आर्थराइटिस रोग का सामान्य परिचय
आर्थराइटिस अँग्रेजी भाषा का
शब्द है इस शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा से हुई है। शाब्दिक अर्थ में वह रोग
जिसमें जोडों अथवा सन्धियों में सूजन उत्पन्न होती है, आर्थराइटिस
कहलाता है। आर्थराइटिस आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में प्रयुक्त होने वाला शब्द है
जबकि प्राचीन काल से हिन्दी भाषा में सन्धि शोथ के नाम इस रोग को वर्णित किया गया
है। आयुर्वेद शास्त्र में आर्थराइटिस रोग के लिए आमवात शब्द का वर्णन प्राप्त होता
है। आयुर्वेद शास्त्र के विभिन्न ग्रन्थों में आमवात रोग का सविस्तार वर्णन
प्राप्त होता है जो लक्षणों एवं कारणों के स्तर पर आर्थराइटिस रोग से मूल समानता
रखता है।
इस रोग का प्रारम्भ जोड़ों में
सूजन के साथ होता है,
जोड़ों में सूजन के साथ जोड़ लाल होने लगते हैं एवं इन जोड़ों में सुई सी चुभन
उत्पन्न होने लगती है। यही आगे चलकर गठिया में एवं गठिया आगे चलकर आर्थराइटिस रोग
में परिवर्तित हो जाता है। आर्थराइटिस रोग के अलग अलग लक्षण प्रकट होते हैं। इन
लक्षणों के आधार पर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में आर्थराइटिस रोग के सौ से भी अधिक
प्रकारों को वर्णित किया गया है। आर्थराइटिस रोग के इन प्रकारों में सबसे अधिक
व्यापक रुमेटोयड आर्थराइटिस (आमवातिक संधिशोथ) है। इसके अतिरिक्त आस्टियो
आर्थराइटिस, सेप्टिक
आर्थराइटिस, सोरियाटिक
आर्थराइटिस तथा रिएक्टिव आर्थराइटिस भी आर्थराइटिस रोग के अन्य प्रकार या वर्ग हैं।
आर्थराइटिस
के कारण
आर्थराइटिस जोडों से सम्बन्धित
रोग है जिसे सामान्य भाषा में गठिया के नाम से जाना जाता है। वर्तमान समय में यह
रोग बहुत तेजी से समाज में बढ रहा है। दिल्ली में एम्स के एक अनुमान के अनुसार
भारत वर्ष में हर छह में से एक व्यक्ति आर्थराइटिस रोग से ग्रस्त है। आर्थराइटिस
रोग की व्यापकता को जानने के उपरान्त अब आपके मन में यह प्रश्न उपस्थित होना
स्वाभाविक ही है कि किन कारणों से यह रोग उत्पन्न होता है एवं कौन कौन से कारक इस
रोग को बढाते हैं, अतः
अब हम आर्थराइटिस रोग के कारणों पर विचार करते हैं -
(1)
ज्यादा देर तक बैठ कर काम करना: ज्यादा देर
तक एक स्थान पर एक स्थिति अथवा एक मुद्रा में बैठ कर काम करना आर्थराइटिस रोग का
सबसे प्रमुख कारण है। अधिक समय तक शरीर के जोडों में गतिहीनता बने रहने से रक्त
संचार बाधित होने लगता है। यह रक्त संचार में बाधा ही आर्थराइटिस रोग का मूल कारण
है।
अधिक देर तक एक स्थिति में बैठकर
कार्य करने से जब जोडों में रक्त संचार रुकने लगता है तब जोडों में सूजन के साथ
वेदना उत्पन्न होने लगती है जो आगे चलकर आर्थराइटिस रोग का रुप ग्रहण कर लेती है।
इस प्रकार अधिक समय तक एक स्थिति में बैठकर आॅफिस में कार्य करना, कम्प्यूटर आपरेट
करना, टी0 वी0 देखना अथवा
अन्य कार्य करने से यह रोग जन्म लेता है।
(2)
कम चलना अथवा कम घूमना: प्रतिदिन
पैदल चलना जोडों की गतिशीलता के लिए अथवा शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए एक
महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य व्यायाम है। आधुनिक समय में जब मनुष्य ने समय बचाने के
लिए पैदल चलने के स्थान पर मोटर बाईक अथवा मोटर कारों का अधिकाधिक प्रयोग करना
प्रारम्भ किया वैसे वैसे ही जोडों में शिथिलता एवं जकडन रहनी प्रारम्भ हो गयी।
इसके साथ साथ प्रातःकालीन भ्रमण के अभाव ने भी जोडों में शिथिलता उत्पन्न करने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जोडों की यह शिथिलता एवं जकडन आगे चलकर आर्थराइटिस
रोग को जन्म देती है।
(3)
विकृत आहार का सेवन: आहार का
हमारे शरीर एवं स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पडता है। शुद्ध सात्विक पौषक तत्वों से
परिपूर्ण आहार करने से जहां व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक रुप से स्वस्थ रहता है तो
वही इसके विपरित पौषक तत्वों से विहीन तामसिक आहार करने से शरीर में अनेक प्रकार
के रोग उत्पन्न होते हैं। विशेष रुप से जंक फूड जैसे पैप्सी एवं कोक आदि कोल्ड ड्रिंक्स
का अधिक सेवन करने से अस्थियों एवं जोडों पर नकारात्मक प्रभाव पडता है एवं यही से
आर्थराइटिस रोग का प्रारम्भ होने लगता है।
वातवर्धक आहार जैसे चावल, उदड की दाल, फूलगोभी, पत्तागोभी, पालक, चीनी, खट्टी दही
एवं बासी आहार के अधिक सेवन से यह रोग तेजी से शरीर को जकड़ लेता है। मांसाहारी
आहार का सेवन भी है, जो आर्थराइटिस रोग की उत्पत्ति का प्रमुख
कारण है।
(4)
मोटापा: मोटापा आर्थराइटिस रोग का एक प्रमुख कारण है। शरीर में
मोटापा बढने से अस्थियों तथा जोडों पर दबाव बढता है जिस कारण अस्थियों एवं जोडों
में विकृतियां उत्पन्न होती है और इन्ही विकृतियों के कारण जोडों में दर्द एवं
सूजन प्रारम्भ हो जाती है,
यह जोडों में दर्द एवं सूजन आगे चलकर आर्थराइटिस रोग का रुप ग्रहण कर लेती है।
(5)
चोट एवं ठण्डा मौसम : चोट आदि के
कारण जोडों में उपस्थित कार्टिलेज के घिसने अथवा टूटने के कारण जोडों में दर्द एवं
सूजन उत्पन्न होती है। ठण्ड के मौसम में रक्तवाहिनीयों में सिकुडन उत्पन्न हो जाती
है, रक्त
वाहिनीयों में सिकुडन होने से रक्त संचार कम अथवा बाधित हो जाता है। इसके परिणाम
स्वरुप ठण्ड के मौसम में जोडों में दर्द एवं सूजन और अधिक बढ जाती है। जोडों पर
ठण्डी हवा लगने से भी इस रोग का प्रकोप और अधिक बढ़ जाता है।
(6)
शरीर प्रतिरक्षा तंत्र की विकृति: हमारे शरीर
का प्रतिरक्षा तंत्र प्रोटीन,
बायोकेमिकल्स एवं अन्य कोशिकाओं से मिलकर बना होता है जो शरीर को बहारी चोटों, बैक्टीरिया, बायरस एवं
अन्य रोगाणुओं से सुरक्षा प्रदान करने का कार्य करता है लेकिन कभी-कभी यह
प्रतिरक्षा तंत्र गलती से शरीर में उपस्थित आवश्यक एवं लाभकारी प्रोटीन्स को ही
नष्ट करना प्रारम्भ कर देता है,
शरीर की इन अनोखी बिमारी को चिकित्सक आटो-इम्यून डिजीज का नाम देते है। रुमेटायड
आर्थराइटिस एक इसी प्रकार की आटो-इम्यून डिजीज है जिसमें जोडों में विकृतियां
उत्पन्न हो जाती हैं एवं जोडों में दर्द एवं सूजन उत्पन्न हो जाती है।
(7)
जीवन शैली : अनुशासनात्मक सुव्यवस्थित जीवन
शैली का पालन करने से जहां शरीर पूर्ण रुप से स्वस्थ बना रहता है तो वहीं इसके
विपरित अनुशासनहीन जीवनशैली का शरीर एवं मन पर नकारात्मक प्रभाव पडता है। आर्थराइटिस
रोग का सम्बन्ध विकृत जीवनशैली के साथ है। रात्रिकाल में देर से सोने एवं
प्रातःकाल देर से उठना आर्थराइटिस रोग का एक प्रमुख कारण है। आधुनिक समय के भागदौड
भरे जीवन से उत्पन्न मानसिक तनाव इस रोग की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
है। इसके अतिरिक्त र्दुव्यसनों के कारण शरीर आर्थराइटिस रोग से ग्रस्त हो जाता है।
(8)
बढती उम्र : आर्थराइटिस रोग की उत्पत्ति में
उम्र भी एक महत्वपूर्ण कारक है। प्रायः यह रोग मझौली उम्र ;डपककसम ।हम
द्ध में ही शरीर को जकड लेता है और 30 से 45 वर्ष की
अवस्था में ही व्यक्ति इसका शिकार हो जाता है। आर्थराइटिस रोग के संदर्भ में एक
महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में यह रोग कई गुणा
अधिक पाया जाता है। इसका कारण शरीर के अलग अलग हार्मोन्स एवं कार्यशैली की भिन्नता
होती है।
(9)
यौगिक आसन-प्राणायाम का अभाव : यौगिक आसन
एवं प्राणायाम का अभ्यास जोडों को स्वस्थ बनाए रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
नियमित रुप से प्रतिदिन आसन,
प्राणायाम एवं ध्यान आदि यौगिक क्रियाओं का अभ्यास करने से सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ एवं जोड लचीले बनते हैं किन्तु इसके
विपरित यौगिक क्रियाओं का अभ्यास नही करने से जोडों में कठोरता उत्पन्न होती है जो
आगे चलकर धीरे धीरे आर्थराइटिस रोग का रुप ग्रहण कर लेती है।
(10)
अनुवांशिकता : पारिवारिक पृष्टभूमि अर्थात
अनुवांशिकता इस रोग का एक प्रमुख कारण होता है। परिार के बडे सदस्यों (पूर्वजों)
से यह रोग है अगली पीढी में पहुंचता है।
आर्थराइटिस
रोग के लक्षण
(1) जोडों में
सूजन के साथ तीव्र वेदना होना : जोडों में सूजन के साथ सुई की
चुभन के समान तीव्र वेदना आर्थराइटिस रोग का सबसे प्रधान एवं मूल लक्षण है। इस रोग
में रोगी को उगुलियों,
कलाई, बाजुओं, टागों, घुटनों एवं
कुल्हों में असहनीय वेदना होती है। रोगी को प्रातःकाल नींद से जागते समय दर्द एवं जकड़न
और अधिक बढ़ जाता है। इस रोग में रोगी को बिना चोट लगे जोडों में दर्द होने लगता है
और दर्द धीरे धीरे बढता ही जाता है। रोगी को चलते समय एवं उठते व बैठते समय जोडों
में दर्द एवं भारीपन होता है।
(2)
जोडों में कठोरता के साथ अस्थियों का टेडा होना : आर्थराइटिस
रोगी के जोडों में लचीलेपन के स्थान पर कठोरता उत्पन्न होने लगती है। रोगी के जोड
कडे होकर जाम होने लगते हैं। रोग के तीव्र अवस्था में अस्थियों में टेढ़ापन आने
लगता है। विशेष रुप से हाथों एवं पैरों की उगुलियों में टेढ़ापन आ जाता है। रोगी के
जोड़ों में गतिशीलता का अभाव होने लगता है और शरीर अकड़ने लगता है।
(3)
शरीर का वजन घटना : आर्थराइटिस
रोग में रोगी को हर समय जोडों में दर्द रहता है तथा उसकी भूख कम हो जाती है। रोगी
की तबीयत खराब रहने लगती है तथा उसका किसी कार्य में मन नही लगता है जिससे उसके
शरीर का वजन तेजी से घटने लगता है।
(4)
शरीर का तापक्रम बढना एवं हल्का बुखार रहना : प्रिय
पाठकों, मानव
शरीर का सामान्य तापक्रम 98 डिग्री
फेरेहनाइट होता है किन्तु आर्थराइटिस रोग से ग्रस्त होने पर शरीर का तापक्रम बढा
हुआ ( 100
डिग्री फेरेहनाइट) रहता है। इस रोग में रोगी को ठण्ड अधिक लगती है।
(5)
त्वचा पर रेशेज पडना : आर्थराइटिस
रोग में रोगी की त्वचा पर रेशेज पड जाते हैं। रोगी की त्वचा अधिक लाल हो जाती है
और उस पर लाल लाल चकते पड जाते हैं। रोगी के जोड़ों में गांठे पड जाती है। जोड़ों को
दबाने पर जोड़ों में दर्द एवं भयंकर चुभन पैदा होती है। हाथ और पैर हिलाने पर चटकने
लगते हैं।
(6)
अनिद्रा : आर्थराइटिस रोग में रोगी अनिद्रा
से ग्रस्त होने लगता है। रोगी के जोडों में हर समय दर्द की स्थिति बनी रहती है
जिसके कारण उसे भलि भांति नींद नही आती है और वह अनिद्रा से ग्रस्त हो जाता है।
आर्थराइटिस रोगी के शरीर की चयापचय दर भी बढी रहती है जिससे उसे बैचेनी का अनुभव
होता रहता है।
आर्थराइटिस
रोग की चिकित्सा
आर्थराइटिस
रोग की योग चिकित्सा
आर्थराइटिस रोग में यौगिक
क्रियाओं जैसे आसन, मुद्रा-बंध
एवं प्राणायाम का अभ्यास रोग दूर करने में अत्यन्त प्रभावी सिद्ध होती है। इन
क्रियाओं का अभ्यास कराने से रोगी को तुरन्त लाभ मिलने लगता है तथा लम्बे समय तक
इन क्रियाओं का नियमित अभ्यास कराने से रोग के रोग पर नियंत्रण प्राप्त होने लगता
है। आर्थराइटिस रोग की योग चिकित्सा इस प्रकार है -
(क)
षट्कर्म का प्रभाव : प्रिय पाठकों,
षट्कर्मों की छह क्रियाओं धौति,
बस्ति, नेति, नौली, त्राटक एवं
कपालभाति का रोग की स्थिति एवं रोगी की क्षमतानुसार अभ्यास कराने से रोगी के शरीर
का शोधन होता है। जिसके परिणाम स्वरुप शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा कम होती है
और दर्द में आराम मिलता है। इसके अतिरिक्त शरीर शोधन के परिणाम स्वरुप शरीर के
अन्य तंत्र जैसे पेशीय तंत्र एवं अस्थि तंत्र भी स्वस्थ बनते है। जिससे रोग ठीक
होता है एवं रोगी को आराम मिलता है।
(ख)
आसन का प्रभाव : आर्थराइटिस रोग के उपचार में आसनों का अभ्यास अत्यन्त
लाभकारी होता है। यद्यपि रोगी रोग की तीव्र अवस्था में आसनों का अभ्यास करने में अक्षम होता है तथा रोगी को बलपूर्वक आसन कराने
से रोगी का दर्द तेजी से बढ जाता है अतः रोगी को अत्यन्त सावधानीपूर्वक हल्के
हल्के आसनों और विशेष रुप से संधि संचालन के सुक्ष्म अभ्यासों को कराना चाहिए।
रोगी को पैर की उगुलियों,
पजों, घुटनों, कुल्हे, हाथ की
उगुलियों, कलाई, कोहनी, कन्धों एवं
गर्दन को गतिशील बनाने वाले अभ्यासों को बार बार सुबह और शाम दोनों समय अभ्यास
कराना से रोग में लाभ मिलता है।
उपरोक्त सुक्ष्म अभ्यासों के रोग
की तीव्रता कम होने पर रोगी को आसनों के क्रम पर लाते हुए धीरे धीरे एवं
सावधानीपूर्वक आसनों का अभ्यास कराना चाहिए। आर्थराइटिस रोगी को सर्पासन, भुजँगासन, मकारासन, पवनमुक्तासन, उत्तानपादासन, मत्स्यासन, नौकासन, मरकटासन, गोमुखासन, उष्ट्रासन, वक्रासन, अर्द्धचन्द्रासन, गरुडासन, वातायन आसन
एवं शवासन आदि आसनों का अभ्यास कराना चाहिए। इस रोग में आसनों के महत्व को देखते
हुए वर्तमान समय में आर्थराइटिस रोगी की फिजियोथैरेपी का प्रचलन भी बढता जा रहा है
जिसमें चिकित्सक सहायता देकर रोगी के जोडों को गतिशीलता प्रदान करता है।
(ग)
मुद्रा एवं बन्ध का प्रभाव : आर्थराइटिस रोग का सम्बन्ध वात दोष की विकृति से भी है।
शरीर में वात दोष को सम बनाने के लिए मुद्राओं एवं बन्धों का अभ्यास लाभकारी
प्रभाव रखता है। रोगी को उसकी क्षमतानुसार काकी, शाम्भवी व महामुद्राओं आदि मुद्राओं का अभ्यास कराना चाहिए।
इसके साथ साथ मूल, उड्डियान
एवं जालंधर बन्धों का अभ्यास भी रोगी को कराना चाहिए।
(घ)
प्रत्याहार का प्रभाव : आर्थराइटिस रोग को दूर करने में प्रत्याहार अर्थात इन्द्रिय
संयम अपनी एक विशेष भूमिका का वहन करता है। प्रत्याहार के अन्र्तगत रोगी द्वारा
दिनचर्या, रात्रिचर्या
एवं ऋतुचर्या का अनुशासन से पालन करने से रोग समूल नष्ट होता है। इसके साथ खानपान
सम्बधीं बुरी आदतों पर नियंत्रण करने से रोग की त्रीवता पर सीधा प्रभाव पडता है
एवं रोग स्वतः ही ठीक होने लगता है।
(ड)
प्राणायाम का प्रभाव : आर्थराइटिस रोगी को नाडी शोधन, अनुलोम विलोम, सूर्यभेदी, उज्जायी एवं
भ्रामरी आदि प्राणायामों का नियमित अभ्यास कराने से लाभ मिलता है। रोगी को साफ
स्वच्छ वातावरण में स्थिर मन के साथ प्राणायामों का अभ्यास करना चाहिए। रोगी को
प्राणायामों का अभ्यास नियमित रुप से एवं लम्बी अवधि तक करना चाहिए। प्राणायाम का
अभ्यास रोग पर प्रत्यक्ष प्रभाव रखता हुआ रोग को शीघ्र ठीक करने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाता है।
(च)
ध्यान एवं समाधि का प्रभाव : ध्यान एवं समाधि के अन्र्तगत रोगी नकारात्मक भावों एवं रोग
की नकारात्मकता से हटकर सकारात्मक विचारों एवं भावों का चिन्तन करता है। वह अपने
मन एवं मस्तिष्क में सकारात्मक चिन्तन को स्थान देता है जिससे उसके शरीर में
हार्मोन्स सन्तुलित होते हैं। ध्यान एवं समाधि में स्थित होने से आन्तरिक रोग
प्रतिरोधक क्षमता एवं जीवनी शक्ति तेजी से विकसित होती है जिससे रोग समूल नष्ट
होता है।
आर्थराइटिस
रोग की प्राकृतिक चिकित्सा
(क) मिट्टी तत्व चिकित्सा : आर्थराइटिस
रोगी को जोडों पर गर्म मिट्टी की पट्टी देने शीघ्र अतिशीघ्र लाभ प्राप्त होता है।
गीली मिट्टी को आंच पर गर्म करने के उपरान्त सहनीय तापक्रम पर रोगी के प्रभावित
जोडों पर देने से दर्द एवं सूजन में लाभ मिलता है।
(ख)
जल तत्व चिकित्सा : आर्थराइटिस रोगी की जल चिकित्सा में यह सावधानी विशेष रुप
से रखनी चाहिए कि रोगी पर ठण्डे जल का प्रयोग कदापि नही करना चाहिए। आर्थराइटिस
रोगी को सम्पूर्ण शरीर का भाप स्नान देने से रोग में विशेष लाभ प्राप्त होता है।
सम्पूर्ण शरीर पर भाप के अतिरिक्त नियमित रुप से जोडों पर स्थानीय भाप देने से भी
लाभ प्राप्त होता है। इस रोग में गर्म कटि स्नान, गर्म रीढ स्नान,
गर्म पैर स्नान, गर्म
बांह स्नान एवं सम्पूर्ण शरीर का गर्म स्नान भी लाभकारी प्रभाव रखता है। रोगी को
वात दोष का शमन करने वाले औषध गुणों से युक्त द्रव्यों से एनीमा देने से भी रोग
में लाभ मिलता है।
(ग)
अग्नि तत्व चिकित्सा : आर्थराइटिस रोगी को सूर्य स्नान देने से रोग में विशेष लाभ
मिलता है। इसके साथ साथ नारंगी रंग की बोतल में आवेशित जल का सेवन रोगी को कराने
एवं लाल अथवा नारंगी रंग का प्रकाश जोडों पर डालने से रोग ठीक होता है।
(घ)
वायु तत्व चिकित्सा : आर्थराइटिस रोगी की जोडों पर अत्यन्त सावधानीपूर्वक हल्के
हाथों से धूप में मालिश करने से आराम मिलता है। सरसों के तेल में लहसुन की चार से
छह कलिया पकाकर गुनगुने तेल से हल्के हल्के हाथों से जोडों पर मालिश करने से रोगी
को अत्यन्त लाभ मिलता है। रोगी को हल्के हाथों से एवं वैज्ञानिक ढंग से मालिश करने
से रक्त संचार तीव्र होता है एवं दर्द व सूजन में आराम मिलता है।
(ड)
आकाश तत्व चिकित्सा : आर्थराइटिस रोगी की छोटे उपवास अथवा कल्प कराने से रोग में
लाभ मिलता है। रोगी को उपवास काल में पर्याप्त मात्रा में जल का सेवन करना चाहिए, उपवास काल
में गुनगुने जल में नींबू का रस एवं शहद मिलाकर भी सेवन किया जा सकता है।
आर्थराइटिस
रोग की आहार चिकित्सा
(क) पथ्य आहार - सेब, सन्तरा, अंगूर, पपीता, नारियल, तरबूज, खरबूजा, लौकी, कद्दू, गाजर, ककडी, खीरा, चना, मैथी आदि हरी
पत्तेदार सब्जियां, अदरक, लहसुन, हरी धनिया, चोकरयुक्त
आटा, मौसमी
फल, सलाद
एवं पोषक तत्वों से युक्त पौष्टिक आहार रोगी के लिए पथ्य है। इसके साथ साथ रोगी के
लिए सब्जियों का सूप एवं फलों के जूस भी पथ्य है।
(ख)
अपथ्य आहार - नमक,
चीनी, चाय, काफी, सोफ्ट व
कोल्ड डिंक्स जैसे पैप्सी व कोक,
एल्कोहल, बाजार
की मिठाईयां, चाकलेट, तला भुना
चायनीज फूड, फास्ट
फूड, जंक
फूड, चावल, फूलगोभी, पत्तागोभी, पालक, खट्टी दही, वातवर्धक
बासी, रुखा
एवं पोषक तत्व विहीन भोजन रोगी के लिए अपथ्य है। धूम्रपान एवं एल्कोहल के सेवन से
रोगी को पूर्णतया बचाना चाहिए।
इस प्रकार उपरोक्त पथ्य एवं
अपथ्य आहार के अनुसार रोगी को आहार कराने से रोग में शीघ्र लाभ प्राप्त होता है।
आर्थराइटिस
रोगी के लिए सावधानियां एवं सुझाव
·
आर्थराइटिस रोग को बढने नही देना चाहिए अपितु रोग की
प्रारम्भिक अवस्था में लक्षण प्रकट होते ही रोग पर ध्यान देते हुए आहार विहार संयम
एवं वैकल्पिक चिकित्सा द्वारा तुरन्त रोग का प्रबन्धन कराना चाहिए।
·
रोगी को एक स्थान पर एवं एक स्थिति में लम्बे समय तक बैठकर
कार्य नही करना चाहिए।
·
रोगी को अपने कार्य सही मुद्रा में ही करने चाहिए।
·
रोगी को प्रातःकालीन भ्रमण करना चाहिए एवं पैदल चलने की आदत
बनानी चाहिए।
·
रोगी को नियमित रुप से प्रातःकाल धूप स्नान लेना चाहिए।
·
रोगी को दर्द निवारक दवाईयों का लम्बे समय तक सेवन नही करना
चाहिए।
·
रोगी को आहार में फलों एवं सब्जियों का अधिक सेवन करना
चाहिए तथा वातवर्धक खाद्य पदार्थो के सेवन से बचना चाहिए।
·
रोगी को फ्रीज के ठंडे पानी का सेवन पूर्ण रुप से बंद कर
देना चाहिए एवं उबले हुए गुनगुने पानी का ही सेवन करना चाहिए।
·
रोगी को नियमित आसन प्राणायाम आदि यौगिक क्रियाओं का अभ्यास
करना चाहिए।
·
सभी प्रकार के र्दुव्यसनों को पूर्ण रुप से छोड देना चाहिए।