VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

एक्युप्रेशर के सिद्धान्त

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

प्रकृति प्रदत्त विज्ञान का ही एक हिस्सा है एक्यूप्रेशर । आधुनिक चिकित्सा की अंधी दौड़में यह लुप्त हो रही थी परन्तु भारत की गरीब जनता स्वस्थ होने के लिए समय- समयपर इनका प्रयोग सुश्रुत के लेखन काल से ही करती आ रही है। यह पद्धति भी प्राकृतिकचिकित्सा का एक अंग है। क्योंकि हमारा शरीर ही पंच तत्वों से निम्र्रित है। इन्हीं पंचतत्वों के सन्तुलन को बनाए रखने हेतु हाथ में कडा, गले में हार, कान में यज्ञोपवीत (जनेऊ) लपेटना, हाथ में कलेवा बांधना (मोती), पैर में झाँजर पहनना आदि नित्य प्रति के क्रिया कलापों द्वारा हम शरीर के विभिन्न दाब बिन्दुओं को दबाव देते रहते है।

एक्यूप्रेशर का अर्थ, परिभाषा इतिहास व सिद्धान्त

एक्यूप्रेशर का शब्दिक अर्थ है शंकुनुमा नुकीली वस्तु से शरीर पर दबाव डालने की क्रिया व्यवहारिक तौर पर इस पद्धति के सिद्धान्त से हमारा शरीर इलैक्ट्रोनिक क्रियात्मकताओं का एक बहुआगामी स्वरूप है जिसके अंतरंग में सर्बदा विद्युत ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है इस प्रवाह या सक्रियता के संचार का नियंत्रण भिन्न - भिन्न चैनलों अर्थात् भिन्न भिन्न भागों के कुछ खास बिन्दुओं में किसी कारणवश स्थिलता या कमजोरी आ जाने के कारण इन बिन्दुओं के प्रतिनिधित्व विशेष के अन्तर्गत वाले भागों में धीरे-धीरे निष्क्रयता आने लगती है जिससे शरीर का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ने लगता है तथा रोग उत्पन्न होने लगते है।

अर्थ

एक्यूप्रेशर दो शब्दों से मिलकर बना एक्यू +प्रेशर लैटिन भाषा मे एक्यु का अर्थ होता है तीखी वस्तु तथा प्रेशर का अर्थ होता है दबाव अर्थात् किसी तीखी वस्तु द्वारा दबाव देने की क्रिया को एक्यूप्रेशर कहते है। मानव शरीर में स्थिर विशेष बिन्दुओं पर विधिपूर्वक दबाव डालकर रोग निवारण करने की पद्धति का नाम एक्यूप्रेशर एक्यूप्रेशर है इस चिकित्सा पद्धति के कई चमत्कारिक परिणाम सामने आये है रोगों के निदान हेतु एक्यूप्रेशर चिकित्सक शरीर के कुछ विशिष्ट बिन्दुओं पर मध्यम बल का प्रयोग करते हुए दबाव डालता है ऐसा करते समय यदि किसी बिन्दु पर असहनीय दर्द हो तो इस तथ्य का निदान होजाता है कि रोगी के शरीर में उस बिन्दु से संबंधित अंग से कोई विकार या रोग है।

सामान्यतः एक्यूप्रेशर शरीर के विभिन्न हिस्सों के महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर दबाव डालकर रोगों के निदान करन की विद्या है। चिकित्साशास्त्र की इस शाखा का मानना है कि मानव शरीर पैर से लेकर सिर तक आपस में जुड़ा है। हजारों नशें रक्त धमनियां, मांसपेशिया, स्नायु और हड्डियों के साथ अन्य कई चीजें आपस में मिलकर इस मशीन को बखूबी चलाते है अतः किसी अंग विशेष से संबंधित बिन्दु पर दबाव डालने से उसे जुड़ा पूरा भाग भी प्रभावित होता है। एक्यूप्रेशर के अन्तर्गत पैरों, हाथों, तलवों, पूंजों चहरे व अन्य अंगों पर खास तरीके से विशेष दबाव डालना है इन अंगों का अथवा केन्द्रो को रिस्पांस सेन्टर अथवा रिफ्लैक्स सेन्टर भी कहते है इन्हें भारत में प्रतिबिम्ब केन्द्र के रूप में जाना जाता है।

इतिहास

एक्यूप्रेशर और एक्युपंचर जन्म लगभग एक साथ ही हुआ था कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसका जन्म भारत में लगभग 60 0 0 वर्ष पहले हुआ था और चीनी व्यापारियों के कारण यह भारत से चीन ले जाया गया था। सरल व प्राकृतिक रूप से सहज सुलभ और लाभकारी होने के कारण चीन के लोगों ने आसानी से अपना लिया जहां चीन में

यह चिकित्सा प्रचलित हुई वहीं दूसरी तरफ भारत में विदेशी शासन व आक्रमण से सामाजिक धार्मिक तथा राजनीतिक जीवन में परिवर्तन का आना था भारत में इस पद्धति का प्रयोग कर प्राचीन लोग सफल चिकित्सा किया करते थे। मनुष्य ने सबसे पहले अपनी चिकित्सा के लिए जिस पद्धति का सहारा लिया वह कोई और नहीं बल्कि एक्यूप्रेशर चिकित्सा ही है जिसके उदाहरण यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा पद्धति स्वरूप रोग को दूर करने हेतु शरीर के किसी विशेष स्थान विशेष को अंगूठे से दबाने, अंग विशेष पर हाथ फेरने या घर्षण देने की प्रचलित परम्पराओं व योग साधनाओं में अंगूठे व उंगलियों को साथ जोड़कर या दबाकर ध्यान आदि मुद्राओं की क्रियाओं में देखे जा सकते है इसके अतिरिक्त 2 3 0 0 ई.पू. की मिश्र देश की चित्रकला से भी ऐसा ज्ञात होता है कि यह चिकित्सा वहां भी अति प्राचीन काल से प्रचलित थी।

प्राचीनकाल में यह देखने में आता था कि महिलाओं के चेहरे पर कई जगह गोदने के निशान होते थे तथा वह नाक में कई जगह छिद्र कर आभूषण को धारण करती थी पैर में पायल माथे पर बिंदी या सिंदूर, हाथ में कंगन बाजूबद, बिछिया, गले में बड़े-बड़े आभूषण आदि हमारी पिछली पीढ़ियों के द्वारा धार्मिक कार्य समझकर किये जा रहे है परन्तु इन पर अध्ययन करने पर ज्ञात होती है कि यह सभी शरीर पर स्थित प्रतिबिम्ब बिन्दुओं को दबाकर स्वस्थ रखते थे, महिलाऐं जब बोरला धारण करती थी वह महिलाओं मासिक धर्म संबंधित विकार दूर करने का बिन्दु होता है, कान में जहां छेद होता है वह स्मृति शक्ति को बढ़ाने का जहां चुडियां पहनी जाती है वहीं विन्दु होता है इस प्रकार अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि महिलाओं द्वारा धारण किये जाने वाले प्रत्येक आभूषण का कोई न कोई रिफ्लेक्स बिन्दु होता है।

अतः आभूषणों के द्वारा व विशेष बिन्दु पर दबाव बने रहने के कारण वह उस समय की जटिल दिनचर्या के चलते भी स्वयं को स्वस्थ रखते थे तथा रोग से दूर स्वयं को दूर रखते थे। वर्तमान में महिलाओं का आभूषणों में लगाव कम होने का परिणाम यह है कि महानगरों में रहने वाली महिलाओं और उनके शिशुओं में अस्वस्था का दिन प्रतिदिन बड़ता जाता है।

एक्यूप्रेशर पद्धति संसार की सबसे पुरानी पद्धति है जिसका प्रयोग कर प्राचीन लोग सफल चिकित्सा किया करते थे वर्तमान में चीन, अमेरिका, जापान, कोरिया आदि देशों में भी इस पद्धति को अस्पतालों में उपचार के लिए करते थे यहां तक कि आरोग्य संस्थान भी एक्यूप्रेशर की ओर ध्यान दे रहा है अनेक देशों में इस पद्धति का अपने देश में विकास

करने और लोक-प्रियता बड़ाने के लिए शिक्षा एवं उपचार केन्द्रों का भी निर्माण किया जा रहा है। इसके लिए बड़े बड़े स्कूल, कालेज तथा अस्पताल का निर्माण व एक्यूप्रेशर का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है। आज कई देशों के डा. व विशेषज्ञ इस पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने चीन जाते है। चीन में एक्यूप्रेशर को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त चिकित्सा

पद्धति के रूप में सदियों से अपनाया गया है। चीन के प्राचीन ग्रंथों में एक्यूप्रेशर तथा एक्यूपंचर के उल्लेख है। डा.  श्रु. लिएन के द्वारा लिखित चैन चियु सुरह (अर्वाचीन एक्यूपंचर) नामक ग्रंथ आज चीन में इस विषय का अधिकृत प्रमाणित ग्रंथ माना जाता है इसमें एक्यूप्रेशर के लगभग 69 9 बिन्दुओं की सूची प्राप्त होती है कुछ अन्य कार्यों के द्वारा 1 0 0 0 बिन्दुओं का भी प्रमाण प्रापत होता है किन्तु वर्तमान में प्रयोग किऐ जाने वाले महत्वपूर्ण बिन्दु 1 0 0 से 1 2 0 ही माने गए है। इन बिन्दुओं के विषय में आप चार्ट द्वारा समझ सकते हैं।

एक्यूप्रेशर पद्धति के अनुसार रोग उत्पत्ति के कारण -

एक्यूप्रेशर पद्धति में रोग आने का कुछ विशेषकारक माना जाता है इसके अनुसार जब किसी बिमारी या निष्क्रियता के कारण अंग विशेष से संबंधित स्नायु तंत्र के ढीले या सिकुड़ने व शून्य हो जाने के स्थिति में शरीर की रक्त नलियों में नाकारात्मक तत्वों के जमाव या हाथों व पावों के अंतिम छोर या सतहों पर कुछ खराब तत्वों या कणों के एकत्र हो जाने के परिणाम स्वरूप शरीर के नाडी तंत्र का संचार असंतुलित हो जाता है। जिसके कारण शरीर अस्वस्थ रहने लगता है। भारतीय पद्धति में मानव शरीर में पंचतत्व के संचार व सक्रियता का प्रधान माना गया है। इसके लिए हाथ की तर्जनी अंगुली को वायु, मध्यमा आकाश, अनामिका को जल कनिष्ठा को पृथ्वी व अंगुठे को अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व दिया गया है यही सामान्य नियमावली पैरों की उंगलियों के लिए भी लागू होता है अतः विशेष उंगुलियों द्वारा किसी मुद्रा को धारण कर अर्थात् दबाव बनाकर हम अपने शरीर में पंचतत्वों के संचार को संतुलित कर सकने मेंसक्षम है। शरीर में पंचतत्वों के असंतुलन को दुर कर हम निरोगी काया की प्राप्ति कर सकते है।

एक्यूप्रेशर का वर्गीकरण

सामान्यतः एक्यूप्रेशर शरीर के विभिन्न हिस्सों के विशेष महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर दबाव डालकर रोग के निदान करने की विधि है इस चिकित्सा पद्धति के अनुसार हमारा पूरा शरीर आपस में एक दूसरे भाग व विभाग से जुड़ा हुआ है इसके अन्तर्गत होने वाली विभिन्न क्रियाएं एक दूसरे विभाग पर प्रभाव डालती है तथा यह सभी आपस में मिले रहते है। व मिलकर कार्य करते है। जब किसी एक भाग पर प्रभाव पड़ता है तो उसका अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव दूसरे पर भी पड़ सकता है इसलिए चिकितसा पद्धति ने शरीर को कार्य प्रणाली की जान समझकर तथा गहन अध्ययन के द्वारा शरीर के भिन्न भिन्न भागों व अंगों के बिन्दु शरीर के दूसरे भागों में कहां कहां है। विशेष अंग से संबंधित ऊर्जा चैनल कहां कहां तक है अर्थात् उन्होंने यह जानकारी प्राप्त की है कि विशेष अंग, भाग या विभगा का प्रतिबिम्ब बिन्दु कहां है इन रिफ्लेक्स बिन्दुओं के आधार पर ही एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति आधारित है।

एक्यूप्रेशर पद्धति में सफलता के लिए उपचारक को विभिन्न रिफ्लैक्स बिन्दु का ज्ञान होना आवश्यक है तथा एक्यूप्रेशर पद्धति की विस्तृत जानकारी के लिए इसे वर्गीकृत किया जा सकता है। भिन्न भिन्न में बांटे जाने के पश्चात् इसे सफलपूर्वक समझ कर प्रयोग किया जा सकता है। इसके प्रमुख भाग निम्नलिखित है -

1.    जोनोलोजी

2.    रिफ्लेक्सोलोजी

3.    फुट रिफ्लेक्सोलोजी

4.    हैण्ड रिफ्लेक्सोलोजी

5.    इयर रिफ्लेक्सोलोजी

6.    मेरिडियोनोलोजी

1.जोनोलोजी

इस विधि में सम्पूर्ण शरीर को जोन में विभाजित किया जाता है इसलिए इस जोनथैरैपी या जोनोलोजी के नाम से जाना जाता है। जोन में शरीर को विभाजित करने के लिए सिर से पैर तक लम्बाई में शरीर को दो भागों में बांट कर फिर चैड़ाई में चार भागों में बांटा जाता है। जिसे सम्पूर्ण शरीर 1 0 समानान्तर भागों में बांट दिया जाता है। इस प्रकार पहले भाग में सिर दूसरे भाग में पाचन तंत्र और बाजुओं का भाग तीसरे भाग में पाचन तंत्र और चौथे में प्रजनन अंग आते है। पांचवे भाग में पाँव से संबंधित भाग होते है।

इसी प्रकार ही हाथ की हथेली व पांव के  तलवों को भी जोन में विभाजित कर उसे संबंधित प्रतिबिम्ब केन्द्र तलवों व हथेलियों में जोन पर सफलता से ज्ञात किये जा सकते है। इस थैरैपी में विशेष भाग जोन से संबंधित रोग का उपचार करने के लिए हथेली या तलवे के समान भाग जोन पर एक्यूप्रशेर दिया जाता है।

2. रिफ्लेक्सोलोजी

शरीर के विभिन्न अंगों के रिफ्लेक्स बिन्दु शरीर के कई भागों पर पाए जाते है इसलिए उपचार से पहले यह ज्ञात करना अत्यन्त आवश्यक है कि शरीर के किस हिस्से व अंग में रोग है जिस अंग विशेष में रोग है उसे संबंधित प्रतिबिम्ब केन्द्र (रिफ्लेक्स बिन्दु पर दबाव देकर रोग मिटाया जा सकता है। इससे मुख्य रूप से फुट रिफ्लक्योलेाजी अधिक प्रभाव शाली एवं सरल है इसके अतिरिक्त हैण्ड रिफ्लक्सोलोजी तथा इयर रिफ्लक्सोलोजी का प्रयोग कर सफलता प्राप्त की जा सकती है। हमारे शरीर के विभिन्न भाग रक्त नलिकाओं द्वारा एक दूसरे से जुड़े है। रक्त नलिकाओं तथा स्नायु संस्थाओं के आखिरी छोटे हाथ व पैर में होते है। इस हाथ पर हाथ व पांव पर दबाव चिकित्सा द्वारा शरीर के विशेष भागों को पुनः स्वस्थ किया जा सकता है। शरीर का कौन सा भाग हाथ व पैर में किस स्थान पर स्थित है। यह रिफ्लेक्सोलोजी चार्ट द्वारा भी ज्ञात किया जा सकता है।

3. फुट रिफ्लेक्सोलोजी

यह रिफ्लेक्सोलोजी का ही भाग है। पाव का एक्यूप्रेषर समूचे क्षेत्र में जीवन शक्ति के प्रवाह को प्रभावित करने व प्रतिबिम्ब क्षेत्र बड़ा होने के कारण प्रभावी समझा गया है। इसमें केवल पाव के तलवे व ऊपरी हिस्सों में प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देकर रोगी का उपचार किया जाता है।

4. हैण्ड रिफ्लेक्सोलोजी

हाथों में स्थित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रवेश देकर उपचार करने की कला को हस्त या हैण्ड रिफ्लेक्सोलोजी कहा जाता है। किसी कारण वश रोगी के पांव में एक्युप्रेशर करने में कठिनाई हो तो उन्हें हैण्ड रिफ्लेक्सोलोजी का प्रयोग करना चाहिए।

5. इयर रिफ्लेक्सोलोजी -

कान पर स्थित विभिनन प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देकर उपचार करने की कला को इयर रिफ्लेक्सोलोजी कहते है। कान पर प्रतिबिम्ब केन्द्रों ढूंढना व जानना अधिक सरल है क्योंकि कान का आकार मां के गर्भ में पल रहे बच्चे के आकार के समान ही होता है। इसी आकार को आधार मानकर एक्यूप्रेशर केन्द्रों की स्थिति जानी जा सकती है।

एक्यूप्रेशर चिकित्सा की विशेषता

इस चिकित्सा की तकनीकी द्वारा शरीर की प्राकृतिक व्यवस्थाओं में तीव्रता अर्थात् मांसपेशियों के तंतुओं में लोच या सक्रियता उत्पन्न कराकर ग्रंथियों में ऊर्जा का संचार किया जाता है। जिसके फलस्वरूप मिटे हुए या स्थिल पड़े शरीर के आवश्यक तत्व पुनः जीवित हो उठते हैं तथा रोगी पुनः स्वास्थ होने लगता है। इसलिए स्नायु तंत्र से संबंधित रोगों के लिए यह पद्धति अत्यन्त पक्षघात चक्कर, हृदय पीड़ा या दिल का दौरे आदि की स्थिति में इस चिकित्सा अत्यन्त महत्व है |

 

6. मेरिडिअनोलोजी

एक्युप्रेशर के विभिन्न विभागों में से एक महत्वपूर्ण विभाग मेरिडियमनोलोजी का भी है। इसको भी सफलता पूर्वक काफी पहले से रोगों के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। इसे सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। अनादि काल से ही यह मान्यता रही है कि जीवन एक जीव विद्युत प्रक्रिया है अर्थात् हमारा जीवन शरीर में निहित जीव विद्युत शक्ति पर निर्भर करता है। इसी शक्ति के द्वारा हम शरीर में होने वाली तथा शरीर द्वारा कि जाने वाली प्रत्येक क्रिया कलाप को कर सकने योग्य हो पाते है।इस विद्युत शक्ति के द्वारा हम हिल डुल सकते है, चल सकते है, सांस ले सकते है तथा कोई भी कार्य करने योग्य होते है और यह ही नहीं हम इसी विद्युत शक्ति के द्वारा मानसिक कार्य भी करने योग्य होते है। मस्तिष्क में होने वाले प्रत्येक प्रक्रिया इसी विद्युत शक्ति को माना जाता रहा है। इस विद्युत शक्ति पर निर्भर करती है। भारत, चीन, जापान तथा कई अन्य देशों में प्राचीन काल से इस विद्युत शक्ति को माना जाता रहा है। इस विद्युत शक्ति को जिसके द्वारा हम समस्त कार्य करने योग्य होते है को ही प्राण कहा जाता है। इस प्राण शक्तिको चीन के लोग ची कहते चीशक्ति शरीर में दो प्रकार की ऊर्जा का निर्माण करती है यह है – यिन और यांग ऊर्जाएं। मिन को ऋणात्मक ऊर्जा का जाता है। शरीर में जब तक इन दोनों ऊर्जाओं का सन्तुलन बना रहता है तब तक शरीर स्वस्थ रहता है उसमें सभी रोगों का अभाव होता है। परन्तु जब कभी कभी भी कारण वश इन ऊर्जाओं में असन्तुलन होने पर अर्थात् एक ऊर्जा अधिक और एक ऊर्जा कम होने पर रोगी का आक्रमण शरीर पर होने लगता है। यिन और यांग ऊर्जा पुरे शरीर में विशेष मार्गों से होकर बहती रहती है इन्हीं विशेष मार्गों को मेरिडिअनकहते है।

हमारे शरीर में प्राण का वहन इन दोनों ऊर्जाओं के माध्यम से होता है तथा प्राण का वहन जिन मार्गों से पूरे शरीर में होता है वह 1 4 प्रमुख मार्ग है अर्थात् कुल 1 4 प्रमुख मेरिडिअन होते है। इन 1 4 मेरिडिअनस मे से 1 2 मेरिडिअनस भाग में भ्रमण करते है। बचे हुए दो मेरिडियनस स्वतंत्र रहते है। 1 2 मेरिडिअनों की जोड़ी मे से 6 यिन होते है और 6 यांग मेरिडियन होते है।

यिन ऊर्जा मेरिडिअन से पैरों की अंगुलियों से सिर, हाथ व मध्य भाग से होकर ऊपर की ओर भ्रमण करती है जबकि यांग ऊर्जा मेरिडियन सिर, मुंह, हाथ की अंगुलियों से पैरो की ओर नीचे जाती है। ये मेरिडियन शरीर के विभिन्न तंत्रों व अवयवी एवं उनकी कार्यप्रणाली से जुड़ कर पुरे शरीर में प्राण शक्ति का संचार सदैव करते रहते है। जो मेरिडियन जिस अवयव से जुडा होता है उसे उसी अवयव के नाम से जाना जाता है। किसी मेरिडिअन का एक सिरा हाथ, पैर अथा मुह में तथा हाथ या पैर के एक बिन्दु पर दबाव देने से उसे संबंधित अवयव पर प्रभाव पड़ते देख जाते है। मुख्य मेरिडिअन के नाम निम्नलिखित है -

 

यिन - मेरिडिअन

 

यांग मेरिडियन

1

फेफडा का

7

बड़ी आंत का मेरिडिअन

2

तिल्ली कामेरिडिअन

8

पेट का मेरिडिअन

3

मूत्रपिंड का मेरिडिअन

9

छोटी आंत का मेरिडिअन

4

हृदयका मेरिडिअन

10

मूत्राशय का मेरिडिअन

5

पेरिकार्डियम मेरिडिअन

11

ट्रिपल वर्मर मेरिडिअन

6

यकृत मेरिडिअन

12

पित्ताशय मेरिडिअन

 

2 स्वतंत्र मेरिडिअन की जोड़ी

1.     गवर्निंग वेसन मेरिडिअन

2.     कन्सेप्षन वेसल मेरिडिअन

इस प्रकार 1 4 मेरिडिअन पुरे शरीर में फैले रहते है ओर प्राण का संचार अवयवों में सदैव करते रहते है। शरीर में मेरिडिअन में प्राण का संचार भिन्न भिन्न समय में भिन्न भिन्न रहता है प्रत्येक मेरिडिअन का अपनी ऊर्जा शक्ति का अधिकतम प्रवाह एकनिश्चित समय पर होता है जैसे फेफडों में प्राण ऊर्जा का अधिकतम प्रवाह सुबह के 3 से 5 बजे तक होता है, किडनियों में शाम 5 से 7 बजे, पित्ताशय का रात 1 1 बजे से1 बजे तक का समय होता है। इन अवयवों के निश्चित समय पर उपचार करने पर जल्दी से रोगी को उसका फायदा पहुंचता है। किसी मेरिडिअन में जीवनी शक्ति का परिभ्रमण योग्य रूप न होने पर उस मेरिडिअन पर रिक्त दाब बिन्दुओं पर उचित दबाव के द्वारा उसे उत्तेजित कर जीवन शक्ति के परिभ्रमण को पुनः योग्य रूप दिया जा सकता है और उससे संबंधित अवयव का रोग दूर किया जा सकता है।

यह औषधि रहित चिकित्सा पद्धति है। परन्तु इस चिकित्सा के व्यवहारिक प्रयोग की अवधि में अन्य पद्धतियों की चिकित्सा व उनकीऔषधियों के प्रयोग को वाजिद नहीं बताया गया है। बल्कि आजीवन औषधियों के प्रयोग के लिए निर्देशित मधुमेह थाईराइड वी.पी. कोलस्ट्रोल आदि के रोगी भी आशा से अधिक लाभ की प्राप्ति के लिए अपनी औषधियों के साथ इस पद्धति का भी भली भांति प्रयोग कर सकते है। इस चिकित्सा पद्धति का रोगी पर कोई प्रतिकुल प्रभाव नहीं पड़ता इसे किसी भी रोगी को बिना भय के दिया जा सकता है। यह चिकित्सा पद्धति बहुत ही सरल व सुविधाजनक होने के कारण इसका लम्बे समय तक प्रशिक्षण आवश्यक नहीं है। किसी भी आयु को एक्युप्रेशर चिकित्सा की जा सकती है। इस की अनेकों विशेषताएं है। इसीलिए वर्तामन मे इसकी लोकप्रियता एवं महत्ता बढ़ती ही जा रही है।

एक्यूप्रेशर  चिकित्सा हेतु आवश्यक निर्देष

·         चिकित्सा देने वाला कमरा साफ, शांत व हवादार होना चाहिए।

·         उपचार देने से पूर्व चिकितसक को यह सुनिश्चित करना चाहिए की उपचार के समय

·         रोगी की स्थिति अनुकूल है उसकेबाद ही चिकित्सा प्रारम्भ करनी चाहिए।

·         उपचार के समय रोगी व चिकित्सक दोनों आरामदायक स्थिति में तनाव रहित होने चाहिए।

·         चिकितसक को सदैव शान्तिचित लगन व सेवाभाव वाला होना चाहिए।एक्युप्रेशर पद्धति लेने के साथ साथ रोगी को हल्का भोजन व व्यायाम भी करना चाहिए।

·         भोजन के तुरन्त बाद चिकितसा नहीं लेनी चाहिए। भोजन से 3 घंटे के अंतर पर ही इस चिकित्सा को करना चाहिए।

·         इस चिकित्सा पद्धति को दिन में दो बार कराया जा सकता है।

·         रोगी को बैठाकर या लिटाकर ही चिकित्सक को अपने हाथ के नाखून व्यवस्थित एवं कटे हुए रखने चाहिए।

·         रोगी को शारीरिक क्षमता रोग एवं प्रेशर देने का अंग देखकर रोगी को सहन करने योग्य दबाब देना चाहिए प्रेशर सदैव सुखद होना चाहिए दुखद नहीं।

·         चिकित्सक की शुरूआत में रोगी को दर्द का अधिक अनुभव होता है लेकिन धीरे धीरे वह पीडा कम हो जायेगी रोगी को आश्वासन देते रहना चाहिए।

·         रोगी के दोनों पांव भली भांति साफ होने चाहिए।

·         यदि रोगी किसी दवा का सेवन करता है उसे चिकित्सा देने में आरै दवा लेने के एक घंटे का अन्तर होना चाहिए।

·         गर्भवती महिलाओं को एक्यूप्रेशर चिकित्सा नहीं करनी चाहिए।

·         फ्रेक्चर, चोट, आपरेशन व जले भाग पर चिकित्सा नहीं करना चाहिए।

·         चिकित्सा व स्नान के बीच कम से कम आधे घंटे का अंतर होना चाहिए।

·         कमजोर व वृद्धरोगियों को चिकित्सा देते समय सावधानी बरतनी चाहिए।

·         घुटनों व टखनों के साथ वाले भाग अंगुलियों के नीचे वाले भाग तथा नरम भागों में दबाव कम व धीरे धीरे देना चाहिए।

·         इस पद्धति में इलाज से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि रोग किस अंग से संबंधित है। उसका प्रतिबिम्ब केन्द्र के परितंत्र से किस अंग में विकार है। यह जाना जा सकता है यदि किसी केन्द्र पर प्रेशर देने से रोगी को दर्द हो तो समझ लेना चाहिए कि उस केन्द्र से संबंधित अंग में कोई विकार है।

·         प्रेशर देने की विधि व ढंग सबसे अधिक महत्वपूर्ण है हाथ के अंगूठे व हाथ की तीसरी अंगुली एक अंगुली दूसरी अंगुली रखकर हाथ की मध्य की तीन अंगुलियों के कार्य तथा हथेली के साथ कर सकते है।

·         अंगुठा या अंगुली बिल्कुल सीधी खडी करके प्रेशर नहीं देना चाहिए । प्रेशर देने के लिए अंगुठा या अंगुली गोलाई में दबाव देना चाहिए ऐसा करने से तुरन्त लाभ मिलता है।