VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

उपवास का महत्व

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

उपवास शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वच्छता के लिए अपूर्व एवं एक ही उपाय है। उपवास प्रक्रिया जितनी लाभप्रद है यदि ठीक ढंग से इसका पालन न किया जाए तो इससे लाभ के स्थापन पर हानि भी हो सकती है।

जैसा कि हम जानते है कि हमारा शरीर रबर की तरह बनी लचीली नलियों का बना होता है, नलियॉ अधिक खाते रहने की आदत के कारण फैल जाती है, जिससे उनपर रक्त का अधिक एवम् अस्वाभाविक दबाव पड़ने लगता है जिसके कारण शरीर के स्वाभाविक कार्याे में बाधा पड़ने लगती है । उपवास काल में जब हम आहार लेना बन्दे करते है तो नलियॉ जिन्हें हम ऑत कहते है अपनी स्वाभाविक अवस्था में आने लगती है। रक्त से त्याज्य पदार्थ निकलने लगता है। यह कार्य उपवास के प्रारम्भिक दिनों में होता रहता है, जिससे रोगी को अपना शरीर हल्का अनुभव होने लगता है। परन्तु कुछ समय पश्चात ऑतों में पुनः श्लेष्मा निकलकर रक्त में मिल जाता है, परन्तु जल्द ही यह श्लेष्मा मूत्र द्वारा बाहर निकल जाता है। फलतः व्यक्ति स्वस्थ अनुभव करता है।

उपवास काल में जब केवल जल ग्रहण किया जाता है, तब उत्सर्जन प्रक्रिया द्वारा शरीर की गन्दगी पानी के साथ मिलकर शरीर से बाहर आ जाती है। यह गन्दगी श्लेष्मा या फिर पहले से ली जा रही दवाएं होती है, जो कि विजातीय पदार्थ के रूप में जानी जाती है। इस विजातीय पदार्थ को शरीर अपने रक्त में मिलाकर इस हद तक घुलाता है कि वे गुर्दे - रूपी छलनी से छन कर आसानी से बाहर निकल जाते है।

जनसाधारण में यह धारणा भी देखी जाती है कि खाने के बीच में भंग करना भले ही वह अल्पकालीन क्यों न हो, व्यक्ति की जीवनी शक्ति को कमजोर करता है। यह इस कारण से भी है कि लोग मानते है कि शक्ति का स्रोत मात्र खाद्य और पेय पदार्थ ही है। प्राण शक्ति जो कि हमारी जीवनी शक्ति या ओजस्विता का मूल स्रोत है इसका हमारे शारीरिक और आध्यात्मिक शरीर से तथा हमारे भोजन, पेय, टॉनिक एवं उत्तेजक पदार्थों से कोई सम्बंध नहीं है। यह जीवनी शक्ति उस ब्रहमाण्डीय तथा सृष्टि की सृजन शक्ति और बुद्धि का आदि स्रोत है। इस शक्ति को हम ईश्वर के नाम से जानते हैं

मनुष्य में उर्जा शक्ति का मुख्य स्रोत केवल भोजन नहीं है अपितु इससे भी अति प्रभावशाली एवं सूक्ष्म स्रोत प्राण शक्ति है। जिसे हम ब्रहमाण्डीय उर्जा के रूप में जानते है। जिसकी प्राप्ति का एकमात्र साधन ईश्वर है। स्पष्ट है कि उपवास द्वारा मनुष्य की शारीरिक क्षमता में किसी प्रकार की कमी नहीं आती बल्कि उपवास द्वारा वह उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त करने में सक्षम रहता है। मानव शरीर में उपवास एक प्रभावशाली उपचार साधन के रूप में कार्य करता है। रोग रक्तप और लसिका के असामान्य संगठन तथा शरीर में विजातीय पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने में सहायता पहुँचाता है।

उपवास में भोजन खाने की आदत को तोडना सबसे कठिन स्थिति है । इसलिए उपवास के प्रथम तीन या चार दिन सदैव कठिनतम होते है, जिनमें व्यक्ति को कुछ शारीरिक उपद्रव अनुभव होते है जैसे- सिरदर्द, नींद आना, चक्कर आना, वमन आदि। ऐसा इसलिए होता है क्यों कि खाने की आदत व्यक्ति की सबसे पुरानी आदत होती है। और इसे तोड़ना उसके लिए सहज नहीं होता। उपवास प्रारम्भिक दिनों में व्यक्ति इस जटिलता का अनुभव करता है। परन्तु। धीरे-धीरे प्रक्रिया उसके लिए आसान हो जाती है।

उपवास तथा अन्य उपचारों में रोग निवारण हेतु ये आवश्यरक है कि रोगी की मनोवृत्ति सकारात्मक हो, यदि व्यक्ति उपवास कमजोर होने की मनोवृत्ति के साथ प्रारम्भ करता है तो इससे उसमें मानसिक और स्नायुविक अवसाद उत्पन्न होने की सम्भावना बढ़ जाती है, जिससे व्यक्ति के शरीर पर घातक प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत यदि पूर्ण विश्वास एवं सावधानियों के साथ उपवास किया जाए तो शरीर पर लाभकारी प्रभाव पड़ता है। शरीर में जीवनी शक्ति बढ़ती है तथा विजातीय पदार्थ दूर होते है।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि अच्छे स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए उपवास बहुत ही लाभकारी प्रक्रिया है, इससे भी अधिक प्रसन्नता की बात यह है कि उपवास को कम से कम एवं अधिक से अधिक दिनों के लिए रखा जा सकता है। जो व्यक्ति को अपने प्रभावानुसार पूरा- पूरा लाभ प्राप्त कराता है। रोगोपचार हेतु उपवास की अवधि को घटाया या बढ़ाया जा सकता है। उपवास द्वारा व्यक्ति की सहनशक्ति भी बढती है। उपवास प्रक्रिया द्वारा शरीर में रोग उत्पन्न करने वाले विजातीय पदार्थ को शरीर से पूर्णतः बाहर निकाल देता है। यह प्रक्रिया ज्वर, दस्त, तीव्र जुकाम, आदि लक्षणों के द्वारा पूर्ण होती है। इनसे डरकर उपवास तोड़ना नहीं चाहिए। एक सहज प्रक्रिया होने के कारण उपवास को जल, दूध, मट्ठा जल सब्जी, जूस आदि सभी के प्रयोग से एक उचित विधिवत प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। जिसका अपनी योग्यतानुसार अलग-अलग महत्व होता है। यह रोग निवारण उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति में एक लाभदायक एवं प्रभावकारी प्रक्रिया होती है।

उपवास करने वाले व्याक्ति का इस पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। उपवास करने वाले प्रारम्भिक व्यक्तियों को उपवास से डरना नहीं चाहिए बल्कि श्रद्धा एवं दृढ विश्वास के साथ उपवास के नियमों का पालन करना चाहिए। उपवास व्यक्ति को हानि नहीं पहुचता है बल्कि यह शारीरकि, मानसिक एवं भौतिक दृष्टि से हमारे लिए हितकर सिद्ध होता है। क्योंकि यह न केवल शरीर का शोधन करता है, अपितु हमारी इच्छा्शक्ति और आत्मनियंत्रण को भी दृढ बनाता है।

मानव शरीर में दो प्रक्रियाएं निरन्तर चलती रहती है, एक पाचन एवं दूसरी मल निष्कासन जब इन दोनों कार्यों में लगे यन्त्रों में अतिरिक्त कार्य का भार पड़ता है, तो यह क्रियाएँ ठीक से नहीं हो पाती है। जिसके कारण उत्पन्न विजातीय पदार्थ हमारी आन्तरिक जीवनशक्ति को कमजोर कर देता है। इससे शरीर में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।शरीर में  विजातीय पदार्थों का निष्कासन धीमा हो जाने के कारण वह शरीर में ही एकत्रित हो जाते है।जिससे आगे चलकर अनेक रोग होने की संभावनाएँ हो जाती है ।

उपवास व्यक्ति की जीवनीशक्ति बढ़ाने में सहायता प्रदान करता है। जैसा कि उपर बताया गया है कि हमारे शरीर में भोजन का पाचन एवं मल निष्कासन दोनों प्रक्रिया निरन्तर अपने आप चलती रहती है। जब हम भोजन करते है तो भोजन का पाचन और उसके अभिशोषण की क्रिया अति मन्द हो जाती है। और इस कार्य से बची हुई शक्ति का उपयोग मल निष्कासन क्रिया में होने लगता है। यही क्रिया उपवास में होती है।उपरोक्त प्रक्रिया शरीर में उपवास की महत्ता को स्पष्ट करती है। उपवास काल में किसी प्रकार का भोजन ग्रहण नहीं किया जाता इसके फलस्वरूप पाचन और अभिशोषण की क्रिया सर्वथा स्थगित हो जाती है। लेकिन उपवास काल में मल निष्कासन की प्रक्रिया तेजी से होती है, जिससे शरीर में उपस्थित विजातीय पदार्थ जो शरीर के लिए हानिकारक होते है, तेजी से शरीर से बाहर निकलते है । विजातीय पदार्थ के निष्कासन से शरीर स्वाभाविक दशा में आ जाता है। और निरूद्ध जीवनशक्ति पुनः क्रियाशील हो जाती है फलतः शरीर पूर्णतः रोग मुक्त हो जाता है।

उपवास काल में उपरोक्त सभी प्रक्रिया क्रमबद्ध होती है। यही कारण है कि प्राचीन काल से और प्रायः सभी धार्मिक परमपराओं में उपवास को आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक कष्टों के लिए एक महाऔषधी के रूप में जाना जाता है और इसी कारण विविध तिथियों में जिस किसी बहाने से व्रत उपवास करने की परम्परा भॉति-भॉति के अर्थवाद के साथ प्रारम्भ की गई है। शारीरिक कष्टों के निवारण हेतु उपवास क्रिया प्रारम्भ से ही प्रयोग में लाई जाती रही है। उपवास सभी रोगों के उपचार में लाभ पहुंचाता है जैसे-सब प्रकार की अकस्मात उत्पन्न होने वाली पीडाओं में। जैसे- पित्त विकार से उत्पन्न रोग, ऑत सम्बन्धी रोग,त्वचा के नीचे मांस तन्तुओं की सूजन आदि में।

·         सभी प्रकार के बुखार जैसे मियादी बुखार, बात ज्वर, फेफडों के व्रण आदि में।

·         दमा,गठिया, मधुमेह जैसे जीर्ण रोगों में |

·         क्रोध, घृणा, शोक आदि मानसिक आवेगों के समय।

उपवास के समय सदा प्रसन्न और स्वास्थ्य के प्रति आशावान दृढ और उत्साहित रहना शीघ्र लाभ देता है। उपवास के अभीष्ट फलों की प्राप्ति के लिए उपवास तोड़ते समय विशेष सावधान रहना चाहिए। और इस सम्बिन्धस में अपेक्षित नियमों का सम्पूर्णतया पालन करना चाहिए। अन्यथा अपेक्षित लाभ नहीं मिलता, बल्कि हानि की भी सम्भावना रहती है।

हमारी प्राचीन संस्कृति में उपवास जिसे लंघन के नाम से भी जाना जाता है, को बहुत महत्व दिया जाता है, धर्म पालन की एक विधि के रूप में भी उपवास का व्यवहार किया जाता है। सात दिन में एक बार या महीने-15 दिन में एक बार तो व्रत की बहुत सी विधियॉ है। नवरात्रि के सयम में नौ दिन के व्रत का भी विधान है। एकादशी, द्वादशी, पूर्णिमा, अमावस्या के दिनों में भी व्रत का विधान बताया जाता है ।

वर्तमान समय में व्रत की विधि में विशेष पकवानों को जोड़ दिया जाता है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं रहता है। परन्तु फलाहार, निर्जल या केवल जल पीकर किया गया उपवास लाभदायक होता है। आयुर्वेद में कुछ रोगों में उपवास प्रक्रिया को अनिवार्य बताया गया है परन्तु कुछ रोगों में उपवास को निषेध भी माना गया है। उपवास में शरीर का शोधन करके उसे हल्का बनाया जाता है। जिन रोगियों का शरीर क्षीण हो गया है, घायल है, वृद्ध अथवा दुर्बल है,  अथवा अधिक कामुक होने से नित्य मैथुन करते है अथवा मदिरापान करते रहने के कारण कमजोर है, ऐसे व्यक्तियों को उपवास नहीं करना चाहिए। बलशाली शरीरवाले, शरीर में श्लेष्मा, पित्ती, रक्त और मल अधिक है ऐसे व्यक्तियों के शरीर के लिए उपवास आवश्यक होता है।

जिनके शरीर में कफ, पित्त के विकार से उत्पन्न रोग अधिक प्रबल नहीं है, अपितु मध्यम बल वाले है जो वमन, अतिसार, ह्रदयरोग, बुखार, कब्ज, शरीर में भारीपन, अरूचि आदि रोगों से ग्रस्त है । उनकी चिकित्सा के लिए पाचन विधि प्रशस्त होती है। जिनके रोग निर्बल है, उनकी चिकित्सा उपवास द्वारा करना उचित रहता है। जो रोगी शरीर से तो हृष्ट-पुष्ट है परन्तु। उनका रोग अधिक बढा हुआ नहीं है, उनकी चिकित्सा हेतु व्यायाम, धूप सेवन, वायु सेवन द्वारा उपवास कराया जाता है। इसके अतिरिक्त चर्मरोगी, वात रोगी को शिशिर ऋतु में उपवास कराकर चिकित्सा् करानी चाहिए।

उपवास की महत्ता का वर्णन करते हुए महर्षि चरक कहते है कि उपवास को सभी रोगों की पर्याप्त चिकित्सा मानने के कारण यह सोचना उचित न होगा कि प्रचीन आचार्य उपवास के महत्व् को भली प्रकार जानते नहीं थे। प्राचीन आचार्य मानते है कि आमाशय में स्थित दोष आम के साथ मिलकर जठराग्नि को मन्द करके स्रोतों को रोककर ज्वर उत्पन्न करते है, इसलिए ज्वर के पूर्वरूपों में या ज्वर के प्रारम्भ में रोग के बल का ध्यान सावधानी से रखते हुए उपवास कराना चाहिए। उपवास द्वारा रोग क्षीण हो जाने पर पुनः जठराग्नि प्रदीप्त होती है और शरीर में हल्कापन आ जाता है। जिसके फलस्ववरूप आरोग्य, भूख, प्यास, अन्न में रूचि, शरीर में तेज, बल और ओज उत्पन्न होता है।