मूलबन्ध
मूलबन्ध की विधि :
हठयोग-प्रदीपिका में जरा मरण नाशक दस मुद्राओं का वर्णन
किया गया है , मूलबन्ध उनमें से एक है |
1.
सिद्धासन की स्थिति में बैठ जाएँ,दोनों हाथ
घुटनों पर रहें तथा रीढ़ की हड्डी सीधी रहे |
2.
धीरे-धीरे पूरी श्वास अन्दर भरें एवं रोककर रखें |
3.
गर्दन को नीचे झुकाकर ठुड्डी को कंठकूप में लगायें (जलंधर
बंध) तथा गुदा प्रदेश को सिकोड़ लें
4.
आराम से जितनी देर रुक सकते हैं श्वास रोककर इसी मुद्रा में
रहें |
5.
बंध खोलते समय पहले गुदा प्रदेश के संकुचन को ढीला छोड़ें
तत्पश्चात सिर को धीरे से उपर उठायें (जलंधर बंध खोलें ) एवं श्वास को बाहर निकाल
दें |
सावधानियां :
इस मुद्रा को जब तक आप सांस को अंदर की ओर रोककर रख सकते
हैं उसी के अनुसार शुरुआत में 5 से 10 बार करें और धीरे-धीरे इसको करने का समय
बढ़ाते जाएं। मूलबन्ध करने के4-5 घंटे पहले एवं 30 मिनट बाद तक कुछ नही खाना चाहिए
|
मूलबन्ध करने का समय व अवधि :
मूलबन्ध प्रातः खाली पेट करना सबसे उचित है सायं जब भोजन
करे कम से कम 4-5 घंटा हो जाये तब कर सकते हैं | प्रारंभ में इस अभ्यास को 4-5 बार
करें फिर धीरे-धीरे इस क्रम को बढ़ाते हुए 21 बार तक करें |
विशेष :
मूलबन्ध को वैसे तो किसी भी अवस्था में जैसे खड़े होकर, बैठकर या
लेटकर । लेकिन इसको करने के लिए सबसे अच्छा आसन सिद्धासन होता है क्योंकि ऐसी
अवस्था में एड़ी मूलाधार से लगी होने के कारण अभ्यास करने में मददगार होती है। मूलबन्ध
करते समय सांस की गति स्वाभाविक रूप से रुक जाती है और शरीर में कम्पन-सा होने
लगता है| योग
के अनुसार शौच की अवस्था में जब हम मल को रोकते हैं, तब शंखिनी नाड़ी को ऊपर की ओर खींचना पड़ता है, जबकि मूत्र
को रोकने के लिए कुहू नाड़ी को खींचा जाता है|
गुदाद्वार और मूत्राशय के बीच वाली जगह को योनिमंडल कहते है। इसी के ऊपर रीढ़
का वो स्थान होता है जिसे कन्द कहते है। यहीं से इड़ा और पिंगला नाड़ी शुरू होती
हैं। इड़ा नाड़ी बाईं ओर तथा पिंगला नाड़ी दाईं ओर चढ़ती हुई एक ही जगह पर जाकर समाप्त
होती है। फिर ये 2 हिस्सों में बंटकर एक माथे और दूसरी ब्रह्मरंध्र तक जाती
है। ये नाड़ियां सांस लेने की क्रिया को
पूरी तरह से काबू में करती है। मूल स्थान से कुछ दूर ओर 2 शंखिनी नाड़ी पैदा होती
है।
चिकित्सकीय लाभ :
•
जठराग्नि प्रदीप्त होने से पाचन शक्ति बढ़ जाती है |
•
मूलबन्ध को करने से कब्ज समाप्त होती है और भूख तेज हो जाती
है।
•
इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर का आलस्य एवं भारीपन समाप्त
होता है ।
•
मूलबन्ध पुरुषों के धातुरोग और स्त्रियों के मासिकधर्म
सम्बंधी रोगों में बहुत ही लाभकारी है।
•
मूलबन्ध से बवासीर एवं भगंदर रोग समाप्त हो जाते है ।
•
मूलबन्ध के नियमित अभ्यास से गुदा प्रदेश के स्नायु और काम
ग्रंथियां सबल एवं स्वस्थ होती हैं|
इससे स्तम्भन शक्ति बढ़ती है|
आध्यात्मिक लाभ :
•
मूलबन्ध लगाने से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है | यह शरीर का
पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह 'आधार चक्र' है। 99.9 लोगों की
चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर
जाते हैं। जिनके जीवन में भोग,
संभोग और निद्रा की प्रधानता है
उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।
•
इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और
आनंद का भाव
जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का
होना आवश्यक है।
उड्डीयानबन्ध
उड्डीयानबन्ध करने
से सातों द्वार (आँख,
कान, नाक
और मुँह)बंद हो जाते हैं फलस्वरूप प्राण सुषुम्ना में प्रविष्ट होकर उपर की ओर
उड़ान भरने लगता है। इसीलिए इसे उड्डीयान बंध कहते हैं।
विधि :
1.
सुखासन या पद्मासन में बैठ जाएँ हाथों की हथेलियों को घुटनों पर रखें |
2.
थोड़ा आगे झुके और पेट के स्नायुओं को अंदर खींचते हुए
पूर्ण रेचक(श्वास को बाहर निकालें) तथा
बाह्म कुंभक करें (बाहर ही रोककर रखें ) |
3.
धीरे-धीरे श्वास अंदर लेते हुए पसलियों को ऊपर उठाते हुए
श्वास को छाती में ही रोके एवं पेट को ढीला कर यथासंभव जितना अंदर सिकोड़सकते है सिकोड़ें
।
4.
हठयोग में पूरी श्वास बाहर निकालकर बिना श्वास लिए प्रयत्न
पूर्वक पेट को अंदर की ओर खींचा जाता है |
उड्डियानबंध करने का समय व अवधि :
·
प्रातः खाली पेट करना चाहिए | प्रारंभ में 3 बार से शुरू
करके सामर्थ्य के अनुसार 21 बार तक तक बढ़ाना चाहिए |
उड्डीयान बंध के लाभ :
·
उड्डियानबंध से आमाशय,लिवर व गुर्दे सक्रिय होकर अपना कार्य
सुचारू ढंग से करने लगते हैं एवं इन अंगों से सम्बंधित समस्त रोग दूर हो जाते हैं
|
·
यह बंध से पेट,
पेडु और कमर की माँसपेशियाँ सक्रिय होकर शक्तिशाली बनता है तथा अजीर्ण को दूर
कर पाचन शक्ति को बढाता है |
·
उड्डीयान बंध से पेट और कमर की अतिरिक्त चर्बी घटती है।
·
इस बंध से उम्र के बढ़ते असर को रोका जा सकता है। इसे करने
से व्यक्ति हमेशा युवा बना रह सकता है।
·
इससे शरीर को एक अद्भुत कांति प्राप्त होती है।
·
उड्डियानबंध पेट की दूषित वायु को निकालता है एवं कृमि रोग
को नष्ट कर देता है |
सावधानियां :
·
उड्डियानबंध करने के पूर्व यथा संभव पेट साफ़ कर लेना चाहिए
|
·
इस बंध को खाली पेट ही करना चाहिए |
·
गर्भवती महिलाएं,हृदय रोगी, पेट में कोई घाव (अल्सर) होने
की अवस्था में उड्डियानबंध नही करना चाहिए |
आध्यात्मिक लाभ :
·
उड्डियानबंध मणिपूरक चक्र को जाग्रत करता है |
·
इस बंध को करने से प्राण उर्ध्वमुखी होकर सुषुम्ना नाडी में
प्रवेश करने लगता है जिससे साधक को अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति होती है |
·
योगी गण उड्डियानबंध से अपनी भूख-प्यास पर नियंत्रण कर लेते
हैं |
जालन्धर बन्ध
कंठ का संकुचन करके ठोड़ी को ह्रदय के समीप दृढ़तापूर्वक
लगाने की क्रिया को जरामृत्यु का नाश करने
वाला जालन्धर बन्ध कहते हैं |
1.
भूमि पर आसन बिछाकर पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएं ।
2.
दोनों हाथों को घुटनों पर रखें एवं ऑंखें बंद व रीढ़ की
हड्डी सीधी रखें |
3.
गहरी श्वास लेकर अन्तः कुम्भक करें (श्वास को अंदर रोककर
रखें )और कंठ की आन्तरिक मांसपेशियों को संकुचित कर ठोड़ी को झुकाकर हृदय के पास
कण्ठकूप में लगा दें एवं दोनों कन्धों को थोड़ा सा उचकाकर उपर उठायें |
4.
आराम से जब तक अन्तः कुम्भक की स्थिति में रह सकें रहें
तत्पश्चात हाथों तथा कन्धों को शिथिल कर सिर को उपर उठाकर सामान्य स्थिति में आ जाएँ |
5.
धीरे-धीरे श्वास बाहर निकालें |
6.
श्वास क्रिया सामान्य हो जाने पर पुनः इस प्रक्रिया को करें
।
सावधानियां :
·
जिन लोगों की कमर या गर्दन में दर्द रहता हो उन्हें जालंधर
बंध का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
·
जब तक आसानी से कुम्भक की स्थिति में रह सकें रहें,
हठपूर्वक न करें |
जालन्धर बन्ध करने का समय व अवधि :
प्रातः एवं सायं भोजन के पूर्व इस बन्ध को करना चाहिए |
प्रारंभ में तीन बार करें तत्पश्चात धीरे-धीरे क्रम को बढाकर 21 बार तक ले जाना
चाहिए |
चिकित्सकीय लाभ :
·
जालन्धर बन्ध गले के समस्त रोगों जैसे- टॉन्सिल, आवाज खराब
होना आदि का नाश करता है |
·
यह बन्ध थायरायड एवं पैराथायरायड ग्रन्थियों की क्रियाशीलता
बढ़ाकर हार्मोन्स के स्राव को सन्तुलित करता है | जिससे शरीर का मेटाबालिज्म ठीक
रहता है |
·
जालन्धर बन्ध से चेहरे पर भी चमक आ जाती है।
स्फूर्ति,उत्साह,एवं यौवन को बनाये रखता है |
·
इस बन्ध के अभ्यास से हाई ब्लडप्रेशर और लो ब्लडप्रेशर
दोनों ही सामान्य हो जाते हैं।
·
जालन्धर बन्ध से क्रोध का नाश होता है एवं मष्तिस्क तरोताजा
रहता है |
आध्यात्मिक लाभ :
·
जालन्धर बन्ध से
विशुद्ध चक्र जाग्रत होता है |
·
यह मुद्रा कुण्डलिनी शक्ति को जगाने में बहुत ही सहायक है।
·
जालन्धर बन्ध सिद्ध हो जाने पर योगियों के लिए कोई भी
सिद्धि पाना कठिन नही रह जाता है |
महाबन्ध
(महाबन्ध तीन
बन्धों - मूलबन्ध, जालन्धर
बन्ध और उड्डीयान बन्ध के मिलाने से बनता है)।
विधि :
1. पदमासन या सिद्धासन की स्थिति में बाएं पैर की एड़ी को
गुदा एवं लिंग के मध्य भाग में जमाकर बायीं जंघा के ऊपर दाहिने पैर को रखें | रीढ़ की हड्डी
सीधी रखें |
2. जिस नासा छिद्र से श्वास चल रही हो उससे ही श्वास अंदर
भरकर जालन्धर बन्ध लगा लें |
फिर गुदाद्वार से वायु को उपर की ओर आकर्षित करके मूलबन्ध लगायें एवं पेट को
अंदर सिकोड़कर उड्डियान बन्ध लगा लें |
3. मन को मध्य नाडी में एकाग्र करते हुए यथाशक्ति अन्तः कुम्भक करें (श्वास को अंदर
ही रोककर रखें) |
4. जिस नासा छिद्र से श्वास अंदर भरी थी उसके विपरीत नासा
छिद्र से धीरे-धीरे श्वास बाहर निकाल दें |
इस प्रकार दोनों नासा छिद्रों से अनुलोम-विलोम विधि से समान प्राणायाम करें |
मुद्रा करने का समय व अवधि :
प्रारंभ में इस आसन मुद्रा को प्रातः – सायं खाली
पेट 5 बार करना चाहिए ।
सावधानियां :
•
प्रत्येक अभ्यास को करने के बाद कुछ देर तक सामान्य श्वास
लेकर पुनः बन्ध लगाना चाहिए |
•
किसी भी क्रिया में जोर-जबरजस्ती नही करना चाहिए | आराम से
जितना कर सकते हैं उतना ही करें |
•
महाबन्ध में जालन्धर बन्ध को अवश्य लगायें अन्यथा मूलबन्ध
एवं उड्डियान बन्ध लगा होने से पेट की वायु मष्तिस्क पर अटैक करके सिरदर्द,भारीपन एवं
अवसाद जैसे रोग को भी जन्म दे सकती है |
चिकित्सकीय लाभ :
·
महाबन्ध के अभ्यास से प्रजनन अंगों के समस्त रोग जैसे-
गर्भाशय की सूजन,प्रदर
रोग,धातुरोग
आदि दूर हो जाते हैं।
·
महाबन्ध युवावस्था बनाये रखने के लिए बहुत ही ज्यादा
लाभकारी है।
·
यह आसन मुद्रा मन को शांत एवं एकाग्र करती है जिससे शरीर के स्नायु सबल होते हैं |
·
महाबन्ध के नियमित अभ्यास से ह्रदय को बल मिलता है जिससे
ह्रदय रोगों की संभावना समाप्त हो जाती है
·
यह प्रजनन अंगों एवं उनसे सम्बंधित स्नायुओं की अनावश्यक
उत्तेजना और शिथिलता को दूर करके वीर्य की शुद्धि एवं स्तम्भन शक्ति को बढ़ाता है |
·
महाबन्ध आँतों की निष्क्रियता को दूर कर जठराग्नि प्रदीप्त
करता है जिससे कब्ज और अपच दूर होती है |
एवं बवासीर,लिवर
व तिल्ली के रोग नष्ट हो जाते हैं |
आध्यात्मिक लाभ :
·
महाबन्ध के अभ्यास से इड़ा,पिंगला एवं सुषुम्ना नाड़ी का संगम होता है एवं प्राण
उर्ध्यगामी होकर कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है |