VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

ज्ञान योग

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

जैसा कि आप जानते हैं कि अध्यात्म के क्षेत्र में साधना के अनेक मार्ग है। साधक अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किस साधन या मार्ग का प्रयोग करता है, उसी के अनुसार आपकी साधना का नाम होता है जैसे भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग,

हठयोग, राजयोग, लपयोग, मंत्र योग इत्यादि। ज्ञानयोग में साधक ज्ञान के माध्यम से बह्रा का साक्षात्कार करता है, अतः इसे ज्ञानयोग साधना का नाम दिया दिया। यद्यपि गीता में सांख्ययोग को भी ज्ञानयोग की संज्ञा दी गई है, किन्तु मुख्य रूप से ज्ञानयोग का आशय ‘’वेदान्त की साधना’’ से है।

ज्ञानयोग की मूल मान्यता यह है कि जीव तथा ब्रह्रा मूलतः एक ही है। अत ब्रह्रा ही एकमात्र सत्य, नित्य है। इसके अतिरिक्त्त सब कुछ असत्य एवं अनित्य है।

ज्ञानयोग क्या है ?

यदि हम इस तथ्य पर विचार करें कि यह ज्ञानयोग वस्तुतः है क्या? तो हम कह सकते हैं कि यह ध्यानात्मक सफलता की एक ऐसी प्रक्रिया है, जो हमे अपनी आन्तरिक प्रकृति के अत्यधिक पास लाकर हमारी आत्मिक ऊर्जा का हमें भान कराती है अर्थात स्वयं में छिपी हुई अनंत संभावनाओं का साक्षात्कार कर ब्रह्रा में लीन होना ही ज्ञानयोगहै।

इसे परिभाषित करते हुये कहा गया है-

‘’ज्ञानयोग गहन आत्मान्वेेषण के भाव से निर्देशित एक ध्यान योग है।‘’

(परमहंस निरघनानंद, योग दर्शन, 1994, पे0 73)

ज्ञानयोग की साधना

ज्ञानयोग की साधना के किन साधनों एवं गुणों की आवश्यकता होती है, उन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया गया है ।

(क) बहिरंग साधना

(ख) अन्तरंग साधना

अब आइये, यह जाने कि ये बहिरंग और अन्तरंग साधन क्या है ?

(क) बहिरंग साधन- जब साधक ज्ञानयोग के मार्ग अग्रसर होता है तो प्रारंभ में उसे कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक होता है, उन्हीं नियमों की बातों को बहिरंग साधनकहते है। इन बहिरंग साधनों को संख्या में चार होने की वजह से ‘’साधन चतुष्टय ’’ भी कहा जाता है, इन साधनों का विवेचन निम्नानुसार है -

(अ) विवेक

(ब) वैराग्य

(स) षट्सम्पत्ति

(द) मुमुक्षुत्व

(अ) विवेक - विवेक का आशय है अच्छे-बुरे, सही-गलत, नित्य-अनित्य का यथार्थ बोध अर्थात ज्ञानयोग के अनुसार नित्य वस्तु को नित्य ओर अनित्य वस्तु को अनित्य मानना ही ‘’नित्यानित्यवस्तु विवेक’’ है। इसके अनुसार एकमात्र ब्रह्रा ही सत्य एवं नित्य है तथा इसके अलावा अन्यन सभी वस्तुए मिथ्या एवं अनित्य है। जैसा कि कहा गया है-

‘’नित्य्वस्वेंक ब्रह्रा तद्व्यनिरिक्तं सर्वमनित्यत्यम।

अयमेव नित्यानित्य वस्तुविवेक’’ (तथ्य बोध)

रामानुजाचार्य के अनुसार ज्ञानयोग के साधक को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि वह क्या न खायें और क्या न खायें क्यों कि अन्न का प्रभाव हमारे मन पर भी पड़ता है। साधक को राजसिक एवं तामसिक भोजन को त्याग कर सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए।

(ब) वैराग्य- बहिरंग साधनों में दूसरा प्रमुख साधन है वैराग्य। वैराग्यं का आशय है कि इहलौकिक एवं पारलौकिक सभी प्रकार के भाग, ऐश्वर्य एवं स्वर्गीय सुखों की मिथ्या एवं अनित्य मानकर उनके भोगने की इच्छा का पूरी तरह परित्याग कर देना। वैराग्य के बिना साधक अपनी साधना में प्रगति नहीं कर सकता। भगवद्गीता एवं महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में भी वैराग्य की महिमा को स्वीकार किया गया है।

(स) षट्सम्पत्ति - ज्ञानयोग के साधक को छः बातों का पालन करना आवश्यक होता है। ये छः बातें अथवा गुण या नियम एक प्रकार से ज्ञानयोगी की सम्पत्ति होते हैं। अतः इन्हें ‘’षट्सम्पति’’ कहा जाता है। ये निम्न हैं -

1.    शम

2.    दम

3.    उपरति

4.    तितिक्षा

5.    श्रद्धा

6.    समाधान

1. शम-शमशब्दं का अर्थ है शमन अर्थात् शान्त करना। अब प्रश्न यह उठता है कि यहॉं पर किस चीज का शमन करना है तो इसका उत्तर है कि अन्तर इन्द्रिय मनका निग्रह करना मन का संयम करना साधक के लिए एक अत्यधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस मन को कैसे साधा जा सकता है, इस विषय में गीता में कहा गया है -

‘’असंशयं महाबाहो, मनोदुर्निग्रहं चलम।

अभ्यासेन तु कैन्तेयवैराग्येनि च गृहचते।।‘’

अर्थात् ‘’हे महाबाहो अर्जुन, निश्च्य ही मन बड़ा चंचल है। किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।‘’

इस प्रकार स्पष्ट है कि मन के निग्रह का नाम ही शमहै।

2. दम- दमका शाब्दिक अर्थ है दमन करना अर्थात चक्षु इत्यादि इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर चित्त को आत्मा में स्थिर करना ही दम है।

3. उपरति- कर्मफलों का परित्याग करते हुए आसक्ति रहित होकर कर्म करना तथा उन्हें ईश्वर को समर्पित करना ही उपरति है।

4. तितिक्षा - साधना के मार्ग में आने वाले सभी प्रकार के कष्टों को बिना किसी प्रतिक्रिया के प्रसन्ता पूर्वक सहन करते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति होती निरन्तर साधना करने का नाम ही तितिक्षा है।

5. श्रद्धा- गुरू वाक्य एवं शास्त्र वाक्य (वेद-वेदान्त इत्यादि के वाक्य्ा) में अटूट निष्ठा एवं विश्वास का नाम ही क्षद्धा है।

 

6. समाधान- चित्त को सर्वदा ब्रह्रा में स्थिर एवं एकाग्र करने का नाम ही समाधान है न कि चित्तं की इच्छापूर्ति का नाम समाधान है।

(द) मुमुक्षुत्व-

दुख रूपी संसार सागर को पार करके मोक्ष रूप अमृत को प्राप्त करने की साधक की जो तीव्र अभीलाषा (इच्छा ) होती है, उसे ही मुमुक्षुत्वकहा जाता है। प्रिय पाठकों, इस प्रकार आपने जाना कि किस प्रकार साधक में विवेक से वैराग्य और वैराग्य से मोक्ष की इच्छा प्रबल होने लगती है। आपने जाना होगा कि ज्ञानयोग की साधना के बहिरंग साधन कौन-कौन से है। अब हम चर्चा करते हैं, अन्तरंग साधनों के विषय में।

(ख) अन्तरंग साधन- बहिरंग साधनों के समान अन्तरंग साधनों की संख्याय भी चार ही है, जो निम्न है-

1.     श्रवण

2.     मनन

3.     निदिध्यासन

4.     समाधि

 

1. श्रवण- शास्त्रों में आत्मा-ब्रह्रम के बारे में भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन होने के कारण हो सकता है कि साधक को अनेक प्रकार के संशय उत्पन्न हो जाये कि ठीक या यथार्थ क्या है ये मार्ग अथवा कथन सत्य है या दूसरा। अतः इस संशय को दूर करने हेतु एक उपाय बताया गया, जिसका नाम है श्रवण।  श्रवण का अर्थ है संशय को दूर करने के लिए साधक का सर्वप्रथम गुरू के मुख से ब्रह्रा के विषय में सुनना।

2. मनन - श्रवण के बाद दूसरा अन्तरंग साधन है मनन। मनन का अर्थ है ईश्वर के विषय में गुरूमुख से जो कुछ सुना है, उसको अपने अन्तःकरण में स्थापित कर लेना। सम्यक प्रकार से बिठा लेना।

3. निदिध्यासन- निदिध्यासन का आशय है अनुभव करना अथवा बोध होना या आत्म साक्षात्कार करना। देह से लेकर बुद्धि तक जितने भी जड़ पदार्थ है, उनमें पृथकत्व की भावना को हटाकर सभी में एकमात्र ब्रह्रा को ही अनुभव करना निदिध्यासन है।

निदिध्यासन के 15 अंग माने गये है। जो निम्न है-

1. यम 2.नियम 3. त्याग 4.मौन 5.देश 6.काल 7.आसन 8.मूलबन्ध  9. देहस्थिति 10.दृकस्थिति 11. प्राणायाम 12.प्रत्याहार 13.धारणा  14. ध्यान 15. समाधि

4. समाधि- ध्याता, ध्येय एवं ध्यान का भेद मिटकर एकमात्र ध्येय की प्रतीति होना तथा आत्म स्वरूप में प्रतिष्ठित होने का नाम ही समाधि है।

उपर्युक्त विवेचन से आपने जान ही लिया होगा कि ज्ञानयोग की साधना एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उच्चकोटि की साधना है। जिसमें अज्ञान की निवृत्ति तथा ज्ञान के माध्यम से परमात्मा का साक्षात्कार किया जाता है। एकमात्र ब्रह्रा ही सत्य है, शेष अन्य सभी असत्य एवं मिथ्या है यही ज्ञानयोग की आधारभूत अवधारणा है।