गर्भ न ठहरना ( बांझपन )
बांझपन या बन्ध्यत्व रोग को
अंग्रेजी में Sterility
कहते हैं । यह कई प्रकार का होता है ,
जैसे जन्म बन्ध्यत्व ,
काक बन्ध्यत्व , मृतवत्सा
बन्ध्यत्व , गर्भस्रावी
बन्ध्यत्व , त्रिदोष
बन्ध्यत्व , त्रिपक्षी
बन्ध्यत्व , त्रिमुखी
बन्ध्यत्व , बकी
बन्ध्यत्व , कमली
बन्ध्यत्व , तथा
व्यक्तिनी बन्ध्यत्व आदि ।
कारण
–
बहुत मोटापा , साथ ही
गर्भाशय का छोटा पड़ जाना और तोंद निकल आना ,
बहुत दुबलापन , माहवारी
का बिल्कुल बंद हो जाना ,
या रूक - रूक कर आना ,
डिम्बाशय का न होना ,
गर्भाशय का न होना ,
उसके मुह का तंग होना ,
गर्भाशय में सख्ती या सूजन का होना ,
गर्भाशय का मुंह फिरा होना ,
पुरूष - सहवास के बाद स्त्री का खड़ा हो जाना, छींकना ,
कूदना , या
पेशाब करना । विपरीत रति ,
अधिक पुरूष - सहवास ,
यौन सम्बन्धी रोग ,
प्रदर गर्मी , तथा
सूजाक आदि , प्रथम
प्रसव के समय योनि का फट जाना ,
मादक द्रव्य - प्रयोग । कण्ठ मणि तथा श्लैष्मिक झिल्लियों की विकृति । वस्तुतः
गर्भ न ठहरने अथवा बांझपन में शत - प्रतिशत दोष स्त्रियों का ही नहीं होता अपितु
उनके पतियों में निम्नलिखित दोषों के होने की वजह से भी गर्भ स्थिति मे बाधा पड़
सकती है वीर्य निकलने की नली के सूराख का पतला न होकर फैला होना , बाजारी औरतों
के साथ ऐय्याशी करने के कारण अपनी स्त्री से सहवास करने की इच्छा का न होना , जननेन्द्रिय
का अति क्षुद्र होना ,
अधिक मोटापा , जननेन्द्रियका
अत्यन्त लम्बा होना ,
जननेन्द्रिय का टेढ़ा होना ,
नशाबाज , नाबालिग
, बूढ़ा
, रोगी
, अधिक
सहवास करने वाला आदि होने के कारण वीर्य में गर्भाधान की शक्ति न होना । अब प्रश्न
स्वतः उपस्थित होता है कि यह कैसे जाना जाये कि बांझपन के लिये पति - पत्नी में
कौन दोषी है , कौन
नहीं ? अतः इस
बात को मालूम करने के लिए दो तरकीबें नीचे दी जाती हैं -
1.
किसी दिन प्रातः काल उठते ही बांझ स्त्री को चाहिए कि वह
लहसुन छील कर अपनी योनि में रखले और उसे 24
घंटे बराबर रहने दें ,
ऐसी अवस्था में यदि उसके मुंह में लहसुन की महक मालूम दे तो बांझपन में अपना
दोष न समझे ।
2.
मूंग या गेहूं के कुछ दाने अलग - अलग दो बर्तनों में भिगोकर
रखें । एक बर्तन में पति पेशाब करे और दूसरे में पत्नी । जिसके बर्तन में दाने
अंकुरित हो उठे उसमें बांझपन का दोष नहीं समझना चाहिए । यदि स्त्री शरीर में दोष
होने के कारण गर्भ नहीं ठहरता है और यदि उसके शरीर में विजातीय द्रव्य का भार बहुत
अधिक नहीं, साथ
ही शरीर में जीवनी - शक्ति भी मौजूद है तो बन्ध्यत्व रोग दूर हो सकता है । समय
महीनों लग सकता है।
चिकित्सा
–
उपचार तीन दिन के उपवास या
रसाहार से आरम्भ करना चाहिए । इन दिनों एक या दोनों समय एनिमा लेते रहना चाहिय ।
उपवास यदि किया हो तो उसके बाद 4
दिनों तक केवल किसी रसदार फल जैसे संतरा पररहना चाहिये । फिर सात दिनों तक सुबह -
शाम संतरा ले और दोपहर को चोकरदार आटे की रोटी या दलिया और तरकारी । तत्पश्चात 15 दिनों तक
फिर केवल संतरों पर रहा जाये । उसके बाद 7 दिनों
तक सुबह - शाम संतरा और दोपहर को रोटी या दलिया और उबली साग - भाजी लेवें ।
तत्पश्चात् 15
दिनों तक फिर केवल संतरों पर रहा जाये । उसके बाद खरबूजे का कल्प आरम्भ कर दें ।
पहले दिन ढाई किलो , दूसरे
दिन 3
किलो , तीसरे
दिन 5
किलो . तत्पश्चात् भूख के अनुसार लेते हुए 40 दिन
बितावे । उसके बाद 15
दिनों तक पतले रस वाले बीजू आम का कल्प कर डाले । यदि यह कल्प 15 दिनों तक न
चल सके तो जितने दिनो तक बीजू आम मिलें उतने ही दिनों तक आम - कल्प चलावें । आम -
कल्प के बाद अंगूर और दूध का कल्प कुछ दिनों तक चलावें । अंगूर दो किलो और दूध दो
किलो साथ - साथ लें । जब से फलों पर रहना आरम्भ करें तभी से प्रतिदिन कटि - स्नान 10 मिनट तक
सुबह और शाम 7
दिनों तक लेने के बाद कटि - स्नान की जगह पर मेहन - स्नान लेने लग जाये । साथ ही
सुबह - शाम 20
मिनट के लिए गीली मिट्टी की पट्टी योनि और पेडू पर भी रखें । सप्ताह में एक दिन
सुबह मेहन - स्नान के पहले पूरे शरीर का भाप - स्नान या केवल पेडू का भाप स्नान
करें हर तीसरे दिन 10
मिनट तक धूप - स्नान करने के बाद मेहन स्नान लेना चाहिये । साधारण कसरत , गहरी श्वास
लेने की कसरत तथा प्रातः भ्रमण आदि भी करता रहे । आसनों में सर्वांगासन , पश्चिमोत्तासन
, तथा
हलासन इस रोग में विशेषरूप से उपयोगी हैं । पीली और हरी बोतल का सूर्यतत्प जल
बराबर - बराबर 50
ग्राम की मात्रा से दिन में 6
खुराकें एक मास तक पीवें । तत्पश्चात् केवल हरी बोतल का ही सूर्यतत्प जल पूरी
मात्रा में पीवें ।
गर्भाशय का अपनी जगह से टल जाना
कारण
–
आंतों में दूषित वायु अथवा मल
भरा रहने के कारण उनका फूल जाना ,
कब्ज , कसकर
साडी बांधना , झुककर
बैठना, कोई
व्यायाम आदि न करना ,
प्रसव के समय असावधानी तथा प्रसव के तुरन्त बाद चलने फिरने लगना , निर्बलता , निर्बलता में
व्यायाम करना , थोड़ी
अवस्था में स्त्री के साथ पूर्ण वयस्क पति द्वारा प्रसंग , कूदना , दौड़ना , सीढ़ियोंपर
चढ़ना तथा मुंह या पीठ के बल गिरना । उपर्युक्त कारणों से कितने ही ढंग से गर्भाशम
अपनी जगह से हटता है । जैसे गर्भाशय और उसके साथ ही योनिदेश का झूल पड़ना , गर्भाशय का
पीछे की ओर धूम जाना और गर्भाशय - ग्रीवा का सामने की ओर आ जाना गर्भाशय के भीतरी
भाग का निकल पड़ना , समूचे
गर्भाशय का अपनी जगह से हट जाना ,
गर्भाशय का टेढ़ा पड़कर उलट जाना तथा गर्भाशय का दाहिने या बायें टेढ़ा हो
जाना । जब किसी कारण से गर्भाशय अपने स्थान से टल जाता है तो रोगिणी को ऐसा मालूम
होता है जैसे उसके योनिद्वार से कोई चीज बाहर निकल जायेगी । उस समय योनि में
अंगुली नहीं डाली जाती । बार - बार पाखाना ,
पेशाब की अनुभूति होती है । कभी - कभी पेशाब तुरन्त बंद हो जाता है तो कभी
पेशाब करने में तकलीफ होती है । कभी - कभी रक्तस्राव और बेहोशी भी होती है । पीठ , जंघा , पिण्डली , वक्षस्थल तथा
बगलों में पीड़ा होती है । इस प्रकार लगातार पीड़ा और ऐंठन होते रहने से रोगिणी की
बुरी गति हो जाती है और उसका स्वास्थ्य गिरने लगता है ।
चिकित्सा
-
जिस समय गर्भाशय के टलने की
अवस्था उपस्थित हो , उस
समय रोगिणी को बैठकर थोड़ी देर बाद धीरे - धीरे तकिये के सहारे बिस्तर पर लेट जाना
चाहिए और पैरों को तकिए आदि के सहारे लगभग डेढ़ फीट ऊपर उठा रखना चाहिए और उन्हें
उसी हालत में आध घंटा से एक घंटे तक रखना चाहिए । इस क्रिया को दिन में दो तीन बार
करना चाहिए । इससे रोगिणी को आराम मिलता है । आरम्भ में ज्योंही यह पता चले कि
गर्भाशय अपनी जगह से टल गया है त्योंही योनि पर घी की मालिश करने के बाद उस पर दूध
की भाप देकर रूई या साफ कपड़े के सहारे उसे अपने स्थान पर पुनः बैठा देने की कोशिश
करनी चाहिए । जब वह अपने स्थान पर बैठ जाये तो उस पर बैण्डेज बांध देना चाहिए ।
साथ ही पेडू पर गीली मिट्टी की या भीगे कपड़े की पट्टी बांधकर रोगिणी की पीड़ा कम
करने की चेष्टा करनी चाहिए । जब तक तकलीफ दूर न हो जाये तब तक रोगिणी को आराम से
बिस्तर पर सम्भवतः बिना हिले - डुले पड़ा रहना चाहिए । रोगिणी को पहले तीन दिनों
केवल रसाहार पर रहना चाहिए । तत्पश्चात् सात दिनों तक फलाहार करना चाहिए दिन में
तीन बार । कटहल , केला
और सूखे फल नहीं लेने चाहिए । पीने के लिए शुद्ध , जल ठंडा और गरम कागजी नींबू के रस के साथ या अकेले ही लेना
चाहिए । रसाहारके दिनों में प्रतिदिन रात को गरम पानी का एनिमा लेना भी जरूरी है ।
पीड़ा कुछ कम होने पर प्रतिदिन सुबह शुष्क घर्षणस्नान तथा श्वास और अन्य प्रकार की
हल्की कसरतें करने लग जायें । शाम को 20
मिनट तक कटि - स्नान भी करें । सप्ताह में दो बार ' एप्सम साल्ट बाथ '
तथा तीन बार रात में सोने से पहले गरम और उसके तुरंत बाद शीतल जल से मेहन
स्नान करना इस रोग में बड़ा गुण करता है । इन स्नानों से गर्भाशय के आसपास के अवयव
एवं तन्तु शक्तिशाली बनते हैं । गर्भाशय के पूरी तौर से बैठ जाने के बहुत दिनों
बाद तक अधिक चलना - फिरना ,
मैथुन तथा अधिक परिश्रम आदि बंद रखना चाहिए ।
गर्भ गिर जाना
कारण
–
गर्भाशय में संचित विजातीय
द्रव्य की गर्मी और असहनीय प्रदाह के कारण गर्भाशय में तनाव और अतिरिक्त गर्मी का
बढ़ जाना इस रोग का प्रधान कारण है । इस प्रधान कारण में निम्नलिखित कुछ अन्य कारण
जलती आग में घृत का काम करते हैं । त्रास ,
भावावेश , भय , चिन्ता आदि
मानसिक उत्तेजना , कमर
बांधना या कसकर साड़ी आदि पहनना,
उपदंश , श्वेत
प्रदर आदि जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोग ,
रक्तदोष । अधिक सहवास ,
गर्भावस्था के प्रारम्भिक महीनों में सहवास , मिथ्या आहार और अधिक भोजन , नशीली वस्तुओं का सेवन , किसी प्रकार का आघात ,
चोट लगना , फिसल
पड़ना , उछलना
- कूदना , सीढी
चढना तथा भारी चीज उठाना ,
दुर्बल गर्भाशय ,
रक्ताल्पता , दूषित
और शक्तिहीन वीर्य , कब्ज
, चेचक
, खसरा
, दस्त
, यक्ष्मा
, शीतज्वर
आदि , अस्वच्छता
। अस्वास्थ्यकर स्थान में वास । जान बूझकर गर्भ गिराने की कोशिश करना , निर्बलता की
दशा में अधिक परिश्रम या व्यायाम करना ,
सीने की मशीन पैरों से चलाने,
मोटर आदि में दूर का सफर ,
पेशाब , पाखाना
रोकना , पेट
में बच्चे का मर जाना । गर्भपात या गर्भ - स्राव की आशंका होने पर रोगिणी को किसी
साफ और हवादार कमरे में पूर्ण आराम करने के लिये एक चारपाई पर लिटा देना चाहिए
जिसका पैताना , सिरहाने
से कछ ऊंचा हो । कमरे का वातावरण बिलकुल शान्त रहना चाहिए और वहां कोई ऐसी बात
नहीं होनी चाहिए जिससे रोगिणी को किसी प्रकार की मानसिक उत्तेजना हो । पाखाना -
पेशाब चारपाई पर ' बेड
- पैन ' में
कराना चाहिए ।
चिकित्सा
-
यदि रोगिणी कुछ खाना चाहे तो उसे
फलों का जूस , उबली
साग - सब्जी का सूप अथवा बार्ली के पानी में थोड़ा दूध मिलाकर पिलाया जा सकता है ।
इसके । अतिरिक्त उसे कोई चीज नहीं खिलानी चाहिए । पेडू पर गीले कपड़े की ठंडी
पट्टी या गीली मिट्टी की पट्टी ऊपर से बिना ऊनी कपड़ा लपेटे 3 - 3 घंटे बाद
आधे - आधे घंटे के लिये रखनी चाहिए । रक्त - स्राव जब बन्द हो जाये तो पट्टी 4 - 4 या 6 - 6 घंटे बाद
रखें । चारपाई पर 2 -
2 , 3 - 3 दिन पड़े रहने की वजह से यदि रोगिणी को पाखाना न मालूम हो
तो मामूली ठंडे पानी । का एनिमा जरूर देना चाहिए । जब गर्भपात रूकने की सम्भावना न
हो तो पेडू पर मिट्टी की गीली पट्टी दिन में कई बार देनी चाहिए । इससे गर्भपात में
नाम मात्र को ही तकलीफ होगी । यदि बेहोशी और चक्कर आने आदि की शिकायत हो तो रोगिणी
के सिर और चेहरे को गीले कपड़े से बार - बार पौंछते रहना चाहिए । कमजोरी की हालत
में पैरों के पास गरम पानी की बोतलें या गरम पानी में पैर रखे जायें । रोगिणी को
गरम कपड़े ओढ़ाना चाहिये और ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि कपड़ा खून से भीगा न रहे ।
इसके लिये कपड़े को बदलते रहना चाहिए । जब गर्भ गिर जाये तो उसके दूसरे दिन
गुनगुने पानी के डूस से जननेन्द्रिय को साफ कर देना चाहिए । उसके बाद दो तीन दिन
तक सिर्फ दूध पर रहना चाहिए । तत्पश्चात् 4
- 5 दिन तक फल और दूध पर रहकर तब साधारण सादे भोजन पर आना
चाहिए । जिस स्त्री को बार - बार गर्भपात होने की शिकायत हो , उसकी यह
शिकायत भी नीचे के उपचार से दूर की जा सकती है | प्रथम तीन दिनों
का उपवास या रसाहार तथा साथ में एनिमा का प्रयोग करना चाहिए । आरम्भ में लगभग 2 - 3 सप्ताह तक
गुनगुने पानी का कटि - स्नान दिन में दो बार और यदि श्वेतप्रदर की भी शिकायत हो तो
गुनगुने पानी का डूश भी देवें । इन दिनों रोगिणी का पथ्य केवल फल और साग - सब्जी
होना चाहिए । 3
सप्ताह बाद पेडू पर गीली मिट्टी की पट्टी आध स । 1 घंटे तक सुबह और 10 से 20 मिनट तक कटि
या । न मेहन - स्नान प्रतिदिन सायंकाल लेना चाहिए । सप्ताह में एक दिन पेडू का भाप
- स्नान और एक दिन सूर्य स्नान । सप्ताह । में एक दिन उपवास और एनिमा , भोजन सादा और
सात्विक गर्भस्राव में आसमानी बोतल का सूर्यतप्त जल 50 - 50ग्राम दिन
में 5 बार
पिलाना चाहिए और हरी बोतल के सूर्यतप्त जल का फाया योनि में रखना चाहिए । इससे
बड़ा लाभ होता है | गर्भपात
में गहरी नीली बोतल का जल पीना चाहिए और हरी बोतल के जल का फाया योनि में रखना
चाहिए । दोनों हालतों में हरी बोतल के सूर्यतप्त जल से भीगी कपड़े की पट्टी 3 घंटे तक
पेडू पर बांध रखना भी बड़ा उपयोगी है ।
गर्भकाल के उपद्रव
गर्भकाल के कुछ उपद्रव और उसके
उपचार निम्नलिखित हैं
1 . रक्तस्राव - गर्भावस्था
की दशा में भी किसी किसी स्त्री को ऋतुकाल के दिनों में बहुधा थोड़ी - थोड़ी
मात्रा में रक्तस्राव होता है । जिसके लिये विशेष चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं
है । यह दोष सगर्भावस्था के लिये बताये गये नियमों का पालन करने मात्र से ही
प्रायः दूर हो जाता है । परन्तु किसी - किसी गर्भिणी स्त्री को कभी - कभी पाकस्थली, गर्भाशय , नाक और
फेफड़ों से भी रक्त निकलने लगता है ,
जो बड़ा खराब और प्राणघातक होता है । यह गड़बड़ी प्रायः कब्ज के कारण होती है
। अतः पेडू पर मिट्टी की पट्टी देने के बाद एनिमा का प्रयोग करने से यह तकलीफ धीरे
- धीरे दूर हो जाती है । भूख न लगने पर भोजन एकदम बन्द कर देना चाहिए । भूख कम
मालूम होने पर रसाहार अथवा केवल मट्ठा पीना चाहिए । जब तक रक्त - स्राव हो तब तक
आसमानी बोतल के सूर्यतप्त जल की 50
ग्राम मात्रा की खुराक दो - दो घंटे पर देनी चाहिए । तत्पश्चात् गहरी नीली बोतल का
जल तीन भाग और पीली बोतल का जल एक भाग मिलाकर 4 - 4 घंटे के अंतर से पिलाना चाहिए । हरी बोतल के जल का फाया
योनि में रखना , तथा
गहरा नीला प्रकाश मुंह और गर्दन पर डालें ।
2 . छाती या पंजी में दर्द - किसी
- किसी गर्भिणी स्त्री की छाती के पास या उसके निचले हिस्से में कभी - कभी दर्द
होने लगता है जिसकी वजह से वह उस करवट लेट नहीं सकती । इसके लिये सादे भोजन पर
रहकर दर्द वाली जगह पर दिन में दो बार गीली मिट्टी की पट्टी देना चाहिए । उस स्थान
को हल्का सूर्य - स्नान कराकर उसके बाद कटि - स्नान या मेहन - स्नान भी कराना
चाहिये । पीली बोतल का सूर्यतप्त जल तीन हिस्सा तथा गहरी नीली बोतल का जल एक
हिस्सा मिला कर दिन में 4
खुराके पिलानी चाहिए । साथ ही पीली और हरी बोतलों का सूर्यतप्तजल बराबर - बराबर
लेकर और गरम करके उससे दर्द वाले स्थान को कपड़े की गद्दी के सहारे सेंकना चाहिये
।
3 . कब्ज - साधारण अवस्था में कब्ज को समस्त रोगों की जड़ माना जाता
है जो बड़ा दुखदायी होता है ,
वही कब्ज गर्भावस्था में कितना अधिक दुखदायी होता है इससे कुछ भुक्त - भोगिनी
गर्भिणी स्त्रियां ही भली - भांति जानती हैं जिनको इस रोग से पाला पड़ चुका होता
है । मगर गर्भावस्था में कब्ज उन्हीं स्त्रियों को सताता है जो आलस्यमय जीवन
व्यतीत करती हैं और मिथ्या आहार विहार की पक्षपातिनी होती हैं । कब्ज होने पर उसको
तोड़ने के लिये किसी प्रकार की औषधि व्यवहार करना या जुलाब आदि लेना व्यर्थ ही
नहीं भयावह भी है । कारण तेज दवा या जुलाब के फलस्वरूप प्रायः गर्भपात हो जाता है
। अतः कब्ज दूर करने के लिये निहार मुंह जल पीना , एक - दो दिन उपवास या रसाहार या फलाहार पर रहना , खुली वायु
में टहलना , कटि
- स्नान तथा एनिमा के प्रयोग काफी हैं ।
4 . पतले दस्त - गर्भावस्था
में पतले दस्त आना , अतिसार
या संग्रहणी हो जाना बहुत बुरा है । इससे गर्भिणी कमजोर हो ही जाती है , साथ ही पतले
दस्तों के बहुत दिनों तक आते रहने से कभी - कभी गर्भस्राव तक हो जाता है । पतला
दस्त , पाचन
- शक्ति की कमजोरी से आता है । अतः जब तक पेट ठीक न हो जाये कुछ भी खाना नहीं
चाहिए । केवल ठंडा जल पीना चाहिए । ठंडे जल में कागजी नीबूं का रस निचोड़ कर पिया
जाये तो अति उत्तम । नारियल जल का पीना भी ठीक रहता है । उपचार के लिये रोज सुबह
पेडू पर गीली मिट्टी की पट्टी आध घंटा तक रखने के बाद ठंडे पानी का एनिमा लेना
चाहिए और शाम को 20
मिनट का मेहन - स्नान । सुबह को मिट्टी की पट्टी की जगह कटि स्नान 20 मिनट तक
लिया जा सकता है । इस उपचार से कोठा साफ होकर दस्त आने बंद हो जायेंगे ।
5 . मितली और वमन - यह शिकायत कम
या अधिक प्रायः स्त्रियों में होती है । पहले 4 - 5 महीनों में यह शिकायत होते अक्सर देखी गयी है । इसके लिए
सुबह पाखाना से लौटने के बाद गुनगुने पानी का एनिमा लेकर पेट को साफ कर देना चाहिए
। बिस्तर से उठते ही गरम पानी में नींबू निचोड़कर और उसमें थोड़ा संधा नमक मिलाकर
थोड़ा - थोड़ा पीने से भी बड़ा लाभ होता है । निथरा हुआ चूने का पानी भी वमन , मितली को बंद
करता है । अंकुरित हुये गेहूँ को सुखाकर उसके आटे की अच्छी सिकी रोटीमुनक्के के
साथ खूब कुचल - कुचल कर खायें या भुने हुये चने या जौ का सत्तू खायें । बर्फ का
टुकड़ा मुंह में डाल कर धीरे - धीरे चूसें । तथा नारियल का पानी पीवें । _ _ _ यदि पाचन में
विशेष रूप से बिगाड़ हो गया हो तो पूर्ण विश्राम के साथ भोजन का त्याग कर देना
चाहिए । और फलों के जूस या तरकारी के सूप पर रहना चाहिये । जरूरत पड़ने पर एनिमा
और पेडू पर मिट्टी की पट्टी लगावें ।
6 . मुंह में अधिक लार बनना - गर्भावस्था
में बहुत सी स्त्रियों के मुंह से अत्यधिक लार गिरती है , जिससे वे
परेशान रहती हैं । इसके लिये शीघ्र पचनेवाला भोजन करना चाहिये और एनिमा लेकर पेट
साफ कर डालना चाहिये । तात्कालिक शांति के लिये फिटकरी मिले पानी से कुल्ली करनी
चाहिए । _
7 . मूत्र रोग - गर्भावस्था
में अक्सर मूत्र - रोग समबन्धी अनेक शिकायतें हो जाती हैं , जैसे मूत्र
का आना , मूत्र
का अपने आप निकल पड़ना ,
मूत्र का रूक जाना ,
मूत्र का गाढ़ा - गाढ़ा आना जिसमें अण्डे की सफेदी के समान धतु । सइनउपदद्ध
जाने लगती है जिससे दुर्बलता तथा हाथ - पैर और कभी - कभी सारे शरीर में शोथादि
उपद्रव होकर बहुधा गर्भ गिर जाता है आदि इन सबका कारण वृक्क के ऊपर बढ़ते हुए
गर्भाशय का दबाव होता है । इन सब लक्षणों या इनमें से किसी एक लक्षण के प्रगट होते
ही एनिमा का प्रयोग जारी कर देना चाहिए और थोड़ा - थोड़ा करके पानी खूब पीने लग
जाना चाहिए , साथ
ही शीघ्र पचने वाला भोजन भूख लगने पर करना चाहिए , गर्म पानी से स्नान करना चाहिये , सुबह - शाम
मेहन - स्नान करना चाहिए और रात को खाना खाने के 2 घंटा बाद पेडू पर गीली मिट्टी की पट्टी रखें ।
8 . अनिन्द्रा - गर्भवती
स्त्री को प्रायः नींद न आने की शिकायत रहा करती है । इसका प्रधान कारण उसका आलसी
जीवन और व्यर्थ की चिन्ता - फ्रिक है । अधिक खाने से भी अच्छी नींद आती है । इसके
लिए सादा और सुपाच्य भोजन करना चाहिए ,
प्रतिदिन थोड़ा बहुत हल्का व्यायाम या घर का काम - काज जरूर करना चाहिए । खुली
जगह में सोना चाहिए । जहाँ स्वच्छ वायु हर समय उपलब्ध हो , चाय तम्बाकू
आदि नशीली वस्तुओं का सेवन भूल से भी न करें तथा कब्ज न होने दें ।
9 . सिर दर्द - किसी - किसी
स्त्रिी को गर्भावस्था में बड़े जोरों का सिर दर्द उठता है जिससे वह बेचैन हो जाती
है इसके लिये भोजन हल्का ,
सादा और कम करना चाहिये ,एनिमा
लेकर पेट साफ कर डालना चाहिये ,
खूब पानी पीना चाहिये तथा नित्य प्रति स्नान और कोई हल्का व्यायाम करना चाहिए
। आवश्यकतानुसार दिन में एक बार पेडू पर गीली मिट्टी की पट्टी भी रखी जा सकती है ।
10 . बेहोशी - दिल या
दिमाग की कमजोरी के कारण बहुत सी गर्भवती स्त्रियां अक्सर बेहोश हो जाया करती हैं
। इसके लिए उस समय उनकी छाती पर के कपड़ों के बटन खोल देने चाहिये और चेहरे पर
ठंडे पानी का छींटा मारना चाहिए । इससे बेहोशी जरूर दूर हो जायेगी । भोज़न में फल
और दूध अधिक रखना चाहिए । _
_ _
11 . प्रदर - गर्भावस्था
में कभी - कभी स्त्रियों को प्रदर की शिकायत हो जाती है । इसके कारण प्रदर - रोग
का पुराना रोगी होना ,
गर्भ के दिनों में पुरूष सहवास तथा मिथ्या आहार आदि हैं । इसकी चिकित्सा विस्तार
से ऊपर दी जा . चुकी है ।
12 . उदरशूल - बहुत - सी गर्भवती स्त्रियां पेट के दर्द से
परेशान रहती हैं । उन्हें इसका दौरा उठा करता है । इसका कारण उनका असंयमी जीवन तथा
मिथ्या आहार - विहार है । इसके लिए जब तक पूर्ण स्वस्थ न हो ले , चलना फिरना
बंद रखना चाहिये , चित्त
लेटना चाहिये तथा गर्भवती को पेटी का व्यवहार करना चाहिए । इनके अतिरिक्त पेट पर
गर्म - ठंडी सेंक तथा पेडू पर गीली मिट्टी की पट्टी रखनी तथा साथ में एनिमा भी
लेना चाहिए ।
13 . हृदय की धड़कन - गर्भवती
स्त्रियों का हृदय कभी - कभी असाधारण रूप से धड़कने लगता है जो मिथ्या आहार का
सूचक है । एनिमा लेकर पेट साफ कर लेने के बाद हल्के और सादे भोजन पर रहने से यह
दोष दूर हो जाता है । जब हृदय धड़कने लगे तो उस समय चित्त न लेटें । शहद का उपयोग
इस रोग में रामबाण है ।
14 . हाथ पैर में ऐंठन - यह दोष
गर्भवती स्त्रियों को कब्ज और शरीर की दुर्बलता से होता है । इन दोनों कारणों को
दूर कर देने से हाथ - पांव की ऐंठन आप से आप दूर । हो जाती है ।
15 . खांसी - गर्भावस्था
में कब्ज रहने के फलस्वरूप गर्भिणी को अक्सर खांसी की शिकायत हो जाती है । अतः
खांसी को दूर करने के लिए कब्ज न रहने दें ।
15 . योनिद्वार की खुजली - कितनी ही
गर्भवती स्त्रिया के योनिद्वार में भयानक खुजली उठा करती है । उसके लिय योनिद्वार
को गर्म पानी से अच्छी तरह धोकर उस पर गीला मिट्टी का लेप चढ़ाना चाहिए ।