तंत्र उपासना और भारत का गहरा रिश्ता है. इसी धरती पर इसने जन्म लिया और सालों तक अपने को विकसित करता रहा है. आज भी भारत और तंत्र एक दूसरे के पर्याय हैं. सहसा एक स्वेद बूंद की तरह उपजा यह विज्ञान आज अतल गहराई वाला समुद्र बन चुका है. इसका इतिहास जितना पुरातन है, इसके प्रयोग उतने ही नूतन है. यहां हम भारतीय तंत्र उपासना के हरेक पहलू का सांगोपांग अध्ययन करने का प्रयास कर रहे हैं.
भारत में तंत्र उपासना
का इतिहास
आज आस्तिक जगत में पूजा के जो कर्मकांड देखे जाते हैं, उनमें से बहुतेरे इसी तंत्र शाखा से कालान्तर में पूजा पद्धति में शामिल
हो गए हैं. इस शाखा के प्राचीनतम ग्रंथों को पढ़ने के बाद भी यह पूरी तरह पता
नहीं चलता कि भारत में यह कितना पुराना है | जहां
लिंग और योनी पूजा के प्रमाण प्राप्त होते हैं.
आगे बढ़ने पर इस शाखा के ढेरों विशद् ग्रंथ और अन्य वैदिक ग्रंथों में इसके प्रमाण स्पष्ट होने लगते हैं |
इसके बाद की पु्स्तकों जैसे देवीपुराण, कालिकापुराण, मार्कण्डेयपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण और स्कन्दपुराण में तंत्र की विशद् व्याख्या
मिलती है |
तंत्र
की परिभाषा
तंत्र का शाब्दिक अर्थ है सिद्धान्त. सिद्धान्त यानी जिसे सिद्ध करने के बाद उसका अंत हो जाए. खोजन
के लिए कुछ शेष न रह जाए. तंत्र उपासना यही करता है,
खोजने के लिए कुछ शेष नहीं रहने देता. सब
कुछ प्राप्त करने के लिए तांत्रिक को सिद्ध कर देता
है. इसका रूढ़ अर्थ है शिव द्वारा निरूपित शास्त्र.
क्योंकि माना जाता है कि भगवान शिव ने अपने श्रीमुख से तंत्र शास्त्र का पहले पहल विवेचन किया.
तंत्र साधना के स्रोत
भारतीय तंत्रशास्त्र का सारा साहित्य तीन हिस्सों आगम, यामल और तन्त्र में
विभक्त किया गया है. आगम का लक्षण वाराही तंत्र में
किया गया है, जो कहता है कि
सृष्टि, प्रलय देवताओं की पूजा, सब
लोगो का कल्याण, पुरश्चरण, षटकर्म साधन, ये सात लक्षण है जिन ग्रंथों में पाए जाते
हैं, वे आगम कहलाते हैं.
षटकर्म साधन में जो छह कर्म है उनमें
वेद पढ़ना और पढ़ाना, दान लेना और देना तथा यज्ञ करना और कराना शामिल
है. इनमें से यामल ग्रंथों को सबसे अधिक महत्व दिया
जाता है क्योंकि इन्हें तंत्र के प्रणेता शिव और शक्ति के एकाकार हो जाने का प्रतीक माना जाता है.
यामल बताता है कि सृष्टि कैसे हुई और से हो सकती है, आकाश में चमकने वाले सभी ज्योतिष पिण्डो
का वर्णन, नित्य कर्म, कल्पसूत्र और युग धर्म का जिसमें वर्णन हो वह
यामल कहलाता है. वैसे इन तीनों हिस्सों को भारतीय सनातन के तीन प्रमुख देवताओं ब्रह्मा, विष्णु और महेश से
भी जोड़ कर देखा जाता है.
तंत्र विज्ञान में दो शाखाएं महत्वपूर्ण
और प्रबल हुई, इन्हें हम शैव मत और शाक्त मत के नाम से जानते
हैं. इन दोनों मतो के विद्वानों ने अपनी-अपनी शाखा के
महान ग्रंथों का सृजन किया, जिन्होंने भावी पीढ़ियों का
मार्गदर्शन करने के साथ ही इस विज्ञान को संरक्षित भी
किया. शाक्त मत की दक्षिणचारी शाखा को वैदिक शाक्तमत भी कहा जाता है जो इस विज्ञान को वेदो से जोड़ता हुआ प्रतीत होता है.
बौद्ध तंत्र विज्ञान
हिन्दु के साथ ही तंत्र विज्ञान ने बौद्ध धर्म को भी गहरे तक प्रभावित किया और बाद्धों की शाखा
वज्रयान अपने तंत्र के लिए ही पूरी दुनिया में जानी गई.
बौद्ध धर्म पर तंत्र के प्रभाव में तिब्बत है जहां से बौद्ध भिक्षु आर्य नागार्जुन एकजटा देवी जिन्हें
तारादेवी कहा गया है की बहुत सी मूर्तियां ले आए थे और
तभी से वज्रयानी तारादेवी की उपासना करने लगे.
कनिष्क के समय में वज्रयान को
प्रोत्साहन मिला और यह प्रमुखता से नेपाल और उससे
लगे पहाड़ी क्षेत्रों में स्थापित हो गया. आज भी नेपाल का बौद्ध धर्म मूल रूप से वज्रयान शाखा ही है.
तंत्र के प्रकार
दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो तंत्र के तीन प्रकार है.
1.शिवोक्त या शैव
2.शाक्त
3. वैष्णव
शुरूआत शैव तंत्र से ही होती है जो आगे चलकर दो भागों में विभक्त हो गया— पहला दक्षिणाचार और दूसरा वामाचार. इसी तरह शाक्त के भी दो हिस्से दक्षिणाचार
और वामाचार ही बने लेकिन कालान्तर में वामचार ही मुख्य
हो गया और दक्षिणाचार का लगभग लोप हो गया. वैष्णव तंत्र
शुद्ध रूप से दक्षिणाचारी है और इसमें तंत्र में पाए जाने
वाले पंच मकारों का निषेध किया गया है. तंत्र में पंचमकार क्या होता है, इसका विस्तृत उल्लेख नीचे किया गया है.
तंत्र विज्ञान में
देवी की उपासना
जैसे शैव मत में ईष्ट भगवान शिव को माना जाता है, ठीक उसी तरह
शाक्त में देवी को ईष्ट माना गया है. आरंभ में शाक्त मत
में 5 पीठों का उल्लेख मिलता है.
इनमें उत्कल में उड्डियान, जालन्धर में जाल, महाराष्ट्र में पूर्ण, श्री शैल पर मतंग और असम में कामख्या देवी शामिल है लेकिन समय के साथ पीठों की संख्या 51 हो गई और वैदिक संस्कारों में सप्त और षोडश मातृकाओं की पूजा होने लगी. तंत्र में दस महाविद्याओं का उल्लेख मिलता है और जो देवी के ही दस रूप
माने जाते हैं.
इन दस महाविद्याओं में महाकाली, उग्रतारा, षोडशी, भुवनेश्वरी,
छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी
और कमला को गिना जाता है. इन शक्तियों के पति क्रमश: महाकाल, अक्षोभ्य पुरूष, पन्चवक्त्र रूद्र, त्र्यम्बक, दक्षिणामूर्ति, एकवक्त्ररूद्र, मतंग, सदाशिव और विष्णु हैं. धूमावती विधवा कहलाती हैं और षोडशी को दूसरे नाम त्रिपुरसुन्दरी से भी जाना जाता है.
तंत्र में यंत्र का
महत्व
तंत्र उपासना जहां अपने प्रारंभिक काल में मंत्र साधना तक सीमित था और ध्यान के साथ ही इसकी विविध
विधियां प्रचलित था. कालान्तर में इसके विकास के साथ ही इसमें यंत्र ने भी अपना स्थान बना लिया. तंत्र साधना में
तीन प्रकार के यंत्र प्रयोग में लाए जाते हैं.
अंकयन्त्र, शब्द या बीज यन्त्र और
काष्ट—धातु—प्रस्तर यंत्र.
अंक यंत्र में विशेष क्रम में अंकों का
उपयोग करते ही यंत्र का निर्माण किया जाता है.
जिन्हें अनार की कलम से लाल स्याही का उपयोग करते हुए भोजपत्र पर लिखा जाता है. अंक यंत्र में सत्ताइस का यंत्र, बीसा
यंत्र या पन्द्रह का यंत्र मशहूर है जो धन प्राप्ति के
लिए दीवाली के दिन लिखा जाता है.
जैसे अंक यंत्र में अंक लिखे जाते है, ठीक उसी तरह बीज मंत्र में शब्द लिखे जाते हैं.
बीज मंत्र लिखने के लिए रविवार के दिन अभिजीत नक्षत्र को श्रेष्ठ माना गया है जो ग्यारह बज कर 36 मिनट से शुरू होकर 12 बजकर 24 मिनट तक
बना रहता है.
इसी तरह काष्ट यंत्र लकड़ी का और धातु
तथा प्रस्तर के यंत्र धातु तथा पत्थर से बने
होते हैं जिनका चलन कम है. दरअसल यज्ञ वेदी भी एक तरह का प्रस्तर या मिट्टी से बना यंत्र ही है जो आहूतियों को देवताओं तक अग्नि की सहायता से ले जाता है.
तंत्र उपासना में पंच
मकार
अक्सर तंत्र साधना में पंच मकारों का प्रयोग सुनने में आता है और शाब्दिक रूप से इन पंच मकारों में मद्य, मांस,
मीन, मुद्रा और मैथुन को शामिल किया जाता है.
शैव और शाक्त दोनों के दक्षिणाचारी और वामाचारी शाखाओं
इन पंच मकारों को स्वीकार किया जाता है लेकिन दोनों
इसकी व्याख्या अलग तरीके से करते हैं.
दोनों में इसके शाब्दिक रूढ़ अर्थ के इतर इसके दार्शनिक पक्ष को ही उकेरा गया है. उदाहरण के लिए
कुछ पुस्तकों में इसके सम्बन्ध में जो श्लोक उदधृत किये
गए हैं, उनकी हिंदी व्याख्या दी
जा रही है.
गन्धर्वतंत्र के अनुसार ब्रह्मरंध्र यानि सिर के उपरी भाग में बाल के सहस्रवें भाग के समान अत्यन्त सूक्ष्म
छिद्र में समवस्थित जो उलटा सहस्त्रदल कमल है उसमें से
बह निकलने वाली अमृत धारा को मद्य बताया गया है,
जिसका सेवन योगी लोग ही कर पाते हैं.
इसी तरह मांस के बारे में
कुलवार्णवतंत्र में लिखा हुआ है कि योग जानने वाला
पुरूष अपने ज्ञान के खड्ग से पुण्य और पाप रूपी पशुओं को मारकर अपने चित्त को परम तत्व में लिन कर देता है, वहीं
मांस खाने वाला कहलाता है.
मीन के बारे में आगमसार में लिखा है कि इडा और पिंगला के बीच श्वास ओर प्रश्वास नाम के दो मत्स्य है. प्राणायाम
के द्वारा जो इन्हें खा जाए वही मत्स्य साधक कहलाता है.
मुद्रा के सम्बन्ध में विजयतंत्र में लिखा है कि दुष्टों की संगति से बचे रहने को ही मुद्रा कहते हैं क्योंकि
सत्संग से मुक्ति है और दुष्टों
की संगति बंधन है.
इसी पुस्तक में मैथुन की व्याख्या की गई है कि इडा और पिंगला में स्थित प्राणों को सुषुम्णा में प्रवर्तित कर दे क्योंकि सुषुम्णा ही शक्ति है और
जीव ही परात्मा शिव है. उनके पारस्परिक संगम को ही देवताओं
ने मैथुन बताया है.