VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

योग विज्ञान की अवधारणा, इतिहास एवं सिद्धान्त

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

मानव शरीर जीवन के सभी चारों पुरूषार्थों रूपी साध्य की प्राप्ति में आरोग्य मय शरीर इसका एक मात्र साधन है। प्राचीन समय से आज तक विकास के विभिन्न स्तरों पर  मानवीय सुखों का विशेष घ्यान रखा गया है। भारतीय स्वास्थ्य चिन्तकों, मनीषियों ने चारों वेद, संहितायें, पुराण उपनिषद, शड्दर्शन, सांख्य दर्शन आदि में सतत स्वास्थ्यानुसंधान करते हुये शरीर, के परस्पर सम्बन्धों के सिद्वान्त प्रतिपादित किये है। आज के वातावरण में स्वास्थ्य भौतिक मानसिक एवं सामाजिक सम्पन्नता का विषय है। शरीर मन एवं आत्मा तीनों पूर्ण रूप से सम्पन्नता का विषय है। शरीर मन एवं आत्मा तीनों पूर्ण रूप से विकार रहित हो तो उसे सम्यक् स्वस्थ कहा जाता है।

मानव जन्म से पूर्व, जन्म की सूक्ष्मता तथा जन्म के बाद वृद्वि एवं विकास के जो भी कर्म करता है वह सब योग ही है। योग का उद्देश्य क्रिया योग है। अर्थात स्वः में स्थित रहने का पूर्ण विज्ञान स्वा अर्थात समाधि में स्थित होना। इस हेतु तीन बिन्दुओं की आवश्यकता है, वह है तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।

शरीर को सम्यक स्वास्थय की प्राप्ति एक प्रकार का तप है जो कि तन एवं मन से की जाने वाली साधना है। मन का निग्रह करना, मन को नियंत्रण में रखना ‘‘स्वाध्याय (आत्मज्ञान)’’ तथा आत्मा को तम के आवरण से रहित करना ‘‘ईश्वर प्रणिधान’’ है।

क्रिया योगों से सतत् अभ्यास से शरीर एवं वैराग्य दोनों की प्रवृति होती है, तत्पश्चात् मन की शुद्वि पवित्रता प्राप्त होती है एवं धीरे-धीरे मन निर्विकार होकर समाधि की ओर बढता है।

अष्टांग योग के अनुसार अन्तिम स्थिति समाधि की प्राप्ति है यम एवं नियमों का ‘‘महाव्रत’’ किया जाता है। जो जाति देश, काल एवं समय की सीमा से परे है। पांच महाव्रतों अहिंसा आदि की, पाँच नियमों शौच संतोषादि द्वारा पालन करने से मन शुद्व एवं पवित्र होता हैं। साथ ही मन नियंत्रण में आने से चित्त शांत होता है। चित्त के शांत होने से सांसारिक वृत्तियाँ उठना, इच्छायें जागना, मायाजाल के भंवर में फंसना आदि बंद हो जाता है। यहि योग है योगस्य चित्त वृत्ति निरोधः

योग का इतिहास

मानव के अस्तित्त्व के साथ ही योग विज्ञान का अस्तित्त्व प्रारम्भा हो जाता है। हमारी मान्यताओं से अनुसार ज्ञान का प्रारम्भिक स्त्रोत ईश्वर एवं गुरू से उद्गम होता है। ईश्वर अनादि एवं अजन्मा है उसी रूप में योग का प्रवाह भी सृष्टि के आरम्भ काल से प्रवाह मान है।

हठयोग की ज्योत्सना टीका के अनुसार- योगीश्वर भगवान शिवः-

भगवान शिव सृष्टि में योग के उत्पतिकत्र्ता हैं उन्होंने योग का ज्ञान सर्वप्रथम पार्वती जी को प्रथम शिष्यों के रूप में दिया । वही ज्ञान मत्स्येन्द्रनाथ ने सुना तत्पश्चात् उनके शिष्यों ने सिद्वों एवं नाथों की परम्परानुसार संसार में फैलाया।

भगवद्गीता के अनुसार- योगेश्वर भगवान कृष्ण के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में मैने सर्वप्रथम योग का उपदेश विवस्वान् अर्थात् सूर्य को दिया। उन्होंने अपने योग का उपदेश विव्स्वान अर्थात् सूर्य को दिया। उन्होंने अपने पुत्र मनु को दिया। मनु ने उनके पुत्र इक्ष्वाकु को इस प्रकार योग राजाओं में प्रसारित हुआ सभी जगह फैल गया।

याज्ञवल्कय स्मृति के अनुसार-

योग के मुल उपदेषक हिरण्यगर्भ भगवान को मानते है।

इनकी अवतार परम्परा में महर्षि पतंजलि को माना गया है।

श्रुति परम्परा के अनुसार:-योग विद्या का उद्भव भगवान शिव द्वारा हुआ। इन्हें आदि गुरू, योगी या आदियोगी नाम से जानते हैं। सर्वप्रथम भगवान शिव ने हजारों साल पहले पूर्व  हिमालय में क्रांति सरोवरनामक झील के किनारे योग का गूढ ज्ञान सप्तऋषियों को दिया था। इन सप्तऋषियों ने यह ज्ञान भ्रमण करते हुए एशिया, मध्यपूर्व, उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका सहित सम्पूर्ण विश्व के भागों में योगविद्या को प्रसारित किया। अगस्त्य मुनि एवं सप्तऋषियों ने योगविद्या को योग संस्कृति के रूप में विश्व में फैलाकर इसे व्यापक रूप दिया।

सिंधु एवं सरस्वती घाटी सभ्यता में भी 2700 ई.पू. योग का व्यापक स्वरूप प्राप्त होता है। इस सम्भता में योग के अनेक चित्र, आकृतियां मुहर, जीवाश्म अवशेषों में योग का प्रमाण मिलता है। वैैदिक एवं उपनिषद् परम्परा में योग का वर्णन मिलता है।

योग का स्वरूप एवं उसका तत्कालिन उद्देश्य निम्नप्रकार है-

(1) प्राचीन उपनिषद 600 ई.पू. परमात्म प्राप्ति हेतु

भगवद्गीता 500 ई.पू. निश्काम कर्म योग

पातंजलयोग सूत्र 300 ई.पू. चित्तवृन्ति,निरोध, समाधि प्राप्ति

हठयोग 1300 ई.पू. क्रियायोग से राजयोग

मध्यकालीन योग 200-1800 ई.पू. धार्मिक विचारों की साधना पद्वति

आधुनिक योग 1800 ई.पू. के बाद सामाजिक विकास एवं स्वास्थ्य संरक्षण हेतु

·         श्री अरविन्दो स्वामी विवेकानन्द,

·         महर्षि महेश योगी, वी. के, एस. अययंगर

·         जे. कृष्णमूत्र्ति, आचार्य शिवानन्द

 

योग की व्युत्पन्नि - संस्कृत शब्दयुजिर योगेसे योग शब्द बना है। युज धातु में घञ प्रत्यय लगाने से योग शब्द बना है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार तीन अर्थों में योग का भाव समाहित है।

(1) युज समाधौ - समाधि

(2) युजिर योगे - जोड

(3) युज संयम के - सांमजस्य

योग की परिभाषा -

(क) योगः कर्मसु कौशलम् ( गीता 2/50)

कार्य में कुशलता का नाम योग है।

(ख) संयोग-वियोग योग संज्ञितम् (गीता 9/23)

जीवात्मा का परमात्मा से मिलने का नाम योग है।

(ग) समत्वं योगमुच्यते (गीता 2/48)

स्ंसारिक द्वन्दों में समभाव रहना ही योग है।

(घ) योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। (पतंजलि योग सूत्र 1-2)

चित्त की वृत्तियों का निरोध होना ही योग है।

(ड़) तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।

अप्रमन्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।।

कठोपनिषद् 2/3/10-13

अर्थात् जब पांचो ज्ञानेन्द्रियों एवं बुद्वि तथा मन स्थिर हो जावें तत्त्व इस स्थिति को योगी ‘‘परमगति’’ कहते है। इसके योगी इच्छा रहित हो जाता है।

पातन्जल योग दर्शन - इसमें चार पाद जिनके 195 सूत्रों को वर्णन किया है।

1. समाधिपाद - 51 सूत्र

2. साधनपाद - 55 सूत्र

3. विभूतिपाद - 55 सूत्र

4. कैवल्यपाद - 34 सूत्र

 

इसमें अष्टांगयोग, चित्त की वृत्तियाँ, समाधि, क्रिया योग, पंचक्लेष, दृश्य-दृष्टा, प्रकृति पुरूष, धारणा, ध्यान, समाधि, संयम एवं कैवल्य सिद्वि प्राप्ति का वर्णन है।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः -

चित्त - मन, बुद्वि एवं अहंकार

चित्तवृत्तियां - ये पांच होती है।

प्रमाण - प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आप्तोपदेष

विपर्यय - मिथ्या ज्ञान

विकल्प - वस्तु के अभाव का ज्ञान

निद्रा - अभाव जैसा प्रतीत हो

स्मृति - अनुभव सिद्व ज्ञान

 

-अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा चित्तवृत्तियों का निरोध होता है।

-किसी स्थिति का बार - बार यत्न करना अभ्यास है।

-वैराग्यः-दृश्टामुश्रृ विकविशयवितृश्णस्य वषीकार संज्ञा वैराग्यम कहलाता है।

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देखे एवं सुने विशयों से चित्त को दूर हटाकर आत्मतत्त्व मे समाहित कर एकाग्र करना वैराग्य कहलाता है।