VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

अम्ल पित्त – कारण, लक्षण एवं चिकित्सा

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

कारण -

अम्ल पित्त रोग मुख्य रूप से मानसिक उलझनों और खान-पान की अनियमितता के कारण उत्पन्न रोग है जिसके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित है-

·         भोजन सम्बन्धी आदतें अम्ल पित्त रोग का एक प्रमुख कारण है। कुछ व्यक्तियों में अयुक्ताहार-विहार से यह रोग हो जाता है। जैसे- मछली और दूध को एक साथ मिलाकर खाने से यह रोग हो जाता है।

·         इसके अतिरिक्त बासी और पित्त बढ़ाने वाले भोजन का सेवन करने से भी अम्ल पित्त रोग होता है। डिब्बाबंद भोजन का अत्यधिक सेवन करना भी अम्ल पित्त रोग को दावत देता है।

·         भोजन कर तुरन्त सो जाना या भोजन के तुरन्त बाद स्नान करने से भी यह रोग हो जाता है।

·         अम्ल पित्त रोग भोजन के बाद अत्यधिक पानी पीने से भी होता है।

·         ठूस-ठूस कर खाने से भी ये रोग हो जाता है।

·         यकृत की क्रियाशीलता में कमी होना भी इस रोग का प्रमुख कारण है।

·         यदि दूषित एवं खट्टे-मीठे पदार्थो का अधिक सेवन किया जाए तो भी यह रोग हो जाता है।

·         मल-मूत्र के वेग को रोककर रखना भी इस रोग की उत्पत्ति का कारण है।

·         नशीली वस्तुओं का अत्यधिक सेवन करना भी इस रोग का एक कारण है।

·         इस रोग का एक कारण उदर की गर्मी को बढ़ाने वाले पदार्थो का अधिक सेवन करना है।

·         अत्यधिक अम्लीय पदार्थो का बार- बार सेवन करने से भी यह रोग हो जाता है।

·         कई व्यक्ति अत्यधिक भोजन कर दिन में सो जाने की आदत होती है जिससे यह रोग हो जाता है।

·         दाँतों के रोगों के कारण भी अम्लपित्त रोग होने की सम्भावना रहती है।

·         भोजन के तुरन्त बाद खूब पानी पीना भी इस रोग की प्रमुख वजह है।

·         अम्ल पित्त रोग का ऋतु परिवर्तन और स्थान परिवर्तन से अति गहरा सम्बन्ध है।

·         अम्लता उत्पन्न करने वाली औड्ढधियों के निरन्तर सेवन से भी यह रोग हाता है।

लक्षण -

·         अपचन एवं कब्ज का सदैव बना रहना इस रोग का एक प्रमुख लक्षण है।

·         इस रोग के रोगी की आँखें निस्तेज हो जाती है।

·         जीभ पर सदैव हल्की सफेद- मैली परत जमी रहती है।

·         त्वचा मटमैली एवं खुरदुरी हो जाती है।

·         भोजन ठीक से नहीं पचता और कभी-कभी उल्टी भी होती है।

·         यदि उल्टी के साथ हरे-पीले रंग का पित्त भी निकले तो यह अम्ल पित्त का प्रमुख लक्षण समझना चाहिए।

·         अम्ल पित्त के रोगी को कड़वी और खट्टी ड़कारे आती है।

·         गले और सीने में तीव्र जलन होती है।

·         जी का मचलना, मुँह में कसौलापन एवं उबकाईयाँ आती है।

·         ऐसा व्यक्ति सदैव बेचैन और घबराया हुआ रहता है।

·         उदर में भारीपन रहता है।

·         अम्ल पित्त के रोगियों का मल निष्कासन के समय गर्म रहता है।

·         कभी-कभी पतले दस्त भी होते है।

·         मूत्र का रंग लाल-पीलापन लिये हुए होता है।

·         रोग की तीव्र अवस्था में षरीर में छोटी- छोटी फुन्सियाँ हो जाती है जिन पर खुजली भी होती है।

·         कई बार व्यक्ति आँखों के आगे अन्धेरा छा जाने की भी षिकायत करता है।

·         सिर में भारीपन एवं दर्द बना रहता है।

·         शरीर में सुस्ती एवं थकान बनी रहती है।

·         ऐसा व्यक्ति सदैव विचित्र एवं अनजाने भय से ग्रसित रहता है।

·         कई बार व्यक्ति के सम्पूर्ण षरीर में जलन होती है। रोगी हाथों, पैरों, आँखों और सिर पर जलन की षिकायत करता है।

·         अम्ल पित्त के कई रोगियों में रक्तस्त्राव भी हो जाता हैं।

·         अम्ल पित्त रोग यदि लम्बे समय तक बना रहे तो बाल झड़ने और सफेद होने लगते है।

·         अम्ल पित्त रोग जीर्ण हो जाने पर गैस्ट्रिक एवं ड्यूडिनम अल्सर में बदल जाता है।

यौगिक चिकित्सा –

अम्ल की अधिकता इस रोग की प्रमुख वजह है। अतः यौगिक चिकित्सा में ऐसे उपचार देने चाहिए, जो अम्ल की अधिकता को दूर कर सके।

षट्कर्म-

1.     षट्कर्मो में वमन इस रोग को दूर करने का अति उत्तम साधन है। आमाषय में असमय एवं अनिश्चित मात्रा में उठने वाले अम्ल को वमन द्वारा दूर करना चाहिए।

2.     सप्ताह में एक बार लघु-षंखप्रक्षालन द्वारा अपचे सड़े भोजन को दूर करना चाहिए तथा जठर की अति उत्तेजना को षान्त करना चाहिए।

3.     नेति, लौलिकी, व्याघ्र, अग्निसार और कुंजल क्रिया का नियमित रूप से अभ्यास करना चाहिए।

आसन-

ऐसे आसनों का अभ्यास करना चाहिए जिसका प्रत्यक्ष रूप से उदर पर प्रभाव पड़े। उदर की जठराग्नि की क्षीण शक्ति को वर्द्धित कर सके। इसके लिए षक्ति संचालन के अभ्यास जैसे- उत्तान पादासन, नौकासन, हलासन, सुप्त-पवनमुक्तासन, धनुरासन, भुजंगासन, मत्स्यासन, वज्रासन आदि आसनों का प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए।

प्राणायाम-

प्राणायाम मे अम्ल से उत्पन्न गर्मी को षान्त करने हेतु षीत्कारी, षीतली एवं चन्द्रभेदी प्राणायामों का अभ्यास करना चाहिए। यह हाथों, पैरों, सीने और पेट की जलन को दूर करने में सहायक है।

मुद्रा एवं बन्ध-

रोगी को जालन्धर बन्ध और उड्डियान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए। रोगी में प्राण ऊर्जा के स्तर को बनाये रखने हेतु प्राण मुद्रा का अभ्यास लाभकारी है।

ध्यान-

 रोगी को ध्यान के द्वारा असुरक्षा के भाव और मानसिक उलझनों को दूर करने की कोषिष करनी चाहिए। नाभि प्रदेष पर श्वासकी हलचल पर ध्यान करना चाहिए।  योगनिद्रा का भी नियमित अभ्यास करना चाहिए।

 

 

प्राकृतिक चिकित्सा –

 प्राकृतिक चिकित्सा में निम्न उपचार क्रम अपनाकर इस रोग से मुक्ति पायी जा सकती है-

·         इस रोग में उपवास अति लाभ करता है। अतः 2-3 दिन का उपवास करना चाहिए।

·         यकृत वाले स्थान पर प्रतिदिन हल्के हाथों से मसाज करनी चाहिए।

·         पानी में नींबू मिलाकर बार-बार पीना चाहिए।

·         इसके साथ ही नींबू मिले पानी का एनिमा देना चाहिए, जिससे दूषित अन्न कण बाहर निकल जाते है।

·         पेट पर 3 मिनट का गर्म सेंक और 2 मिनट का ठण्डा सेंक 3-4 बार देना चाहिए तथा पेट पर हाथों से हल्की मसाज भी देनी चाहिए।

·         स्नान से पूर्व सरसो एवं तिल के तेल से सम्पूर्ण षरीर पर मसाज करनी चाहिए।

·         तत्पश्चात कटि स्नान लिया जा सकता है।

·         कटि स्नान के पश्चात रोगी को थोड़ा टहलना चाहिए।

·         रोगी को प्रतिदिन गर्म पाद-स्नान देना चाहिए।

·         प्रतिदिन 15-20 मिनट के लिए उदर की ठण्डी मिट्टी की पट्टी देनी चाहिए।

·         आहार में ताजे फल, सलाद, उबली सब्जियाँ, मट्ठा, दही लेना चाहिए।

·         सूर्य तप्त पीले जल को 50-50 ग्राम की मात्रा में दिन-भर में 5-6 बार पीना चाहिए।

आहार चिकित्सा :

·         आहार चिकित्सा में पूर्ण प्राकृतिक एवं ताजे भोज्य पदार्थो को षामिल करे। अत्यधिक तले-भुने, गरिष्ठ और मिर्च-मसाले युक्त आहार कदापि ना ले।

·         रोगी को फलों में ताजे फल जैसे- नारंगी, आम, केला, पपीता देना चाहिए। कुछ समय के पष्चात् खूबानी, खरबूज, चीकू, तरबूज, सेब भी दे सकते है।

·         सूखे मेवे में अखरोट, खजूर, मुनक्का, किषमिष देना चाहिए। कुछ दिनों तक रोगी की सामथ्र्यानुसार सेब का पानी, नारियल का पानी, खीरा और सफेद पेठे आदि का रस देना चाहिए।

·         तोराई, टिण्डा, लौकी, परवल आदि की सब्जियाँ रोगी को खाने को दें। रोग के कम हो जाने पर मेथी, चैलाई, बथुआ आदि सब्जियाँ दी जा सकती है। यदि रोगी की आलू खाने की इच्छा हो तो रोगी को आलू उबालकर खाने को दें। ध्यान रखे यदि रोगी आलू ग्रहण कर रहा है तो आलू के साथ अन्य पदार्थ कदापि ना ले।

·         अम्ल पित्त रोग में कच्चे नारियल का दूध और गूदा का उपयोग करना चाहिए।

·         आँवले और अनार का रस भी अम्ल पित्त रोग में उपयोगी है।