पाचन तंत्र पर आसनों का प्रभाव:
आसनों का सीधा प्रभाव पाचन तंत्र
पर पड़ता है। यद्यपि आसन में यह सावधानी विशेष रूप से रखी जाती है कि आसन सदैव खाली
पेट ही किये जाने चाहिये। किन्तु व्रजासन का प्रभाव अभ्यास भोजन करने के तुरन्त
बाद किये जाने से भोजन का पाचन अच्छी प्रकार होता है। आसन करते समय पाचन अंगों पर
पोजेटिव और निगेटिव दबाव (दबाव और खिंचाव) उत्पन्न होता है। जिस समय इन अंगों पर
दबाव पड़ता है उस समय इन अंगों की ओर रक्त संचार बन्द हो जाता है तथा जैसे ही यह
दबाव हटता है उस समय बहुत तेजी के साथ रक्त उस अंग में भर जाता है, जिससे उस अंग
की गन्दगियाँ हटती है तथा उसे ज्यादा मात्रा में शुद्ध आक्सीजन एवं पोषक पदार्थो
की प्राप्ति होती है। इस प्रकार ऐसे आसनों का अभ्यास करने से पाचन तंत्र स्वस्थ
सक्रिय एवं मजबूत होता है।
धुनरासन, हलासन, पवनमुक्तासन, उत्तानपादासन, योग मुद्रासन, मण्डूकासन, शंशाकासन, उष्ट्रासन, अर्द्धमत्सेद्रासन, वज्रासन, सुप्त
वज्रासन तथा मयूरासन ऐसे आसन है जिनका प्रभाव पूरे पाचन तंत्र पर पड़ता है।
नियमित आसनों के अभ्यास करने से
अपच, गैस, भूख ना लगना, कब्ज, अल्सर, एसिडिटी, मधुमेह आदि
रोग नहीं होते है तथा इन आसनों का अभ्यास पाचन तंत्र को वज्र के समान मजबूत बना
देता है। शास्त्र का यह भी कथन है कि मयूरासन का अभ्यास विष को पचाने की क्षमता
प्रदान करने वाला होता है। इस प्रकार आसनों का अभ्यास पेट की मांसपेशियों को
मजबूती प्रदान करते हुए पाचन तंत्र को स्वस्थ, सक्रिय एवं मजबूत बनाता है।
आसनों के क्रम में बारह (12) आसनों को
सम्मिलित अभ्यास सूर्य नमस्कार कहलाता है। इस सूर्य नमस्कार का अभ्यास पाचन तंत्र
को स्वस्थ एवम सक्रिय बनाता है। साथ ही साथ कब्ज, मोटापा,
मधुमेह, गैस, पेट दर्द, भूख न लगना
आदि पाचन सम्बन्धित रोगों को दूर करता है।
उत्सर्जन
तंत्र पर आसनों का प्रभाव :
आसन उत्सर्जन तंत्र पर बहुत
अच्छा प्रभाव रखते हैं कुछ आसनों पर तो विशेष रूप से अनुसंधान करके पाया गया कि इन
आसनों का उत्सर्जन तंत्र पर तथा उत्सर्जन तंत्र से सम्बन्धित रोगों पर बहुत अच्छा
प्रभाव पड़ता है। उष्ट्रासन,
शलभासन, मत्यस्य
आसन, धुनरासन, भुजंग आसन, उत्तानमण्डुक
आसन (सुप्त वज्रासन) इसी क्रम के आसन हैं। अर्थात ये आसन उत्सर्जन तंत्र को
प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित तंत्र को स्वस्थ,
मजबूत, क्रियाशील
एवं विकार रहित बनाते हैं।
सूर्य नमस्कार के अभ्यास का भी
उत्सर्जन तंत्र पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि सूर्य
नमस्कार का अभ्यास करने से पहले एक गिलास गुनगुना अथवा गर्म पानी पीने से उत्सर्जन
तंत्र की क्रियाशीलता बढ़ती है एवं कम मूत्र की उत्पत्ति, वृक्क शोथ
(किडनी में सूजन), वृक्क
प्रदाह (किडनी में जलन),
किडनी स्टोन (पथरी) आदि रोगों पर नियन्त्रण प्राप्त होता है।
तंत्रिका
तंत्र पर यौगिक प्रभाव
1.
हमारा ध्यान हमेशा बाह्य वातावरण से आने वाली संवेदनाओं की
तरफ आकर्षित होता है और इसीलिए हमारा मन बाहर की ओर रहता है। आँखे बंद करते ही
बाहर से आने वाली 50-60
प्रतिशत संवेदनाएँ कम हो जाती हैं और हम अन्दर की ओर ध्यान दे पाते हैं। विचारों
की संख्या भी कम होती है। इसलिए योगाभ्यास करते वक्त आंखें बन्द करना ही अच्छा है।
मन और अन्दर जाने के लिए एकमात्र साधन है श्वास प्रश्वास। इसीलिए हठयोग ने
प्राणधारणा की संकल्पना दी है।
2.
रोज के दैनंदिन व्यवहार में हम हमेशा अपनी इच्छानुसार याने
बड़े मस्तिष्क से काम करते हैं। ऐसे समय,
हमारी वैचारिक, विश्लेषणात्मक
बुद्धि काम करती है। योगाभ्यास में इस तरह का बड़े मस्तिष्क का हस्तक्षेप अपेक्षित
नहीं है। जैसे, तैरना, साइकिल चलाना, टायपिंग आदि
में खास ध्यान न देते हुए भी हम काम कर सकते हैं। जान बूझकर या प्रयत्नपर्वक कुछ
करने की जरूरत नहीं होेती वैसे ही आसन में शुरू-शुरू में हमारा ध्यान भले ही, पेशिओं का
तान, जोड़ों
से आने वाली संवेदनाएँ इनके तरफ जाता हो,
बाद में प्राणधारणा या उसके बाद अनन्तकी ओर जाने देने से बड़े मस्तिष्क का
प्रभाव हट जाता है और लघुमस्तिष्क के नाड़ी केन्द्रों को सुचारू रूप से काम करने की
तथा अनैच्छिक नाड़ी संस्थान को भी उसका स्वाभाविक समतोल बनाएं रखने की सहूलियत
मिलती है।
3.
आसनों में पेशीसंकोच के रूप से किये गये प्रयत्न और बड़े
मस्तिष्क का हस्तक्षेप कम होते ही अनुकंपी स्वायत नाड़ीतंत्र का प्रभाव भी कम हो
जाता है। अब भावनाएँ अपना प्रभाव दिखा नहीं सकती। परानुंकपी स्वयत्त नाड़ी संस्थान
को काम करने का और शांतता प्रस्थापित करने का अच्छा मौका व पर्याप्त समय मिलता है।
इसके फलस्वरूप मनोकायिक शांतता व प्रसन्नता छा जाती है और नाड़ी तंत्र हृदय और
श्वसन का कार्यभार हल्का हो जाता है।
4.
आसन प्राणामायादि बहिरंग योग का प्रमुख उद्देश्य यह है कि
नाड़ी तंत्र को अच्छी तरह से मजबूत व विकसित करना ताकि आध्यात्मिक शक्ति (कुंडलिनी
शक्ति) जाग्रत होने पर उसे तोल सके,
सहन कर सके। बिल्कुल वैसे ही जैसे प्रबल विद्युत प्रवाह का वहन करने के लिए
उचित क्षमता वाली तार चाहिए। नाड़ी तंत्र अच्छी तरह से प्रशिक्षित तथा विकसित होने
से ही मानसिक स्थिरता,
एकाग्रता बढ़ती है जो ध्यानादि अंतरंग योग के लिए आवश्यक है।
आसन प्राणायामादि क्रियाएँ मूलतः
नाभि और उसके आसपास के प्रदेश तथा कटिप्रदेश और सुषुम्ना के आखरी हिस्से पर प्रभाव
डालती है। वहाँ पर रक्तसंचार बढ़ता है जिससे नाड़ी तंत्र की शाखाएँ, संज्ञाग्राहक
सशक्त बनते हैं और उत्तेजित भी होते हैं। इन्हीं संज्ञाग्राहकों से आने वाली
सर्वथा नई किस्म की संवेगों के कारण नाड़ी केन्द्रों को नयी प्रेरणा मिलती है और वे
इन संवेगों को समझने लगते हैं। इसी प्रदेश नयी प्रेरणा मिलती है और वे इन संवेगों
को समझने लगते हैं। इसी प्रदेश में परानुकंपी स्वयत्त नाड़ी तंत्र होता है जिसे नयी
तरह की उत्तेजनाएँ मिलती हैं। उनसे उसका ‘मल’ दूर होता है, यही नाड़ी
शुद्धि है।
अस्थि
व पेशीय तंत्र पर यौगिक प्रभाव :
1.
हमारे शरीर की कार्यक्षमता, कुशलता,
सफलता, संधियों
की मुड़ने की क्षमता, लचीले
पन पर निर्भर है। संधि की अधिकतम क्षमता उसके अच्छे स्वस्थ्य का सूचक है। संधि का
स्वास्थ्य उसकी मांसपेशियाँ,
अस्थि बंधन, उनको
मिलने वाला व्यायाम (प्रेरणा,
उत्तेजन), उनका
नियमित रूप से होने वाला उपयोग,
पोषण इस पर अवलंबित है। योगाभ्यास से लचीलापन बढ़ता है और संधि का स्वास्थ्य
अच्छी तरह से संभाला जाता है यह शास्त्रीय संशोधन में सिद्ध हो चुका है।
2.
मेरुदण्ड या रीढ़ हमारे जीवन व्यवहार का प्रमुख आधार है। वह
जितना स्वस्थ, सशक्त, बलवान, लचीला रहेगा
उतना हमारा दैनंदिन व्यवहार सुखद और बिना कोई परेशानी से होगा। करीब-करीब सारे
योगासन मेरुदण्ड से सम्बन्धित हैं। इसीलिए नियमित रूप से धीरे से, सहजता हके
साथ योगासान करने वाले को कमर या पीठ की कोई परेशानी नहीं होती। जब मेरुदण्ड
स्वस्थ होगा तो मानसिकता,
आचरण, कार्यक्षमता
यह सब उचित स्तर पर रहेगा। योग शास्त्र में इस पर विशेष ध्यान दिया गया है।
3.
आसनों के कारण पेशियों का स्वाभाविक संकोच (टोन) उचित स्तर
पर संतुलित रखा जाता है। इसीलिए भावनाओं का संतुलन भी अपने आप हो जाता है।
शिथिलीकरण में पेशी संकोच कम किया जाता है। ऐसी स्थिति में किसी प्रकार का मानसिक
तनाव नहीं रह सकता।
4.
व्यक्तित्व विकास में आसनों का योगदान इसीलिए है कि वे हमें
सही शारीरिक स्थिति (करेक्ट पोश्चर) और उचित या परिपूर्ण श्वास प्रश्वास और योग्य
स्वाभाविक संकोच प्रदान करते हैं।
परिसंचरण
एवं श्वसन तंत्र पर यौगिक प्रभाव :
1.
कुछ आसन जैसे- सर्वागासन, विपरीतकरणी,
शीर्षासन, हलासन, मयूरासन और
भस्त्रिका जैसे प्राणायाम,
उड्डियान, जालंधर
बंध इनका विशेष सम्बन्ध रक्त संवहन तंत्र से है। इसीलिए इन अभ्यासों को योग्य योग
शिक्षक द्वारा सीखना या उनके सामने करना उचित होगा।
2.
जिन्हें उच्च रक्तभार की शिकायत है उन्हें ऊपर निर्दिष्ट
योगाभ्यास नहीं करना चाहिए।
3.
आसन करते समय हृदयगति बहुत बढ़ना अपेक्षित नहीं है।
4.
पद्मासन,
वज्रासन में हृदय व रक्त संवहन प्रणाली पर कम से कम कार्य भार रहता है।
5.
शरीर और मन अच्छी तरह से शिथिल हो जाये तो मानसिक समाधान
एवं शांति मिल सकती है। तब स्नायविक तान भी कम हो जायेगा। इससे रक्त वाहिनियाँ भी
शिथिल हो जाती हैं और रक्तभार तथा हृदयगति भी कम हो सकती है। ऐसी मनोकायिक शांति
एवं प्रसन्नता सर्वदा कायम रखना योगाभ्यास से ही संभव है।
योग की
दृष्टि से विचार
1.
हर व्यक्ति के मनोशारीरिक व्यवहार, बर्ताव, आदतें, चयापचय
क्रिया इन बातों का श्वसनचक्र (रस्पिरेटरी सायकल) और उसकी गति, पेट या छाती
की हलचल, श्वसन
का तरीका आदि पर प्रभाव होता है। इसी कारण व्यक्तिनुसार भिन्नता पायी जाती है।
2.
हम हमारे शरीर में कहीं भी प्राणवायु इकट्ठा या जमा करके
नहीं रख सकते। शरीर को जब,
जितना प्राणवायु आवश्यक है उतना वातावरण से वह ले लेता है। यह कार्य स्वतः
होता रहता है अतः हमें उस ओर ध्यान देने की कोई जरूरत भी नहीं होती।
3.
हम किसी एक सीमा तक श्वास को दीर्घ कर सकते हैं, छोड़ सकते हैं
या रोक सकते हैं। गति बढ़ा भी सकते हैं। छाती या पेट इनमें से कोई भी एक या दोनों
का इच्छानुसार श्वसन के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।
4.
प्राणवायु प्रदान करने के अलावा नाड़ीतंत्र की जागृति, सजगता, ध्यान या
लक्ष्य इनके सम्बन्ध में भी श्वास प्रणाली का योगदान है। इच्छा से किये गये श्वास
का और मन का नजदीकी सम्बन्ध है और प्राणायाम में इसी का उपयोग कर लिया गया है।
5.
हम हमेशा या तो बांयी या तो दाहिनी नाक (नासिका) से श्वास
प्रश्वास करते हैं। एक नासिका करीब-करीब बंद होती है तो दूसरी पूर्णतया खुल जाती
है। यह चक्र बार-बार 1 से 4 घंटों के
बीच चलता रहता है। हमारा ध्यान इस नासिका चक्र (नेझल सायक) की ओर नहीं जाता
क्योंकि यह अनैच्छिक रूप से अपने आप होता है। दोनों नासिका बराबर-बराबर खुली हैं
यह बहुत कमबार या समय दिखाई देता है। योगशास्त्र ने इसका भरपूर लाभ उठाया है।
6.
श्वसन तंत्र एक ओर हमारे प्राण से जुड़ा है और दूसरी ओर मन
से जुड़ा है इसीलिए कहते हैं कि ‘श्वसन’ हमारे
आध्यात्मिक मार्ग की सीढ़ी है या प्राण और मन की बीच एक पुल (बीज) की तरह है।
अन्तःस्रावी
तंत्र पर योग का प्रभाव :
पीयूष
ग्रन्थि एवं योग-
आसनों का
प्रभाव-
शीर्षासन, सर्वांगासन, हलासन, कर्णपीड़ासन, अर्धहलासन, विपरीतकरणी, सूर्य
नमस्कार एवं संतुलन प्रदान करने वाले सभी आसन पिट्यूटरी ग्रन्थि को प्रभावित करते
हैं। हलासन, जानु
शीर्षासन जैसे आसन अतिकायता जैसे रोगों के लिए अति महत्वपूर्ण आसन है। आसन
ग्रन्थियों एवं आंतरिक अंगों की मालिश करते हैं और उन में दबाव डालते हैं जिससे
जमा हुआ अशुद्ध रक्त बाहर चला जाता है तथा शुद्ध रक्त को संचरण का अवसर मिलता है
जिससे ग्रन्थियों को नई शक्ति मिलती है।
पीनियल
ग्रन्थि एवं योग-
यह ग्रन्थि मस्तिष्क के मध्य में
स्थित होती है, मेडिकल
शोधकर्ताओं के अनुसार इस अंग में रक्त आपूर्ति शरीर के अन्य अंगों की तुलना में
अधिक होती है तो निश्चित हो यह कहा जा सकता है कि यह अंग अन्य अंगों की तुलना में
महत्वपूर्ण है और यह रक्त आपूर्ति निश्चित ही महत्वपूर्ण कार्यों में ही खर्च होती
होगी। अभी तक बहुत अधिक इस ग्रन्थि के विषय में ज्ञात नहीं हो पाया है। यह ग्रन्थि
मेलेटोनिन नामक हाॅर्मोन का नियमन करती है जो कि सैक्स हार्मोन है। अतः यौन विकास
में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बच्चों में पीनियल ग्रन्थि के सक्रिय होने से
ही यौन क्रियाएं नियन्त्रित रहती हैं। आध्यात्मिक रूप से यह ग्रन्थि आज्ञा चक्र से
सम्बन्धित है। त्राटक के अभ्यास से पीनियल ग्रन्थि सक्रिय होती है, चित्त एकाग्र
होता है और उच्च स्थिति प्राप्त होती है। महर्षि घेरण्ड ने त्राटक के अभ्यास से
दिव्य दृष्टि की प्राप्ति की बात कही है, दिव्य दृष्टि अर्थात् चित्त की शान्त और
एकाग्र अवस्था। चित्त की एकाग्रता से पीनियल ग्रन्थि खुलती है।
तर्क संगत कार्यों को नियमित
करने वाला हार्मोन सीरोटोनिन भी इसी ग्रन्थि के द्वारा नियंत्रित होता है। अतः
पीनियल के व्यावस्थित होने से बुद्धि एकाग्र होनी है। स्मरण शक्ति बढ़ती है। यह
दृष्टि से सम्बन्धित संवेदनाओं को भी नियन्त्रित करती है। शरीर नियन्त्रण, निद्रा एवं
ऐसे बहुत से कार्यों में पीनियल का नियन्त्रण है जो कि शरीर और मन दोनों के द्वारा
संचालित होते हैं। योग की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण ग्रन्थि है।
थाइराइड, पैराथाइराइड ग्रन्थि एवं योग-
आसनों का
प्रभाव-
विपरीतकरणी, सर्वांगासन, शीर्षासन, कर्णपीड आसन, हलासन, अर्द्धहलासन, पद्म सर्वांग
आसन, शलभासन, भुजंगासन, सिंहासन, मत्स्यासन
आदि आसन प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से थाइराइड और पैराथाइराइड ग्रन्थियों को प्रभावित
करते हैं।
हलासन
थाइराइड ग्रन्थि से निकलने वाला
हार्मोन थाइराक्सिन (जो कि आयोडीन और अमीनो अम्ल का मिश्रण होता है) आक्सीजन की
खपत को नियन्त्रित करता है। किसी कारण वश जब यह क्रिया मन्द हो जाती है तो चयापचय
पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उपरोक्त वर्णित आसनों के माध्यम से थाइरौक्सिन स्रावण
नियमित और नियन्त्रित होता है जो कि चयापचय के दृष्टिकोण से एक बड़ी उपलब्धि है।
वास्तव में चयापचय ही हमारे शरीर को ऊर्जावान रखने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है।
आसन मात्र शारीरिक ही नहीं बल्कि
कहीं अधिक मानसिक प्रभाव डालने वाली योगिक अवस्था है। आसन यदि ‘स्थिर
सुखमासनम्’ को
ध्यान में रखकर किया जाये तो अन्तःस्रावी तंत्र निश्चित ही प्रभावित होता है।
विश्रान्तिकारक आसन विशेष रूप से गले को साफ रखते हैं एवं विश्राम देते हैं।
मकरासन में विशेष रूप से जब श्वास नली शिथिल अवस्था में होती है तो इस ग्रन्थि को
भी आराम मिलता है।
एड्रीनल
ग्रन्थि एवं योग-
आसनों का
प्रभाव-
पेट और पीठ पर प्रभाव डालने वाले
अभ्यास एवं तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव डालने वाले अभ्यास मुख्य रूप से एड्रीनल
ग्रन्थि को प्रभावित करके उसके स्रावों को नियन्त्रित कर सकते हैं। जैसा कि पूर्व
में भी बताया जा चुका है यह ग्रन्थि भावनात्मक असंतुलन के फलस्वरूप अधिक प्रभावित
होती है अतः संधि संचालन के अभ्यास अधिक लाभप्रद सिद्ध हो सकते हैं।
विभिन्न शोध अध्ययनों के परिणाम
स्वरूप ज्ञात हुआ है कि सूक्ष्म भावनाऐं जोड़ों में एकत्र होकर वहां की लोच, शक्ति को
प्रभावित करते हैं। संधि संचालन के अभ्यास से संधियों को ऊर्जा मिलती है। रक्त
संचरण के ठीक होने से वहां के विजातीय द्रव्य उत्सर्जन, संस्थान से
बाहर चले जाते हैं। एवं अंग पुष्ट होता है,
मन शान्त होता है एवं शरीर और मन दोनों ही सामन्जस्य प्राप्त करते हैं।
पेट पर प्रभाव डालने वाले सभी
आसन विशेष लाभकारी हैं। सूर्य नमस्कार,
प्रज्ञा योग व्यायाम मण्डूल आसन,
वज्रासन, उत्तानपाद
आसन, पाद
चक्रासन, नौकासन, चक्रासन, मयूरासन, कुक्कुट आसन, पश्चिमोत्तान
आसन, भुजंग, धनुर आसन आदि
आसन विशेष प्रभाव डालते हैं।
पैन्क्रियाज
ग्रन्थि एवं योग-
अग्नाशयिक दीपिकाओं में अवस्थित
एल्फा कोशिकाऐं जो कि ग्लूकागान नामक हार्मोन का उत्पादन करती हैं। इन आसनों के
माध्यम से यह क्रिया प्रभावित होती है एवं शरीर को ऊर्जा प्राप्त होती है क्योंकि
यह हार्मोन ग्लाइकोजन को ग्लूकोज में परिवर्तित कर देता है जो मांसपेशियों को
कार्यशील बना देता है। इन्सुलिन ठीक इससे विपरीत कार्य करता है एवं यह ग्लाइकोजन
यकृत एवं पेशियों में एकत्र हो जाता है। इन्सुलिन शरीर की उत्तक कोशिकाओं की
पारगम्यता को बढ़ा देता है जिससे रक्त से ग्लूकोज कोशिकाओं में पहुंच जाता है। एवं
रक्त मे ग्लूकोज का स्तर सामान्य बना रहता है। डाइबिटीज होने पर यह क्रिया कम हो
जाती है एवं रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है। उपरोक्त आसनों के माध्यम से
इंसुलिन स्रावण प्रभावित होता है एवं इस रोग पर नियन्त्रण प्राप्त होता है। यहां
यह बात ध्यान रखने योग्य है कि मधुमेह रोगी उचित सलाह एवं देख-रेख में ही अभ्यास
करें एवं गोलियां अथवा इन्जेक्शन तुरन्त बन्द न करें बल्कि जाँच के बाद अंग के सही
तरीके से कार्य करने पर ही दवाइयों का सेवन कम अथवा बन्द करें।