VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

ध्यान

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'


जिस स्थान में धारणा की हुई है, उस स्थान में चित्त की एकतानता = एकाग्रता एक समान बना रहे, वह ध्यान की स्थिति है।

तत्र-प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। योगसूत्र - 3/2

ध्यान की स्थिति में चित्तवृत्तियाँ पूर्णतः निरुद्ध रहती है। तब केवल ध्याता, ध्यान और ध्येय का ही सूक्ष्म रूप में भान रहता है, अन्य का नहीं। मण्डलब्राह्मणोपनिषद् में भी इसी प्रकार चैतन्य में एकतानता को ध्यान कहा गया है।

सर्वशरीरेषु चैतन्यैकतानता ध्यानम्। मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् - 347

ईशादि उपनिषदों तथा अन्य उपनिषदों में भी ध्यान का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है। इनमें ध्यान के द्वारा आत्मदर्शन की बात कही गयी है। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि ज्ञानप्रसाद के द्वारा विशुद्ध अन्तःकरण होकर ध्यान करता हुआ आत्मा को देखे। उपनिषदों में प्रायः ओंकार ध्यान का विधान किया गया है। प्रश्नोपनिषद् में ओंकार के ध्यान के सम्बन्ध में ओंकार की एक, दो तथा तीन मात्राओं के ध्यान तथा उनके फलों का अलग-अलग वर्णन स्पष्टता के साथ उपलब्ध होता है। श्वेताश्वरोपनिषद् में ध्यान करने की विधि बतलाया गया है कि सिर, ग्रीवा तथा कमर को एक सीध में करके इन्द्रियों को हृदय में स्थापित करके ध्यान करे।

त्रिरूत्रयं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य।

ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विहान्स्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि।। श्वेताश्वतरोपनिषद् 2-8

ब्रह्मविद्योपनिषद् में ध्यान करने का स्थान भ्रूमध्य बतलाया गया है। योगशिखोपनिषद् में सुषुम्ना में ध्यान करने को सर्वश्रेष्ठ मानकर कहा गया है कि यह ध्यान हजारों अश्वमेधादि यज्ञ की अपेक्षा सर्वोत्तम है। योग तत्त्वोपनिषद् में ध्यान के दो भेद बतलाए हैं- सगुण और निर्गुण। प्राणायाम द्वारा प्राण को नियंत्रण कर अपने इष्ट देवता का ध्यान करना सगुण ध्यान कहलाता है। इस ध्यान द्वारा अणिमादि अष्टसिद्धियाँ प्राप्त होती है। निर्गुण ध्यान के द्वारा समाधि की प्राप्ति होती है।

सगुणं ध्यानमेत्स्यादणिमादिगुणप्रदम्।

निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत्।। योगतत्त्वोपनिषद् श्लोक 106

शाण्डिल्योपनिषद् में भी ध्यान के दो भेद बताते हुए कहते हैं कि मूर्ति के ध्यान को सगुण ध्यान तथा आत्मस्वरूप के दर्शन को निर्गुण ध्यान कहते हैं।

सगुणं मूर्तिध्यानम् निर्गुणमात्मयाधात्म्यम्।। शाण्डिल्योपनिषद् 1/71