स्त्री रोग विज्ञान (Gynaccology), चिकित्साविज्ञान की वह शाखा है जो केवल स्त्रियों से संबंधित विशेष रोगों, अर्थात् उनके विशेष रचना अंगों से संबंधित रोगों एवं उनकी चिकित्सा विषय का समावेश करती है। स्त्री-रोग विज्ञान, एक महिला की प्रजनन प्रणाली (गर्भाशय, योनि और अंडाशय) के स्वास्थ्य हेतु अर्जित की गयी शल्यक (सर्जिकल) विशेषज्ञता को संदर्भित करता है। मूलतः यह 'महिलाओं की विज्ञान' का है। आजकल लगभग सभी आधुनिक स्त्री-रोग विशेषज्ञ, प्रसूति विशेषज्ञ भी होते हैं।
परिचय
स्त्री के प्रजननांगों को दो
वर्ग में विभाजित किया जा सकता है (1)
बाह्य और (2) आंतरिक।
बाह्य प्रजननांगों में भग (Vulva)
तथा योनि (Vagina)
का अंतर्भाव होता है।
प्रजननांगों में से अधिकतम की
अभिवृद्धि म्यूलरी वाहिनी (Mullerian
duct) से होती है। म्यूलरी वाहिनी भ्रूण की उदर गुहा एवं
श्रोणिगुहा भित्ति के पश्चपार्श्वीय भाग में ऊपर से नीचे की ओर गुजरती है तथा
इनमें मध्यवर्ती, वुल्फियन
पिंड एवं नलिकाएँ होती हैं,
जिनके युवा स्त्री में अवशेष मिलते हैं।
वुल्फियन नलिकाओं से अंदर की ओर
दो उपकला ऊतकों से निर्मित रेखाएँ प्रकट होती हैं यही प्राथमिक जनन रेखा है जिससे
भविष्य में डिंबग्रंथियों का निर्माण होता है।
प्रजननांग
संस्थान का शरीर क्रिया विज्ञान
एक स्त्री की प्रजनन आयु अर्थात्
यौवनागमन से रजोनिवृत्ति तक,
लगभग 30
वर्ष होती है। इस संस्थान की क्रियाओं का अध्ययन करने में हमें विशेषत: दो
प्रक्रियाओं पर विशेष ध्यान देना होता है :
(क)
बीजोत्पत्ति तथा (ख) मासिक रज:स्रवण।
बीजोत्पत्ति का अधिक संबंध
बीजग्रंथियों से है तथा रज:स्रवण का अधिक संबंध गर्भाशय से है परंतु दोनों कार्य
एक दूसरे से संबद्ध तथा एक दूसरे पर पूर्ण निर्भर करते हैं। बीजग्रंथि
(डिंबग्रंथि) का मुख्य कार्य है,
ऐसे बीज की उत्पत्ति करना है जो पूर्ण कार्यक्षम तथा गर्भाधान योग्य हों।
बीजग्रंथि स्त्री के मानसिक और शारीरिक अभिवृधि के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होती है
तथा गर्भाशय एवं अन्य जननांगों की प्राकृतिक वृद्धि एवं कार्यक्षमता के लिए भी
उत्तरदायी होती है।
बीजोत्पत्ति का पूरा प्रक्रम
शरीर की कई हारमोन ग्रंथियों से नियंत्रित रहता है तथा उनके हारमोन (Harmone) प्रकृति एवं
क्रिया पर निर्भर करते हैं। अग्रयीयूष ग्रंथि को नियंत्रक कहा जाता है।
गर्भाशय से प्रति 28 दिन पर
होनेवाले श्लेष्मा एवं रक्तस्राव को मासिक रज:स्राव कहते हैं। यह रज:स्राव यौवनागमन
से रजोनिवृत्ति तक प्रतिमास होता है। केवल गर्भावस्था में नहीं होता है तथा प्राय:
धात्री अवस्था में भी नहीं होता है। प्रथम रज:स्राव को रजोदय अथवा (menarche) कहते हैं तथा
इसके होने पर यह माना जाता है कि अब कन्या गर्भधारण योग्य हो गई है तथा यह प्राय:
यौवनागमन के समय अर्थात् 13 से 15 वर्ष के वय
में होता है। पैंतालीस से पचास वर्ष के वय में रज:स्राव एकाएक अथवा धीरे-धीरे बंद
हो जाता है। इसे ही रजोनिवृत्ति कहते हैं। ये दोनों समय स्त्री के जीवन के
परिवर्तनकाल हैं।
प्राकृतिक रज:चक्र प्राय: 28 दिन का होता
है तथा रज:दर्शन के प्रथम दिन से गिना जाता है। यह एक रज:स्राव काल से दूसरे
रज:स्राव काल तक का समय है। रज:चक्र के काल में गर्भाशय अंत:कला में जो परिवर्तन
होते हैं उन्हें चार अवस्थाओं में विभाजित कर सकते हैं (1) वृद्धिकाल, (2) गर्भाधान
पूर्वकाल, (3) रज:
स्रावकाल तथा (4) पुनर्निर्माण
काल
(1)
वृद्धिकाल : रज:स्राव के समाप्त होने पर
गर्भाशय कला के पुन: निर्मित हो जाने पर यह गर्भाशयकला वृद्धिकाल प्रारंभ होता है
तथा अंडोत्सर्ग (ovulation)
तक रहता है। अंडोत्सर्ग (जीवग्रथि से अंडोत्सर्ग) मासिक रज:स्राव के प्रारंभ
होने के पंद्रहवें दिन होती है। इस काल में गर्भाशय अंत:कला धीरे धीरे मोटी होती
जाती है तथा डिंबग्रंथि में डिंबनिर्माण प्रारंभ हो जाता है। डिंबग्रंथि के
अंत:स्राव ओस्ट्रोजेन की मात्रा बढ़ती है क्योंकि ग्रेफियन फालिकल वृद्धि करता है।
गर्भाशय अंत:कला ओस्ट्रोजेन के प्रभाव में इस काल में 4-5 मिमी तक
मोटी हो जाती है।
(2)
गर्भाधान पूर्वकाल : इस अवस्था
के पश्चात् स्राविक या गर्भाधान पूर्वकाल प्रारंभ होता है तथा 15 दिन तक रहता
है अर्थात् रज:स्राव प्रारंभ होने तक रहता है। रज:स्राव के पंद्रहवें दिन
डिंबग्रंथि से अंडोत्सर्ग (ovulation)
होने पर पीत पिंड (Corpus
Luteum) बनता है तथा इसके द्वारा मिर्मित स्रावों (प्रोजेस्ट्रान)
तथा ओस्ट्रोजेन के प्रभाव के अंतर्गत गर्भाशय अंत:कला में परिवर्तन होते रहते हैं।
यह गर्भाशय अंत:कला अंततोगत्वा पतनिका (decidua)
में परिवर्तित होती है जो कि गर्भावस्था की अंत:कला कही जाती है। ये परिवर्तन
इस रज:चक्र के 28 दिन
तक पूरे हो जाते हैं तथा रज:स्राव होने से पूर्व मर्भाशय अंत:कला की मोटाई 6.7 मिमी होती
है।
(3)
रज: स्रावकाल : रज:स्रावकाल 4-5 दिन का होता
है। इसमें गर्भाशय अंत:कला की बाहरी सतह टूटती है और रक्त एवं श्लेष्मा का स्राव
होता है। जब रज:स्रावपूर्व होनेवाले परिवर्तन पूरे हो चुकते हैं तब गर्भाशय
अंत:कला का अपजनन प्रारंभ होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस अंत:कला का
बाह्य स्तर तथा मध्य स्तर ही इन अंत:स्रावों से प्रभावित होते हैं तथा गहन स्तर या
अंत:स्तर अप्राभावित रहते हैं। इस तरह से रज:स्राव में रक्त, श्लेष्मा
इपीथीलियम कोशिकाएँ तथा स्ट्रोमा (stroma)
केशिकाएँ रहती हैं। यह रक्त जमता नहीं है। रक्त की मात्रा 4 से 8 औंस तक
प्राकृतिक मानी जाती है।
(4)
पुनर्निर्माणकाल : पुन: जनन या
निर्माण का कार्य तब प्रारंभ होता है जब रज:स्रवण की प्रक्रिया द्वारा गर्भाशय
अंत:कला का अप्रजनन होकर उसकी मोटाई घट जाती है। पुन: जनन अंत:कला के गंभीर स्तर
से प्रारंभ होता है तथा अंत:कला वृद्धिकाल के समान दिखाई देता है।
रज:स्राव
के विकार
(१)
अडिंभी (anouhlar)
रज:स्राव - इस विकार में स्वाभाविक
रज:स्राव होता रहता है,
परंतु स्त्री बंध्या होती है।
(२)
रुद्धार्तव (Amehoryboea)- स्त्री के प्रजननकाल अर्थात्
यौवनागमन (Puberty)
से रजोनिवृत्ति तक के समय में रज:स्राव का अभाव होने को रुद्धार्तव कहते हैं।
यह प्राथमिक एवं द्वितीयक दो प्रकार का होता है। प्राथमिक रुद्धार्तव में प्रारंभ
से ही रुद्धार्तव रहता है जैसे गर्भाशय की अनुपस्थिति में होता है। द्वितीयक में
एक बार रज:स्राव होने के पश्चात् किसी विकार के कारण बंद होता है। इसका वर्गीकरण
प्राकृतिक एवं वैकारिक भी किया जाता है। गर्भिणी, प्रसूता,
स्तन्यकाल तथा यौवनागमन के पूर्व तथा रजो:निवृत्ति के पश्चात् पाया जानेवाला
रुद्धार्तव प्राकृतिक होता है। गर्भधारण का सर्वप्रथम लक्षण रुद्धार्तव है।
(३)
हीनार्तव (Hypomenorrhoea)
तथा स्वल्पार्तव (oligomenorrhoea) - हीनार्तव में मासिक (menstrual
cycle) रज:चक्र का समय बढ़ जाता है तथा अनियमित हो जाता है।
स्वल्पार्तव में रज:स्राव का काल तथा उसकी मात्रा कम हो जाती है।
(४)
ऋतुकालीन अत्यार्तव (Menorrhagia) - रज:स्राव के
काल में अत्यधिक मात्रा में रज:स्राव होना।
(५)
अऋतुकाली अत्यार्तव (Metrorrhagia) - दो
रज:स्रावकाल के बीच बीच में रक्त:स्राव का होना।
(६)
कष्टार्तव - (Dysmenorrhoea) - इसमें
अतिस्राव के साथ वेदना बहुत होती है।
(७)
श्वेत प्रदर (Leucorrhoea)
- योनि
से श्वेत या पीत श्वेत स्राव के आने को कहते हैं। इसमें रक्त या पूय या पूय नहीं
होना चाहिए।
(८)
बहुलार्तव (Polymenorrhoea)
- इसमें
रज:चक्र 28 दिन
की जगह कम समय में होता है जैसे 21 दिन
का अर्थात् स्त्री को रज:स्राव शीघ्र शीघ्र होने लगता है। अंडोत्सर्ग (ovulation) भी शीघ्र
होने लगता है।
(९)
वैकारिक आर्तव (Metropathia
Haemorrhagica) - यह एक अनियमित,
अत्यधिक रज:स्राव की स्थिति होती है।
(१०)
कानीय रजोदर्शन - निश्चित वय या काल से पूर्व ही रजस्राव के होने को कहते हैं
तथा इसी प्रकार के यौवनागमन को कानीय यौवनागमन कहते हैं।
(११)
अप्राकृतिक आर्तव क्षय - निश्चित वय या काल से बहुत पूर्व तथा आर्तव विकार के साथ
आर्तव क्षय को कहते हैं। प्राकृतिक क्षय चक्र की अवधि बढ़कर या मात्रा कम होकर
धीरे धीरे होता है।
प्रजननांगों
के सहज विकार
(1)
बीजग्रंथियाँ - ग्रंथियों की रुद्ध वृद्धि (Hypoplasea) पूर्ण अभाव
आदि विकार बहुत कम उपलब्ध होते हैं। कभी-कभी अंडग्रंथि तथा बीजग्रंथि सम्मिलित
उपस्थित रहती है तथा उसे अंडवृषण (ovotesties)
कहते हैं।
(2)
बीजवाहिनियाँ - इनका पूर्ण अभाव, आंशिक वृद्धि, तथा इनका
अंधवर्ध (diverticulum)
आदि विकार पाए जाते हैं।
(3)
गर्भाशय - इस अंग का पूर्ण अभाव कदाचित् ही
होता है, गर्भाशय में दो शृंग, एवं दो ग्रीवा होती है तथा दो योनि होती हैं अर्थात् दोनों
म्यूलरी वाहिनी परस्पर विगल-विगल रहकर वृद्धि करती है। इसे डाइडेलफिस (didelphys) गर्भाशय कहते
हैं।
इस तरह वह अवस्था जिसमें म्यूलरी
वाहिनियाँ परस्पर विलग रहती हैं परंतु ग्रीवा योनिसंधि पर संयोजक ऊतक द्वारा
संयुक्त होती है उसे कूट डाइडेल फिस कहते हैं। कभी गर्भाशय में दो शृंग होते हैं
जो एक गर्भाशय ग्रीवा में खुलते हैं।
कभी गर्भाशय स्वाभाविक दिखाई
देता है परंतु उसकी तथा ग्रीवा की गुहा,
पट द्वारा विभाजित रहती है। यह पट पूर्ण तथा अपूर्ण हो सकता है।
कभी कभी छोटी छोटी
अस्वाभाविकताएँ गर्भाशय में पाई जाती हैं जैसे शृंग का एक ओर झुकना, गर्भाशय का
पिचका होना आदि।
शैशविक आकार आयतन का गर्भाशय
युवावस्था में पाया जाता है क्योंकि जन्म के समय से ही उसकी वृद्धि रुक जाती है।
अल्पविकसित गर्भाशय में गर्भाशय
शरीर छोटा तथा ग्रेवेय ग्रीवा लंबी होती है।
(4)
गर्भाशय ग्रीवा –
(क) ग्रीवा के बाह्य एवं अंत:मुख
का बंद होना।
(ख) योनिगत ग्रीवा का सहज अतिलंब
होना एवं भग तक पहुँचना।
(5)
योनि - योनि कदाचित् ही पूर्ण लुप्त होती है। योनिछिद्र का लोप
पूर्ण अथवा अपूर्ण, पट
द्वारा योनि का लंबाई में विभाजन आदि प्राय: मिलते हैं। इसमें अत्यधिक पाए
जानेवाले सहज विकारों में योनिच्छद का पूर्ण अछिद्रित होना या चलनी रूप छिद्रित
होना होता है।
जननांगों
के आघातज विकार एवं अगविस्थापन
(1)
मूलाधार (Perineaum)
तथा भग के विकार - साधारणतया
प्रसव में इनमें विदर हो जाती है तथा कभी कभी प्रथम संयोग से, आघात से तथा
कंडु से भी विदरव्रण बन जाते हैं।
(2)
योनि के विकार - गिरने से, प्रथम संभोग
से, प्रसव
से, यंत्रप्रवेश
से, पेसेरी
से ये आघातज विकार होते हैं। इसी तरह प्रसव से योनि गुदा तथा मूत्राशय योनि भगंदर
उत्पन्न होते हैं।
(3)
गर्भाशय ग्रीवा विकार - ग्रीवाविदर
प्राय: प्रसव से उत्पन्न होता है।
(4)
गर्भाशय एवं सह अंगों के विकार - प्राय: ये
विकार कम होते हैं। गर्भाशय में छिद्र शल्यकर्म अथवा गर्भपात में यंत्रप्रयोग से
होता है।
(5)
गर्भाशय का विस्थापन (displacement)
·
गर्भाशय का अति अग्रनमन (anteversion) होना अथवा पश्चनति (Retroversion) होना।
·
योनि के अक्ष से गर्भाशय अक्ष के संबंध का विकृत होना
अर्थात् दोनों अक्षों का एक रेखा में होना अथवा प्रत्यग्वक्र (Retroflexion) होना।
·
श्रोणिगुहा में गर्भाशय की स्थिति की जो प्राकृत सतह है
उससे ऊपर या नीचे स्थित होना या भ्रंश (Prolapse)
होना।
·
गर्भाशय भित्तियों का उसकी गुहा में लटकना या विपर्यय (Inversion) होना।
प्रजननांगों
के उपसर्ग
प्रजनांगों में कवक (fungal), जीवाणु (bacterial), विषाणु (viral) या
प्रोटोजोवा (protozoal)
के कारण इन्फेक्शन हो सकता है।
भग
के उपसर्ग
(1)
भग के विशिष्ट उपसर्ग - तीव्र भगशोथ, बार्थोलियन
ग्रंथिशोथ गोनॉरिया में होते हैं। डुक्रे के जीवाणुओं द्वारा भग में मृदुव्रण
उत्पन्न होता है। इसी प्रकार के यक्ष्मा एवं फिरंगज व्रण भी भग पर पाए जाते हैं।
(2)
द्वैतीयिक भगशोथ - मधुमेह, पूयमेह, मूत्रस्राव
कृमि एवं अर्श आदि में व्रण उत्पन्न होते हैं जिनसे यह शोथ होता है।
(3)
प्राथमिक त्वक्विकार - पिडिकाएँ, हरपिस आदि
त्वक्विकार भगत्वक् में भी होता है।
(4)
विशिष्ट प्रकार के भगशोथ -
भग परिगलन (gangrene) यह मीसल्स, प्रसूतिज्वर
अथवा रतिजन्य रोगों में होता है।
केचेट का
लक्षण - यह मासिक स्रव पूर्व दिनों में होता है। इसमें मुखपाक, नेत्र-श्लेष्मा-शोथ
सहलक्षण रूप में होता है।
अप्थस भगशोथ
(apthous) - इसमें भग का
थ्रस (Thrush) रूपी
उपसर्ग होता है।
दूरी सेपलास
भग - रक्त लाई स्ट्रेप्टोकोकस के उपसर्ग से भगशोथ होता है।
भग योनिशोथ
(बालिकाओं में) - यह स्वच्छता के अभाव में अस्वच्छ तौलियों के प्रयोग से
होनेवाले गोनोकोकस उपसर्ग से तथा मैथुनप्रयत्न से होता है।
(5) भग के चिरकालिक विशेष रोग -
भग का ल्युकोप्लेकिआ (leucoplakia) - भग
त्वचा का यह एक विशेष शोथ रजोनिवृत्ति के पश्चात् हो सकता है।
क्राराउसिस (krarausis) भग -
बीजग्रंथियों की अकर्मण्यता होने पर यह भगशोष उत्पन्न होता है।
योनि
के उपसर्ग
यों तो कोई भी जीवाणु या वाइरस
का उपसर्ग योनि में हो सकता है तथा योनिशोथ पैदा हो सकता है परंतु बीकोलाई, डिप्थेराइड, स्टेफिलोकोकस, स्ट्रप्टोकोकस, ट्रिकनामस
मोनिला (श्वेत) का उपसर्ग अधिकतर होता है।
(1)
बाल योनिशोथ - इसमें उपसर्ग के साथ साथ
अंत:स्राविक कारक भी सहयोगी होता है।
(2)
द्वितीयक योनिशोथ - पेसेरी के
आघात, तीव्र
पूतिरोधक द्रव्यों से योनिप्रक्षालन,
गर्भनिरोधक रसायन,
गर्भाशय ग्रीवा से चिरकालिक औपसर्गिक स्राव आदि के पश्चात् होनेवाले योनिशोथ।
(3)
प्रसवपश्चात् योनिशोथ - कठिन
प्रसवजन्य विदार इत्यादि तथा आस्ट्रोजेन के प्रभाव को कुछ समय के लिए हटा लेने से
बीजोत्सर्ग न होने से होता है।
(4)
वृद्धत्वजन्य योनिशोथ - यह केवल
वृद्धयोनि का शोथ है।
गर्भाशय
के उपसर्ग
यह ऊर्ध्वगामी तथा अध:गामी दोनों
प्रकार का होता है। प्रसव,
गर्भपात, गोनोरिया, गर्भाशयभ्रंश, यक्ष्मा, अर्बुद, ग्रीवा का
विस्फोट आदि के पश्चात् प्राय: उपद्रव रूप उपसर्ग होता है।
गर्भाशयशोथ -
आधारीय स्तर में चिरकालिक शोथ से परिवर्तन होते हैं परंतु
प्राय: इनके साथ गर्भाशय पेशी में भी ये चिरकालिक शोथपरिवर्तन होते हैं। यह शोथ
तीव्र, अनुतीव्र
चिरकालिक वर्ग में तथा यक्ष्मज और वृद्धताजन्य में विभाजित होता है।
बीजवाहिनियों
तथा बीजग्रंथियों के उपसर्ग
बीजवाहिनी
बीजग्रंथि शोथ - इसके अंतर्गत बीजवाहिनी बीजग्रंथि तथा श्रोणिकला के
जीवाणुओं द्वारा होनेवाले उपसर्ग आते हैं। यह उपसर्ग प्राय: नीचे योनि से ऊपर जाता
है परंतु यक्ष्मज बीजवाहिनी शोथ प्राय: श्रोणिकला से प्रारंभ होता है अथवा रक्त
द्वारा लाया जाता है।
प्रजनन
अंगों के अर्बुद (tumours)
इसके अंतर्गत नियोप्लास्म (neoplasm) के अलावा
अन्य अर्बुद भी वर्णित किए जाते हैं।
भगयोनि
के अर्बुद
(क)
भग के अर्बुद -
(अ)
भगशिश्न की अतिपुष्टि - यह प्राय: सहज होती है। हस्तमैथुन, बीजग्रंथि
अर्बुद, चिरकालिक
उपसर्ग तथा अधिवृक्क ग्रंथि के रोगों में यह रोग उपद्रव स्वरूप होता है।
(आ)
लघु भगोष्ठ की अतिपुष्टि - यह प्राय: सहज होती है परंतु चिरकालिक उत्तेजनाओं से भी
होती है।
(इ)
पुटियुक्त शोथ (cystic
swelling) - इसके
अंतर्गत (1) बार्थोलियन
पुटी, (2) नक (nuck) नलिका
हाइड्रोपील, (3) इंडोमेट्रियोमाटा
तथा (4) भगोष्ठों
के एवं भगशिश्निका के सिस् आते हैं।
(ई)
रक्तवाहिकामय शोथ - भग की शिराओं का फूलना तथा भग में रक्तसंग्रह (haematoma) आदि
साधारणतया मिलता है।
(उ)
वास्तविक अर्बुद -
(1)
अघातक -
·
फ्राइब्रोमाटा (छोटा,
कड़ा तथा पीड़ारहित)
·
पेपिलोमाटा (प्राय: अकेला वटि के समान होता है)
·
लापोमाटा (अध:त्वक् में प्रारंभ होता है।)
·
हाइड्रेडिनोमा (स्वेदग्रंथि का अर्बुद)
(2)
घातक -
·
करसिनोमा भग,
·
एडिनो कारसिनोमा (बार्थोलियन ग्रंथि से प्रारंभ होता है)।
(3)
विशिष्ट -
·
वेसल कोशिका कार्सिनोमा (रोडांडवृण)
·
इपीथीलियल अंत:कारसिनोमा
·
बी एन का रोग
·
घातक मेलिनोमा
·
पेगेट का रोग
·
सारकोमा
·
द्वितीयक कोरियन इपिथोलियमा
योनि के
अर्बुद -
·
गार्टनर नलिका का सिस्ट
·
इनक्लूजन सिस्ट (शल्यकर्म के द्वारा इपीथीलियम को
अंत:प्रविष्ट करने से बनता है)।
·
वास्तविक अर्बुद -
अघातक -
·
पाइब्रोमा (गोल,
कठिन, चल)
·
पेपिलोमाटा
घातक -
·
कार्सिनोमा (प्राथमिक,
द्वितीयक)
·
सारकोमा
गर्भाशय के
अर्बुद
गर्भाशय के अघातक अर्बुद पेशी से
या अंत:कला से उत्पन्न होते हैं अथवा गर्भाशय तंतु पेशी से उत्पन्न होते हैं।
(अ)
फाइब्रोमायोमाटा - ये अचल,
धीरे-धीरे बढ़नेवाले तथा गर्भाशय पेशी में स्थित आवरण से युक्त होते हैं। ये
गर्भाशयशरीर में प्राय: होते हैं,
कभी कभी अर्बुद गर्भाशयग्रीवा में भी पाए जाते हैं। गर्भाशय में तीन प्रकार के
होते हैं-
(क)
पेरीटोनियम के नीचे (ख) पेशी के अंतर्गत और (ग) अंत:कला के नीचे।
(आ)
गर्भाशय पालिपस - ये अधिकतर पाए जाते हैं। ग्रीवा एवं शरीर दोनों में होते
हैं।
शरीर में : एडिनोमेटस, फाइब्राइड, अपरा के
कार्सिनोमा एवं सार्कोनाम। ग्रीवा में-अत:कला के फाइब्राइड, कार्सिनोमा, सार्कोमा, गर्भाशय के
घातक अर्बुद, इपीथीलियल
कोशिकाओं से उत्पन्न होते हैं। अत: कार्सिनोमा तथा सारकोमा से अधिक पाए जाते हैं।
बीजग्रंथि के
अर्बुद
इनमें होनेवाली पुटि (सिस्ट) तथा
अर्बुद का वर्गीकरण करना कठिन होता है क्योंकि उन कोशिकाओं का जिनसे ये उत्पन्न
होते हैं विनिश्चय करना कठिन होता है।
(अ)
फालिक्यूलर सिस्टम के सिस्ट - फालिक्यूलर सिस्ट, पीतपिंड सिस्ट,
थीकाल्यूटीन सिस्ट।
(आ)
इपीथीलयम अर्बुद
घातक
·
साधारण सीरस
·
पेपेलरी सिरस सिस्ट एडिनोमा
·
कूट म्यूसीन सिस्ट एडिनोमा
·
गर्भाशयिक विस्तृत स्नायु बीजग्रंथि सिस्ट
अघातक
·
कार्सिनोमा प्राथमिक
·
कार्सिनोमा द्वितीयक