अष्टांग योग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित व प्रयोगात्मक सिद्धान्तों पर आधारित योग के परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एक साधना पद्धति है। महर्षि पतंजलि से भी पूर्व योग का सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्ष विभिन्न ग्रंथों में उपलब्ध था परन्तु उसका स्वरूप बिखरा हुआ था। बिखरे हुए योग के ज्ञान को सूत्र में एक करने का कार्य महर्षि पतंजलि द्वारा ही हुआ है। कहा गया है- चित्त की मलिनता योग शास्त्र के द्वारा, वाणी (पद-वाक्य) की मलिनता (अशुद्धि) व्याकरण शास्त्र के द्वारा और शरीर की मलिनता वैद्यक शास्त्र के द्वारा जो दूर करता है, उस मुनिश्रेष्ठ पतंजलि को मैं अंजलिबद्ध रूप से प्रणाम करता हूँ।
महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र नामक ग्रंथ में तीन प्रकार की
योग साधनाओं का वर्णन किया है। प्रथम साधना उत्तम कोटि के साधकों के लिए है
जिन्हें केवल अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से ही समाधि की अवस्था प्राप्त हो जाती
है।
उत्तम कोटि के साधक ईश्वरप्रणिधान द्वारा भी साधना करके समाधि
भाव की प्राप्ति के पश्चात परम लक्ष्य सुगमता से प्राप्त कर सकते हैं। इसी आधार पर
सूत्रों में कथन है कि मध्यम कोटि के साधकों के लिए महर्षि पतंजलि ने दूसरे अध्याय
में क्रियायोग का वर्णन किया है। क्रिया योग का अर्थ बताते हुए कहा गया है-
तप स्वाध्यायेश्व्रप्रणिधानानि क्रियायोग 2/1
तप, स्वाध्याय
तथा ईश्वरप्रणिधान की संयुक्त साधना क्रिया योग कहलाती है। जिसका उद्देश्य समाधि
भाव को प्राप्त करना व क्लेशों को क्षीण करना है।
तृतीय प्रकार की साधना सामान्य कोटि के साधकों के लिए है जिनका
न तो शरीर शुद्ध है और न ही मन। ऐसे साधकों को प्रारम्भ से ही साधनारत रहते हुए
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रस्तुत अष्टांगयोग का आश्रय लेना चाहिए। ‘अष्टांग’ शब्द दो शब्दों
के मेल से बना है अर्थात् अष्ट + अंग, जिसका अर्थ है आठ अंगों
वाला। अतः अष्टांगयोग वह साधना मार्ग है जिसमें आठ साधनों का वर्णन मिलता है जिससे
साधक शरीर व मन की शुद्धि करके परिणामस्वरूप एकाग्रता भव को प्राप्त कर समाधिस्थ
हो जाता है तथा कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है। अष्टांग योग के विभिन्न भेद इस
प्रकार से है-
महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग को दो भागों में बॉंटा है -
बहिरंग योग एवं अन्तरंग योग।
बहिरंग योग
यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार
1. यम
जो अवांछनीय कार्यों से मुक्ति दिलाता है, निवृति दिलाता है वह यम कहलाता है।
यम की उत्पत्ति संस्कृत के दो धातु से माना गया है।
1. यम उप्रमे 2. यम बंधने
यम उप्रमे - ब्रहम में रमन करना
यम बंधने -
सामाजिक बंधन।
त्रिशिख ब्रहृमणोपनिषद के 29 वें श्लोक में कहा गया है
देह इन्द्रियसु वैराग्यण यम इति उच्य ते बुघै ।
अर्थात - यम शरीर और इन्द्रियों में वैराग्या की स्थिति है ऐसा
बुद्धिमान लोग मानते है।
यमयते नियम्यते चित्ति अनेन इति यम ।
अर्थात - चित्ति को नियम पूर्वक चलाना यम कहलाता है।
पातंजल योग सूत्र - यहॉ पांच प्रकार के यमों का वर्णन मिलता है।
अहिंसा सत्यास्तेतय ब्रहमचर्यापरिग्रहा यमाः । 2/30 योग सूत्र
अर्थात - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य और
अपरिग्रह ये पांच यम है। इन्हें सार्वभौम महाव्रत भी कहा गया है। ये महाव्रत तब
बनते हैं जब इन्हें जाति, देश, काल तथा
समय की सीमा में न बांधा जाये। इसमें सर्वप्रथम अहिंसा है।
क. अहिंसा -
अहिंसा का अर्थ है सदा और सर्वदा किसी प्राणी का अपकार न करना, कष्ट. न देना।
याज्ञवल्यकसंहिता में कहा गया है।
मनसावाचा कर्मणा सर्वभूतेषू सर्वदा।
अक्लेवश जननं प्रोक्त महिंसात्वेन योगिभि।।
अर्थात - मन, वचन
एवं कर्म द्वारा सभी जनों को क्लेरश न पहुँचाने को ही महर्षि जनों ने अहिंसा कहा
है।
व्याससभाव्य - में व्यास जी ने कहा है कि
अहिंसा सर्वदा सर्वभूतानामनभिदोह।
अर्थात - सभी प्राणियों के प्रति हर प्रकार से विद्रोह भाव का
परित्याग करना अहिंसा है।
पातंजल योग सूत्र में अहिंसा के फल के बारे में लिखा है-
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सनिधौ वैरत्याग। 2/35
अर्थात - अहिंसा की पूर्णता और स्थिरता होने पर साधक के सम्पर्क
में आने वाले सभी प्राणियों की हिंसा बुद्धि दूर हो जाती है। यह अहिंसा का मापदण्ड
है।
ख. सत्य- सत्य
का अर्थ है- मन, वचन और कर्म में
एकरूपता। अर्थात अर्थानुकूल वाणी और मन का व्यवहार होना, जैसा
देखा और अनुमान करके बुद्धि से निर्णय किया अथवा सुना हो, वैसा
ही वाणी से कथन कर देना और बुद्धि में धारण करना।
मनुस्मृति - में कहा है सत्य,
मित एवं हित भाषी हों।
सत्यंम बु्रयात प्रियं बु्रयात मा बु्रयात सत्यभ्मपियम्
अर्थात - सत्य बोले, परन्तुं प्रिय शब्दों में बोले, अप्रिय सत्य न
बोलें। परन्तु प्रिय लगने के लिए असत्य भाषण न करें, ऐसा
पुरातन विधान है। जैसे नेत्रहीन को अन्धा कह देना सत्य है, चोर
को चोर कह देना भी सत्य है- किन्तु यह अप्रिय सत्य है।
मुण्डकोपनिषद कहता है - सत्ययमेवजयते नानृतं।
अर्थात - सत्य की जीत होती है,
असत्य की नहीं।
आयुर्वेद चरकसूत्र में कहा गया है-
‘ऋतं बु्रयात सत्य बोलना चाहिए।
महाभारत शांतिपर्व - सत्य बोलना अच्छा है, परन्तु सत्य में भी ऐसी बोली बोलना अच्छा होता
है, जिससे सब प्राणियों का वास्तविक हित होता है वह हमारी
नजरों मन में सत्य है।
पातंजल योग सूत्र- में सत्य के फल के बारे में कहा हैः
सत्य्प्रतिष्ठा्यां क्रियाफलाश्रयत्वम। 2/36
अर्थात - सत्य की प्रतिष्ठा होने पर वाणी और विचारों में क्रिया
फल दान की शक्ति उत्पन्न- हो जाती है। ऐसा व्यक्ति जो कुछ भी बोलता है, वह फलित होने लगता है अर्थात वह वाक् सिद्ध हो
जाता है।
ग. अस्तेय - स्तेय
का अर्थ है- अधिकृत पदार्थ को अपना लेना। इसे भी बुद्धि वचन और कर्म से त्याग देना
अस्तेय है।
शांडिल्यो्पनिषद के 1/1 श्लोक में कहा गया है-
अस्तेलयं नाम मनोवाक् कायकर्मभि परद्व्येमषु निस्पृहता।
अर्थात - शरीर, मन
और वाणी द्वारा दूसरों के द्रव्य की इच्छा न करना अस्तेय कहलाता है।
याज्ञवल्यक संहिता में कहा गया है -
मनसा वाचा कर्मणा परद्रव्येषु निस्पृाह।
अस्तेवयनिति सम्प्रोयक्तं ऋषिभ्ज्ञि तत्व दर्शिभि।।
अर्थात - मन, वचन
और कर्म से दूसरे के द्रव्य की इच्छा न करना अस्तेय है। तत्वदर्शी ऋषियों ने ऐसा
ही कहा है।
व्यास भाष्य में महर्षि व्यास लिखते है कि-
स्तेयमशास्त्र।पूर्वकंद्रव्यारणांपरतस्वीकरणम्तत्प्रअतिषेध
पुनरस्पृशहारूपमस्तेयमिति।
अर्थात - शास्त्रीय ढंग से अर्थात् धर्म के विरूद्ध अन्याय
पूर्वक किसी दूसरे व्यक्ति के द्रव्य इत्यादि को ग्रहण करना स्तेय है, पर वस्तु में राग का प्रतिषेध होना ही ‘अस्तेश्य’ है।
योग सूत्र - में अस्तेय सिद्धि के विषय में कहा है -
अस्तेयप्रतिष्ठा यां सर्वरत्नो प्रस्थानम। 2/37
अर्थात - अस्तेय की दृढ़ स्थिति होने पर सर्व रत्नों की प्राप्ति
होती है।
घ. ब्रहमचर्य - मन को
ब्रहम या ईश्वर परायण बनाये रखना ही ब्रहमचर्य है। वीर्य शक्ति की अविचल रूप में
रक्षा करना या धारण करना ब्रहमचर्य है।
महर्षि व्यास ने लिखा है -
ब्रहमचर्य गुप्तेन्द्रियस्योरपस्थरस्य संयम।
अर्थात - गुप्त इन्द्रिय (उपस्थेन्द्रिय) के संयम का नाम
ब्रहमचर्य है।
‘शाडिल्योपनिषद में इसकी और सूक्ष्म व्याख्या
करते हुए कहते है
ब्रहमचर्य नाम सर्वावस्थासु मनोवाक काय कर्मभि सर्वत्तमेथुन
त्यागः।
अर्थात - सभी अवस्था में सर्वत शरीर, मन और वाणी द्वारा मैथुन का त्यायग ब्रहमचर्य
कहलाता है।
ब्रहमचर्य सिद्ध कर लेने वाले साधकों के संबंध में पातंजल योग
सूत्र में कहा गया है-
ब्रहमचर्यप्रतिष्टा या वीर्यलाभ। 2/38
अर्थात - ब्रहमचर्य की प्रतिष्ठा होने पर साधक को वीर्य लाभ
होता है। वीर्य लाभ होने से साधना के अनुकूल गुण समूह पैदा होते है। जिससे
योगाभ्यासी को आत्मज्ञान प्राप्त होता है।
ड. अपरिग्रह - संचय
वृत्ति का त्याग ‘अपरिग्रह’
है।
विषयों के अर्जन में, रक्षण उनका क्षय, उनके संग और उनमें हिंसादि दोष को
विषयों को स्वीकार न करना ही अपरिग्रह है।
इन्द्रियाणां पसंगेन दोषमृच्छत्य संशयम।
सन्नियम्यण तु तान्येछव ततरू सिद्धिं नियच्छ्ति।। मनुस्मृति 2/13
अर्थात - इन्द्रियों के विषयों में आशक्त होने से व्यक्ति
निःसंदेह दोषी बनता है परन्तु इन्द्रियों को वश में रखने से विषयों के भोग से
पूर्ण विरक्तं हो जाता है। ऐसे आचरण से अपरिग्रह की सिद्धि होती है।
पूर्ण अपरिग्रह को प्राप्त साधक में काल-ज्ञान संबंधी सिद्धि आ
जाती है, पातंजल योग सूत्र का इस संबंध में कथन है-
अपरिग्रहस्थैर्य जन्मदकथन्ता सम्बोंध। 2/39
अर्थात - अपरिग्रह के स्थिर होने से जन्म-जन्मान्तर का ज्ञान
प्राप्त होता है। इसका अर्थ हुआ कि पूर्वजन्म- में हम क्या थे, कैसे थे। इस जन्म की परिस्थितियॉं ऐसी क्यों
हुई एवं हमारा भावी जन्म कब,कहॉं, कैसा
होगा। इस ज्ञान का उदय होना अपरिग्रह साधना द्वारा ही सम्भव होता है।
2. नियम
नियम का तात्पर्य आन्तरिक अनुशासन से है। यम व्यक्ति के जीवन को
सामाजिक एवं वाह्य क्रियाओं के सामंजस्य पूर्ण बनाते है और नियम उसके आन्तरिक जीवन
को अनुशासित करते हैं।
नियमों के अन्तर्गत शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणीधान आते हैं। अपने जीवन में इस अनुशासन को उत्पन्न और विकसित करना
आवश्यक है। योग सूत्र में कहा है -
शौचसन्तोषतपरूस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानि नियमा। 2/32
अर्थात- शौच, संतोष,
तप, स्वाणध्याय व ईश्वर प्रणिधान ये 5 नियम है
क. शौच- शौच का अर्थ है
परिशुद्धि, सफाई, पवित्रता। न खाने लायक चीज को न खाना, निन्दितों के
साथ संग न करना और अपने धर्म में रहना शौच है। शौच मुख्यतः दो है बाह्य और आभ्यान्तर।
शौच या पवित्रता दो प्रकार की कहीं गई है।
1. बाह्य 2. आभ्यान्तर शौच।
1. बाह्य शौच- जल व मिट्टी आदि से शरीर की शुद्धि, स्वार्थ त्याग, सत्याचरण
से मानव व्यवहार की शुद्धि, विद्या व तप से पंचभूतों की
शुद्धि, ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि ये सब बाह्रा शुद्धि
कहलाती है।
2. आन्तरिक शौच - अंहकार, राग,
द्वेष, ईष्र्या , काम,
क्रोध आदि मलों को दूर करना आन्तरिक पवित्रता कहलाती है।
योग सूत्र - में इसके फल के विषय में कहा है कि
शौचात्स्वागजुप्सा परैरसंसर्गः। 2/40
अर्थात - शौच की स्थिरता होने पर निजी अंग समूह के प्रति घृणा
और परदेह संसर्ग की अनिच्छा होती है।
ख. सन्तोष - सन्तोष
नाम सन्तुष्टि का है। अन्तःकरण में सन्तुष्टि व भाव उदय हो जाना ही सन्तोष है।
अर्थात - अत्यधिक पाने की इच्छा का अभाव ही सन्तोष है।
मनुस्मृति कहती हैं सन्तोष ही सुख का मूल है। इसके विपरित असंतोष
या तृष्णा ही दुख का मूल है।
योग सूत्र - में सन्तोष का फल बताते हैं
सन्तोषादनुत्तैमसुखलाभ। 2/42
अर्थात - चित्तम में सन्तोष भाव दृढ़ प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी
को निश्चय सुख यानी आनन्दत प्राप्त होता है।
ग. तप - अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और
योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके पालन में जो शारीरिक या मानसिक
अधिक से अधिक कष्ट, प्राप्त हो, उसे
सहर्ष करने का नाम ही ‘तप’ है।
तपो द्वन्दसहनम् - सब प्रकार के द्वन्दों को सहन करना तप है। तप
के बिना साधना, सिद्धि नहीं होती है,
अतः योग साधना के काल में सर्दी, गर्मी,
भूख, प्यास, आलस तथा
जड़तादि द्वन्दों को सहन करते हुए अपनी साधना में उसका रहना ‘तप’
कहा जाता है।
योग सूत्र - में तप का फल बताते हुए कहा है
कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयान्त्तफपस। 2/43
अर्थात - तप के प्रभाव से जब अशुद्धि का नाश हो जाता है तब शरीर
और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है। तप के द्वारा क्लेशों तथा पापों का क्षय नाश
हो जाने पर शरीर में तो अणिमा महिमादि सिद्धि आ जाती है, और इन्द्रियों में सूक्ष्मता अर्थात दूर दर्शन,
दूर श्रवण दिव्य गन्ध , दिव्य रसादि सूक्ष्म
विषयों को ग्रहण करने की शक्ति भी आ जाती है। अतः योगी के लिए तप साधना नितांत
आवश्यक है।
घ. स्वायध्याय - स्वाध्याय
का तात्पर्य है आचार्य विद्वान तथा गुरूजनों से वेद उपनिषद् दर्शन आदि मोक्ष
शास्त्रों का अध्ययन करना।यह एक अर्थ है। स्वाध्याय का दूसरा अर्थ है स्वयं का
अध्य यन करना यह भी स्वाध्याय ही है।
योग भाष्य - 2/1
में महर्षि व्यास जी ने लिखा है -
‘स्वाध्यायय प्रणव श्रीरूद्रपुरूषसूक्तासदि
मन्त्राणां जपमोक्ष्यशास्त्रा ध्यआयभ्चक’।।
अर्थात - प्रणव अर्थात ओंकार मन्त्र का विधि पूर्वक जप करना
रूद्र सूक्त् और पुरूषसूक्त आदि वैदिक मन्त्रों का अनुष्ठान पूर्व जप करना तथा
दर्शनोपनिषद एवं पुराण आदि आध्यात्मिक मोक्ष शास्त्रों का गुरूमुख से श्रवण करना
अर्थात अध्ययन करना स्वाध्याय है।
पं0 श्री
राम शर्मा के अनुसार अच्छी पुस्तके जीवन देव प्रतिमायें है, जिनकी
आराधना से तत्काल प्रकाश और उल्लास मिलता है।
पातंजल योग सूत्र में स्वाध्याय के फलों का वर्णन किया है
स्वाध्यादिष्टादेवतासम्प्रयोग 2/44
अर्थात - स्वाध्याय से इष्टदेवता की भलीभांति प्राप्ति
(साक्षात्कार) हो जाती है।
शास्त्राभ्यास, मंत्रजप
और अपने जीवन का अध्ययन रूप स्वाध्याय के प्रभाव से योगी जिस ईष्ट देव का दर्शन
करना चाहता है, उसी का दर्शन हो जाता है।
ड. ईश्वर प्रणिधान - ईश्वर
की उपासना या भक्ति विशेष को ईश्वर प्रणिधान कहते है।
परमेश्वर के निर्मित अर्पित कर देना ईश्वर प्रणिधान है।
अथर्ववेद कहता है हे वरणीय परमेश्वर । हम जिस शुभ संकल्प इच्छा
से आप की उपासना में लगे हुए है आप उसमें पूर्णत प्रदान करें सिद्धि दें और हमारे
समस्त कर्म तथा कर्मफल आप के निमित अर्पित है, इसी का नाम ईश्वर प्रणिधान है।
योग सूत्र के 1/23
सूत्र में ‘ईश्वहरप्रणिधानाद्वा’
अर्थात - ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि, शीघ्र होने की बात कही है, और यही बात 2/45 सूत्र में कहा है
समाधिसिद्धिरीश्वसरप्रणिधानात।
अर्थात - ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है। ईश्वर
प्रणिधान से ईश्वर की अनुकम्पा् होती है। उस अनुभव से योग के समस्त अनिष्ट दूर हो
जाते है तब योग सिद्धि में नहीं होता, योगी शीघ्र ही योगसिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
3.आसन
आसन शब्द् संस्कृ्त भाषा के अस धातु से बना है जिनका दो अर्थ
है। पहला है सीट बैठने का स्थान , दूसरा
अर्थ शारीरिक अवस्था
शरीर मन और आत्मा जब एक संग और स्थिर हो जाता है, उससे जो सुख की अनुभूति होती है वह स्थिति आसन
कहलाती है।
तेजबिन्दुपनिषद में आसन के विषय में कहा है -
सुखेनैव भवेत् यस्मिन्न जस्रं ब्रहमचिन्तम
अर्थात जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरन्तर परमब्रहम का
चिन्तन किया जा सके उसे ही आसन समझना चाहिए। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है
-
योग सूत्र के अनुसार-
स्थिरसुखमासनम 2/46 यो0सू0
अर्थात - स्थिर और सुख पूर्वक बैठना आसन कहलाता है।
4. प्राणायाम
प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है। प्राण +आयाम ।
प्राण का अर्थ होता है, जीवनी शक्ति, आयाम के दो अर्थ है। पहला- नियन्त्रण
करना या रोकना तथा दूसरा लम्बा या विस्तार करना।
प्राणवायु का निरोध करना ‘प्राणायाम’ कहलाता है।
योग सूत्र में प्राणायाम को इस प्रकार प्रतिपादित किया है - ’’तस्मिन् सति श्वासप्रश्वापसयोर्गतिविच्छेलद
प्राणायाम। 2/49
अर्थात - उसकी (आसनों की) स्थिरता होने पर श्वास-प्रश्वास की
स्वाभाविक गति के नियमन करना ‘’प्राणायाम
है।
5. प्रत्याहार
पातंजल योग में प्राणायाम के पश्चात प्रत्याहार का कथन एवं
विवेचन उसकी उपयोगिता की दृष्टि से किया गया है। प्रत्याहार का सामान्य अर्थ होता
है, पीछे हटना उल्टा होना, विषयों
से विमुख होना। इसमें इन्द्रिया अपने बहिर्मुख विषयों से अलग होकर अन्तर्मुख हो
जाती है, इसलिए इसे प्रत्याहार कहा गया है। इन्द्रियों के
संयम को भी प्राणायाम कहते है।
त्रिशिखिब्राहनणोपनिषद के अनुसार -
चित्तिस्थ्योन्तुर्मुखी भाव प्रत्याहारस्तु सत्तयम
अर्थात - चित्त का अन्तर्मुखी भाव होना ही प्रत्याहार है।
महर्षि पतंजलि ने प्रत्याहार का लक्षण निम्न प्रकार से
प्रतिपादित किया है।
स्वथविषयासम्प्रयोगे चित्तम स्वतरूपानुकार इवेन्द्रियाणां
प्रत्याहार।
अर्थात - अपने विषयों के साथ इन्द्रियों का संबंध न होने पर, चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना अर्थात् चित्त
के स्वरूप में तदाकार सा हो जाना प्रत्याहार कहलाता है।
प्रत्याहार का फल बतलाते हुए महर्षि पतंजलि लिखते है-
ततः परमा वश्यततेन्द्रियाणाम 2/55 यो0 सू0
अर्थात - उस प्रत्याहार से इन्द्रियों की सर्वात्कृष्टा वश्यता
होती है अर्थात प्रत्याहार से इन्द्रियां एकदम वशीभूत हो जाती है।
अन्तरंग साधन
महर्षि पतंजलि ने निम्न तीन अन्तरंग साधन बताये है।
धारणा
ध्यान
समाधि
1.धारणा
महर्षि पतन्जलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग के अन्तरंग यह
योग का छठा अंग है। मन (चित्त ) को एक विशेष स्थान पर स्थिर करने का नाम ‘धारणा’ है। यह वस्तुतः मन
की स्थिरता का घोतक है।
हमारे सामान्य दैनिक जीवन में विभन्न प्रकार के विचार आते जाते
रहते है। दीर्घकाल तक स्थिर रूप से वे नहीं टिक पाते और मन की सामान्य एकाग्रता
केवल अल्प समय के लिए ही अपनी पूर्णता में रहती है। इसके विपरीत धारणा में
सम्पूकर्णत चित्त की एकाग्रता की पूर्णता रहती है।
महर्षि पतंजलि द्वारा धारणा का निम्न लक्षण बतलाया गया है-
‘’देशबन्ध्श्चतस्य धारणा’’।
3/1 यो0 सू0
अर्थात - (बाहर या शरीर के भीतर कही भी) किसी एक स्थान विशेष
(देश) में चित्त को बांधाना धारणा कहलाता है।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब किसी देश विशेष में चित्त की वृत्ति
स्थिर हो जाती है और तदाकार रूप होकर उसका अनुष्ठान होंने लगता है तो वह ‘धारणा’ कहलाता है।
2.ध्यान
धारणा की उच्च अवस्था ध्यान है ध्यान शब्द की उत्पत्ति
ध्येचित्तायाम् धातु से होती है जिसका अर्थ होता है,
चिन्तन करना। किन्तु यहाँ पर ध्यान का अर्थ चिन्तन करना नहीं अपितु
चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात् चित्त को एक ही लक्ष्य पर स्थिर करना।
सामान्यतः ईश्वर या परमात्मा में ही अपना मनोनियोग इस प्रकार
करना कि केवल उसमें ही साधक निगमन हो और किसी अन्य विषय की ओर उसकी वृत्ति आकर्षित
न हो ‘ध्यान’ कहलाता है। योग
शास्त्रो के अनुसार जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाये उसी में चित्त का
एकाग्र से जाना अर्थात् केवल ध्येय मात्र में एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह चलना,
उसके बीच में किसी दूसरी वृत्ति का नहीं उठना ‘ध्यान’ कहलाता है।
महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र में ध्यान को इस प्रकार प्रतिपादित
किया है।
‘’तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम‘’ 3/2 यो0 सू0
अर्थात्- इस देश में ध्ये्य विषयक ज्ञान या वृत्ति का लगातार एक
जैसा बना रहना ध्यान है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिसमें धारणा की गई उसमें चित्त
जिस वृत्ति मात्र से ध्येय में लगता है, वह वृत्ति जब इस प्रकार समान प्रवाह से लगातार उदित होता रहे कि कोई दूसरी
वृत्ति बीच में न आये उसे ‘ध्यान’ कहते
है।
3.समाधि
अष्टांग योग में समाधि का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है।
साधना की यह चरम अवस्था है, जिसमें
समाधि स्वयं योगी का बाह्य जगत् के साथ संबंध टूट जाता है। यह योग की एक ऐसी दशा
है, जिसमें योगी चरमोत्कर्ष की प्राप्ति कर मोक्ष प्राप्ति
की ओर अग्रसर होता है। और यही योग साधना का लक्ष्य है। अतः मोक्ष्य प्राप्ति से
पूर्व योगी को समाधि की अवस्था से गुजरना पड़ता है। योग शास्त्र में समाधि को मोक्ष
प्राप्ति का मुख्य साधन बताया गया है, योग भाष्य में सम्भमवत
इसलिए योग को समाधि कहा गया है। यथा ‘’योगः समाधि’’ पातंजलि योगसूत्र में चित्त की वृतियो के निरोध को योग कहा गया है।
योगश्चितवृत्ति निरोध। समाधि अवस्था में भी योगी की समस्त प्रकार की चित्त वृत्तियां
निरूद्ध हो जाती है।
महर्षि पतंजलि ने समाधि का स्वरूप निम्न प्रकार से बताया है-
‘’तदेवार्थमात्रनिर्भासंस्वरूपशून्यनमिव समाधि।‘’
3/3 यो0सू0
अर्थात् - जब (ध्यान में) केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीती होती
है और चित्त का निज स्वथप शून्य सा हो जाता है, तब वह (ध्यान ही) समाधि हो जाता है।