VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

आहार का अर्थ एवं महत्व

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

आहार का अर्थ, परिभाषा, महत्व एवं आवश्यकता

आहार का अर्थ है भीतर लेना। मुँह से खाना, पीना, नाक से श्वांस लेना, त्वचा से वायु का- धूप का ग्रहण करना, आदि को भी आहार के अन्तर्गत ही समझना चाहिए। जन्म के पहले माँ के रक्त द्वारा बालक को पोषण होता है, जन्म के बाद माँ का स्तन-पान ही उसका आहार है।प्रत्येक व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए यह आवश्यक है कि वह सन्तुलित आहार लें।

‘‘आहार विज्ञान कला एवं विज्ञान का वह समन्वयात्मक रूप है जिसके द्वारा व्यक्ति विशेष या व्यक्तियों के समूह को पोषण तथा व्यवस्था के सिद्धान्तों के अनुसार विभिन्न आर्थिक तथा शारीरिक स्थितियों के अनुरूप दिया जाता है।

आहार को कला व विज्ञान इसलिए कहा जाता है कि आहार विज्ञान न केवल यह बताता है कि कौन-कौन से पोषक तत्व किस प्रकार लेने चाहिए या उसके क्या परिणाम हो सकते हैं। बल्कि यह भी बताता है कि उचित स्वास्थ्य के लिए कौन-कौन से पोषक तत्व कितनी मात्रा में लिये जायें।

आहार को व्यक्ति के भोजन की खुराक भी कहा जाता है अर्थात् ‘‘व्यक्ति भूख लगने पर एक बार में जितना ग्रहण करता है, वह भोजन की मात्रा उस व्यक्ति का आहार (DIET) कहलाती है।

आहार वह ठोस अथवा तरल पदार्थ है जो जीवित रहने, स्वास्थ्य को बनाये रखने, सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों की एकता हेतु संवेगात्मक तृप्ति, सुरक्षा, प्रेम आदि हेतु आवश्यक होता है। व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक क्षमता के संतुलन के लिए आहार अत्यन्त आवश्यक है।

उपनिषदों में कहा गया है कि- आहार शुद्धौ, सत्व शुद्धि: सत्व शुद्धौ ध्रवा स्मृति: अर्थात् आहार शुद्ध होने से अंत:करण शुद्ध होता है और अंत:करण शुद्ध होने पर विवेक बुद्धि ठीक काम करती है।

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने लिखा है कि ‘‘आहार का जीवन की गतिविधियों से गहरा संबंध है। जिस व्यक्ति का जैसा भोजन होगा उसका आचरण भी तदनुकूल होगा।’’आहार शब्द का प्रयोजन या नाम सुनते ही हमारे सामने अनगिनत तस्वीरें उभरकर आती हैं। आम तौर पर आहार का सम्बन्ध पारिवारिक और अन्य सामूहिक भोजन से जुड़ा है। इस प्रकार आहार जीवन के प्रत्येक पहलू से घनिष्ठ रूप से गुँथा है। आहार ही जीवनदाता है।

शरीर को स्वस्थ रखने के लिये उचित भोजन का उचित मात्रा में होना बहुत आवश्यक है अर्थात् अच्छे स्वास्थ्य का सीधा सम्बन्ध हमारे खान-पान से जुड़ा है। लेकिन यह जानना आवश्यक है कि स्वस्थ रहने के लिये क्या और कितनी मात्रा में खाना चाहिए?

भोजन क्या है? अगर इस तथ्य पर ध्यान दिया जाय तो भोजन शब्द का संबंध शरीर को पौष्टिकता प्रदान करने वाले पदार्थ में है। भोजन में वे सभी ठोस, अर्द्ध तरल और तरल पदार्थ शामिल हैं जो शरीर को पौष्टिकता प्रदान करते हैं। भोजन हमारे शरीर की मूलभूत आवश्यकता है।भोजन में कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ होते हैं जो हमारे शरीर के लिए महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। भोजन से मिलने वाले इन रासायनिक पदार्थों को पोषक तत्व कहते हैं।यदि ये पोषक तत्व हमारे भोजन में उचित मात्रा में विद्यमान नहीं हो तो इसका परिणाम अस्वस्थता या मृत्यु तक भी हो सकती है।भोजन में पोषक तत्वों के अलावा, कुछ अन्य रासायनिक पदार्थ होते हैं, जो कि अपोषक तत्व कहते हैं। जैसे कि भोजन को उसकी विशेष गंध देने वाले पदार्थ, भोजन में पाए जाने वाले प्राकृतिक रंग इत्यादि। इस प्रकार भोजन पोषक तत्वों और अपोषक तत्वों का जटिल मिश्रण है।

आहार अथवा भोजन क्यों लिया जाता है?

सर्वप्रथम तो स्वाभाविक रूप से जब भूख लगती है, उसकी निवृत्ति के लिए और शरीर का पोषण करने तथा शक्ति प्राप्त के लिए आहार लिया जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के अलावा मानसिक स्वास्थ्य भी आहार पर निर्भर है। शारीरिक स्वास्थ्य का मूल आधार है- संतुलित भोजन। शारीरिक क्रिया संचालन के लिए जो तत्व अपेक्षित है उन सबका हमारे भोजन में होना आवश्यक है और यही संतुलित भोजन है। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, खनिज, विटामिन, क्षार तथा लौह आदि उचित मात्रा में लेने से शरीर स्वस्थ और क्रिया करने में सक्षम रहता है। उचित मात्रा में जल सेवन भी अति आवश्यक है।

आहार का महत्व

‘‘मनुष्य अपनी थाली पर ही बनता या बिगड़ता है’’ यह कहावत सर्वत्र प्रसिद्ध है।‘‘अन्नो वै प्राणिनां प्राण:’’कोई भी प्राणी आहार के बिना जीवित नहीं रह सकता।

रोगों का मूल कारण कुत्सित आहार- यदि मनुष्य के प्रत्येक रोग के मूल कारण को देखा जाए तो चलेगा कि मानव का कुत्सित भ्रमपूर्ण भोजन (आहार) ही उसका उत्पादक है। जो पोषक होता है वही अयथावत प्रयोग से दूषण का कार्य करता है। शरीर जिन-जिन उपादानों को मांगता है यदि उसे उपयुक्त मात्रा में उपयुक्त समय पर न दिया जाय तो वह ठीक-ठीक कार्य न कर सकेगा। और पोषण के अभाव में वह दुर्बल तथा नाना तरह की आधि-व्याधि से परिपूर्ण हो जायेगा। व्याधि शरीर के लिए काष्ठगत घुन के समान है जो अन्दर उसे निस्सार बना देते हैं, निरूपयोगी कर देते हैं। मानव शरीर एक ऐसा कारखाना है जो स्वयमेव सुव्यवस्थित हो जाता है, स्वयमेव नियमबद्धता को प्राप्त करता है और स्वयमेव सुधार करता है, स्वयमेव विकसित होता है। जो शक्ति उसे सृजती है वही उसकी रक्षा भी करती है।

मानव वंश की उत्पत्ति में आहार का महत्व- पुरातन समय में भयंकर से भयंकर कष्ट उठाकर भी विभिन्न देशों में पर्यटन, कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि अपने तथा अपने आश्रितों के भूख शमन करने के लिए किये जाते थे। आधुनिक युग में भी इस पेट के लिए इसी प्रकार के अनेक स्थानान्तर करने पड़े हैं और पड़ रहे हैं।

मानसिक स्वास्थ्य अन्न पर निर्भर-  छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है-‘‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ धु्रवा स्मृति: स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:।’’ अर्थात् आहार के पाचन में तीन भागों में विभक्त हो जाता है- स्थूल असार अंश से मल बनता है, मध्यम अंश से मांस बनता है और सूक्ष्म अंश से मन की पुष्टि होती है। मन अन्नमय ही है। आहारशुद्धि से सत्त्वशुद्धि (मनशुद्धि), सत्त्वशुद्धि से ध्रुवा स्मृति और स्मृतिशुद्धि से सभी ग्रन्थियों का मोचन होता है। अत: सिद्ध हुआ कि अन्न से ही मन बनता है। भारतीय दर्शन में ठीक ही कहा गया है- ‘‘अन्नो वै मन:’’

इस प्रकार हम देखते हैं कि शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य सभी अन्न पर निर्भर करते हैं। यह एक सर्वाधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण तत्त्व है जीवन के लिए।

आहार की आवश्यकता

शरीर की सुरक्षा, उसे गतिशील रखने और उसे पोषण प्रदान करने के लिए आहार की आवश्यकता होती है। आहार शरीर के समुचित विकास, स्वास्थ्य एवं सुख का हेतु है। अत: आहार की समुचित संतुलित मात्रा ही लाभदायक है। आहार से शरीर का पोषण होता है तथा बल, वर्ण, आयु, ओजस और तेजस की प्राप्ति होती है।