VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

भ्रूण एवं अपरा का विकास

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

गर्भाधान के क्षण से ही विकास की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। एक गर्भित कोशिका जो डिम्ब एवं शुक्राणु के सम्मिलन से निर्मित होती है, उसमें समस्त अनुवांशिक सूचनाएं कूट संकेतित रहती हैं जिससे कुछ समयांतराल के पश्चात एक पूर्ण मानव (जीव) का निर्माण होता है|

गर्भकालीन विकास के अवस्थाएँ

गर्भकालीन विकास की कुल अवधि 9 माह की होती है। इसे तीन अवस्थाओं में विभाजित किया गया है।शुक्राणु से गर्भित डिम्ब से बीजावस्था आरम्भ होती है। यह एक सप्ताह तक चलती है। इस अवधि में दूसरी कोशिका विभाजन की क्रिया बड़ी तीव्र गति से चलती है। भ्रूणावस्था में विकास की अवस्था प्रारंभ होती है।यह 1-7 सप्ताह तक की होती है इस अवधि में भ्रूण का संरचनात्मक विकास पूर्ण हो जाता है। तीसरी अवस्था गर्भस्थ शिशु की अवस्था है।यह अवस्था 3 माह से लेकर शिशु जन्म के पहले तक की है।इसमें शरीर के विभिन्न अंगों एवं मांसपेशियों का विकास पूर्ण हो जाता है और सभी शारीरिक अंग क्रियाशील हो जाते हैं। शिशु को जीवित रहने के लिए आवश्यक प्रक्रियाएं विकसित हो जाती हैं। गर्भकालीन अवधि को तीन चरणों में विभाजित कर शिशु के समुचित विकास की जानकारी माता पिता एवं चिकित्सक की होती है इन अवस्थाओं के विकास को मील के तीन पत्थरकहा जाता है|

गर्भकालीन अवस्था कुल 38 सप्ताह की होती है।इसे विकास के तीन चरणों में विभाजित किया जाता है।इसमें विकास के विस्तृत रूप को दर्शाया गया है |

बीजावस्था  (जन्म से 2 सप्ताह)

गर्भाधान से लेकर दो सप्ताह की अवधि तक होने वाला विकास, इस अवस्था के अंतर्गत आता है। गर्भाधान के 30 वें घंटे से प्रथम कोशिका विभाजन की प्रक्रिया आरंभ होती है।इससे दो कोशिकाएं निर्मित होती हैं। दूसरी कोशिका विभाजन दूसरे दिन होता है जिनसे चार कोशिकाएं बन जाती हैं।तीसरी कोशिका विभाजन में आठ कोशिकाएं पैदा होती हैं। यह एक खोखले तरल (फ्लूड) से भरी गेंद जैसा जिसे ब्लेस्तोसिस्ट कहा जाता है, की भांति आकार प्राप्त कर लेता है ।इसके बाद कोशिका विभेदन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।अंदर की कोशिकाएं भ्रूण के रूप में विकसित होने लगती हैं एवं बाहरी कोशिकाएं सुरक्षा कवच के रूप में भ्रूण सुरक्षा हेतु. विकसित होने लगती हैं ।

कभी कभी प्रथम कोशिका विभाजन के दौरान गर्भित डिम्ब से दो समान कोशिकाएं उत्पन्न हो जाती हैं एवं अलग-अलग दो भ्रूणों के रूप में  विकसित होने लगती हैं, परिणामत: अभिन्न जुड़वे बच्चे पैदा होते हैं। एक ही गर्भित कोशिका से अलग होकर विकसित होने के कारण इन जुड़वों में लिंग तथा दूसरी अन्य से स्खलित हो जाते हैं तथा दो अलग अलग शुक्राणुओं से गर्भित होकर गर्भावस्था में दो भ्रूणों के रूप में विकसित होने लगते हैं ।परिणामस्वरूप बच्चे जुड़वें पैदा होते हैं । चूंकि ये दो अलग- अलग शुक्राणुओं से दो डिम्बों के साथ गर्भित होकर विकसित होते हैं अत: इनमें लिंग अथवा वान्शानूगत  विशेषताओं की पूर्ण समानता नहीं होती ।अत: ये अपने दूसरे भाई- बहनों की भांति भिन्न विशेषताओं वाले होते हैं ।

 

 

डिम्ब एवं शुक्राणु का संयोजन

पुनरूत्पादन प्रक्रिया के अंतर्गत जीवन के निर्माण में, डिम्ब एवं शुक्राणु के संयोजन की अद्वितीय भूमिका है ।स्त्री में, मासिक धर्म प्रारंभ होने के 10 वें दिन दोनों डिम्बाशय में से किसी एक में डिम्ब उद्दीप्त होकर 3, 4 दिन में परिपक्व हो जाता है ।

13वें – 14वें दिन डिम्ब का फेलिक्ल कवच टूट जाता है जिससे डिम्ब स्खलित होकर दोनों में से किसी एक फैलपियन टियूब की ओर बढ़ने लगता है । जिस डिम्बाशय से वह गर्भित डिंब अपनी यात्रा प्रारंभ कर चुका है । यदि गर्भाधान अर्थात डिम्ब एवं शुक्राणु का संयोजन नहीं हो पाता तो डिम्बाशय सिकुड़ जाते हैं और गर्भाधान की रेखा मासिक धर्म के साथ - साथ सप्ताह के अंदर समाप्त हो जाती है । स्त्री पुरूष समागम के समय पुरूष द्वारा बहूत अधिक संख्या में शुक्राणु स्खलित होते हैं जिनकी संख्या करीब 300 करोड़ होती है ।परिपक्वता की अंतिम प्रक्रिया में शुक्राणु में एक पूँछ विकसित हो जाती है जिससे शुक्राणु लम्बी दूरी तक तैर करके फैलोपियन ट्यूब की ओर शीघ्रता से बढ़ता है, जहाँ सामान्यतया गर्भाधान सम्पादित होता है । शुक्राणुओं की यह यात्रा जटिल होती है ।करोड़ो शुक्राणुओं में से मात्र 300 से 500 तक शुक्राणु ही डिम्ब ( यदि फैलोपियन ट्यूब  में विद्यमान है ) यह तक पहुँच पाते हैं ।शुक्राणुओं की औसत आयु दो दिन (48 घंटे) की होती है ।अत: डिंब की प्रतीक्षा में ये तभी तक पड़े रह सकते हैं । चूंकि डिम्ब 24 घंटे तक जीवित रहता है । इसलिए प्रत्येक मासिक चक्र में सर्वाधिक प्रजनन कल 72 घंटे का होता है ।

शिशु पुत्र होगा या पुत्री ? उसकी वंशागत विशेषताएँ क्या होगी ? आदि इस पर निर्भर करता है कि डिम्ब किस शुक्राणु कोशिका से गर्भित हुआ है ? यद्यपि गर्भाधान एवं गर्भावस्था विकास प्रक्रिया की व्याख्या तो की जा सकती है, फिर भी बहुत से ऐसे अनुत्तरित प्रश्न रह जाते हैं जिनकी पूर्ण जानकारी हेतु शोधकर्ता अद्यावधि प्रयासरत हैं ।जैसे 100 पुत्री जन्म पर 160 पुत्र का जन्म औसतन पाया जाना चाहिए परंतु वास्तव में शिशु जन्म - अनुपात 100 पुत्री पर 105 पुत्र का ही है । ऐसा क्यों ? अनूसंधान दर्शाते हैं कि (1) स्त्री कोशिका (XX) की तुलना में पुरूष कोशिका  (Y) का आकार छोटा, गोल सिर एवं लम्बी पूँछ युक्त होता है तथा इनके जीवित रहने की अवधि भी कम होती है । (2) दूसरा प्रश्न यह है कि जन्म के समय लड़कों की मृत्यु, लड़कियों की तुलना में क्यों अधिक होती है ? इसके पर्याप्त जानकारी नहीं हो पायी है। यद्यपि बहुत से शुक्राणु डिम्ब की दीवार तक पहुंचते हैं तथापि किसी एक ही शुक्राणु से डिम्ब गर्भित होता है, शेष शुक्राणुओं का कैसे प्रवेश नहीं हो पाता ? प्रश्न भी अनुत्तरित है ।इस दिशा में अनूसंधान की आवश्यकता है ।

प्लेसेंटा एवं अम्बिलिकल कार्ड का विकास

दूसरे सप्ताह के अंत में कोरियन (रक्षात्मक झिल्ली) विकसित हो जाता है जो एमिआन को चारों ओर से घेरे रखता है। गर्भाशय  की दिवार पर प्लेसेंटा विकसित होने लगता है जो माँ एवं भ्रूण के विकास के लिये अपेक्षित पोषण, आक्सीजन इत्यादि भ्रूण तक पहुँचने के मध्य एक झिल्ली होती है इससे व्यर्थ पदार्थों को बाहर निकालने में सहायता मिलती है तथा यह माँ एवं भ्रूण के रक्त को सीधे- सीधे एक में मिलने से रोकती है। प्लेसेंटा भ्रूण के अम्बिलिकल कार्ड से जुड़ा होता है । बीजावस्था में यह शरीर के प्राथमिकता हिस्से जैसे उत्पन्न होता है एवं गर्भकालीन विकास के साथ 1-3 फीट तक लम्बा विकसित हो जाता है। इसमें दो धमनियाँ होती हैं जो भ्रूण में पोषणसमृद्ध रक्त पहूँचाती है तथा दो शिराएँ व्यर्थ पदार्थो को बाहर निकलती है। बीजावस्था के अंत तक भ्रूण माँ के गर्भ में सुरक्षित रूप से विकसित होने लगता हैं।इस अवधि तक कुछ महिलाओं को गर्भ का आभास नहीं हो पाता।

 

भ्रूणवस्था : ( 2 से 8 सप्ताह 12 माह )

ब्लेस्टूला के गर्भाशय की दीवार पर आरोपण से लेकर आठवें सप्ताह तक अर्थात दो माह तक की अवधि भ्रूणवस्था कहलाती है। इस अवधि में गर्भकालीन विकास तीव्रतम होता है तथा यह अवधि शारीरिक संरचनाओं एवं आंत्यंगों के विकास की आधारशिला बन जाती है। चूंकि शरीर का सर्वांग विकास एक साथ होता है अत: भ्रूण के स्वस्थ के बाधित होने का भय रहता है फिर भी किसी भी अल्पावधि के हानि की संभवाना स्वत: नियंत्रित हो जाती है। प्रथम मासांत के दो सप्ताहों में विकास तीव्रतम  गति से होता है। आरोपण के पश्चात् भ्रूण तीन प्रमुख सतहों में विभाजित होकर, विकसित होने लगता है। अथार्त भ्रूणगत तश्तरी में कोशिकाओं की तीन सतहें निर्मित हो जाती हैं।

1. वाह्य भाग : कोशिकाओं का वाह्य सतह स्नायुसंस्थान एवं त्वचा के रूप में निर्मित एवं विकसित होने लगता है।

2. मध्यभाग : मध्य सतह की कोशिकाओं से मांसपेशियाँ, हड्डियों का ढाँचा, रक्त संचार संस्थान एवं अन्य अन्त्यांग निर्मित होते हैं।

3. आन्तरिक भाग : कोशिकाओं की आंतरिक सतह से पाचन संस्थान, फेफड़े, मूत्राशय एवं अन्य ग्रंथियों का निर्माण होता है।

सर्वप्रथम स्नायु संस्थान का विकास सवार्धिक तीव्र गति शुरू होता है।एक्टोडर्म से स्नायविक ट्यूब अथवा प्राक स्पाइनल कार्ड का निर्माण होता है। ऊपरी कोशिका मस्तिष्क के रूप में साढ़े तीन सप्ताह में विकसित हो जाती है। न्यूरल ट्यूब के आन्तरिक हिस्से में सूचना संप्रेषण का कार्य करने वाले न्यूरान्स (मस्तिष्क कोशिकाएं) विकसित होने लगते हैं । एक बार निर्मित हो जाने के पश्चात् ये न्यूरान्स सूक्ष्म धागे के समान अपनी स्थायी दिशा की ओर अग्रसर होते हैं जिनसे कालान्तर में बड़े मस्तिष्क का निर्माण होता है।स्नायु संस्थान के विकास का साथ ही अन्य संस्थान अपना कार्य शुरू कर देते हैं।भ्रूण में रक्त संस्थान से रक्त संचालन हृदय द्वारा मांसपेशियों, रीढ़ की हड्डियों एवं रिब्स से प्रारंभ हो जाता है। पाचन तंत्र भी स्पस्ट होने लगता है । पहले माह के अंत तक लाखों कोशिकाएं विशिष्ट प्रकार्यों सहित निर्मित हो जाती हैं। भ्रूण की लम्बाई ¼ इंच हो जाती है ।

दूसरा माह :

दूसरे माह में भी भ्रूण का तीब्र विकास नियमित रूप से चलता रहता है।शरीर की विभिन्न संरचनाओं जैसे आंख, कान, जबड़ा एवं गले आदि का निर्माण हो जाता है।छोटी कलियाँ, टांग, अंगुली, भूजा एवं घुटने के रूप में, निर्मित हो जाती है।आन्तरिक अंग जैसे स्प्रिन, रक्त कोशिकाओं को स्वत: उत्पन्न करने लगते हैं जिससे याक कोशिकाओं की अब आवश्यकता नहीं होती।शारीरिक परिवर्तन स्पष्ट होने लगता है।भ्रूण का ऊपरी हिस्सा अधिक विकसित हो जाता है ।

इसकी लम्बाई 1 इंच एवं भार 1/7 औंस हो जाता है।मूँह एवं तलवे की सहायता से वह संवेदना महसूस करने लगता है परंतु उसका वजन इतना हल्का होता है कि  माँ शायद ही इसे महसूस कर पाती है।

गर्भस्थ शिशु अवस्था (3-9 माह तक):

गर्भकालीन विकास की यह अंतिम अवस्था है।यह अवस्था सर्वाधिक लम्बी होती है एवं गर्भकालीन विकास को अंतिम चरण तक पहूँचाती है।विशेष रूप से 9वें – 20वें सप्ताह के मध्य, विकास तीव्रतम गति सी होता है । विशेष रूप से इस अवधि में शरीर के आकार एवं भार में अतिशय वृद्धि होती है ।

तीसरे माह में भ्रूण के शारीरिक अंग, मांसपेशियाँ एवं स्नायु संस्थान आपस में संगठित एवं सम्बद्ध होने लगते हैं।गर्भस्थ शिशु, मस्तिष्क से संकेत प्राप्त करने लगता है एवं अनेक अनूक्रियाएँ (जैसे घूमना, भुजाओं एवं घुटनों का मोड़ना, मुंह खोलना, अंगूठा चूसना इत्यादि) करने लगता है।उसके छोटे- छोटे फेफड़े फैलने सिकुड़ने लगते हैं।श्वसन क्रिया प्रारंभिक चरण की शूरूआत हो जाती है।12वें सप्ताह तक, जननेद्रियाँ विकसित हो जाती हैं जिससे बच्चे के यौन के बारे में अल्ट्रासाउंड द्वारा जाना जा सकता है।शेष अंग जैसे जबड़े और नाखून विकसित हो जाते हैं।पलकें खुलने और बंद होने लगती हैं। प्रथम तिमाही (तीसरे माह) के अंत तक विकास पूरा जाता है।शेष दो त्रैमासिक में शिशु का विकास इस स्तर को हो जाता है कि वह माँ के गर्भ के बाहर भी जीवित रह सकता है|

द्वितीय त्रैमासिक : (17 – 20 सप्ताह) के मध्य तक गर्भवस्था शिशु इस स्तर तक विकसित हो जाता है कि माँ को उसकी गतिशीलता का अनुभव हो जाता है।गर्भस्थ शिशु का पूरा शरीर वर्निक्स से पूरी तरह ढका होता है, जो बच्चे की त्वचा को एम्निआटीक तरल के चिपकने से रक्षा करता है। पूरे शरीर में एक तरह का बाल जिसे डाऊनी हेयर कहते हैं, उग जाता है जो वार्निक्स स्टिक की सहायता से त्वचा की रक्षा करता है ।

द्वितीय त्रैमासिक के अंत तक बहुत से अंग पूरी तरह से विकसित हो जाते हैं एवं मस्तिष्क के विकास में एक महत्वपूर्ण चरण सम्पन्न होता है।अब न्यूरान्स अपने स्थान पर स्थिर हो जाते हैं तथा गर्भकालीनविकास के शेष महीनों में जन्म के उपरांत भी निरंतर विकसित होते रहते हैं ।

मस्तिष्क वृद्धि के साथ, नयी व्यवहार क्षमता में भी विकास होता है 20 सप्ताह की आयु के गर्भस्थ शिशु, शोर के प्रति उद्दीप्त/परेशान होता है एवं प्रकाश की प्रति अनुक्रिया कर सकता है ।

इस क्षमता की प्राप्ति के बावजूद इस आयु में जन्में बच्चे जीवित नहीं रह पाते क्योंकि अभी उनके फेफड़ों का विकास परिपक्व नहीं हो पाता है इससे उनकी श्वसन गति एवं तापमान- नियंत्रण की क्षमता विकसित नहीं हो पाती है।

तृतीय त्रैमासिक या अंतिम त्रैमासिक (22-26 सप्ताह) में समय से पूर्व जन्में शिशु के जीवित रहने की संभाव्यता पायी जाती है, इसे जीवन क्षमता की आयु कहा जाता है । परंतु 7वें – 8वें माह में जन्में बच्चे को अतिरिक्त ऑक्सीजन प्रदान करने की आवश्यकता होती है। भले ही मस्तिष्क का श्वसन तंत्र परिपक्व हो गया रहता है तथापि फेफड़ों में ऑक्सीजन ग्रहण करने एवं कार्बन मोनोअक्साइड को बाहर निकालने की पूर्ण क्षमता नहीं आ पाती है। अंतिम 3 महीनों में मस्तिष्क के विकास में महत्वपूर्ण प्रगति पायी जाती है। उच्च मस्तिष्क जो बुद्धि का केंद्र होता है, विकसित हो जाता है। गर्भस्थ शिशु वाहरी ध्वनि के प्रति अनुक्रिया करने लगता है। वह निकट की आवाज के प्रति अनुक्रिया कर सकता है तथा अंतिम माह तक माँ की लय एवं आवाज को वरीयता से सुनना पसंद करता है। आठवें माह में गर्भस्थ शिशु की लम्बाई 7 इंच एवं भर 5 पौंड का हो जाता है। त्वचा पर वसायुक्त सतह जम जाती है जो तापमान को नियंत्रित करने में सहायक होती है। माँ से प्राप्त प्रतिरोधक, बीमारियों से गर्भस्थ शिशु की रक्षा करते हैं। अंतिम सप्ताह में, गर्भस्थ शिशु का ऊपरी भाग (सिर की ओर का भाग) नीचे की ओर मुड़ जाता है ( संभवत: गर्भाशय  के आकार एवं पैर की तुलना में सिर के भारी होने के कारण), शिशु की वृद्धि धीमी हो जाती है तथा जन्म का समय निकट आने लगता है एवं शिशु जन्म के लक्षण शुरू हो जाते हैं।