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योग का अर्थ एवं परिभाषाएं

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

योग शब्द का अर्थ

पाणिनी ने योगशब्द की व्युत्पत्ति युजिर् योगे’ ,’युज समाधोतथा युज् संयमनेइन तीन धातुओ से मानी है। प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार योगशब्द का अनेक अर्थो में प्रयोग किया गया है।, जैसे - जोड़ना, मिलाना, मेल आदि। इसी आधार पर जीवात्मा और परमात्मा का मिलन योग कहलाता है। इसी संयोग की अवस्था को समाधिकी संज्ञा दी जाती है जो कि जीवात्मा और परमात्मा की समता होती है।

महर्षि पतंजलि ने योग शब्द को समाधि के अर्थ में प्रयुक्त किया है। व्यास जी ने योगः समाधिःकहकर योग शब्द का अर्थ समाधि ही किया है। वाचस्पति का भी यही मत है।

संस्कृत व्याकरण के आधार पर योगशब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है।

1. “युज्यते एतद् इति योगः -इस व्युत्पत्ति के अनुसार कर्मकारक में योग शब्द का अर्थ चित्त की वह अवस्था है जब चित्त की समस्त वृत्तियों में एकाग्रता आ जाती है। यहाँ पर योगशब्द का उद्देश्य के अर्थ में प्रयोग हुआ है।

2. “युज्यते अनेन अति योगः -इस व्युत्पत्ति के अनुसार करण कारक में योग शब्द का अर्थ वह साधन है जिससे समस्त चित्तवृत्तियों में एकाग्रता लाई जाती है। यही योगशब्द साधनार्थ प्रयुक्त हुआ है। इसी आधार पर योग के विभिन्न साधनो को जैसे हठ, मंत्र, भक्ति, ज्ञान, कर्म आदि को हठयोग, मंत्रयोग, भत्ति योग, ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि के नाम से पुकारा जाता है।

3. “युज्यतेऽस्मिन् इति योगः” -इस व्युत्पत्ति के अनुसार योग शब्द का अर्थ वह स्थान है जहाँ चित्त की वृत्तियाँ की एकाग्रता उत्पन्न की जाती है। अतः यहाँ पर अधिकरण कारक की प्रधानता है।

योग की परिभाषाएं

भारतीय दर्शन में योग विद्या का स्थान सर्वोपरि एवं विशेष है। भारतीय  ग्रन्थो में अनेक स्थानो पर योग विद्या से सम्बन्धित ज्ञान भरा पड़ा है। वेदो, उपनिषदो,गीता एंव पुराणों आदि प्राचीन ग्रन्थों में योग शब्द वर्णित है। दर्शन में योग शब्द एक अति महत्त्वपूर्ण शब्द है जिसे अलग-अलग रूप में परिभाषित किया गया है।

1. योग सूत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है -

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधःयो.सू.1/2

अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त का तात्पर्य, अन्तःकरण से है। बाह्मकरण ज्ञानेन्द्रियां जब विषयों का ग्रहण करती है, मन उस ज्ञान को आत्मा तक पहुँचाता है। आत्मा साक्षी भाव से देखता है। बुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है। इस सम्पूर्ण क्रिया से चित्त में जो प्रतिबिम्ब बनता है, वही वृत्ति कहलाता है। यह चित्त का परिणाम है। चित्त दर्पण के समान है। अतः विषय उसमें आकर प्रतिबिम्बत होता है अर्थात् चित्त विषयाकार हो जाता है। इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है।  योग के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि ने आगे कहा है-

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।। 1/3

अर्थात योग की स्थिति में साधक (पुरूष) की चित्तवृत्ति निरू़द्धकाल में कैवल्य अवस्था की भाँति चेतनमात्र (परमात्म ) स्वरूप रूप में स्थित होती है। इसीलिए यहाँ महर्षि पतंजलि ने योग को दो प्रकार से बताया है-

1.    सम्प्रज्ञात योग

2.    असम्प्रज्ञात योग

सम्प्रज्ञात योग में तमोगुण गौणतम रूप से नाम रहता है। तथा पुरूष के चित्त में विवेक-ख्याति का अभ्यास रहता है। असम्प्रज्ञात योग में सत्त्व चित्त में बाहर से तीनों गुणों का परिणाम होना बन्द हो जाता है तथा पुरूष शु़द्ध कैवल्य परमात्मस्वरूप में अवस्थित हो जाता है।

2. महर्षि याज्ञवल्क्य ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है-

संयोग योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनो।

अर्थात जीवात्मा व परमात्मा के संयोग की अवस्था का नाम ही योग है।

कठोषनिषद् में योग के विषय में कहा गया है-

यदा पंचावतिष्ठनते ज्ञानानि मनसा सह।

बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।

तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।

अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभावाप्ययौ।। कठो.2/3/10-11

अर्थात् जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियां मन के साथ स्थिर हो जाती है और मन निश्चल बुद्धि के साथ आ मिलता है, उस अवस्था को परमगतिकहते है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा ही योग है। जिसकी इन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है, अर्थात् प्रमाद हीन हो जाता है। उसमें शुभ संस्कारो की उत्पत्ति और अशुभ संस्कारो का नाश होने लगता है। यही अवस्था योग है।

3. मैत्रायण्युपनिषद् में कहा गया है

एकत्वं प्राणमनसोरिन्द्रियाणां तथैव च.।

सर्वभाव परित्यागो योग इत्यभिधीयते।। 6/25

अर्थात प्राण, मन व इन्द्रियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्म विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन आत्मा में लग जाना,प्राण का निश्चल हो जाना योग है।

4. योगशिखोपनिषद् में कहा गया है-

योऽपानप्राणयोरैक्यं स्वरजोरेतसोस्तथा।

सूर्याचन्द्रमसोर्योगो जीवात्मपरमात्मनोः।

एवंतद्वन्द्व जालस्य संयोगो योग उच्यते।। 1/68-69

अर्थात् अपान और प्राण की एकता कर लेना, स्वरज रूपी महाशक्ति कुण्डलिनी को स्वरेत रूपी आत्मतत्त्व के साथ संयुक्त करना, सूर्य अर्थात् पिंगला और चन्द्र अर्थात् इड़ा स्वर का संयोग करना तथा परमात्मा से जीवात्मा का मिलन योग है।

5. श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कुछ इस प्रकार से परिभाषित किया है।

योगस्थः कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजयः।

सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। 2/48

अर्थात् - हे धनंजय! तू आसक्ति त्यागकर समत्व भाव से कार्य कर।

सिद्धि और असिद्धि में समता-बुद्धि से कार्य करना ही योग हैं।सुख-दुःख, जय -पराजय, शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों मंे एकरस रहना योग है।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृतंे।

तस्माधोग युज्यस्व योगः कर्मसुकौशलम्।। 2/50

अर्थात् कर्मो में कुशलता में कुशलता ही योग है। कर्म इस कुशलता से किया जाए कि कर्म बन्धन न कर सके। अर्थात् अनासक्त भाव से कर्म करना ही योग है। क्योंकि अनासक्त भावं से किया गया कर्म संस्कार उत्पन्न न करने का कारण भावी जन्मादि का  कारण नहीं बनता। कर्मो में कुशलता का अर्थ फल की इच्छा न रखते हुए कर्म का करना ही कर्मयोग है।

पुराणो में भी योग के सम्बन्ध में अलग-अलग स्थानों पर परिभाषाएं मिलती है-

ब्रह्मप्रकाशकं ज्ञानं योगस्तत्रैक चित्तता।

चित्तवृत्तिनिरोधश्च जीवब्रह्मात्मनीः परः।। अग्निपुराण 183/1-2

अर्थात् ब्रह्म में चित्त की एकाग्रता ही योग है।

मदृयेकचित्तता योगो वृत्त्यन्तरनिरोधतः।। कूर्म पु.11

अर्थात् वृत्तिनिरोध से प्राप्त एकाग्रता ही योग है।

6.रांगेय राघव ने कहा है-शिव और शक्ति का मिलन योग है।

7. लिंड्ग पुराण के अनुसार - लिंग पुराण मे महर्षि व्यास ने योग का ल़क्षण किया है कि –

सर्वार्थ विषय प्राप्तिरात्मनो योग उच्यते।

अर्थात् आत्मा को समस्त विषयो की प्राप्ति होना योग कहा जाता है। उक्त परिभाषा में भी पुराणकार का अभिप्राय योगसिद्धि का फल बताना ही है। समस्त विषयों को प्राप्त करने का सामथ्र्य योग की एक विभूति है। यह योग का लक्षण नही है। वृत्तिनिरोध के बिना यह सामथ्र्य प्राप्त नही हो सकता।

8. अग्नि पुराण के अनुसार - अग्नि पुराण में कहा गया है कि

आत्ममानसप्रत्यक्षा विशिष्टा या मनोगतिः।

तस्या ब्रह्मणि संयोग योग इत्यभि धीयते।। अग्नि पुराण (379)25

अर्थात् योग मन की एक विशिष्ठ अवस्था है जब मन मे आत्मा को और स्वंय मन को प्रत्यक्ष करने की योग्यता आ जाती है, तब उसका ब्रह्म के साथ संयोग हो जाता है। संयोग का अर्थ है कि ब्रह्म की समरूपता उसमे आ जाती है। यह कमरूपता की स्थिति की येग है। अग्निपुराण के इस योग लक्षण में पूवेक्ति याज्ञवल्क्य स्मृति के योग लक्षण से कोई भिन्न्ता नही है। मन का ब्रह्म के साथ संयोग वृत्तिनिरोध होने पर ही सम्भव है।

9. स्कन्द पुराण के अनुसार - स्कन्द पुराण भी उसी बात की पुष्टि कर रहा है जिसे अग्निपुराण और याज्ञवल्क्य स्मृति कह रहे है। स्कन्द पुराण में कहा गया है कि-

यव्समत्वं द्वयोरत्र जीवात्म परमात्मनोः।

सा नष्टसर्वसकल्पः समाधिरमिद्यीयते।।

परमात्मात्मनोयोडयम विभागः परन्तप।

स एव तु परो योगः समासात्क थितस्तव।।

यहां प्रथम श्लोक में जीवात्मा और परमात्मा की समता को समाधि कहा गया है तथा दूसरे श्लोक में परमात्मा और आत्मा की अभिन्नता को परम योग कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि - समाधि ही योग है। वृत्तिनिरोध की अवस्था में ही जीवात्मा और परमात्मा की यह समता और दोनो का अविभाग हो सकता है। यह वात नष्टसर्वसंकल्पः पद के द्वारा कही गयी है।

10. हठयोग प्रदीपिका के अनुसार - योग के विषय में हठयोग की मान्यता का विशेष महत्व है,वहां कहा गया है कि-

सलिबे सैन्धवं यद्वत साम्यं भजति योगतः।

तयात्ममनसोरैक्यं समाधिरभी घीयते।। (4/5) 0 प्र0

अर्थात् जिस प्रकार नमक जल में मिलकर जल की समानता को प्राप्त हो जाता है ; उसी प्रकार जब मन वृत्तिशून्य होकर आत्मा के साथ ऐक्य को प्राप्त कर लेता है तो मन की उस अवस्था का नाम समाधि है।