मल - संचय के भार से अल्प अवधि में वेगपूर्वक मुक्त होने की शारीरिक प्रक्रिया को उभाड़ कहते हैं । प्राकृतिक चिकित्सा उभाड़ द्वारा शरीर को रोग दूर करने या विकार से लादे हुए बोझ से मुक्त होने का सर्वोत्तम अवसर प्रदान करतो है । प्राप्त जीवनी शक्ति तथा परिस्थिति के अनुसार शरीर अपने मल - संचय के भार को मंद, सौम्य तेज या तीव्रतम वेग से बाहर फेंकने का प्रयत्न करता है । जीवनी शक्ति के विविध प्रकार के प्रयासों को उभाड़ को संज्ञा दी जा सकती है ।
उभाड़ की
विभिन्नता का आधार
उभाड़ सौम्य तेज या तीव्रतम होगा
यह निम्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है ।
1
. आहार - क्रम , 2
. शरीर की जीवनी शक्ति ,
3 . औषधि
- सेवन ।
1
. आहार - क्रम –
अल्पाहार तथा शुद्धि - आहार के समय उभाड़
के प्रसंग प्रायः कम आते हैं ,
क्योंकि उस समय जीवनी - शक्ति का अधिकांश भाग आहार को पचाने में लगा रहता है
और थोड़ी बची हुई शक्ति ही शोधन - कार्य में लग पाती है । इस तरह अल्पाहार या
शुद्धि - आहार के समय शोधन - कार्य सौम्य प्रकार का होगा ।
प्रवाही आहार या रसाहार के समय पाचन -
कार्य में जीवनी शक्ति अल्प मात्रा में खर्च होती है और अवशिष्ट अधिकांश शक्ति
शरीर - शुद्धि की प्रक्रिया में लग जाती है । फलतः शोधन की यह प्रक्रिया तेज हो
जाती है । शरीर – शुद्धि की इस तेज प्रक्रिया को ही उभाड़ कहते हैं । तथापि अगर
प्रवाही आहार या रसाहार की मात्रा अधिक रही और रोगी भी दुर्बल रहा , तो उभाड़
सौम्य स्वरूप में रूपान्तरित हो जाएगा ।
उपवास
अक्सर उपवास या अल्पमात्रा के
रसाहार - काल में तीव्र या तीव्रतम उभाड़ के दर्शन होते हैं । उपवास में सम्पूर्ण
जीवनी - शक्ति को शरीर - शुद्धि कार्य में लगने का मौका मिलता है और तब जीवनी -
शक्ति शरीर को अल्पकाल में विकार - मुक्त करने का प्रयास करती है । जीर्ण रोगों
में मल - संचय की प्रचुरता होती है और इस अधिक मल को अल्प समय में बाहर फेंकने के
लिए अपने शुद्धिकारक अवयवों से शरीर वेग या गतिपूर्वक काम कराता है । इस वेगपूर्वक
शुद्धि की प्रक्रिया को तीव्रतम उभाड़ का स्वरूप प्राप्त होता है । तथापि कभी -
कभी प्रबल जीवनी शक्ति वाले व्यक्ति में अल्पाहार - काल में भी उपवास - काल जेसे तीव्र
या तीव्रतम उभाड़ की संभावना रहती है ।
2
, जीवनी - शक्ति
शरीर की जीवनी शक्ति रोगी की
शारीरिक तथा मानसिक अवस्था पर निर्भर करती है । जितना शरीर शुद्ध स्वस्थ और शक्ति
- सम्पन्न होगा , उतनी
ही जीवनी शक्ति प्रबल होगी । यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि शुद्ध या निरोगी शरीर
में शक्ति होगी ही , ऐसी
बात नहीं है । अतएव केवल शरीर का निरोगी होना पर्याप्त नहीं है । जैसे सम्पूर्ण उपवास
( Complete Fast) के समय तो शरीर अत्यन्त शुद्ध होता है , उस समय शरीर
में स्फूर्ति , चैतन्य
काफी रहता है . लेकिन पोषण के अभाव में ठीक तरह चलने - फिरने या कभी - कभी स्वयं
उठने - बैठने की शक्ति भी नहीं रहती । इससे यह सिद्ध होता है कि शुद्ध , पुष्ट एवं
निरोगी शरीर की जीवनी - शक्ति अत्यन्त प्रबल होगी और वह थोड़ी भी गंदगी को सहन नहीं
करेगा । शरीर में अल्प मल - संचय के प्रति भी वह अत्यन्त जागरूक तथा संवेदनशील
रहेगा । इसलिए प्रबल जीवनी - शक्ति वाले व्यक्ति में अधिक तीव्र उभाड़ आने की
संभावना होती है । लेकिन रोगी की जीवनी शक्ति के साथ - साथ चिकित्सा काल के आहार -
क्रम से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है । सारांश में आहार - विहार , रोग - लक्षण
( मल - संचय की मात्रा ) तथा जीवनी शक्ति इन तीनों के अनुपात के अनुसार शरीर -
शुद्धि की प्रक्रिया या उभाड़ तीव्र या सौम्य रूप धारण करते हैं।
3
. औषधि - सेवन
औषधि – सेवन के फलस्वरूप शरीर के
कोषों में विजातीय द्रव्य संचित होने की प्रवृत्ति बढ़ती है । चिकित्सा काल में
शरीर - शुद्धि के समय औषधियुक्त विषाक्त कोष जब औषधि के प्रभाव से मुक्त होते हैं , तब कोषों में
संचित विजातीय द्रव्य अपनी अधिकता के कारण अल्प समय में ( जीवनी शक्ति कम होने पर
भी ) वेगपूर्वक शरीर से बाहर निकालने की कोशिश करते हैं अधिक विकार के अल्प समय
में वेगपूर्वक निकलने की प्रक्रिया को उभाड़ कहा जाता है । उस समय रोगी को अत्यन्त
कष्टमय स्थिति से गुजरना पड़ता है । इस मौके पर अगर समुचित मार्गदर्शन नहीं मिला
तो रोगी रोग - मुक्त होने का सर्वोत्तम अवसर हमेशा के लिए खो देगा । इतना ही नहीं , अपितु ( गलत
) अपरिपक्व मार्गदर्शन रोगी के लिए हानिकारक तथा कभी - कभी प्राणघातक भी सिद्ध
होता है । यदि घर में हिंसा शुरू हो जाए तो वह समाज में खून - खराबे जैसा उग्र रूप
धारण कर सकती है
औषधि - सेवन की वजह से शरीर में
अधिक विकार संचित होने के कारण तीव्र तथा तीव्रतम उभाड़ आने की संभावना रहती है ।
उपवास या रसाहार में तीव्र उभाड़ की संभावना अधिक दृढ़ होती है , लेकिन शुद्धि
- आहार काल में भी अधिक औषधियुक्त शरीर में तीव्र उभाड़ आते हैं । उभाड़ के विषय
में जहाँ तक मेरा अपना अनुभव है ,
तीव्रतम उभाड़ का औषधि - सेवन से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है । किसी प्रकार के आहार
- परिवर्तन के बिना एक दमा के रोगी को केवल औषधि बंद करने पर दमा का दौरा अधिक जोर
से आता है और उस समय दौरे को काबू में लाना आसान बात नहीं होती । अत्यन्त कुशल
चिकित्सक को ही उसमें सफलता मिलती है । रक्तचाप ,
मधुमेह , हृदयरोग
, संधिवात
आदि रोगों में जिन पर औषधि प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है . उनकी औषधि बंद करने पर
रोग - लक्षण वेग से उभरने लगते हैं ।
शुद्धि - आहार तथा रसाहार के
मौके पर बाँध फूटने पर जैसे पानी अत्यन्त वेग से बहने लगता है , ठीक उसी
प्रकार औषधि द्वारा संचित विजातीय पदार्थ भी वेगपूर्वक बाहर निकलने की कोशिश करता
है । दूसरे शब्दों में इसी को '
उभाड़ ' कहते
हैं ।
सफल उभाड़ के
बाधक तत्त्व
रोगी के सम्बन्धी तथा माता -
पिता या हितचिंतक उपवास की अपेक्षा उभाड़ के समय अत्यन्त बाधक साबित होते हैं ।
उभाड़ अत्यन्त कष्टप्रद ,
किन्तु वेगवान् शुद्धिकारक उपाय है . इसे वे बिलकुल भूल जाते हैं । रोगों के
शारीरिक कष्ट के सामने उभाड़ को शरीर - शुद्धि या रोग - मुक्ति का पहलू उनके लिए
बिलकुल गौण हो जाता है ।
उभाड़ के मौके पर अज्ञानजनित सहानुभूतिपूर्वक उपाय
करने से रोगी को लाभ के बदले अधिक हानि पहुँचने की कुछ जल्द संभावना रहती है और
रोगी . रोग - मुक्त होने का सुनहरा अवसर ,
जो काफी तपस्यायुक्त चिकित्सा - क्रम से लम्बे समय के बाद के लिए उपस्थित हुआ
था , उसको
हमेशा के लिए खो देता है और अन्त में वह प्राकृतिक चिकित्सा - विरोधी भी बन जाता
है । एक उदाहरण में ठीक तीव्रतम उभाड़ की असह्य वेदना के समय शमनात्मक औषधि का
प्रयोग हमारे चिकित्सालय में रोगी ने गुप्त रूप से किया , उससे दर्द तुरन्त
कम हुआ , कुछ
नींद भी आई , लेकिन
उसको स्नायु - शूल की वेदना से पूर्णत : मुक्ति पाने के लिए पहले से अधिक कष्टमय
उभाड़ का सामना करना पड़ा ।
उभाड़ के लिए
शरीर तथा मन की तैयारी एवं सावधानी
प्रत्येक रोगी के चिकित्सा - काल में उभाड़ आएगा
ही , यह
निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । लेकिन औषधि सेवन करने वाले रोगी को उभाड़ की
सम्भावना अधिक होगी ,
ऐसा सामान्य नियम मानकर चलना चाहिए । तथापि उभाड़ की उग्रता को कम करके सौम्य
बनाने के लिए निम्न सावधानी रखी जा सकती है ।
1 . आहार -
परिवर्तन की प्रक्रिया धीमी गति या क्रम से होनी चाहिए । औषधियुक्त रोगी को एकाएक
उपवास या रसाहार पर नहीं लाना चाहिए । क्रमशः अल्पाहार , फलाहार , शुद्धिआहार
से प्रवाही या रसाहार पर लाना उचित है ।
2 . अति औषधि -
ग्रस्त रोगी को कभी भी अचानक एकाएक औषधि बंद नहीं करनी चाहिए , बल्कि उनकी
दवा की खुराक जो चालू है ,
उसको क्रमशः कम करते हुए बंद करना चाहिए । दमा , हृदयरोग ,
रक्तचाप , मधुमेह
आदि रोगों में ऐसा करना नितान्त आवश्यक है । मधुमेह रोग में अधिक इंसुलिन लेने
वाले रोगी की औषधि बंद करने से निश्चेतनता ( Coma ) आने की पूरी संभावना रहती है ।
जब हमारे पास चिकित्सा करने
उपर्युक्त प्रकार के रोगी आते हैं तब हम लोग घर में ही क्रमशः औषधि कम करते हुए
बंद करके उनको चिकित्सालय में आने की सलाह देते हैं ।
3 . रोगी को
अचानक रसाहार या उपवास पर रखने से तीव्र उभाड़ की संभावना अधिक बढ़ जाती है । इस
तरह मानो हम उभाड़ को आमंत्रित करते हैं । अक्सर व्यापारी या नौकरी पेशे वाले
रोगियों को हमेशा समय का अभाव रहता है । वे अल्प अवधि में स्वास्थ्य लाभ करना
चाहते हैं । इसलिए उनको सामान्य रोगियों की अपेक्षा कुछ जल्दी रसाहार या उपवास पर
लाया जाता है । इस मौके पर रोगी उभाड़ को अगर समझ - बूझ कर स्वीकार करता है , तो शरीर और
मन दोनों उस कष्टप्रद अवसर को सहन करने के लिए तैयार हो जाते हैं ।
4
. मानसिक भूमिका
उभाड़ को पूर्णत : टालने या
सौम्य बनाने की कोशिश चिकित्सक केवल अनुमान के आधार पर करता है । लेकिन वास्तव में
यह सब शरीर की आंतरिक स्थिति तथा आयोजन पर निर्भर करता है । जैसे कोई रोगी
चिकित्सक से पूछता है कि रोग - मुक्त होने के लिए कितना समय लगेगा ? लेकिन यह बात
चिकित्सक केवल अनुमान से ही बता सकता है । सच बात यह है कि मल - संचय की समाप्ति
में निश्चित रूप से कितना समय लगेगा यह बताना जिस प्रकार असम्भव है . ठीक उसी
प्रकार उभाड़ को टालना या सौम्य बनाना सर्वथा सम्भव है . यह कहना गलत होगा । हाँ .
कभी - कभी ऐसा हो सकता है ,
अक्सर नहीं , क्योंकि
शरीर के आतरिक नियमों को पूर्णतः समझना चिकित्सक की शक्ति के बाहर है । हाँ , वह केवल अनुमान
लगा सकता है ।
( क ) दृढ़
मनोबल - अतएव रोगी की मानसिक भूमिका उभाड़ - काल में शांत रहे , इसकी
व्यवस्था सर्वप्रथम करनी चाहिए । उभाड़ के समय रोगी का दृढ़ मनोबल अत्यन्त उपयोगी
सिद्ध होता है ।
( ख ) उभाड़
का कार्य - कारण सम्बन्ध – उभाड़ आने से पूर्व रोगी को उभाड़ क्यों और कैसे आता है , उसका मुकाबला
किस प्रकार किया जाता है ?
उसमें चिकित्सक की गौण लेकिन रोगी की मुख्य भूमिका निभानी होती है । सुन्दर
उदाहरण बताकर तत्सम्बन्धी साहित्य पढ़ने के लिए देने से समझदार रोगी को मानसिक
तैयारी हो जाती है । जैसे उपवास के लिए रोगी को उसके लाभ आदि की बात समझायी जाती
है , वैसे
ही उभाड़ के कारण रोग - मुक्ति अल्प समय में होती है आदि बातें भी बतानी चाहिए ।
( ग ) रोग -
मुक्ति की प्रबल इच्छा – जब रोगी बहुत पुराने जीर्ण रोग से पीड़ित रहने के कारण
त्रस्त हो जाता है , उस
समय वह सोचता है कि वैसे भी लम्बे समय से तकलीफ हो रही है , एक बार और
थोड़ा अधिक कष्ट उठाकर रोग - मुक्त हो जाएँ तो क्या हर्ज है ? ऐसी
मनोभूमिका वाले रोगी उभाड़ को आसानी से पार कर लेते हैं ।
( घ ) मानसिक
द्वन्द्व से मुक्ति – अनुभवी चिकित्सक रोगी की मानसिक उलझनों को आत्मीयतापूर्वक
समझकर उनको सुलझाने का उपाय बता सकता है । उसको मानसोपचार भी कहते हैं ।
उभाड़ के
आगमन की तुलना
उभाड़ के आगमन की पूर्व सूचना ( Warning ) जैसे कोई
निश्चित लक्षण नहीं हैं ,
तथापि कुछ लक्षण बताए जा रहे हैं -
1
. जिन अंगों या अवयवों के सम्बन्ध में सुधरने की बिलकुल आशा नहीं होती , उन अवयवों
में बेचैनी या तीव्र वेदना की अनुभूति होना । उदाहरणार्थ - जब पैर पर लकवा दुरुस्त
होने का समय आता है ,
ठीक उसके पहले रुग्ण पैर में बिजली के शॉक जैसे झटके की अनुभूति बीच - बीच में
होती रहती है । ये झटके कभी - कभी इतने जोर से लगते हैं कि वह ज्ञानतन्तु के दर्द
के मारे बेचैन हो जाता है और झटके के समय दोनों हाथ से पैर को जोर से पकड़ लेता है
।आँखों में आँसू भी आ जाते हैं ।
2
.कभी - कभी प्रारम्भ में वेदना या कष्ट अल्प मात्रा में होता है और क्रमशः
बढ़कर तीव्र हो जाता है ।इस प्रकार के उदाहरण मिलेंगे ।
उभाड़ के समय
शुद्धिकारक मार्ग की भूमिका
शरीर - शुद्धि के चार मार्ग हैं
- मल - द्वार , मूत्र
- मार्ग , त्वचा
तथा श्वसन - मार्ग । शरीर अपनी सुविधा तथा अनुकूलता के अनुसार शुद्धि - मार्ग का
चुनाव करता है , जिससे
शुद्धि - कार्य सुगमतापूर्वक अल्प समय में सम्पन्न हो सके ।
अक्सर देखने में आता है कि शरीर
के रुग्ण अवयव या संस्थान को ही उभाड़ के समय अधिक कष्ट होता है उदाहरणार्थ - दमा
के रोग में फेफड़ों को ; मासिक
स्राव के अवरोध होने पर उभाड़ के समय अधिक स्राव होने के कारण रोगी को गर्भाशय में
अधिक वेदना होती है । इसी प्रकार आँत रुग्ण होने पर उभाड़ के समय आँत सम्बन्धी
कष्ट होने की संभावना अधिक होती है । इसका यह अर्थ है कि विजातीय द्रव्य रुग्ण
अवयव से ही सुगमतापूर्वक बाहर निकलता है ,
क्योंकि रुग्ण अवयव में ही शरीर का अधिकांश विजातीय द्रव्य संचित रहता है , इसलिए वह निकटतम
तथा पूर्वनिर्धारित मार्ग भी है |
तथापि इस विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है , क्योंकि
आँतों के रोगियों की त्वचा पर फुन्सी या पित्ती निकलने के उदाहरण भी पाए जाते हैं
।
उभाड़ की
सफलता की शक्ति
यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है
कि अगर रोगी को अनुभवी चिकित्सक का मार्गदर्शन एवं संरक्षण प्राप्त हो , तो वह उभाड
के संकट को अवश्य पार कर लेगा ,
इसमें शंका का कोई कारण नहीं है।शरीर जिस कार्य को उठाता है वह एक विवेकी
व्यक्ति की भाँति उसकी पूरी जिम्मेदारी को भलीभाँति समझ लेता है , अर्थात्
कार्य का पूरा आयोजन करके उसका प्रारम्भ करता है । उसके इस वेगयुक्त शद्धि - कार्य
में अगर बाधा न डाली जाए तो सफलता निश्चित
है । क्योंकि उभाड़ कष्टदायक ,
किन्तु रोग - मुक्त होने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ।
इस मौके पर रोगी को बाह्य उपचार
से आराम पहुँचाना ,
आवश्यकतानुसार उसके उठने - बैठने या लेटने आदि की समुचित व्यवस्था कर देना , केवल इतनी
चिकित्सा उभाड़ के संकट से रोगी को पार लेजाती है ।अत्यन्त कठिन प्रसंगों में कुशल
तथा हृदयवान् चिकित्सक की आतरिक प्रेरणा ,
सूझ - बूझ आदि का विशेष महत्व है ।
यह कभी न भूलें कि निरोगी या
स्वस्थ होने की शक्ति शरीर में विद्यमान है । हमें केवल तत्सम्बन्धी बाधाओं को
ज्ञानपूर्वक दूर करना है और विश्वास रखना है कि उभाड़ रोगी को करीब - करीब रोग -
मुक्ति के द्वार पर लाकर खड़ा कर देता है ।
उभाड़ की
अवधि तथा तीव्रता
उभाड़ तीव्र होगा या सौम्य अथवा
उभाड़ की अवधि कितने घंटे या दिन तक रहेगी यह सब निश्चित रूप से कहना कठिन है
तथापि सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि अल्प जीवनी - शक्ति वाले व्यक्ति के उभाड़
की अवधि कुछ लम्बी हो सकती है . दीर्घकालीन उभाड़ अक्सर सौम्य प्रकार के होंगे , क्योंकि इससे
संचित मल को बाहर निकलने के लिए पर्याप्त अवकाश मिल जाता है । इसके विपरीत प्रबल
जीवनी - शक्ति वाले रोगी के उभाड़ की अवधि अल्प तथा प्रकार तीव्र होने की अधिक
संभावना रहती है । क्योंकि इस अवस्था में अधिक मल - संचय को भी शरीर तेजी से बाहर
निकाल फेंकने की पूरी कोशिश करता है । इस प्रकार उभाड़ की अभिव्यक्ति ( सौम्य या
तीव्र ) एवं अवधि रोगी की शारीरिक तथा मानसिक अवस्थाओं पर निर्भर करती है ।
कभी - कभी उभाड़ पूर्वकालीन
तीव्र या जीर्ण रोगों को विपरीत या ठीक उल्टे क्रम से पुनः तीव्र रोग - लक्षण के
रूप में भी प्रस्तुत करता है ।
दूसरे अवसरों पर , नई
परिस्थितियों में कभी - कभी कोई नया अवयव ,
जिसकी कल्पना रोगी या चिकित्सक को नहीं होती , उभाड़ के समय प्रमुख रूप से भाग लेता है और रुग्ण अवयव
मुख्य कष्टप्रद लक्षण से बच जाता है या उसमें क्लेश अल्पमात्रा में होता है ।
सबसे बड़ी
भूल
उभाड़ के समय सबसे बड़ी भूल है
चिकित्सक का घबराना । रोगी शारीरिक कष्ट में रहता है , वह प्राकृतिक
चिकित्सा तथा उभाड़ आदि के नियम के सम्बन्ध में अनजान रहता है । इसलिए रोगी की
घबराहट स्वाभाविक तथा उचित है । लेकिन एक चिकित्सक का घबराना अक्षम्य है ।
घबराहट का अर्थ है स्वयं तथा
ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव । कठिन ,
दु : खद तथा विकट परिस्थिति में चिकित्सक को शांतचित्त होकर विचार करने की कला
सीखनी चाहिए । शांत ,
निर्मल तथा प्रसन्नचित्त रहना चिकित्सक या साधक की सबसे मूल्यवान निधि है , जिसके आधार
पर उसका आंतरिक जीवन अवस्थित रहता है और उसी के माध्यम से जीवन की समस्त
प्रवृत्तियाँ संचालित होती हैं ।