पूर्णोपवास के दिनों का निर्धारण
उपवास को कितने दिनों का होना
चाहिये इसके लिये कोई निश्चित नियम नहीं है। यह पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता
है कि जो व्यक्ति उपवास कर रहा है उसकी प्रकृति कैसी है। उपवास की क्या और कितनी
आवश्यकता है तथा जो उपवास करना है उसका प्रकार क्या है अर्थात वह फलोपवास है या
दुग्धोपवास या कोई अन्य यही देखा जाये तो कोई व्यक्ति साधारणतः पांच से सात दिनों
का पूर्णापवास आसानी से कर सकता है। परन्तु कुछ लोगों की प्रवृत्ति ऐसी होती है कि
वह लम्बे उपवास को करने में समर्थ नहीं होते क्योंकि वे लोलुप, दुराचारी एवं
अधीर आदि प्रवृत्ति के होते हैं,
परन्तु इनके विपरीत जो व्यक्ति शुद्ध विचार वाले, सदाचारी व
धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं। उनके लिये इस प्रकार के लम्बे उपवास अधिक अनुकूल
होते है। जो व्यक्ति अच्छे स्वास्थ्य की इच्छा रखते हैं। उन्हें सप्ताह में कम से
कम एक दिन उपवास अवश्य रखना चाहिये,
सप्ताह का वह दिन रविवार हो तो अधिक उपयुक्त है क्योंकि उस दिन अवकाश होने के
कारण काम नहीं होता, व्यक्ति
घर पर रहकर उपवास के नियमों का पालन आसानी से कर सकता है। जब कार्य स्थल पर ये सब
सम्भव नहीं होता वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति को लगातार प्रतिामाह की दो एकादशियों को
व साल मे आठ से दश दिन का पूर्णोपवास अवश्यक करना चाहिये, यह स्वास्थ्य
की दृष्टि से अति उत्तम है।
पूर्णोपवास
के लिये तैयारी कैसी हो:-
यदि देखा जाये तो उपवास के लिये
किसी प्रकार की तैयारी की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि जब हम भूखे होते हैं तो भोजन करने से पहले कोई
तैयारी तो नहीं करते,
या कोई विपत्ति अचानक आ जाये तो उसके निवारण के लिये तैयारी करने में समय नष्ट
करके सीधे उसके निवारण में रत हो जाते है। तो फिर उपवास के लिये कोई विशेष क्यों करें
इसकी क्या आवश्यकता है? हां जब हम उपवास शुरू करते हैं तब अपने मन
को उपवास के लिये दृढ़ बनाने की आवश्यकता अवश्य महसूस की जाती है। क्योंकि यदि मन
में दृढ़ता का अभाव रह जायेगा तो उपवास काल के संकट से मन विचलित हो सकता है और
व्यक्ति उपवास को बीच में छोड़ भी सकता है। जबकि मन के दृढ़ होने पर वह हर स्थिति
में शांत बना रहता है और लम्बे से लम्बा उपवास भी आसानी से किया जा सकता है। इसके
अलावा यह लम्बा उपवास शुरू करने से पहले कुछ दिनों तक सादे आहार का सेवन किया जाये, सूर्य स्नान, कटिस्नान व
थोड़ा व्यायाम भी कर लिया जाये तो इस उपवास से लाभ की संभावना अधिक बढ़ जाती है। इन
सभी चीजों के साथ यह भी आवश्यक है कि उपवास करने वाला व्यक्ति उपवास के सम्बन्ध
में थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त कर लें ऐसा करने पर उपवास काल में उसके आत्म बल मे वृद्धि
होगी तथा उपवास पर उसका विश्वास भी बढ़ेगा,
जिससे उपवास काल में आने वाली परेशानियों से वह घबरायेगा नहीं। इसमें एक और बात
जिसका ध्यान रखा जाना आवश्यक है उपवास करने से पूर्व उपवास करने वाले व्यक्ति को
नाड़ी तथा अपने हृदय की जांच अवश्य करा लेनी चाहिये क्योंकि नाड़ी की गति असामान्य व
हृदय के कमजोर होने की दषा में उपवास करने वाले व्यक्ति को परेशानी उठानी पड़ सकती
है और उपवास बीच मे ही छोड़ना पड़ सकता है। यह उपवास जीर्ण रोगों के उपचारार्थ किया
जाता है। इस लम्बे उपवास को शुरू करने से पहले रोगी को अपने भोजन में धीरे-धीरे
परिवर्तन लाना चाहिये जैसे उपवास से कुछ दिन पहले एक समय का भोजन त्याग देना
चाहिये उसे कुछ दिन बाद अन्न को पूर्ण रूप से त्यागते हुए केवल फल आदि पर ही रहना
चाहिये तथा इसके दो-तीन दिन बाद लम्बा पूर्ण उपवास करना चाहिये।
इसके अलावा यह भी प्रश्न उठ सकता
है कि उपवास कब अर्थात किसी ऋतु में करे ?
क्या ग्रीष्म ऋतु उपयुक्त या फिर शीत ऋतु इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता
हैं कि इसके लिये समय का निर्धारण उपवास को देखकर नहीं अपितु जिस कारण उपवास किया
जा रहा है, उसे
देखकर करना चाहिये, इसके
लिये कोई ऋतु नहीं हैं। जब उपवास की आवष्यकता लगे तब उपवास कर लेना चाहिये, परन्तु
कभी-कभी कुछ लोगों को गर्मी का समय उपवास के अनुकूल नहीं लगता, वे लोग सर्दी
में उपवास करना पसन्द करते हैं |
वैसे यदि लाभ की दृष्टि से देखा
जाये तो ग्रीष्म व बसन्त ऋतु में उपवास करना चाहिये क्योंकि इस समय पर्याप्त गर्मी
व धूप प्राप्त होती हे जो विजातीय द्रव्यों को शरीर से निकालने में सहायक सिद्ध
होती है।
पूर्णोपवास
के समय में उचित लाभ हेतु किये जाने वाले कर्म:-
जब पूर्णोपवास चल रहा होता है, तब कुछ कर्म
ऐसे होते है जिसका ध्यान रखा जाना अनिवार्य है। इनका वर्णन आगे किया जा रहा है।
उपवास काल
में आवश्यक रूप से जल पीना:-
उपवास के समय किसी भी प्रकार की
बाध्य सामग्री ग्रहण नहीं चाहिये,
परन्तु इस बात का ध्यान रहे कि निश्चित अन्तराल पर शुद्ध स्वच्द जल का सेवन
आवश्यक है। यदि सारे दिन की बात करे तो एक दिन में लगभग आठ लीटर जल पीया जा सकता
है। परन्तु यदि इतना न भी पीया जाये तो भी लगातार जल पीना आवश्यक है मात्रा चाहे
कुछ कम भी हो यदि इच्छा हो तो जल के साथ नींबू का रस भी लिया जा सकता है। यह
शारीरिक सफाई की दृष्टि से काफी अच्छा रहता है। यदि उपवास काल में प्रर्याप्त जल न
पिया जाये तो हानि की अत्यधिक संभावना रहती है। शरीर में जल की कमी के कारण आंते
सूख सकती है। रक्त गाढ़ा हो सकता है रक्त की स्वाभाविक गति में बाधा उत्पन्न हो
सकती है। इस समय में जल न पीने से शरीर में उष्णता बढ़ती है जो उपवासी के लिये
परेशानी का कारण बन सकती है।
इन सभी बातों से यह स्पष्ट हो
जाता है कि उपवास में जल पीने का क्या महत्व है। अतः इस ओर विशेष ध्यान देने की
आवश्यकता होती है। क्योंकि उपवास में प्यास अधिक नहीं लगती लेकिन फिर भी जल पीना
अनिवार्य है।
उपवास काल में एनिमा का प्रयोग:-
उपवास काल में एनिमा लेना भी
अत्यधिक आवश्यक माना जाता है। यह जल पीने से कम महत्वपूर्ण नहीं है। उपवास काल में
हमारी आंते अपना कार्य लगभग बन्द कर देती है इसलिये दूसरे माध्यम से रोग साफ करना
नितान्त अनिवार्य है। हम सोेचते हैं कि जब कुद भोजन किया ही नहीं तो पखाना कैसे
होगा। परन्तु सत्य यह है कि आंत कभी भी मल से पूरी तरह खाली नहीं होती। कुछ न कुछ
मात्रा में आंतों में मल रहता ही है। भोजन न करने की अवस्था में भी आंतों की
स्वाभाविक क्रिया के फल स्वरूप मल उत्पन्न होता रहता है। जिसे साफ करने की
आवश्यकता पड़ती ही है। इसलिये उपवास काल में प्रतिदिन कम से कम एक बार एनिमा ले
लेना चाहिये, एनिमा
के गुनगुने या ठण्डे पानी का प्रयोग किया जा सकता है यदि पानी थोड़ा नींबू का रस
मिला दें तो सफाई और अच्छी तरह से होती है।
उपवास काल में स्नान की
आवश्यकता:-वैसे तो साधारण अवस्था में भी हम स्नान करते ही हैं। उपवास काल में भी
शीतल जल से साधारण स्नान को जारी रखना चाहिये। इसके साथ हर दूसरे दिन कटि स्नान या
मेहन स्नान (लिंग स्नान) भी किया जाये तो उत्तम रहता है। कभी-कभी दीर्घ उपवास में
रोगी पूर्ण स्नान करने में असमर्थ रहता है। उस दशा में उसे रोग गर्म पानी मे भीगे
तथा निचोड़े हुए वस्त्र से शरीर को रगड़-रगड़ कर अवश्य ही पौंछ लेना चाहिये।
उपवास काल में व्यायाम:-
कभी-कभी लोग सोचते हैं कि उपवास
में पूरी तरह से विश्राम करना चाहिये,
सभी काम छोड़कर पंलग पर लेटे रहना चाहिये जो उचित नहीं है, उपवासकाल में
भी अपनी क्षमता के अनुरूप थोड़ा परिश्रम का कार्य अवश्य करते रहना चाहिये। उत्तम
स्वास्थ्य को देखते हुए जीर्ण रोगों के उपचारार्थ किये गये उपवास में अपने साधारण
दैनिक कार्यों के साथ अपनी शक्ति के अनुसार व्यायाम भी आवश्यक है। परन्तु इस बात
का विशेष ध्यान रखा जाये की व्यायाम से थकान न होने पाये, क्योंकि
शारीरिक शक्ति घट जाने पर किया हुआ परिश्रम हानि पहुंचा सकता है। ऐसे व्यक्तियों
को अधिक व्यायाम न करते हुए केवल चलना फिरना तथा बहुत हल्के व्यायाम करते रहना
चाहिये।
कभी-कभी रोगी की अवस्था ऐसी हो
जाती है कि वह उपवास काल में पलंग पर ही पड़ा रहता है। उसमें उठकर व्यायाम करने की
शक्ति नहीं रहती, उस
दशा में उसे पंलग पर पड़े-पड़े ही अपने हाथ,
पैरों को चलाते रहना चाहिये। जो लोग पतले होते हैं अर्थात जिनके शरीर वसा की
मात्रा कम होती है वे लोग ही पंलग पकड़ते हैं क्योंकि उनके शरीर की वसा का भण्डार
जल्दी समाप्त हो जाता है। जिस कारण उनको अपने कार्यो हेतु उचित शक्ति नहीं मिल
पाती और वे कमजोरी महसूस करने लगते हैं।
उपवास काल में विश्राम करना:-
उपवास के समय जितना आवश्यक
नियमित स्नान व व्यायाम है उतना ही अनिवार्य विश्राम करना भी। जो रोगी उपवास काल
में अधिक कमजोर हो जाते हैं। उन्हें तो पूर्ण विश्राम करना अनिवार्य हो जाता है।
इसके लिये एक बात और है कि यदि जितना विश्राम हम उपवास के समय शरीर को देते हैं
यदि उतना ही विश्राम उपवास की समाप्ति के बाद भी दें तो किसी भी प्रकार नुकसान की
संभावना स्वतः समाप्त हो जाती है। विश्राम हेतु यदि रोगी को गाढ़ी निद्रा आये तो वह
उसके लिये उत्तम स्थिति है।
उपवासकाल में मानसिक दशा:-
उपवास काल में मन की शान्ति अति अनिवार्य है यदि मन शान्त नहीं रहता तो न तो
उपवास में मन लगता है और न उपवास के लिये आवश्यक धैर्य ही रह पाता है। मन को उपवास
काल या फिर किसी भी समय शान्त व स्थिर रखने का सबसे उत्तम व आसान तरीका है। ईश्वर
की उपासना करना, इसलिये
रोगी को चाहिये कि वह अपने मन को ईश्वर पर लगाये। महात्मा गांधी का मत था कि यदि
हम केवल शारीरिक उपवास ही करते हैं तथा मानसिक उपवास नहीं करते तो हम अपने शरीर के
दम्भाचरण करते हैं। जो ठीक नहीं है। शरीर के साथ मन के उपवास का तात्पर्य हैं कि
रोगी केवल बाहरी रूप से भोजन का ही त्याग न करें बल्कि आन्तरिक रूप से अपनी
इन्द्रियों के भोगों का भी त्याग करें,
क्योंकि यदि हम भोजन त्यागते हैं और हमारे मन में भोजन करने की इच्छा लगातार
बनी रहे तो इस वजह से भोजन करने की इच्छा लगातार बनी रहे तो इस वजह से हमारा कष्ट
और अधिक बढ़ जाता है। हमें बार-बार भूख लगती है अपने द्वारा ग्रहण किये हुए तमाम
भोज्य तमाम स्वाद याद आते हैं जो उपवास में विघ्न उत्पन्न करते हैं इसके विपरीत
यदि मानसिक रूप से भी उपवास किया जाये तो वह रोगी को प्रसन्नता एवं आशावान बनाये
रखता है। जिससे उसमें उपवास काल के कष्टों को सहने की दृढ़ता आती है।
उपवास काल में उपचार कैसा हो-उपवास काल में किसी भी औषधि का सेवन करना अत्यन्त
घातक सिद्ध होता है यदि उपवास काल में कुछ उपद्रव उत्पन्न हो या तबियत बिगड़ने या
जी घबराने की दशा में सीधे सादे प्राकृतिक उपचारों का ही सहारा लेना ही उचित है।
पूर्णोपवास कब और किस प्रकार तोड़ना चाहिये
उपवास तोड़ना उपवास करने से कठिन
कार्य है इसके लिये अत्यधिक सावधानी और सतर्कता की आवश्यकता पड़ती है। तथा कठोर
आत्म संयम का होना अनिवार्य है उपवास के समय पाचन शक्ति बहुत अधिक दुर्बल हो जाती
है। इसलिये उपवास तोड़ने पर बहुत सावधानी के साथ अत्यधिक हल्का व सुपाच्य भोजन बहुत
कम मात्रा में लिया जाना चाहिये। उपवास तोड़ने के अधिक उपयुक्त तो यह है कि सबसे
पहले जल के समान तरल पदार्थ लेने चाहिये,
इनमें फलों का रस,
सब्जियों का रस आदि लिया जा सकता हैं कुछ दिन तक यह क्रम अपनाने के बाद
धीरे-धीरे हल्के तरल भोज्य जैसे पतली व सादी खिचड़ी अल्प मात्रा में लेनी चाहिये
फिर धीरे-धीरे उसकी मात्रा व ठोसपन को बढ़ाना चाहिये इस क्रम को अपनाते हुए
धीरे-धीरे साधारण भोजन पर आना चाहिये। इसके अलावा यह भी एक मुख्य प्रश्न है कि
उपवास कब तोड़ा जाये ?
इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर उपवास करने से पूर्व दे पाना मुश्किल है इसका
पता निम्नलिखित बातों पर ध्यान देकर लगाना चाहिये।
·
जब रोगी को वास्तविक भूख लगे तथा गले और मुंह में उस भूख की
संवेदना हो।
·
जब उपवास काल में जीभ पर जमी मैल साफ हो जाये।
·
नाड़ी सही गति से चलने लगे।
·
जब शरीर का तापमान सामान्य हो जाये।
·
त्वचा में शुद्ध के प्रवाह के कारण व मुलायम व लचीली हो
जाये।
·
शरीर हल्का महसूस हो,
शरीर में एक अलग सी स्फूर्ति हो तो यह समझ लेना चाहिये कि अब आगे उपवास की
आवश्यकता नहीं है अतः इस समय उपवास तोड़ देना चाहिये।