कर्म शब्द कृ धातु से बनता है। कृ धातु में ‘मन’ प्रत्यय लगने से कर्म शब्द की उत्पत्ति होती है। कर्म का अर्थ है क्रिया, व्यापार, भाग्य आदि। हम कह सकते हैं कि जिस कर्म में कर्ता की क्रिया का फल निहित होता है वही कर्म है।
कर्म करना मनुष्य की
स्वाभाविक प्रवृत्ति है। तथा कर्म के बिना मनुष्य का जीवित रहना असम्भव है। कर्म
करने की इस प्रवृत्ति के संबन्ध में गीता में कहा गया है-
नहि कश्चित्क्षणमपि
जातु तिष्ठत्यकर्मकृत
कार्यते ह्यवशः कर्म
सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।। (गीता 3/5)
अर्थात् इस विषय में
किसी भी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता कि मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र
भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता, क्योंकि सभी मानव प्रकृतिजनित गुणों के कारण
कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं। मनुष्य को न चाहते हुए भी कुछ न कुछ कर्म करने
होते हैं और ये कर्म ही बन्धन के कारण होते हैं। साधारण अवस्था में किये गये
कर्मों में आसक्ति बनी रहती है, जिससे कई प्रकार के संस्कार उत्पन्न होते हैं।
इन्हीं संस्कारों के कारण मनुष्य जीवन-मरण के चक्र में फंसा रहता है। जबकि ये कर्म
यदि अनासक्त भाव से किये जाते हैं तो यह मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बन जाते हैं।
कर्म से व्यक्ति
बंधन में बंधता है किन्तु गीता ने कार्य में कुशलता को योग कहा है। योग की परिभाषा
देते हुए गीता में कहा है- ”योगः कर्मसु कौशलम’’ (गीता 2/50)
अर्थात् कर्मों में
कुशलता ही योग है। कर्मयोग साधना में मनुष्य बिना कर्म बंधन में बंधे कर्म करता है
तथा वह सांसारिक कर्मों को करते हुए भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
कर्मयोग का गूढ़
रहस्य अर्जुन को बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! शास्त्रों के द्वारा
नियत किये गये कर्मों को भी आसक्ति त्यागकर ही करना चाहिए क्योंकि फलासक्ति को
त्यागकर किये गये कर्मों में मनुष्य नहीं बंधता। इसीलिए इस प्रकार वे कार्य
मुक्तिदायक होते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि फल की इच्छा का त्याग करने पर कर्मों
की प्रवृत्ति नहीं रहेगी, जबकि ऐसा नहीं है क्योंकि कर्म तो कर्तव्य की
भावना से किये जाते हैं तथा यही कर्मयोग भी सीखाता है।
कर्मयोग की साधना
में अभ्यासरत साधक धीरे-धीरे सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करने लगता है, और साधक में भक्ति भाव उत्पन्न हो जाता है। इस अवस्था में साधक जो भी कर्म
करता है वह परमात्मा को अर्पित करते हुए करता है। साधक परमात्मा में अपनी श्रद्धा
बनाए रखते हुए उत्साह के साथ कर्म करता है। इस सम्बन्ध में गीता में कहा गया है-
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। (गीता 9/27)
अर्थात् हे अर्जुन!
तू जो भी कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दानादि देता है, जो तप करता है, वह सब मुझको अर्पण
कर।
ईश्वर के प्रति
समर्पित कर्म व उसके फल सम्बन्ध को बताते हुए कहा गया है-
‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति
यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्र मिवाम्भसा।। गीता 5/10
अर्थात् ब्रह्म को
अर्पित करके अनासक्ति पूर्वक कर्म करने वाला उसके फल से वैसे ही अलग रहता है जैसे
जल में कमल का पत्ता।
कर्मयोग की साधना
में रत व्यक्ति में उच्च अवस्था की स्थिति आने पर स्वयं कर्ता की भावना समाप्त हो
जाती है। इस अवस्था में साधक अनुभव करता है कि मेरे द्वारा जो भी कर्म किये जा रहे
हैं, उन सबको करने वाले ईश्वर ही हैं। इस प्रकार से साधक कर्म करता हुआ भी बंधन से
मुक्त रहता है। उसके द्वारा किये गये कर्म से किसी भी प्रकार के संस्कार उत्पन्न
नहीं होते। इस प्रकार के कर्म मुक्ति को दिलाने वाले होते हैं।
कर्मयोग की साधना से
साधक के लौकिक व पारमार्थिक दोनों पक्षों का उत्थान होता है। कर्मयोग के मार्ग से
ही साधक गृहस्थ जीवनयापन करते हुए भी साधना कर सकता है तथा मुक्ति प्राप्त कर सकता
है।
कर्म
के भेद –
प्रिय विद्यार्थियों
अभी तक आपने कर्म शब्द की उत्पत्ति के साथ-साथ निष्काम कर्म के बारे में जाना और
यह भी समझा कि अपने समस्त कर्मों को भगवान में अर्पित कर देना चाहिए। अक्सर कई योग
साधकों के मन में प्रश्न उठते है कि
1- कर्म के भेद कौन-कौन से है।
2- क्या पूजा-पाठ भी कर्म है।
3- निषिद्ध कर्म क्या है।
4- विहित कर्म क्या है।
5- भगवत गीता में कितने प्रकार के कर्म बताये है।
कर्म
मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है -
क. विहित कर्म
ख. निषिद्ध कर्म
क. विहित कर्म –
विहित कर्म अर्थात
अच्छे कर्म,
सुकृत कर्म। विहित कर्म के भी चार भेद है -
1. नित्यकर्म
2. नैमित्तिक कर्म
3. काम्य कर्म
4.
प्रायश्चित कर्म
नित्य
कर्म - नित्य कर्म कर्म का अर्थ है, प्रतिदिन किये जाने वाला कर्म जैसे सन्ध्या पूजा, अर्चना,
वन्दना इत्यादि।
नैमित्तिक
कर्म - जो कर्म किसी प्रयोजन के लिए किये जाते है
उदाहरणार्थ,
किसी त्योहार या पर्व आ जाने पर अनुष्ठान किसी की मृत्यु हो
जाने पर श्राद्ध, तर्पण इत्यादि, जैसे पूत्र के जन्म
होने पर जातकर्म, बड़े होने पर यज्ञोपवीत इत्यादि।
काम्य
कर्म - ऐसे कर्म जो किसी कामना या किसी प्रयोजन के
लिए किये जाते है। जैसे नौकरी प्राप्ति के लिए, पूत्र की प्राप्ति
के लिए, स्वर्ग की प्राप्ति के लिए यज्ञ, वर्षा को रोकने के लिए, अकाल पड़ने पर वर्षा करने के लिए हवन या अनुष्ठान, पुण्यफल की प्राप्ति की इच्छा के लिए दान इत्यादि ये काम्य कर्म है।
प्रायश्चित
कर्म - प्रायश्चित कर्म जैसा कि नाम से स्पष्ट होता है
कि अगर व्यक्ति से कोई अनैतिक काम या पाप हो जाये तो उसके प्रायश्चित के लिए वो जो
कर्म करता है उसके प्रायश्चित कर्म कहते है तथा जन्म -जन्मान्तरों के पापों का
क्षय करने के लिए तपचर्यादि इत्यादि प्रायश्चित कर्म कहलाते है।
ख. निषिद्ध कर्म
निषिद्ध कर्म अर्थात
जो कर्म शास्त्र के अनुकूल नहीं है, चोरी, हिंसा, झूठ, व्याभिचार इत्यादि कर्म निषिद्धकर्म है। हम जो
भी कर्म करते है हमारा मन (आत्म, तत्व) उसे करने या न करने के लिए प्रेरित करता
है कोई व्यक्ति उस आत्मा की आवाज के अनुसार कर्म करता है और कोई अनसुना करता है।
अगर आत्मा की आवाज अर्थात परमेश्वर का भय न करते हुए हम जो कर्म करते है वह
निषिद्ध कर्म है।
गीता के अनुसार कर्म
भगवदगीता में तीन
प्रकार के कर्म बताये है जो इस प्रकार है -
क. कर्म - शास्त्र के अनुकूल, वेदों के अनुकूल किये गये कर्म।
ख. अकर्म - अकर्म का अर्थ है कर्म का अभाव यानि तुष्णी
अभाव।
ग. विकर्म - अर्थात जो निषिद्ध (पाप) कर्म है वह विकर्म
है।
योग सूत्र के अनुसार कर्म
महर्षि पतंजलि ने
कैवल्यपाद के सातवें सूत्र में कर्म के भेद बताये है।
कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् योगसूत्र 4/7
अर्थात शुक्लकर्म, कृष्णकर्म, शुक्लकृष्णकर्म, तथा
अशुक्लाकृष्णकर्म ये कर्म के चार भेद है -
क. शुक्लकर्म - जो कर्म श्रेष्ठ है अर्थात वेदों में बताई गई
विद्याओं के आधार पर जो कर्म किये जाते है। इस शुक्ल कर्म से स्वर्ग लोक की
प्राप्ति होती है।
ख. कृष्ण कर्म - जो कर्म पाप कर्म है उन्हे कृष्ण कर्म कहा है। अर्थात
शास्त्र विरूद्ध पाप कर्मों को कृष्णकर्म कहा गया है। इन कृष्ण कर्मों से दुख तथा
नरक की प्राप्ति होती है तथा इन कर्मों के फलों को जन्म जन्मान्तर तक भोगना पड़ता
है।
ग. शुक्लकृष्णकर्म - ऐसे कर्म जो पाप व पुण्य के मिश्रण हो। कहा गया
है कि शुक्ल कृष्णकर्म से पुनः मनुष्य को जन्म की प्राप्ति होती है।
घ. अशुक्लकृष्णकर्म - जो न तो पाप कर्म हो न पुण्य कर्म और न
पाप-पुण्य मिश्रित कर्म हो इन सब से भिन्न ये कर्म निष्काम कर्म है क्योंकि ये
कर्म किसी भी कामना के नहीं किये जाते है। इन कर्माे को करने से अन्तःकरण की
शुद्धि होती है। अन्तःकरण शुद्ध पवित्र तथा दर्पण की भॉंति स्वच्छ छवि वाला निर्मल
बन जाता है। शीघ्र ही ऐसे साधक को वास्तविक तत्व ज्ञान (आत्मा के ज्ञान) की
प्राप्ति होती है या अन्त में निश्चित उसे कैवल्य की प्राप्ति होती है।
वेदान्त के अनुसार कर्म –
वेदान्त दर्शन में कर्म के तीन भेद बताये गये
है-
क. संचित कर्म - संचित कर्म का अर्थ है कि पूर्वजन्म में हमने
जो अनेको शरीर धारण किये है उन शरीरों में हमने जो कर्म किये वो संचित कर्म कहलाते
है। हमारे जन्म जन्मान्तरों के संस्कार चित्त में संचित पड़े रहते हैं, इन्हीं कर्म-संस्कारों के समूहों को संचित कर्म कहते है।
ख. प्रारब्ध कर्म - प्रारब्ध कर्म ऐसे कर्म है जो संचित कर्मों
में अति प्रबल है ये कर्म इतने बलवान होते है कि कर्मों का फल भोगने के लिए अगले जन्म
में जाते है। पाठको यह निश्चित है कि हमारे सुख या दुख की उत्पत्ति प्रारब्ध कर्म
के अनुसार ही होती है।
ग. क्रियमान कर्म - इन्हें आगामी कर्म के नाम से भी जाना जाता है।
आगामी अर्थात आगे किये जाने वाला कर्म, व्यक्ति ने जिन कर्मों का आरम्भ अभी नही किया
है वही आगामी कर्म है जो भविष्य में फल प्रदान करते है। आगामी कर्म मनुष्य के अधीन
है इनको चाहे तो हम बना सकते है चाहे तो बिगाड़ सकते है।
गीता मे कर्मयोग
गीता के
तीसरे अध्याय में कर्मयोग का वर्णन किया गया है। गीता में कहा है कि मनुष्य में
कर्म करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। एक क्षण भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रह
सकता।
न हि
कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते
ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।। गीता 3/5
वह इच्छा से
करे, अनिच्छा
से करे, स्वभाव
से करे अथवा कैसी भी वृत्ति से करे,
उससे कर्म होना ही है। कुछ भी करो,
कर्म छूटता नहीं। मनुष्य स्तब्ध रहा तो भी उस समय उससे स्तब्ध रहने का कर्म
होता है। मनुष्य का शरीर स्तब्ध रखा गया,
तो भी उसके मन के व्यापार बन्द नहीं होते, वह मन से मनन करके अनेक कर्म करता रहता है। निद्रा लेने का
कर्म होता ही है तथापि उसमें स्वप्न आने लगे,
तो वह स्वप्न देखने का भी कर्म करता है। यह कर्म कैसे रोका जाए? और यह सब न
हुआ, ऐसा
भी क्षणभर के लिए मान लीजिए;
परन्तु हर एक प्राणी जीवित रहने का कार्य तो करता ही है। श्वास-प्रश्वास, हृदय की धड़कन, आँखों का
खोलना और मूंदना, ये
कर्म शरीर के स्वभाव से ही होते हैं;
इसके अतिरिक्त शरीर का जीर्ण होना,
रोगी होना, निरोग
रहना आदि कर्म होते हैं। अतः मनुष्य का कर्मों का प्रारम्भ न करने का निश्चय और
कर्मों के त्याग करने का निश्चय ये दोनों निश्चय अव्यवहार्य है। कर्म न करना तो एक
क्षणमात्र भी संभवनीय नहीं है। मन से इन्द्रियों का संयम करके अनासक्त भाव से कर्म
करने वाले की प्रशंसा करते हुए कहा है कि हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को
वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ
है।
यस्त्विन्द्रियाणि
मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः
कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। गीता 3/7
इसलिए तू
शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर;
क्योंकि कर्म न करने की अपे़क्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से
तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
नियतं
कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि
च ते न प्रसिद्धेदकर्मणः।। गीता 3/8
‘नियत कर्म’ का आशय दो
प्रकार से व्यक्त हो सकता है। एक नियत कर्म वह है जो धर्मशास्त्र के द्वारा
प्रत्येक मनुष्य के लिए निश्चित हो चुका है। शम-दम-तप आदि ब्राह्मण के लिए; शौर्य, युद्ध से
अपलायन, दान
आदि क्षत्रिय के लिए;
कृषि, गौरक्षा, वाणिज्य
वैश्य के लिए और कारीगरी तथा परिचर्यादि कर्म शूद्र के लिए धर्मशास्त्र द्वारा
निश्चित किये हुए कर्म हैं। चार वर्णों में उत्पन्न हुए मनुष्यों के इस प्रकार के
चतुर्विध कर्म धर्मशास्त्र द्वारा निश्चित है। ये ही कर्म नियत कर्म हैं। अपना
वर्ण और अपना आश्रम इनके लिए जो कर्म धर्मशास्त्र से नियत हुआ है, वह उस मनुष्य
को सदा करना चाहिए।
दूसरा नियत
कर्म का आशय ‘सहज
कर्म’ या ‘स्वकर्म’ से है। सहज
कर्म का अर्थ है- ‘अपने
जन्म के साथ जन्मा हुआ कर्म’।
प्रत्येक मनुष्य के साथ उसका कर्म निश्चित रूप से जन्मता है। इसी प्रकार स्वकर्म
का अर्थ- ‘अपने
भाव अर्थात् जन्म के साथ नियत हुआ कर्म’। इन
दोनों शब्दों का अर्थ प्रायः एक ही है।
गीता में
यज्ञार्थ कर्म करने का भी उपदेश दिया गया है। यज्ञ के लिए जो कर्म किये जाते हैं, उन यज्ञ
कर्मों से मनुष्य को बंधन नहीं होता,
परन्तु जो दूसरे कर्म मनुष्य करता है उनसे मनुष्य को बन्धन होता है। इस कारण
यज्ञ के लिए आसक्ति छोड़कर कर्म कर। अर्थात् यज्ञकर्म से मनुष्य बन्धन से छूटता है
और यज्ञरहित अन्य कर्मों से मनुष्य को बन्धन होता है।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र
लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं
कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।। गीता 3/9
यहाँ यज्ञ
शब्द का केवल होम हवन अर्थ नहीं है। गीता के चैथे अध्याय में श्लोक संख्या 25 से 32 तक विविध
यज्ञ कहे हैं। उनमें ये मुख्य हैं-
इन्द्रियसंयमयज्ञ, द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ, ज्ञानयज्ञ
इत्यादि। वेद में सभी श्रेष्ठ कर्मों को यज्ञ कहा है। ”यज्ञौ वै
श्रेष्ठतमं कर्म।“ यज्ञों
में होमहवन (अग्निहोत्र) भी एक यज्ञ है। मनुष्य के जीवन-व्यवहार में भी क्षण क्षण
में यज्ञ होते रहते हैं। मनुष्य का बोलना,
चलना, खाना, पीना, सोना और
जागना सब यज्ञरूप होना चाहिए। भगवद्गीता का यही उपदेश प्रारम्भ से अन्त तक स्पष्ट
रीति से दीखता है। इस प्रकार से यज्ञकर्म आसक्तिरहित होकर निःस्वार्थ भाव से करनी
चाहिए। इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कत्र्तव्य कर्म को भलीभाँति करता
रह, क्योंकि
आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
तस्मादसक्तः
सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो
ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः। गीता 3/19