जीवधारियों को जैविक कार्यो के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऊर्जा भोज्य पदार्थो के जैव-रासायनिक आक्सीकरण से प्राप्त होता है। सम्पूर्ण प्रक्रिया को जिसके अन्तर्गत जीवधारियों द्वारा बाह्य वातावरण से भोजन ग्रहण करके उसे कोशिका में ऊर्जा उत्पादन करने या जीवद्रव्य में स्वांगीकृत करके मरम्मत या वृद्धि में प्रयुक्त करता है; पोषण कहते है। पोषण शब्द की उत्पत्ति ‘पोषित’ शब्द से हुई है। इसमें वे सब सम्मिलित है, जो हमारे द्वारा खाये गये भोजन का उपयोग शरीर वृद्धि, ऊर्जा और अच्छे स्वास्थ्य के लिए करते है।
आहार
आहार प्राकृतिक या अप्राकृतिक
रूप से प्राप्त भोज्य पदार्थ होता है। जैसे प्रकृति द्वारा प्राप्त अनाज दाल, सब्जी, फल, कन्द-मूल, दूध, शर्करा, तेल आदि तथा
अप्राकृतिक भोजन जैसे माँस,
मछली, अण्डा
तथा अन्य प्राणियज पदार्थ।यह वह ठोस या तरह पदार्थ होता है जो जिन्दा रहने की एकता
के लिएसवेगात्मक तृप्ति के लिए,
सुरक्षा व प्रेम की भावना को दृढ़ बनाने के लिए आवश्यक होताहै। मनुष्य की
शारिरिक, मानसिक, संवेगात्मक
सामाजिक क्षमता के सन्तुलन के लिए‘आहार’ अव्यावश्यक
पदार्थ है।
आहार की
परिभाषा
‘‘शब्द
स्तोम’’ ग्रन्थ
के अनुसार-देहधारी प्रतिक्षण अपने परिश्रम से शारीरिक उपादानों का हृास करता है और
उसकी पूर्ति के लिए जिस द्रव्य की आवश्यकता पड़ती है उसी का नाम ‘‘आहार’’ है।
हैरी बेंजामिन के अनुसार- आहार
उन उपादानों को पूरा करता है जो शरीर की वृद्धि, निर्माण तथा शारीरिक अवयवों के उपयुक्त संचालन के लिए
आवश्यक हैं। यह सम्पूर्ण मानव शरीर के कार्यों को साम्यावस्था में रखता है जिससे
शरीर रूपी यंत्र अपनी शक्तिपर्यन्त कार्य करता है। अंग्रेजी में इसे ‘फूड’ कहते हैं।
आचार्य चरक के अनुसार- द्रव्य
(आहार द्रव्य) पंचभौतिक हैं। पृथ्वी तल पर सूर्य के ताप तथा जलवायु की सहायता से
प्रकृति के उत्पन्न किये हुए शरीरोपयोगी द्रव्य ही आहार हैं।
आयुर्वेद के प्रणेता भगवान
धन्वन्तरी के अनुसार-‘‘प्राणियों
के बल, वीर्य
और ओज का मूल आहार है’’-
वह छ: रसों के आधीन है और रस पुन: द्रव्यों के आधीन होते हैं; दोषों का
क्षय, दोषों
की वृद्धि तथा दोषों की समता,
द्रव्यों के रस-गुण-विपाक और वीर्य के कारण हुआ करती है। ब्रह्मादि लोक की
भीस्थिति, उत्पत्ति
और विनाश का कारण आहार ही है। आहार से ही शरीर की वृद्धि, बल, आरोग्य, वीर्य और
इन्द्रियों की प्रसन्नता उत्पन्न होती है और आहार ही की विषमता से रोग उत्पन्न हुआ
करते हैं। जिसमें भोज्य,
पेय, लेध्य
और भक्ष्य ऐसे चार प्रकार हैं;
जो नाना द्रव्यों से बने हुए हैं,
जिसमें खाद्य के नाना प्रकार होते हैं और जिनके सेवन से शरीर में बहुविध शक्ति
उत्पन्न होती है।
महर्षि सुश्रुत के अनुसार- समस्त
जीव मात्र का मूल आहार है।भगवान आत्रेय के अनुसार- ‘‘अन्नं वै प्राणिनां प्राणा:।’’इष्ट वर्ण गन्धरसस्पर्शयुक्त विधि विहित अन्न पान को
प्राणधारियों का ‘प्राण’ कहा है।
क्योंकि यह प्रत्यक्ष है कि उक्त गुण सम्पन्न र्इंधन (भोजन) से ही अन्तराग्नि-कायाग्नि
की स्थिति है। उक्त गुण सम्पन्न र्इंधन (भोजन) से ही हमारी इन्द्रियाँ प्रसन्न
रहती हैं। शरीर धातु पुष्ट होता है,
बल बढ़ता है और सत्व उर्जित होता है।
बाइबिल कहती है-‘‘और खुदा ने
कहा, देखो
मैंने हर एक बीजधारी वनस्पति को,
जो सारी धरती पर व्याप्त है और हर एक पेड़ को जिसमें बीज उपजाने वाला फल है, तुम्हें दिया
वही तुम्हारी खुराक होगी।
उपनिषद् के अनुसार- अन्नादध्मेव
खल्विमानि भूतानि जायन्ते।अन्नेव जातानि जीवन्ति। अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।
(तैत्तिरीयोपनिषद 3/2)अन्न
से ही सभी प्राणी जन्म लेते हैं। अन्न से ही सभी जीते हैं और अन्त में अन्न में ही
समा जाते हैं।गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने- अश्नत: और आहार ये दो शब्द कहे हैं।
आहार वह वस्तु है जिसे ग्रहण करने से मन-प्राण और शरीर चल पाते हैं।
पोषण
आहार के पाचन शोषण तथा संग्रह के
बाद शरीर के उसका सुक्ष्म रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा होता है। इन प्रक्रियाओं को
हम पोषण कहते है।
जिन जटिल प्रक्रियाओं द्वारा एक
सजीव प्राणी अपने शरीर के कार्यो वृद्धितथा तत्वों के पुननिर्माण एवं भरण-पोषण के
लिए आवश्यक पदार्थो का ग्रहण तथा उपयोगकरता है। उसे पोषण कहते है।’’
डी0 एफ0 टर्नर के
अनुसार- ‘‘पोषण
उन प्रतिक्रियाओं का संयोजन है। जिनके द्वाराजीवित प्राणी क्रियाशीलता को बनाये
रखने के लिए तथा अपने अंगों की वृद्धि एवं उनकेपुन: निर्माण हेतु आवश्यक पदार्थ
प्राप्त करता है और उनका उचित उपयोग करता है।’’
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट
होता है कि भोजन केवल जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए ही नहीं, बल्कि अधिक
से अधिक उत्तम स्वास्थ,
शरीर का निर्माण,
वर्धन,सुगठन
क्षतिग्रस्त अवयवों एवं उनकी कोशिकाओं की क्षतिपूर्ति एवं ऊर्जा एवं ऊष्मा
प्राप्ति केलिए आवश्यक है।