एक लम्बे टब में शरीर की ताप के बराबर गरम
पानी भरकर उसमें रोगिणी को लगभग 20 - 30 मिनट तक लिटाए रखना
चाहिए । उस वक्त सिर बाहर निकला रहेगा और सिर पर ठंडे पानी से भीगी तौलिया बंधी
रहेगी । इस उपचार से बेहोशी से आई थकान शीघ्र दूर हो जाती है और उत्तेजित स्नायु
शांत हो जाते हैं । लम्बे टब के अभाव में मामूली गरम पानी से नहाने से भी काम चल
जाता है , पर सिर के ऊपर उस हालत में भी ठंडे पानी से भीगी
तौलिया का बंधा रहना आवश्यक है । यदि गरम पानी से स्नान भी सम्भव न हो तो रोगिणी के
पैरों को ही गरम पानी से भरी बाल्टियों में रखना चाहिए और सिर को ठंडे पानी से
भीगी तौलिया से लपेट रखना चाहिए । गरम पानी में पैर न भी रखा जाये तो भी सिर पर
ठंडे पानी से भीगी तौलिया रखने और उसे बार - बार बदलते रहने से लाभ होगा । उसके
बाद यदि रोगिणी पी सके तो उसे गरम पानी , गरम दूध , या हल्के गरम पानी में थोड़ा सा शहद मिलाकर पीने को देना चाहिए ।
हिस्टीरिया के रोगीको भाप - नहान भूल से भी नहीं देना चाहिए । हां , प्रतिदिन 10 मिनट तक सूर्य - स्नान करने के बाद 20
मिनट तक कटिस्नान करना चाहिए । समूचे शरीर पर , विशेषकर सिर के आगे और पीछे रोज 15 मिनट तक नीला
प्रकाश डालना भी लाभ करता है । गहरी नीली बोतल का सूर्यतप्त जल तथा आसमानी बोतल का
सूर्यतप्त जल समभाग लेकर 50 - 50 ग्राम की आठ खुराक दिन में 3
- 3 घंटे के अन्तर से देना चाहिये । तथा सिर पर विशेषकर उसके पिछले
हिस्से में आसमानी बोतल के सूर्य - तप्त तेल को मालिश 15 मिनट
तक करनी चाहिए । मिट्टी की गीली पट्टी गले के चारों तरफ और पेडू पर प्रतिदिन आध
घंटे तक लगानी चाहिए । उसके बाद यदि कब्ज हो तो गुनगुने पानी का एनिमा भी लेना
चाहिए । यदि रोगिणी की चिकित्सा के साथ - साथ रोगिणी के पति की चिकित्सा भी उसकी
कमजोरी एवं वीर्य - शुद्धि के लिए चले तो अति उत्तम हो ।
योनिद्वार
में जलन , दुर्गन्ध , खजली और पीड़ा
स्थानीय
उपचार के लिये योनि को साफ ठंडे जल में एक किलो पानी पीछे 6 ग्राम फिटकिरी , नमक या कागजी नींबू का रस मिलाकर धोना चाहिए । ऐसा करने से भी यदि खुजली न
शान्त हो तो योनि को गरम और ठंडी सेंक बारी - बारी से 15 मिनट
तक देने के बाद उस पर गीली मिट्टी की पट्टी बांध देनी चाहिए । गुनगुने पानी का
योनि मार्ग में डूस देना भी लाभ करता है । _ स्थाई लाभ के
लिये कुछ दिनों तक रसाहार तत्पश्चात फलाहार पर रहकर दोनों समय मेहन स्नान करना
चाहिए और कब्ज रहने पर एनिमा लेकर पेट को साफ रखना चाहिए ।
गर्भाशय
का अर्बुद ( केंसर )
गर्भाशय
या स्तन का अर्बुद ( कैंसर ) एक भयानक रोग है । अतः इसको जड़ से दूर करने के लिये
सर्व प्रथम 10
से 30 दिनों का उपवास या रसाहार अवश्य करना
चाहिए । उपवास विधिपूर्वक और एनिमा के साथ करना चाहिए । 3 से
5 दिनों का उपवास तो जरूर ही करना चाहिए । उपवास समाप्ति के
बाद विशुद्ध सादा और सात्विक भोजन पर रहकर प्रतिदिन शुष्क घर्षण स्नान , मेहन स्नान , श्वास , और शरीर
के अन्य व्यायाम तथा सायं - प्रातः शुद्ध वायु में टहलना चाहिए । सप्ताह में दो
बार ‘ एप्सम साल्ट - बाथ ' लेना भी इस
रोग में बड़ा लाभ करता है । गर्भाशय के अर्बुद में रोज रात के समय गरम और ठंडे
पानी का मेहन स्नान लेना चाहिए ।लेकिन ‘ एप्सम - साल्ट बाथ '
के दिन इस स्नान को बन्द रखना चाहिए । स्तन के अर्बुद में स्तन को
गरम और ठंडी सेंक देनी चाहिए । सेंक देने के बाद हल्के हाथों स्तन की मालिश करनी
चाहिए । इसके अतिरिक्त गर्भाशय के अर्बुद में सप्ताह में दो तीन दिन रात के समय
गुनगुने पानी के डूस के जरिये गर्भाशय को धोकर साफ कर देना भी जरूरी है । मासिक धर्म के दिनों में सभी उपचार बन्द कर शरीर को पूर्ण विश्राम देना
चाहिए ।
डिम्बाशय
एवं जरायु - प्रदाह
लक्षण :
इस
रोग में शुरू - शुरू में गर्भाशय - ग्रीवा आक्रान्त होती है । बाद में रोग धीरे -
धीरे बढ़कर पूरे गर्भाशय को घेर लेता है जिससे वह फूल जाता है और उसमें दर्द और
जलन होने लगती है । साथ ही श्लेष्मा मिश्रित रक्त स्राव होने लगता है । इसके
अतिरिक्त पेडू में भारीपन का अनुभव होता है ,
थकावट सी मालूम होने लगती है सिर घूमता है , कभी
- कभी कंपकंपी आकर ज्वर हो जाता है तथा रोग की बढ़ी हुई अवस्था में योनि से बदबू
आती है और उससे बदबूदार स्राव होने लगता है । और कभी - कभी रोग सड़ने वाले जख्म का
रूप धारणकर लेता है ।
कारण :
कब्ज
, कृमि ,
अधिक पुरूष - सहवास , नकली मैथुन तथा ऋतु
विकार आदि इस रोग के प्रधान कारण हैं ।
चिकित्सा :
रोग
निवारण के लिये रोज कम से कम एक बार गरम और ठंडे जल का डूस बारी - बारी से देना
चाहिए । दर्द की जगह गरम और ठंडी सेंक देनी चाहिए । पेडू पर गीली मिट्टी की पट्टी
भी जरूर देना चाहिए तथा सुबह - शाम मेहन या कटि स्नान लेना चाहिए । भोजन में फल , कच्ची - पक्की साग - सब्जी ,
मट्ठा , दही तथा प्राकृतिक खाद्य लेने चाहिए ।
हल्का व्यायाम , स्वच्छ वायु में टहलना तथा श्वास की कसरतें
इस रोग में भी बड़ी लाभकारी हैं ।
कुछ
अन्य योनि - दोष
कुछ
स्त्रियों का जननेन्द्रिय मुख स्वभावतः इतना छोटा और संकीर्ण होता है कि सहवास के
समय उन्हें बड़ा कष्ट भोगना पड़ता है । कभी - कभी तो वे बेहोश तक हो जाती है और
कभी - कभी सहवास असम्भव होने के कारण उनकी बड़ी दुर्दशा हो जाती है । स्त्रियों
में यह दोष उनकी माताओं के मिथ्या आहार - विहार के कारण होता है । ऐसी योनि ।
सूचिवक्रा योनि कहलाती है ।कई बच्चे हो जाने के कारण कितनी ही स्त्रियों की योनि
अनावश्यक रूप से फैल जाती है जिसे महता - योनि कहते कुछ स्त्रियों की योनि से
पुरूष सहवास के समय असाधारण रूप से पानी निकला करता है जिसमें कभी - कभी बदबू भी
होती है । प्रसव के बाद दो तीन मास के भीतर पुरूष सहवास करने लग जाने से यह दशा हो
जाती है । ऐसी योनि त्रिमुखा योनि कहलाती है । कुछ स्त्रियों को पुरूष - सहवास से
तृप्ति ही नहीं होती । ऐसी स्त्रियों की योनि को अत्यानन्दा कहा गया है । यह
अवस्था कभी - कभी पति की इज्जत और स्वास्थ्य दोनों परपानी फेर देती है । _ कुछ स्त्रियां सहवास के समय
पुरूष से पहले ही स्खलित हो जाती हैं । ऐसी योनि आनन्दचरणा योनि कहलाती हैं तथा
कुछ पुरूष के स्खलित होने के बहुत बाद स्खलित होती हैं जिनकी योनि को अतिचरणा योनि
कहते - उपर्युक्त सभी प्रकार के योनि - दोष के लिये उपवास , रसाहार
, फलाहार , एनिमा , संयम , वायु सेवन , प्रतिदिन
गरम पानी के टब में कुछ देर तक बैठना तथा दिन में कम से कम दो बार मेहन या कटि
स्नान लेना बड़े लाभकारी हैं।