VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

उपवास के प्रकार

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

उपवास रोग, रोगी व परिस्थिति के अनुसार कई प्रकार के हो सकते है। उनमें से हम अपनी सुविधानुसार जो उचित लगे उसे अपने हितार्थ चुनकर उससे लाभ प्राप्त कर सकते हैं, इनमें से कुछ विधियों का वर्णन किया जा रहा है। रोगी या चिकित्सक इनमें से किसी एक को चुनकर उपचार करने में प्रयोग कर सकता है।

प्रातः कालिक उपवास:-यह काफी सुगम उपवास है। इसमें केवल सुबह का नाश्ता छोड़ना पड़ता है। इस प्रकार का उपवास आजकल कई लोग ऐसे ही बिना जानकारी के कर लेते हैं। परन्तु उपवास के निगमों का पालन न करने वजह से इससे लाभ नहीं उठा पाते। इनमें वे होते है जो अक्सर देर रात तक काम करते हैं। तथा सुबह देर से उठते हैं। उनके उठने के बाद नहा धोकर निवृत्त होने तक दोपहर के भोजन का समय हो जाता है। जिस वजह से वे लोग नाश्ता दिन के भोजन के रूप ही करते है। यह अनजाने मे किया हुआ बिना नियम का उपवास होता है जो लाभ देने के बजाय हानि पहुंचाता है।

प्रातः कालिन उपवास का लाभ तब लिया जा सकता है जब हम सुबह का नाश्ता छोड़कर केवल दिन और रात दो ही बार भोजन करें, यदि हम इसके अलावा भी दिन भर चरते (बार-बार खाते रहते हैं। तो लाभ नहीं सकते। इस उपवास में सुबह सूर्योदय से पहले उठकर अपने नित्य कर्म पूरे करके संध्या वन्दन करने से लाभ और अधिक बढ़ जाता है।

सायंकालिक उपवास:-इस उपवास को अद्वोपवास या एक समय का उपवास भी कहा जाता है। इस उपवास में रात्रि का भोजन बन्द कर दिया जाता है तथा रात-दिन में केवल एक बार ही भोजन किया जाता है। देखा जाये तो हमारा पूरा सिस्टम इसके उलट ही चलता है। हम लोग सारा दिन अपने काम काज में इतने व्यस्त होेते हैं कि कई बार तो हमें दिन में खाने का समय भी नहीं मिल पाता या फिर अगर मिलता भी है तो वह इतना कम होता है कि हम उसे एक काम समझकर जल्दी-जल्दी निपटाने की कोशिश करते हैं जिससे वह भोजन हमें वह लाभ नही पहुंचा पाता जो वो पहुंचा सकता है। इस कारण जब दिन में भोजन नहीं कर पाते या ठीक से नहीं कर पाते हों फिर उसकी पूर्ति रात्रि में अधिक व गरिष्ट मसालेदार भोजन करके करते हैं। जो ठीक से पच नहीं पाता और हमारे पेट को खराब करके अपच, आदि को पैदा करता है। जो आगे चलकर कई्र जटिल रोगों मे परिणित हो जाते है। सांयकालिक उपवास ऐसे लोगों को अधिक लाभ देता है जो पुराने तथा जटिल रोगों में ग्रसित रहते हैं। इस उपवास में जो भी भोजन किया जाता है उसका सुपाच्य व प्राकृतिक होना अनिवार्य है तभी इसका पूर्ण लाभ लिया जा सकता है।

एकाहारोपवास:-हम लोग 24 घण्टे में मुख्यतः 3 बार भोनज करते हैं और हर बार कई तरह के खाद्य पदार्थो को एक साथ मिलाकर खाते हैं। जैसे रोटी, सब्जी, दाल, चावल, सलाद, अचार, दही, खीर, आइसक्रीम , मिठाई आदि जिनमें से कुछ तो मेेल वाले खाद्य पदार्थ होते हैं तथा कुछ बेमेल खाद्य पदार्थ होते हैं जिनमें से मेल वाले खाद्य तो शरीर का पोषण करते हैं। तथा बेमेल खाद्य शरीर में विकार उत्पन्न करते हैं। इसी कारण इस बेमेल खाध्यो से होने वाले कष्टों के निवारण में लिये एकाहारोपवास एक उत्तम चिकित्सा है।

इस उपवास में एक समय में केवल एक ही खाद्य का सेवन करना होता है। जैसे यदि सुबह हमने रोटी खायी है तो इसके सिवा और कुछ नहीं खाना है तथा फिर शाम को केवल तरकारी ही लेनी है। अगले दिन सुबह कोई फल लें तथा शाम को केवल दूध का ही सेवन करना है।

इस तरह हम देखते हैं कि हम एक समय में एक से अधिक खाद्य ग्रहण नहीं करते जिसके कारण बेमेल खाद्यों से होने वाले कुप्रभावेां को रोका या दूर किया जा सके। शरीर की छोटी-मोटी गड़बड़ी में यह उपवास लाभ के साथ किया जा सकता है। इससे साधारण स्वास्थ्य में असाधारण सुधार दिखायी देता है।

रसोपवास:-इस उपवास की विषेषता यह है कि इसमें कोई भी ठोस पदार्थ नहीं किया जाता चाहे वह फल ही क्यों न हो। इसमें केवल साग सब्जियों के रस व जूस या फलों के जूस का ही सेवन किया जाता है। यह उपवास एक प्रकार से पेट को अधिक विश्राम देने की दृष्टि से किया जाता है। दूध का सेवन भी इस उपवास में वर्जित माना जाता है। क्योंकि दूध भी ठोस खाद्य पदार्थो की श्रेणी में आता है। इस उपवास के साथ-साथ बीच-बीच में एनिमा लेते रहने से शरीर की सफाई अच्छी तरह से होती है। यह शरीर से विषों को दूर करने में उपवास की एक महत्वपूर्ण सहयोगी सिद्ध होता हैं

फलोपवास:-फलोपवास जैसा की नाम से ही स्पष्ट है। कि इस उपवास में केवल फलों या फिर साग-सब्जी आदि का ही सेवन कुछ दिनों तक लाभ के साथ किया जाता है। बीच-बीच में पेट की सफाई के लिये एनिमा लेते रहना चाहिये। इस उपवास को करते हुए कई बार किसी-किसी को एक ही फल या एक ही साग-सब्जी अनुकूल नहीं पड़ती, जिससे उसे पेट में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। ऐसे व्यक्तियों को सलाह दी जाती है। कि वे फलोपवास से पूर्व दो तीन दिन का पूर्णोपवास कर लें, तत्पष्चात फलोपवास पर आयें, इस उपवास में वहीं फल लेने चाहिये जो आसानी से पच जायें यह फिर मौसमी फलों का सेवन करना चाहिये जो मौसम के अनुसार उत्पन्न होते हैं और उस मौसम में पचने योग्य भी होते हैं।

दुग्धोपवास:-दुग्धोपवास को दुग्धकल्प भी कहा जाता है। इस उपवास में आहार केवल दुग्ध ही होता इसके अलावा कुछ नहीं, कुछ दिनों तक दिन में 4-5 बार केवल दूध का ही सेवन करना होता है, इस उपवास में यह बात विषेष रूप से ध्यान में रखनी चाहिये कि जो दूध उपवास में प्रयोग किया जा रहा है वह दूध स्वस्थ गाय का होना चाहिये। क्योंकि यदि गाय स्वस्थ नहीं है तो उसका दूध भी स्वास्थ वर्धक नहीं होगा। उससे भी रोगी होने की संभावना रहती है। साथ ही कभी-कभी रोगी होने पर गाय को औषधि दे दी जाती है। जो उसके पूरे शरीर में घुलने के कारण रक्त में भी मिल जाती है और फिर दूध में भी और यदि यही दूध हम पीते हैं तो गाय के रोग मुक्त दूध के साथ उस औषधि का सेवन भी अनजाने में कर बैठते हैं। जो गाये को दी गयी, अतः इस बात का ध्यान रखना अनिवार्य हैं दुग्ध कल्प के लिये गाय का धारोष्ण दुध हो तो उत्तम रहता है पर जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि दिन में 4-5 बार दूध लेना है तो प्रत्येक बार धातेष्ण दूध मिलना संभव नहीं है। क्योंकि अक्सर सुबह और शाम को ही गाय को दुहाया जाता है। इसलिये बाकी समय गर्म करके फिर ठण्डा किया हुआ दूध भी लिया जा सकता है। यह उपवास अत्यन्त हितकारी सिद्ध होता है।

मठोपवास:-मठोपवास को मठ्ठा-कल्प के नाम से भी जाना जाता है। यदि किसी रोगी की पाचन शक्ति अत्यधिक निर्बल हो तो उसे दुग्धोपवास के स्थान पर मठोपवास करना चााहिये, क्योंकि दूध की अपेक्षा मठ्ठा जल्दी पच जाता है। साथ ही मठ्ठा कल्प में जो मठ्ठा प्रयुक्त किया जा रहा है। उसमें घी की मात्रा नहीं होनी चाहिये एवं वह कम खट्टा होना चाहिये। घी युक्त व खट्ठा मठ्ठा उपयुक्त नहीं समझा जाता है। मठोपवास आरंभ करने से पहले इसके लिये स्वयं को तैयार कर लिया जाये तो उत्तर होगा तैयारी के तौर पर मठोपवास से पूर्व 2-3 दिनों का पूर्ण उपवास कर लेना चाहिये ऐसा करने से लाभ की संभावना अधिक बढ़ जाती है। इस उपवास को लाभ के साथ एक से दो महीने तक सुगमता से चलाया जा सकता है। इस उपवास के द्वारा शरीर में उपस्थित सामान्य स्वास्थ्य में भी अत्यधिक उन्नति दिखायी देती है। इस उपवास को करते समय कभी-कभी पेट भारी लगता है। ऐसी अवस्था बीच-बीच में एनिमा लेकर पेट को आवश्यक साफ कर लेना चाहिये।

पूर्णोपवास:-अपनी इच्छा के अनुसार शुद्ध ताजे पानी के सिवा अनय कुछ भी खाद्य पदार्थ ग्रहण न करना पूर्णोपवास कहा जाता है। इस उपवास को करते समय कुछ विशेष नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। अन्यथा इसके कुछ सह प्रभाव जैसे पेट खाली होने पर वायु का बनना, भोजन के समय भोजन न करने के कारण पाचक रसों के स्राव से पेट में जलन का अनुभव, गैस बनने के कारण सिर दर्द होना, अभ्यस्त न होने के कारण कभी-कभी कमजोरी महसूस करना आदि छोटे-मोटे प्रभाव हैं इसके लिये किन नियमों का पालन अनिवार्य हैं या किन-किन चीजों का ध्यान रखना होता है व स्वयं को उपवास के लिये क्या तैयारी करनी चाहिये इसका उल्लेख हम आगे करेंगे।

साप्ताहिक उपवास:-यदि हम एक सप्ताह में केवल एक दिन पूर्ण उपवास करते हैं। तो इसे साप्ताहिक उपवास की संज्ञा दी जाती है। इस उपवास को करने से साधारण स्वास्थ्य ठीक रहता है और साथ ही इसका लाभ यह भी है कि इसे करने से रोगी होने की संभावना बहुत कम होती है। यह उपवास शारीरिक श्रम करने वालों की अपेक्षा जो लोग मानसिक श्रम करते हैं और जिनका कार्य एक स्थान पर बैठकर ही होता है के लिये अधिक लाभकारी है। अतः ऐसे लोगों को यह उपवास अवश्य करना चाहिये, उपवास के दिन (जो भी सुगम लगे) एक या दो बार एनिमा ले लेना चाहिये, इससे लाभ अधिक होता है। इस उपवास से भोजन में अरूचि मिटती है। सिर दर्द हो या फिर सुस्ती, आलस्यपन या अन्य कई मानसिक रोगों में इससे अत्यधिक लाभ मिलता है।

लघु उपवास:-जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि जो उपवास कम समय के लिये किया जाये वह लघु उपवास होता है इसे अपनी स्वेच्दा अनुसार अपनाया जा सकता है। इसकी अवधि 3 दिन से लेकर 7 दिनों तक हो सकती है।

कड़ा उपवास:-इस उपवास के नाम से ही यह विदित हो जाता है कि इसमें कठिनाईयां अधिक होंगी, और यह सत्य भी हैं क्योंकि इसमें पूर्णोपवास में प्रयुक्त सभी नियमों का कठोरता के साथ पालन किया जाता है। इसमें बिल्कुल भी लापरवाही नहीं हो सकती। यह उपवास साधारण अवस्था में नहीं किया जाता, इसका प्रयोग तभी होता जब रोग जीर्ण और असाध्य हो।

सविराम उपवास (टूट उपवास) :-यह उपवास लगातार न करके बीच-बीच में विश्राम लेते हुए किया जाता है इसका नाम ही इसकी विधि की ओर संकेत करता है। टूट उपवास अर्थात जो लगातार न चले तथा जिसके क्रम में बीच-बीच में विराम आये।

इस उपवास में दो दिनों से लेकर एक सप्ताह तक पूर्णोपवास का अभ्यास किया जाता है। तत्पश्चात फिर कुछ दिनों तथा हल्के सुपाच्य और प्राकृतिक भोजन किया जाता है। फिर पुनः 2 से 7 दिनों का उपवास किया जाता है। यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता है और तब तक निरन्तर चलता है जब तक कि इसे करने का जो कारण था वह समाप्त न हो जाये। अर्थात जिस रोग के उपचार के लिये इसका प्रयोग किया जा रहा था, वह रोग ठीक न हो जाये। इस उपवास का प्रयोग साधारण रोगों की अपेक्षा कष्ट साध्य जीर्ण रोगों में किया जाता है।

दीर्घ उपवास:-दीर्घ अर्थात अधिक दिनों तक इस उपवास में पूर्णोपवास को नियमों सहित सामान्य से काफी अधिक समय तक चलाना होता है जिसके लिये कोई निश्चित समय का निर्धारण संभव नहीं है। यह रोग की प्रकृति पर निर्भर होता हैं। इन उपवास मे 21 दिन से लेकर 50 या 60 दिन भी लग सकते हैं। यह उपवास तभी समाप्त किया जाता है। जब वास्तविक भूख का अनुभव होने लगे, या फिर शरीर के सारे विजातीय द्रव्यों के पच जाने के बाद उनके शेष न रहने के कारण शरीर के आवश्यक अवयवों के भी पचने की नौबत आ जाये या ऐसी संभावना दिखायी दें। इस उपवास को जब शारीरिक दृष्टि से किया जाता है तो इस उपवास का लक्ष्य शरीर के विभिन्न भागों में अनावश्यक रूप से एकत्रित हुए विजातीय द्रव्य के निष्कासन की ही ओर होता है और जब यह कार्य पूर्ण हो जाता है तो इस उपवास को समाप्त कर दिया जाता है।

इस प्रकार की दीर्घ उपवास बिना तैयारी के अर्थात अपने शरीर को उसके अनुसार ढालने के लिये पहले से कुछ उपाय या इसके विषय में पूर्ण जानकारी के बिना नहीं करना चाहिये। यदि ऐसा किया जाता है तो यह हानिकारक भी सिद्ध हो सकता है। क्योंकि इस उपवास द्वारा शरीर पर जो प्रभाव पड़ते हैं उनकी जानकारी के अभाव में उनके रोकथाम के लिये प्रयास करना संभव नहीं हो पाता है। जिससे एक के बाद एक परेशानी महसूस होती है और शरीर स्वयं को उसके अनुरूप नहीं ढाल पाता, और कष्ट पाता है। उचित तो यह है कि इसकी प्रयोग किसी उपवास विशेषज्ञ के मार्ग दर्शन में ही किया जाये ताकि इसके प्रभावों को नियन्त्रिक कर इसके दुष्प्रभाव जो कि जानकारी व मार्गदर्शक नहीं होने की वजह से होते हैं से बचा जा सके।