सूर्य मे जितनी रोग नाशक शक्ति मौजूद है उतनी संसार की किसी भी वस्तु में नही है। सूर्य का प्रकाश जो हमें श्वेत दिखाई देता है, वास्तव में सात रंगो का मिश्रण है। पुराणों में सूर्य के सात घोड़े होने की कथा इसी आधार पर है। इन्द्रधनुष मे भी सातों रंगों के दर्शन किये जा सकते हैं। इसे विज्ञान मे प्रत्येक रंग के नाम के प्रथम अक्षर को लेकर ‘VIBGYOR’ से सूचित किया जाता है।
V- Violet - बैंगनी
I - Indigo - गहरा नीला
B - Blue - हल्का नीला
G - Green - हरा
Y - Yellow - पीला
O - Orange - नारंगी
R- Red -
लाल
प्रत्येक रंग का मनुष्य के तन एवं मन पर विशेष प्रभाव पड़ता है,
उपरोक्त रंग को दो भागों में बांटा जा सकता है – ठण्डे रंग
एवं गर्म रंग |
ठण्डे रंग
(1) बैंगनी
(2) नीला
(3) हल्का नीला
गर्म रंग
(1) पीला
(2) नारंगी
(3) लाल
प्रत्येक रंग की प्रकाश तरंगो की लम्बाई अलग-2 होती है। प्रत्येक रंग का अपना विशेष
गुण एवं महत्व होता है।
नीले रंग के गुण
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यह
रंग ठण्डा होता है।
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प्यास
कम करता है।
·
ज्वर
नाशक है।
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सिर
दर्द में रामबाण औषधि है।
·
नींद
बहुत अच्छी आती है।
·
गर्मी
के दाने कील-मुहांसो मे लाभ होता है।
·
त्वचा
के रोग मे लाभदायक होता है।
हरे रंग के गुण
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हरा
रंग रक्त शोधक होता है ।
·
यह
शरीर मे विजातीय द्रव्य को बाहर निकालता है।
·
हरे
रंग के पानी से पुरानी कब्ज, आंतो मे जख्म, पेट की ऐंठन, मरोड़ पेचिश आदि मे लाभ मिलता है।
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आंखो
की हर बीमारी मे इससे बहुत लाभ मिलता है।
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चर्म
रोग मे लाभदायक होता है।
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वायु
प्रधान रोगों को दूर करता है।
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गले
के रोगों में लाभ पहुंचाता है।
पीले रंग के गुण
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पीले
रंग का प्रभाव हमारे मस्तिष्क, हृदय, यकृत एवं प्लीहा पर विशेष रूप से पड़ता है।
·
हृदय
को प्रसन्नता प्रदान करता है।
·
पीले
रंग का आवेशित जल रति रोग, नपुंसकता आदि रोगों के निवारण मे भी उपयोगी है।
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कुष्ठ
रोग मे लाभदायक।
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पीला
रंग आदर्श, संयम,
परोपकार तथा पवित्रता का प्रतीक है।
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पेट
के रोग कब्ज, गैस
आदि में लाभदायक होता है।
लाल रंग के गुण
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लाल
रंग बहुत ही गरम होता है।
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मालिश
के लिये उत्तम होता है। सूजन, पुरानी चोट, जोड़ो के दर्द मे लाभ मिलता है।
·
शरीर
के लाल रक्त कणों मे वृद्धि करता है।
·
जी
मिचलाना,
उल्टी, पेट दर्द आदि रोगों में नांरगी रंग लाभ करताहै।
·
काली
खांसी,
श्वास रोग, सर्दी जुकाम आदि मे भी नांरगी रंग का पानी लाभदायक होता है।
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कफ
रोग,
वात रोग मे भी नांरगी रंग लाभ करता है।
·
लाल,
नांरगी एवं पीले रंग मे अवेशित जल खाली पेट कभी नही पीना चाहिये।
सूर्य से लाभ प्राप्त करने के लिये जब हम विविध क्रियाओ द्वारा सूर्य के सम्पर्क
मे आते हैं तो इससे हमारे स्वास्थ्य पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। वैज्ञानिकों
के अनुसार प्रातः कालीन सूर्य रश्मियों या किरणों में निलोत्तर किरणें प्रचुर मात्रा
में पाई जाती है जिनसे स्वास्थ्य पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ते है। अल्ट्रावायलेट किरणें
अपने अद्भुत गुणों के कारण रक्त में कैल्शियम की मात्रा स्वाभाविक ही बढ़ा देती है,
ये किरणे श्वेत व लाल रक्त कणों,
कैल्शियम,फास्फोरस, आयोडीन और लोहा इत्यादि में आनुपातिक सन्तुलन पैदा कर देती है।
समुद्री तट और पर्वत श्रृंखलायें ये दो ऐसे स्थान हैं,
जहां पर निलोत्तर किरणें प्रचुर मात्रा मे प्राप्त हो सकती है।
रोग निवारण में विभिन्न
प्रकार के रंगो का प्रयोग
लाल रंग
सूर्य के प्रकाश के 80 प्रतिशत केवल लाल किरणें और इन्फ्रारेड किरणें होती है।
स्नायु मण्डल को उत्तेजित करना इनका मुख्य कार्य है। लाल रंग गर्मी को बढ़ाता है। रक्तहीनता
व गठिया जैसे रोगों में लाल रंग के वस्त्र धारण करना अच्छा रहता है।
नारंगी रंग
यह रंग गर्मी को बढ़ाता है। इसका उपयोग जीर्ण रोग में में किया जाता है। यह रंग
दमा,
नसों की बीमारी और लकवा आदि व्याधियों की एक उत्तम औषधि है।
तिल्ली बढ़ने, मूत्राशय,
व आंतों की शिथिलता, उपदंश आदि में नारंगी रंग किरण तप्त जल का प्रयोग किया जाता
है।
पीलारंग
यह रंग बुद्धि विवेक एवं ज्ञान की वृद्धि करने वाला होता है तथा पाचन क्रिया को
बढ़ाता है। पेट सम्बधी रोगो में लाभदायक है।
हरा रंग
यह रंग आंखों तथा त्वचा से सम्बन्धित रोगों में बहुत लाभकारी है,
यह भूख को बढ़ाता है जिन लोगों में खुजली या नासूर,
चेचक आदि चर्म रोग हों उन्हें हरे रंग का वस्त्र पहनना चाहिये।
आसमानी रंग
यह रंग ठण्डक और शांति दायक है। इसमें विद्युत शक्ति होती है। जब शरीर में गर्मी
की अधिकता हो उस समय इस रंग का प्रयोग करना चाहिये। गर्मी की अधिकता से होने वाले रोग
जैसे-पेचिश, ज्वर,
श्वास, कास, सिरदर्द अतिसार, संग्रहणी, मस्तिष्क
के रोग,
प्रमेह, पथरी व मूत्र विकार आदि सभी रोग इस रंग के प्रयोग से अच्छे हो
जाते है। यह सभी रंगों में श्रेष्ठ है।
नीला रंग
नीला रंग शांतिदायक व ठंडा होता है शरीर की गर्मी को दूर करने के लिये इसका प्रयोग
होता है। नीले रंग की कमी होने पर तथा लाल रंग के बढ़ जाने पर मनुष्य में ज्वर,
अतिसार एवं पेट में मरोड़ आदि रोग उत्पन्न होते हैं।
सूर्य किरणों द्वारा चिकित्सा
हेतु उनकी प्रयोग विधि
रंगीन शीशों के बीच से
गुजारकर
इस विधि में रोगी के शरीर से कपड़े हटाकर उसमें रंगीन काँच की प्लेट से होते हुए
सूर्य के प्रकाश को शरीर पर डाला जाता है। इसके लिए एक बॉक्स भी तैयार किया जाता है।
जिसमें रंगीन काँच लगे हेाते है और रोगानुसार रंगीन काँच का प्रयोग सम्भव होता है।
इस बॉक्स में रोगी को वस्त्रों से रहित लिटाया जाता है। इससे रोगी को सूर्य ताप और
प्रकाश एक साथ प्राप्त होता है।
सूर्य किरण के अभाव में रंगीन किरणों का रेडियेशन डाला जाता है। इसके लिए 100 वाट
के बल्ब द्वारा रंगीन प्लास्टिक, काँच या सिलोफिन कागज को निर्धारित स्थान पर रखकर किरणें डाली
जाती है। इसमें लैम्प को शरीर से तीन फीट की दूरी पर रखा जाता है। ताकि लैम्प का ताप
शरीर पर न पड़े । जिस स्थान पर रेडिएशन डाला जाता है वहां पर दूसरा कोई प्रकाश नहीं
होना चाहिए। इन्फ्रारेड किरणों के द्वारा भी शरीर में सेक दिया जाता है इसके लिए विशेष
लैम्प होता है।
सप्त किरण स्नान या धूप
स्नान
सूर्य को सप्त रश्मि या सप्त किरण भी कहते है, सूर्य लाल, नारंगी, हरी, नीली एवं बैगनी किरणों से युक्त है। इन सातों रंगों के एकत्र होने से ही श्वेत
रंग की उत्पत्ति होती है। इन सातों किरणों में रोग को नष्ट करने वाली शक्ति विद्यमान
रहती है। अंग्रेजी के सन बाथ से रोगावस्था में विशेष रुप से और स्वस्थावस्था में सामान्य
रुप से होती है।
सर्दी के मौसम में रोगी को उचित लाभ पंहुचाने के लिए विशेष रीति से धूप स्नान दिया
जाता है।धूप स्नान में ली जाने वाली सावधानियां इस प्रकार से है-
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धूप
स्नान के समय सिर को छाया में रखना चाहिए। सिर को गीले रुमाल या हरे केले के पत्ते
से ढक कर भी रखा जा सकता है।
·
धूप
स्नान से पूर्व सिर, मुंह,
गर्दन की अच्छी तरह से धोना जरुरी होता है।
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बहुत
तेज धूप में धूप स्नान नहीं लेना चाहिए। इसके लिए प्रातः काल एवं सायंकाल की हल्की
किरणें ही उत्तम होती है।
·
धूप
स्नान का समय रोज धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए। प्रारम्भ में ही देर तक धूप स्नान नहीं लेते
है।
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धूप
स्नान लेने के कुल समय के चार भाग करके पीठ, पेट,दाहिनी करवट, बायी करवट लेटकर धूप स्नान करते है।
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महिलाओं
को कम से कम कपड़े पहनकर या पतला कपड़ा लपेटकर स्नान करना चाहिए।
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स्नान
करने के स्थान पर तेज हवा का आवागमन नहीं होना चाहिए तथा स्थान खुला होना चाहिए ताकि
धूप पर्याप्त मात्रा में भीतर प्रवेश कर सके।
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सूर्य
स्नान के बाद अच्छी तरह ठण्डे जल से नहाकर या गीले तौलिये से शरीर के प्रत्येक अंग
को अच्छी तरह पोछकर थोड़ी देर तेजी से टहलना चाहिए।
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स्नान
के तुरन्त बाद भोजन नहीं करना चाहिए कम से कम डेढ़ से दो घंटे का अन्तराल अवश्य होना
चाहिए।
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धूप
स्नान के तुरन्त बाद शरीर में स्फूर्ति का अनुभव होना अच्छा रहता है। परन्तु यदि व्यक्ति
को किसी प्रकार के कष्ट की अनुभूति हो तो अगले दिन धूप स्नान का समय घटा देना चाहिए।
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सूर्य
स्नान नियमित रुप से बिना छोड़े रोज करना चाहिए। ऐसा करने से ही व्यक्ति को पूर्ण लाभ
प्राप्त होता है।
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सर्दी
में धूप स्नान का समय 12 बजे से लेकर 2 बजे के बीच का होना उचित रहता है जबकि गर्मी
के दिनों में प्रातः 8-10 बजे और सायं 3-5 बजे के बीच होना उचित रहता है।
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ह्रदय
रोगी एवं बुखार से पीड़ित व्यक्ति को सूर्य स्नान नहीं कराते है।
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उचित
स्नान करने से शारीरिक जीवनी शक्ति बढ़ती है। एवं हड्डियाँ दृढ़ होती है। शरीर को पर्याप्त
मात्रा में विटामिन -डी की प्राप्ति होती है। कमजोरी होने पर सूर्य स्नान सर्दियों
में सात मिनट तथा गर्मियों में तीन मिनट से ही शुरु करते है।
साधारण धूप स्नान
इसके लिए शरीर से कपड़े उतारकर सीधी दरी के ऊपर लेट जाते है। सिर की छाया में गीले
कपड़े से ढक देते है। धूप में लेटकर यदि अपने स्नान के अन्तराल में पसीना निकल आये तो
उचित रहता है । इससे शरीर के विजातीय पदार्थ पसीने के साथ बाहर निकलते है। फलतः रोगी
स्वस्थ्य हो जाता है और स्वस्थ्य व्यक्ति का स्वास्थ्य बना रहता है।
पसीना लाने के लिए धूप स्नान-स्नान के लिए धूप में बैठने से पूर्व गरम पानी पी
लेने से 20 से 30 मिनट में ही शरीर से पसीना निकलने लगता है।
यदि व्यक्ति को पसीना नहीं आता है तो ऐसी स्थिति में भी तीस मिनट से ज्यादा धूप
स्नान नहीं करना चाहिए। धूप स्नान के पश्चात् ठण्डे जल से स्नान करना आवश्यक होता है
। धूप स्नान करते समय सिर में ठण्डे पानी में भीगा तौलिया रखना आवश्यक होता है साथ
ही पर्याप्त पसीना लाने के लिए स्नान के बीच-बीच में भी थोड़ा गरम पानी पीते रहना होता
है।
रिकली का धूप स्नान
इस विधि में पूरे शरीर से कपड़े उतारकर धूप स्नान दिया जाता है। साथ ही सिर में
भी कोई कपड़ा या छाया नहीं रखते है। यह स्नान सूर्य उदय के तुरन्त बाद लिया जाता है।
इस विधि में स्नान के पहले दिन रोगी के पैरो की फितली को ही धूप में अच्छी तरह सेका
जाता है। दूसरे दिन सारे पैर को धूप में सेका जाता है। इस प्रकार करते रहने के साथ
ही साथ धूप स्नान के समय को भी धीरे-धीरे बढ़ाया जाता है। रोगी को धूप में रखने के समय
को भी धीरे-धीरे बढ़ाया जाता है। पहले दिन रोगी को 5-5 मिनट के बाद 3-3 मिनट के हिसाब
से कुल 9 मिनट तक रखना चाहिए। दूसरे दिन इसी प्रकार 5 मिनट के बाद 6 मिनट,
तीसरे दिन प्रति बार 9 मिनट इसी प्रकार 3-3 मिनट करके कुल 9
मिनट तक बढ़ाकर दसवें दिन से 3 बार आधे-आधे घण्टा करके प्रयोग करते हे। इस प्रकार
15 दिन में तीन बार स्नान लिया जाता है। हर स्नान के बाद रोगी को 5 मिनट के लिए छाया
में रखा जाता है।
तद्पश्चात पसीना आने पर पूरे शरीर को गीले तौलिये से अच्छी तरह से पोछ लेते है।
फिर पुनः धूप लेनी चाहिए।
कूने का धूप स्नान
इस विधि में शरीर से कपड़े उतारकर धूप में लेट जाना चाहिए ऊपर से केले या अन्य पत्तियों
द्वारा पूरे शरीर को ढक देते है। पत्तों के अभाव में गीले कपड़े द्वारा भी शरीर को ढका
जा सकता है। इस प्रकार करने से शरीर गरम हो जाता है और शरीर से पदार्थ पसीने के साथ
बाहर निकल जाते है। आधे घंटे से लेकर डेढ घंटे तक व्यक्ति धूप में लेटकर यह स्नान कर
सकता है। धूप स्नान के बाद कमरे में ठंडे पानी से सिर से नहाने के बाद शरीर को पोछ
लेते है। इसके पश्चात् कटि या मेहन स्नान किया जाता है। शरीर में पुनः गर्मी के लिए
धूप में टहलना आदि भी क्रियाएं भी की जा सकती है।
भीगी चादर के माध्यम से
धूप स्नान
इस विधि में बिना कपड़ों के रोगी को धूप में लेटा दिया जाता है और उसके शरीर को
एक सूखे कम्बल या चादर से गले तक ढक दिया जाता है। जब शरीर गरम हो जाए तब सूखे कपड़े
को हटाकर एक दूसरे कपड़े को ठण्डे पानी में भिगोकर उससे पूरे शरीर को जंघा तक ढक देते
हे। सिर पर भीगा तौलिया और चेहरा छाया में रहता हे। जांघो के नीचे का हिस्सा सूखे कपड़े
से ढका रहता है।
यह स्नान 20-40 मिनट तक लिया जाता है। स्नान के बाद अन्त में मेहन स्नान लेना आवश्यक
होता है।
जीवनी शक्ति बढ़ाने हेतु धूप स्नान
इस विधि में निर्बल रोगी को सुबह शाम धूप में रखकर स्नान कराया जाता है। धूप में
जब रोगी का शरीर गरम हो जाये तो उसे छाया में बैठा देते है।धूप स्नान के पश्चात् शरीर
को पोछकर साफ करना चाहिए।
ठंडी पट्टी के साथ धूप
स्नान
इस विधि में रोगी को एक टब में आधा इंच मोटे कपड़े की गीली गद्दी जो कि पूरे टब
में बिछाई जाती है उस पर बिना कपड़ों के बैठाया जाता है। फिर ऊपर से भी दूसरी भीगी चादर
रोगी के शरीर पर डाल दी जाती है। जिससे रोगी का पूरा शरीर ढक जाता है। फिर इसके भी
ऊपर ऊनी चादर डालकर रोगी के शरीर को ढक दिया जाता है। धूप द्वारा जब गीली चादर सूख
जाती है तो उसे पानी डालकर पुनः गीला किया जाता है। इस स्नान को सुविधानुसार कितनी
भी देर तक किया जा सकता है।