भारत में बहुत से सूत्र ग्रन्थ लिखे गए, जिनमें सार-रूप में बहुत सी जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं। इन ग्रन्थों की अपनी एक परम्परा है। योग सूत्र भी इन्हीं सूत्र ग्रन्थ परम्परा का एक हिस्सा है। जिसमें योग परक विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों को सार रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यहाँ योग सूत्र का विस्तृत परिचय पाने के लिए हम इसका अध्ययन बिन्दुवार करेंगे। जिससे योग सूत्र की सामान्य और प्रामाणिक जानकारी मिल पाएगी।
योग
सूत्र के प्रणेता: पतंजलि:
योग सूत्र के
विद्यार्थियों के लिए यह बहुत ही आवश्यक है कि योग सूत्र का अध्ययन करने के
साथ-साथ वे इसके संकलनकत्र्ता महर्षि पतंजलि के विषय में भी जाने। पतंजलि का परिचय
दिए बिना योग सूत्र पर विचार करना निरर्थक होगा। इस कारण यहां पर हम प्रयास करेंगे
कि विभिन्न प्रामाणिक शोधों के आधार पतंजलि विषय में क्या जानकारी उपलब्ध होती है।
कुछ लोगों का मानना
है, कि पतंजलि नाम के बहुत से व्यक्ति हमारे
प्राचीन इतिहास में हुए होंगे जिनको लेकर हमेशा से मतवाद होता रहा है। यहां हम इस
पर अधिक विचार न कर केवल प्रामाणिक सन्दर्भों के आधार पर पतंजलि के व्यक्तित्व का
ऐतिहासिक वृत्त जानने का प्रयास करेंगे। विद्वानों के अनुसार विभिन्न कालों में
हुए पतंजलि नाम के आचार्य या फिर पतंजलि का विवरण मुख्य रूप से तीन सन्दर्भों में
मिलता है-
1.
योग सूत्र के रचयिता।
2.
पाणिनी व्याकरण के महाभाष्यकार।
3.
आयुर्वेद के किसी संदेहास्पद ग्रन्थ के रचयिता।
इस विषय पर एक बड़ा
सुन्दर और लोकप्रिय श्लोक भी प्राप्त होता है-
योगेन चित्तस्य पदेन वाचा मलं शरीरस्य च
वैधकेन।
योपारोक्तं प्रवरं मुनीनां
पतंजलिर्नप्रान्जलिर्नतोऽस्मि।।
अर्थात् मैं करबद्ध
होकर ऐसे पतंजलि मुनि को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने योग के द्वारा चित्त
शुद्धि, व्याकरण के द्वारा वचन शुद्धि और आयुर्वेद के द्वारा
शरीर शुद्धि का उपाय बताया।
इस प्रकार प्रचलित
मान्यता में इन तीनों कार्यों के श्रेय पतंजलि को ही जाता है। यह मान्यता बहुत
प्राचीन समय से चली आ रही है, जिसे भर्तृहरि, समुद्रगुप्त, भोजराज आदि ने अनेक बार दोहराया है।
अन्य विद्वानों के
मत में पतंजलि को गोनर्दीय कहकर उनको उत्तर प्रदेश राज्य के अन्तर्गत गोण्डा का
निवासी भी बताया है। वहीं दूसरी ओर एक अन्य प्रचलित मान्यता के आधार पर इन्हें
शेषनाग का अवतार बताया जाता है। इस सन्दर्भ में विद्वानों को मानना है कि ये
कश्मीर में रहने वाले नागू जाति के ब्राह्मणों के बीच पैदा हुए थे और मुखिया थे।
अद्भुत शास्त्रज्ञान और विभिन्न भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान पण्डित होने के कारण
इनको सहस्रजिव्हत्व (एक हजार जीभ वाला) की कल्पना में शेषावतार के रूप में
प्रसिद्धि मिल गयी होगी। इसी कारण कुछ स्थानों पर ऐसा विवरण भी मिलता है कि पतंजलि
अपने शिष्यों को पर्दे के पीछे छिपकर पढ़ाते थे, और
शिष्यों के लिए कड़ा निर्देश था कि पर्दे को उठाकर न देखा जाए। इस दुःसाहस का बड़ा
गंभीर परिणाम हो सकता है। एक दिन अत्यन्त जिज्ञासावश एक शिष्य ने दुःसाहस कर दिया
और पतंजलि ने क्रुद्ध होकर अपनी एक हजार जिव्हाओं से अग्नि फेंककर सब कुछ नष्ट कर
दिया। भाग्यवश एक शिष्य वहाँ से बचकर भाग गया जिसके बाद में उनके द्वारा दिए गए
उपदेशों का संग्रह किया।
एक किंवदन्ती के अनुसार
ऐसा ज्ञात होता है, कि प्रातःकाल नदी में अचानक से
सूर्य के अर्घ्य देते समय कोई बालक एक ब्राह्मण के अंजलि में आ गया और उस
दृष्टान्त के कारण इनका नाम पतंजलि पड़ गया। बाद में उसी ब्राह्मण के यहां इनकी
शिक्षा-दीक्षा हुई। कुछ विद्वान इन्हें शुंगवंशीय महाराज पुष्यमित्र के दरबारी
पण्डित के रूप में भी बताते हैं। इस आधार पर इनका समय द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व
निर्णय किया जाता है। हालांकि इनके समय के विषय में भी स्थिति स्पष्ट नहीं होती है
लेकिन फिर भी अधिक से अधिक सन्दर्भ हमें यही समय बताते हैं।
इन सभी तथ्यों को जानने
के बाद आपके लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण जानकारी है कि पतंजलि, योग सूत्र के मूल लेखक नहीं अपितु संकलनकत्र्ता माने जाते
हैं। विद्वानों का ऐसा मानना भी है, कि उन्होंने अपने समय
में प्रचलित योग की विभिन्न पद्धतियों का संग्रह कर उनको सूत्रात्मक रूप में अपने
ग्रन्थ में संग्रहित किया। सूत्र का यह लक्षण भी होता है, कि
वह कम से कम शब्दों में बिना कोई सन्देह उत्पन्न किए बहुत बड़े सिद्धान्त को भी
अपने में समेट ले। जो हमें पतंजलि कृत योग सूत्रों को देखने से पता चल जाता है।
योग
सूत्र का ऐतिहासिक महत्त्व एवं स्वरूप:
विभिन्न ऐतिहासिक
साक्ष्य योग की प्राचीनता को बताते हैं। उसी प्रकार यदि दार्शनिक सन्दर्भों में
देखा जाए तो योग का अपना दार्शनिक महत्त्व भी है। हमारा अध्ययन यहाँ योग सूत्र को
केन्द्र में रखकर किया जा रहा है। जिसमें जो महत्त्वपूर्ण बात हम देखते हैं वह यह
है, कि जहां पर भी योग दर्शन की बात की जाती है,
वहां योग सूत्र ही दिखाई देता है। इसका सीधा सा कारण अब तक आप लोग
भी समझ गए होंगे और वह यह है कि एक मात्र पतंजलि ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने योग
को व्यवस्थित स्वरूप देकर अपने ग्रन्थ के माध्यम से सूत्र रूप में संकलित किया।
जिसके कारण अन्य दार्शनिक विचारधाराओं में योग की स्थिति को जानने में बहुत सहायता
मिली। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से योग सूत्र की प्राचीनता स्पष्ट रूप से बता दी गयी है।
यदि बिना किसी विवाद में उलझे योग सूत्र का काल दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व निर्धारित
किया जाए तो अन्य दर्शन जो कि इसके बाद विकसित हुए, उन पर
इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
ऐतिहासिक रूप से
सांख्य दर्शन को योग से पहले बताया जाता है, परन्तु यह भी निर्विवाद रूप से
सत्य है, कि योग सांख्य दर्शन का क्रियात्मक पक्ष प्रस्तुत
करता है। जिसके कारण कभी-कभी दोनों दर्शनों को एक दूसरे का पूरक या समान तन्त्र भी
कहा जाता है। दोनों ही दर्शन एक दूसरे से काफी समानता रखते हैं। इस विषय पर
विभिन्न दर्शन ग्रन्थों में विस्तृत चर्चा मिलती है। तथा इस ग्रन्थ पर अनेक
टीकायें भी प्राप्त होती हैं। अतः योग सूत्र के महत्त्व को अधिक गहराई से जानने के
लिए आपको यह जानना भी आवश्यक है कि उस पर कितनी टीकाएं उपलब्ध है। इनके आधार पर हम
इस ओर स्पष्ट संकेत कर सकते हैं कि योग सूत्र की लोकप्रियता और महत्त्व कभी कम
नहीं रहा। जिसके कारण हर काल में इस पर भिन्न-भिन्न रूपों में व्याख्यायें सामने
आती हैं। ये सारी व्याख्याएं योग सूत्र के अर्थों को स्पष्ट करने के लिए हैं।
जिनके माध्यम से सूत्र रूप में लिखी व्यापक सैद्धान्तिक जानकारी को और अधिक स्पष्ट
रूप से समझा जा सके।
यदि आप योग सूत्र के
इतिहास पर दृष्टि डालें तो पतंजलि के सूत्रों के पश्चात जिस रचना को सर्वाधिक
प्रसिद्धि मिली वह थी-व्यास भाष्य। व्यास भाष्य, व्यास
के द्वारा योग सूत्र की प्रथम टीका या व्याख्या थी। जिसमें योग सूत्र के शास्त्रीय
और व्यावहारिक ज्ञान पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इस भाष्य को ‘योग भाष्य’, ‘व्यास भाष्य’, ‘पातंजल
भाष्य’ और ‘सांख्य प्रवचन भाष्य’
आदि नामों से जाना जाता है। हालांकि इस बात पर बहुत से विवाद अभी तक
बने हुए हैं, कि ये व्यास कौन थे-वेद व्यास या
ब्रह्मसूत्रकार बादरायण व्यास? हम यहाँ इन प्रश्नों में न
उलझकर केवल यह जानने का प्रयास करेंगे कि ऐतिहासिक दृष्टि से इसका क्या महत्त्व
है। यह बात अब तक आपको स्पष्ट हो गयी होगी कि पातंजल योग सूत्र पर पहली टीका व्यास
द्वारा लिखी गयी। इसमें योग सूत्र में आए विभिन्न सैद्धान्तिक पक्षों पर विस्तार
से चर्चा की गयी है। इसका महत्त्व भी इसी से स्पष्ट हो जाता है कि इसके बाद की सभी
रचनाओं मे कहीं न कहीं इसी का अनुसरण करके व्याख्याएं प्रस्तुत की गयी है।
काल की दृष्टि से
विद्वानों ने इसे दूसरी शताब्दी ई0 ; के समय का माना है। जिससे
स्पष्ट होता है, कि व्यास की यह रचना योग सूत्र पर पहला
उपदेश थी क्योंकि अन्य सारी रचनाएं इस समय के बाद की ही मिलती हैं। यहां आप यह बात
भी समझ लें समय के विषय में उक्त जानकारी अभी तक विवादों के घेरे में हैं परन्तु
प्रचलित मान्यताओं के आधार पर यही सही समय लगता है, जिससे
व्यास भाष्य की रचना हुई।
व्यास के बाद योग
सूत्र पर अन्य रचना वाचस्पति मिश्र की ‘तत्त्व वैशारदी’ उपलब्ध होती है। वाचस्पति मिश्र का समय 10वीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध का माना जाता है। इस प्रकार व्यास के कई शताब्दियों बाद
योग सूत्र पर दूसरी रचना उपलब्ध होता है। वाचस्पति मिश्र ने अपनी टीका में व्यास
के द्वारा दी गयी व्याख्या को और अधिक स्पष्ट किया है, और साथ
ही कई अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों की भी विवेचना की है।
वाचस्पति मिश्र के
ठीक बाद लगभग 11वीं शताब्दी में धार के राजा
भोजदेव ने योग सूत्र पर अपनी टीका लिखी। जिसे भोजवृत्ति के नाम से जाना जाता है।
इसके अतिरिक्त भावागणेश ने 17वीं शताब्दी में एक और टीका लिखी।
तथा नागोजी भट्ट (17वीं शताब्दी), रामानन्दयति
और नारायण तीर्थ (18वीं शताब्दी) आदि ने भी टीकाएं लिखीं।
आजकल उपलब्ध टीकाओं
में स्वामी हरिहरानन्द अरण्य की ‘भास्वती’ नामक
टीका काफी प्रसिद्ध है। इसके अलावा अंग्रेजी अनुवाद में गंगानाथ झा, राजेन्द्र लाल मिश्र और जे.एच.वुड्स ने भी बड़ा सराहनीय कार्य किया है।
योग
सूत्र की विषय वस्तु:
योग सूत्र योग के
विभिन्न बड़े-बड़े सिद्धान्तों और विषयों पर लिखा गया संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण है।
जिसमें अल्प शब्दों बिना किसी संशय के योग के बड़े-बड़े दार्शनिक विचारों को बड़े ही
सरल, प्रामाणिक और व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत
किया गया है। इसके विषयों को चार अध्यायों के अन्तर्गत रखा गया है जिन्हें ‘पाद’ की संज्ञा दी है-
1. समाधि पाद
2. साधन पाद
3. विभूति पाद
4. कैवल्य पाद
समाधि पाद में 51, साधन पाद में 55, विभूति पद में 55 और कैवल्य पाद में 34 सूत्र हैं। कुल मिलाकर
सम्पूर्ण योग सूत्र में 195 सूत्रों में उपलब्ध होता है।
विषय के अनुसार इन्हीं 195 सूत्रों में योग के विभिन्न विषय
संक्षिप्त रूप में समझाए गए हैं जिन्हें समझने के लिए हम उपलब्ध टीकाओं और
अनुवादों का सहारा लेते हैं। वह तो पहले ही बताया जा चुका है कि योग सांख्य का
व्यावहारिक रूप बताता है। सांख्य यदि दर्शन है, तो योग उसका प्रायोगिक स्वरूप बताता है। इन्हीं विषयों को
लेकर योग सूत्र के चारों पादों या अध्यायों में विस्तृत चर्चा मिलती है। विषय की
दृष्टि से चारों अध्यायों की विषय वस्तु को संक्षिप्त रूप से कुछ इस प्रकार समझ
सकते हैं-
समाधि
पाद - समाधि पाद के अन्तर्गत, समाधि से सम्बन्धित मुख्य-मुख्य विषयों को लिया गया है। जैसा
कि आप नाम से ही समझ रहे होंगे। समाधि से सम्बन्धित सभी दार्शनिक सिद्धान्तों और
विषयों को इस अध्याय के अन्तर्गत बड़े ही व्यवस्थित क्रम में बताकर बाद में समाधि
की स्थिति को प्राप्त करने के लिए यौगिक पद्धतियों का वर्णन भी मिलता है।
इस अध्याय में
सर्वप्रथम योग की परिभाषा बताई गयी है जो कि चित्त की वृत्तियों का सभी प्रकार से
निरुद्ध होने की स्थिति का नाम है। यहां पर भाष्यों के अन्तर्गत यह भी स्पष्ट कर
दिया गया है कि यह योग समाधि है। समाधि के आगे दो भेद- सम्प्रज्ञात और
असम्प्रज्ञात बताए गए हैं। जिनको बाद में विस्तार से जानकारी दी गयी है। दोनों ही
प्रकार की समाधियों के आन्तर भेदों को भी विस्तार पूर्वक समझाने का प्रयास किया
गया है। समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के साधनों के विषय में भी विस्तार से
चर्चा की गयी है। इसके लिए सर्वप्रथम अभ्यास और वैराग्य के नाम से दो साधन बताए गए
हैं। (अभ्यास और वैरग्य का विस्तृत विवेचन चतुर्थ ईकाइ में किया जायेगा) विद्वानों
के अनुसार इस अध्याय के अन्तर्गत बताए अभ्यास सामान्य योगाभ्यासी के लिए नहीं
अपितु उच्च कोटि के अधिकारी के लिए है। जिनका चित्त पहले से ही स्थिर हो चुका है, उन्हीं को ध्यान में रखकर यहाँ अभ्यासों की चर्चा की गयी है।
कई सारे अभ्यास दिखने में जितने आसान प्रतीत होते हैं करने में उतने ही कठिन है।
ईश्वर प्रणिधान या
ईश्वर भक्ति (ईश्वर प्रणिधान का विस्तृत विवेचन चतुर्थ ईकाइ में किया जायेगा) और
ईश्वर के स्वरूप की चर्चा भी इसी अध्याय के अन्तर्गत की गयी है। ईश्वर वर्णन के
कारण ही कभी-कभी सांख्य और योग में अन्तर किया जाता है। सांख्य जहां ईश्वर का
वर्णन नहीं करता वहीं योग (पातंजल योग) ईश्वर का वर्णन करने के कारण कभी-कभी
सेश्वर-सांख्य के नाम से जाना जाता है।
इस प्रकार विभिन्न
विषयों की विस्तार से चर्चा करने के साथ-साथ योग के दार्शनिक स्वरूप को बड़े ही
सुन्दर ढंग से रखने का प्रयास समाधि पाद के अन्तर्गत किया गया है। चित्त से लेकर
समाधि के भेद-प्रभेद एवं चित्त निरोध आदि के उपाय आदि भी इसी अध्याय के अन्तर्गत
समझाए गए हैं। जिनके अध्ययन के बाद आपको योग की दार्शनिक पृष्ठभूमि का आकलन स्वतः
ही लग जाएगा। इसी अध्याय के अन्तर्गत यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो योग के विभिन्न
विषय जो बचे हुए 3 पादों में आने वाले हैं,
उनका भी स्पष्ट-अस्पष्ट चित्र दिखाई दे जाता है।
साधन
पाद - साधन पाद के अन्तर्गत योग को प्राप्त करने के
लिए विभिन्न उपाय आदि बताये गए हैं। भाष्यकारों के अनुसार पहले अध्याय अर्थात्
समाधि पाद के अन्तर्गत बताए गए अभ्यास उत्तम अधिकार प्राप्त योगियों के लिए
उपयुक्त है। जबकि मध्यम और साधारण अधिकारी उन अभ्यासों को करने में सक्षम नहीं है।
इसी को ध्यान में रखकर इस अध्याय के प्रारम्भ में यह स्पष्ट कर दिया है कि मध्यम
अधिकारी के लिए क्रिया योग ही सर्वोत्तम साधन है। क्रिया योग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का समावेश किया है। इसी की
विस्तृत चर्चा के साथ इस अध्याय की शुरुआत होती है। पंचक्लेशों की विस्तृत चर्चा
भी इसी अध्याय के अन्तर्गत मिलती है। यह आपको पहले भी बताया जा चुका है कि क्लेशों
की पूर्ण निवृत्ति ही योग का साधन बनता है। बिना इनकी निवृत्ति के योग सम्भव नहीं।
इसी अध्याय के अन्तर्गत आपको आगे चलकर अष्टांग योग की भी चर्चा मिलेगी जिसे साधारण
अधिकारी के लिए अति उत्तम साधन माना गया है। अष्टांग योग के अन्तर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और
समाधि का समावेश किया गया है। अष्टांग योग सर्वाधिक प्रचलित साधना पद्धति है जिसको
योग विषयक लगभग सभी अध्ययनों में देखा जा सकता है।
अष्टांग योग के
विभिन्न अंगों की विवेचना के साथ-साथ यहां उनसे प्राप्त होने वाली सिद्धियों का भी
वर्णन किया गया है। जिसके कारण यहाँ प्राप्त होने वाले अष्टांग योग के वर्णन की
तुलना किसी अन्य स्थल से नहीं की जा सकती है। इस अध्याय के अन्तर्गत विभिन्न
दार्शनिक विषयों का भी वर्णन किया गया है। जिसमें ‘दृष्टा’
और ‘दृश्य’ प्रमुख हैं।
दृष्टा यहां पुरुष को एवं दृश्य प्रकृति को कहा गया है। इन दोनांे में विवेक ज्ञान
हो जाना ही योग की प्राप्ति कराता है। इन दोनों की मिली हुई अवस्था के कारण ही
अविद्या की स्थिति बनी रहती है। इसके अतिरिक्त ‘चतुव्र्युहवाद’
की भी स्पष्ट विवेचना इसी अध्याय के अन्तर्गत आती है। हेय-दुःख का
वर्णन, हेय-हेतु-दुःख के कारण का वर्णन, हान-मोक्ष का स्वरूप और हानोपाय-मोक्ष प्राप्ति का उपाय सम्मिलित है। इस
प्रकार यह अध्याय स्वयं में पूर्ण रूप से योग के विभिन्न दार्शनिक पहलुओं पर
विस्तृत विचार प्रस्तुत करता है। कर्मफल का सिद्धान्त भी इसी अध्याय के अन्तर्गत
आता है। इन सभी विषयों का ठीक प्रकार से समावेश होने के कारण इस अध्याय का नाम
साधन पाद बहुत ठीक जान पड़ता है।
विभूति
पाद - धारणा, ध्यान और समाधि के वर्णन से
शुरु होने वाले इस अध्याय के अन्तर्गत बड़े ही रहस्यास्पद एवं रोचक विषयों का
समावेश देखने को मिलता है। यहां दार्शनिक विषयों का उल्लेख पहले के अध्यायों की
अपेक्षा बहुत कम देखने को मिलता है। फिर भी, दार्शनिक दृष्टि
से इस अध्याय का भी महत्त्व कम नहीं है। दार्शनिक विषयों में धर्म, धर्मी आदि का स्वरूप, चित्त के परिणाम आदि की
विवेचना मिलती है। इसके साथ-साथ धारणा, ध्यान और समाधि को
यहां सम्मिलित रूप से ‘संयम’ के रूप
में बताया गया है। ‘संयम’ योग सूत्र की
पारिभाषिक शब्दावली का प्रमुख अंग है। सामान्यतया संयम का अर्थ नियंत्रण से होता
है, परन्तु यहां इसका प्रयोग की धारणा, ध्यान और समाधि के सम्मिश्रण को बताया है।
इन सभी विषयों के
साथ-साथ इस अध्याय का प्रमुख विषय संयमजनित विभूतियों का वर्णन है। जिस कारण इस
अध्याय का नाम विभूति पाद रखा गया है। विभूति का अर्थ यहां पर सिद्धियों से ही है।
जो योग की अन्तरंग अवस्था में जाकर संयम का परिणाम बताई गयी है। उदाहरण के रूप में
चन्द्रमा में संयम करने से तारों का ज्ञान, ध्रुव तारे में संयम करने से
तारों की गति का ज्ञान, सूर्य में संयम करने से भुवनों का
ज्ञान, कण्ठ-कूप में संयम करने से भूख-प्यास की निवृत्ति
आदि-आदि विभिन्न सिद्धियाॅं और विभूतियाँ संयम के परिणाम से प्रकट होनी बताई गयी
है। इस प्रकार इन सब विषयों के समावेश के कारण यह अध्याय अपने आप में बड़े ही रोचक
ढंग से योग दर्शन की प्रस्तुति करता है। इस आशय से विभूति पाद नामक यह अध्याय अपने
नाम के अनुसार अपने विषयों को भली-भांति प्रस्तुत करता है। यहाँ एक और बात बहुत
ध्यान देन योग्य है, कि इन सब विभूतियों का वर्णन करने के
साथ-साथ यहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया गया है, कि यह सारी
विभूतियाँ, सिद्धियाँ योग मार्ग में बाधक है। इनका साधन नहीं
करना चाहिए अन्यथा योग का वास्तविक लक्ष्य समाधि को पाना संभव नहीं है। यह सारी
विभूतियाँ तो केवल योग मार्ग में हमारी
सही-सही स्थिति को बताती है। जिससे हम योग मार्ग में बिना किसी संदेह के आगे बढ़
सकें।
कैवल्य
पाद - जैसा कि इसके नाम से ही प्रतीत हो रहा है, कि यह अध्याय योग के चरम लक्ष्य ‘कैवल्य’
की स्थिति को बताने वाला है। इस अध्याय के अन्तर्गत भी योग के
दार्शनिक स्वरूप पर विस्तृत चर्चा देखने को मिलती है। इस अध्याय की शुरुआत पांच
प्रकार से प्राप्त होने वाली सिद्धियों के वर्णन से होती है जिसमें बताया गया है
कि सिद्धियाँ जन्म से, औषधि से, मन्त्र
से, तप से और समाधि के द्वारा मिलती है। जिसमें बाद में
समाधि जन्य सिद्धि को शुद्ध माना है। जिसका कारण बताया गया है कि समाधि में
वासनाजन्य संस्कार नहीं रहते इस कारण समाधि से प्राप्त सिद्धि भी पवित्र संस्कार
वाली होती है। इस अध्याय के अन्तर्गत निर्माण चित्त, चतुर्विध
कर्म, वासना आदि का बड़ा ही सुन्दर वर्णन मिलता है। इसके
अतिरिक्त जीवनमुक्त की मनोवृत्ति पर भी समुचित प्रकाश डाला गया है। अन्त में
कैवल्य का स्वरूप बताकर इस अध्याय की समाप्ति के साथ योगसूत्र की भी पूर्णता हो
जाती है।