पेट में बच्चे का मर जाना
मानसिक और शारीरिक कुछ रोगों के
परिणामस्वरूप , तथा
प्रहार आदि के कारण प्रसव के पूर्व ही बच्चा माता के पेट में ही मर जाता है , जिसकी पहचान
यह है कि वह पेट में हिलता - डुलता नहीं ,
प्रसव - पीड़ा उठनी बन्द हो जाती है,
गर्भवती का शरीर हरा या नीला पड़ जाता है , उसकी श्वास में मुर्दे जैसी गंध आने लगती है , तथा उसके पेट
पर सूजन चढ़ आती है । जब यह निश्चय हो जाये कि गर्भवती के पेट में उसका बच्चा मर
गया है तो उसे धीरे से चारपाई पर लिटाकर उसका हिलना - डुलना बिलकुल बंद कर देना
चाहिए । उसके बाद लगातार बदल - बदलकर उसके पेट पर ठंडे पानी से भीगी कपड़े की
पट्टी या गीली मिट्टी की पट्टी देते रहना चाहिए , और बीच - बीच में रोगिणी को थोड़ा- थोड़ा ठंडा पानी भी
पिलाते रहें ।
नकली प्रसव -
पीड़ा
कुछ गर्भवती स्त्रियों को प्रसव
के दिन से बहुत पहले एक तरह का प्रसव के दर्द से मिलता - जुलता , दर्द पैदा हो
जाता है , जो
प्रसव का असली दर्द नहीं होता । यह दर्द काफी देर तक रहता भी नहीं और जोरों का भी
नहीं होता । इसके निवारण के लिये पेट पर ठंडे पानी से भीगी पट्टी देनी और ठंडा
पानी पीना चाहिए ।
कष्टकर प्रसव
प्रसव के समय सभी स्त्रियों को
थोड़ी - बहुत तकलीफ तो होती ही है ,
पर बहुत सी स्त्रियों को आवश्यकता से अधिक तकलीफ होती है , यहां तक कि
वे मूर्छित तक हो जाती हैं । ऐसी हालत में थोड़े उपचार का सहारा लेना जरूरी हो
जाता है अतः दर्द का कारण यदि कब्ज हो तो एनिमा द्वारा पेट साफ कर लेना चाहिए ।
गर्भाशय ग्रीवा के कड़ेपन की वजह से यदि तकलीफ हो तो गर्भाशय - द्वार में धीरे -
धीरे पिचकारी की सहायता से गरम पानी पहुँचाकर उसे नर्म कर देना चाहिए । ऐसा करने
से कष्ट दूर होकर प्रसव जल्दी हो जाता है । अन्य कारणों से दर्द होने पर मेहन -
स्नान या एक या दो - दो घंटे बाद पेडू पर ठंडी पट्टी का प्रयोग करना चाहिए । प्रसव
के समय जब अकड़न या बेहोशी की बीमारी हो जाये तो प्रसूता को आराम से किसी हवादार
कमरे में बिस्तर पर लिटा देना चाहिए और हाथ - पैर पटकने से उसे चोट न आ जाये इसका
ध्यान रखना चाहिए । ठण्डे पानी के छींटे उसके चेहरे पर डालना चाहिए और उसके पेडू
पर पानी या गीली मिट्टी की ठंडी पट्टी 3
- 4 मिनट के अन्तर से देना आरम्भ कर देना चाहिए । साथ ही गले
पर जलपट्टी देकर सिर के पिछले हिस्से से आरम्भ कर पूरे रीढ़ की ठंडे जल से मालिश
करनी चाहिए । अच्छा तो यह हो कि उपचार आरम्भ करने से पहले या जब मौका मिले रोगिणी को
एनिमा देकर पेट अवश्य साफ करा दें । इससे
लाभ जल्दी होता ।
आंवल गिरने
में विलम्ब
रोगिणी और कमजोर स्त्रियों के
आंवल प्रायः देर से गिरते हैं । उस हालत में खींचा - तानी करके आंवल को कभी भी
बाहर नहीं निकालना चाहिए । प्रसव के बाद आंवल गिरने से पहले एक प्रकार का दर्द
होता है जो इस बात का सूचक है कि अब आंवल गिरेगा । अतः जब प्रसव के बाद यह दर्द न
हो तो इस दर्द को लाने का उपचार करना चाहिए ताकि दर्द उठकर आंवल तुरन्त गिर पड़े ।
इसका सीधा - सादा उपाय पेट पर गीली मिट्टी की पट्टी रखना है , इससे दर्द
उत्पन्न होकर आंवल बाहर आ जायेगा । प्रसूता को चित्त सुलाकर उसके पेडू पर ठंडे
पानी की मालिश करने से भी आंवल शीघ्र गिर जाता है । मालिश के साथ - साथ मेहन -
स्नान देने से काम अच्छा और शीघ्र होता है । कुशल दाइयां हाथ का सहारा देकर बड़ी
आसानी से आंवल निकाल लेती हैं,मगर
अनाड़ी दाइयों से यह काम कभी भी नहीं करायें ।
प्रसव के बाद
अधिक रक्त - स्राव
पहले - पहले यह स्राव अधिक
मात्रा में और लाल रंग का होता है ,
मगर बाद में मात्रा में कमी आती जाती है और रंग भी बदल कर सफेद पीव जैसी हो
जाता है , जो
बदबूदार भी होता है । ऐसी हालत में परेशानी ,
कमजोरी , प्यास
, अधिक
पसीना और कभी - कभी ज्वर भी हो आता है । इसके अतिरिक्त 8 - 10 मिनट के ही
प्रबल रक्त - स्राव से प्रसूता के हाथ पैर ठंडे हो जाते हैं, श्वास लेने
में कष्ट का अनुभव होने लगता है ,
तथा कभी - कभी उसकी मृत्यु भी हो जाती है । अतः इसके लिये नियमपूर्वक दिन में
दो बार गर्म पानी का डूश देकर प्रसूता के योनि मार्ग को अच्छी तरह धो देना चाहिए ।
इससे अन्दरूनी सफाई होकर गर्भाशय और उसके आसपास के अवयव अपनी स्वाभाविक अवस्था में
आकर रक्त के बंद होने में मदद करते हैं |
उसके बाद रोगिणी के दोनों पैरों को पानी में डुबोकर खूब ठंडे पानी में मेहन
स्नान देना चाहिए । मेहन स्नान सम्भव न होने पर उसके स्थान पर कटि स्नान भी दिया
जा सकता है , अथवा
नीचे लिखे अनुसार एक ठंडी पट्टी एक साफ पुरानी चद्दर को खूब ठंडे पानी में भिगोकर
निचोड़ लें और उसे नाभि से लेकर घुटने तक के आधे हिस्से के चारों तरफ लपेट दें ।
इस बात का ध्यान रहे कि चद्दर को लपेटते समय जांघ का भीतरी भाग , प्रसव द्वार
से मल - द्वार तक का स्थान ,
तथा नितम्ब का निचला हिस्सा भीगी चद्दर के स्पर्श में जरूर सिकुड़ जाता है
जिससे रक्तस्राव बंद हो जाता है । जब रोगिणी को जाड़ा मालूम दे तो उसे मेहन या कटि
स्नान की जगह पर इस पट्टी को ही देना ठीक रहता है । इस पट्टी के देने के साथ - साथ
रोगिणी के हाथों पैरों को गरम रखना नितान्त आवश्यक है । ऐसे समय में रोगिणी के
स्तनों पर ठंडा गरम सेंक देने से भी गर्भाशय सिकुड़ जाता है और उसके फल स्वरूप
रक्तस्राव बंद हो जाता है । आंवल गिरने में विलम्ब होने के कारण जो रक्त - स्राव
होता है उसके लिए आंवल जल्द गिरने के उपर्युक्त उपचार करने से आंवल गिर , रक्तस्राव आप
से बंद हो जायेगा । प्रसव के 24
घंटे के बाद भी कभी - कभी रक्तस्राव होता है जो कई दिनों तक कायम रहता है । इसका
कारण अधिकतर रोगिणी की दुर्बलता ही है जो प्रसव के बाद जल्दी ही घरेलू कामकाज शुरू
कर देने से होती है । इसके लिए रोगिणी की उपर्युक्त नाभि से आधे घुटनों तक की ठंडी
पट्टी देनी चाहिए जिसे आवश्यकतानुसार दिन में दो तीन बार बदलनी चाहिए । यह पट्टी
हर हालत में रक्त स्राव के आरम्भ होते ही लगानी चाहिए रात में पेडू पर गीली मिट्टी
की पट्टी लगाकर उसे रात भर तक लगी रहने देना चाहिए । रक्तस्राव के कारण यदि रोगिणी
को कमजोरी अधिक आ जाए तो उसके सिर के नीचे से तकिया हटाकर चारपाई का पायताना 8 - 9 इन्च ऊंचा
कर देना चाहिए इस से मस्तिष्क में रक्त की कमी के कारण मूर्छा आदि नहीं आने पाती ।
रक्तस्राव के बाद पुनः रक्त की मात्रा में वृद्धि करने के लिए रोगिणी को हर दो तीन
घंटे बाद गरम दूध दें । बीच - बीच में फल जूस और पानी भी पिलायें ।
प्रसव के समय
प्रसव - पथ का फट जाना
मलद्वार और योनि के बीच जो सीवन
होती है प्रसव के समय बहुधा उसका कुछ भाग फट जाता है । गर्भावस्था के अन्तिम दिनों
में प्रतिदिन कटि - स्नान लेने से प्रसव के समय ऐसी घटना नहीं होने पाती । प्रसव
के समय उस स्थान पर गरम ठंडी सेंक देने अथवा गरम पानी के डूश के प्रयोग करने से भी
सीवन को फटने से बचाया जा सकता है । सीवन के फट जाने पर उस स्थान पर गीली मिट्टी
की पट्टी या गीले कपड़े की पट्टी का प्रयोग करने से कुछ दिनों में वह भर जाता है ।
प्रसव के बाद
भी दर्द
प्रसव के बाद भी बहुत सी
स्त्रियों की कमर और पेडू में प्रसव की तरह ही दर्द हुआ करता है जो पेडू पर बारी -
बारी से गरम और ठंडी सेंक देने से दूर हो जाता है ।
प्रसव के बाद
पेशाब का रूकना
इसके लिये खूब पानी पीना चाहिए
और मेहन स्नान या पेडू पर पीली मिट्टी की पट्टी लगाना चाहिए ।
दूध - ज्वर
प्रसव के 2 - 3 दिन बाद
अक्सर प्रसूता के स्तन भारी होकर तन जाते हैं और तब दूध उतरता है । उस वक्त स्तन
सूज जाते हैं और उसमें दर्द और पकन होने लगती है , ज्वर हो आता है तथा सिर में दर्द और जाड़ा लगने लगता है ।
बच्चे के दूध पीने लगने पर प्रायः ये तकलीफें अपने आपसे आप दूर हो जाती हैं अन्यथा
रबर पम्प द्वारा दूध को खींचकर निकाल फेंकना चाहिए । इसके अतिरिक्त स्तनों पर गर्म
पानी से सेंक देकर उन पर भीगे कपड़े की
ठंडी पट्टी बांधनी चाहिए ।
स्तन प्रदाह
( थनैली )
बच्चे को स्तनपान न कराने अथवा
कितने ही अन्य कारणों से स्तनों में दूध जम जाता है जिससे वे फूल जाते हैं और कभी
- कभी ज्वर भी आ जाता है । इसके लिये रोग आरम्भ होते ही कई घंटे तक लगातार स्तनों
पर गरम पानी से भीगे और निचोड़े कपड़े से सेंक देना जरूरी है । इतने ही से रोग दूर
हो जायेगा । परन्तु यदि गरम पानी के सेक .से लाभ होता न दिखाई दे तो गरम और ठंडी
सेंक देना आरम्भ कर देना चाहिए ।
स्तनों से
अधिक दूध बहना
किसी - किसी प्रसूता के स्तनों
से ढेर का ढेर दूध बहा करता है और पीठ आदि में दर्द का अनुभव भी साथ - साथ होता है
। इसके लिये स्तनों पर लगातार ठंडे जल से भीगी पट्टी रखनी चाहिए और मेहन या कटि
स्नान नियमित रूप से लेना चाहिए ।
स्तनों में
दूध की कमी
कारण -
मिथ्या आहार विहार , भयंकर
रोग होने के कारण , स्तन्यकाल
में गर्भ रह जाना , मानसिक
आघात और शिशु के प्रति स्नेह में कमी ,
छोटी आयु में माता बनना ,
औषधि सेवन और टीका - इन्जेक्शन आदि ,
स्तनों का बहुत बड़ा - बड़ा होना और स्त्री का बहुत दुबला - पतला होना । अतः
उपर्युक्त कारणों को दूर करने के बाद माता के भोजन में उचित सुधार तथा कुछ उपचार
काम में लाने से उसके स्तनों में दूध की वृद्धि आसानी से की जा सकती है । ऐसी माता
को चाहिए कि वह चीनी ,
दाल , मैदा
, मिर्च
- मसाले , तली
चीजें , खटाई
- अचार , बासी
खाद्य तथा अन्य दुष्पाच्य भोजन लेना तुरन्त त्याग दे और उनके स्थान पर मौसमी ताजे
फल , ताजी
साग - सब्जिया , दूध , मक्खन , शहद , बिना पालिश
का चावल तथा चोकर मिला हुआ आटा ले । बेल पत्र दूध बढ़ाने में सहायक होते है , अतः 5 - 7 पत्ती बेल
की पीसकर प्रतिदिन पी लेने से बड़ा लाभ होता है । सप्ताह में कम से कम एक दिन
उपवास करना जरूरी है । इसके अतिरिक्त प्रतिदिन 20 - 30 मिनट तक स्तनों और सारे शरीर की सूखी मालिश के बाद स्नान , 5 - 10 मिनट तक धूप
स्नान ,कब्ज
रहने पर एनिमा का प्रयोग ,
ढीला वस्त्र पहनना तथा आवश्यक व्यायाम भी करना कम जरूरी नहीं है । साथ ही साथ
प्रतिदिन नियमपूर्वक मेहन स्नान या कटि स्नान लें और सप्ताह में एक बार भाप स्नान
भी ।
सूतिका रोग
या प्रसूत -
ज्वर सूतिका रोग या प्रसूत ज्वर
केवल उन्हीं स्त्रियों को होता है जो सगर्भावस्था के नियमों को पूरे तौर पर पालन
नहीं करतीं अथवा जिनके शरीर में प्रसव के बाद रोग को उत्तेजना देने के लिये यथेष्ट
विजातीय द्रव्य रह गया होता है । इसके अतिरिक्त प्रसवावस्था में चलना फिरना , प्रसव के
पहले ही रक्तस्राव का बन्द हो जाना ,
वायु लगना , ठंडा
पानी प्रयोग लाना , प्रसव
के बाद गर्भाशय में किसी प्रकार का मल रूक जाना या उसमें जखमादि हो जाना , प्रसव के बाद
ही सफर तथा मल - मूत्रादि रोकना आदि कारणों से भी शरीर में विष फैलकर जच्चा को
सूतिका रोग हो सकता है । प्रसूत ज्वर 103°
से 105° के
बीच घटता - बढ़ता रहता है ,
साथ ही गर्भाशय में पीड़ा होती है ,
दस्त - वमन होते हैं ,
जोड़ों में दर्द ,
हाथ पैर में ऐंठन तथा कभी - कभी बेहोशी भी हो जाती है । इस रोग को अच्छा करने
के लिये 10 से 20 मिनट तक
प्रतिदिन चार बार मेहन स्नान लेना चाहिए । अगर रोगिणी अति दुर्बल हो तो मेहन स्नान
का पानी ठंडा न लेकर थोड़ा गुनगुना लेना चाहिए । साधारण अवस्था में प्रतिदिन दो
बार मेहन स्नान और एक बार पेडू पर गीली मिट्टी की पट्टी देने से भी रोग में सुधार
शीघ्र होता है । पीली शीशी का सूर्यतप्त जल तीन हिस्सा और गहरी नीली शीशी का एक
हिस्सा मिलाकर 50 -
50 ग्राम की 6
खुराके दिन में लें ।