सूर्य प्रकाश के बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है कि जिस घर में सूर्य की किरणों का प्रवेश नहीं हो पाता है, उस घर में डाक्टर का प्रवेश होता है। इस कहावत में वास्तविक सच्चाई है क्योंकि रोगों के कीटाणु अंधकार में ही विकसित होते हैं तथा वे सूर्य का प्रकाश पड़ते ही नष्ट हो जाते हैं। जिस स्थान पर सूर्य की किरणें पहुंच जाती हैं, वहां पर रोगों के कीटाणु विकसित नहीं हो पाते हैं। सूर्य का प्रकाश केवल पेड़-पौधों पर ही नहीं बल्कि पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवधारियों के लिए आवश्यक होता है। वर्तमान समय के वैज्ञानिक अनुंसंधानों से स्पष्ट हो चुका है कि सूर्य की किरणों के अभाव में कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता है। नदियों और जलाशयों का जल सूर्य-प्रकाश के कारण शु़द्ध, स्वच्छ और निर्मल होता है। जिन लोगों को सूर्य की किरणों के महत्व के बारे में नहीं मालूम होता है वे सभी उसके लाभ से वंचित होते हैं। सूर्य के प्रकाश से हमारे शरीर में प्राणों का संचार होता है जिसकी हमें सदैव आवश्यकता पड़ती है। इसलिए सोने, बैठने, रहने और भोजन करने के स्थान को पर्याप्त हवादार और प्रकाशयुक्त रखना चाहिए। घर का निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि जिसमें सूर्य की किरणों का प्रकाश अधिक मात्रा में पहुंच सके। उत्तम स्वास्थ्य के लिए हमें कभी-कभी नंगे बदन धूप में टहलना अथवा बैठना चाहिए। इससे न केवल स्वास्थ्य अच्छा होता है बल्कि प्राकृतिक रूप से शारीरिक सुन्दरता में वृद्धि होती है। त्वचा के रोगों में सूर्य की किरणें विशेष लाभकारी होती हैं। सूर्य के प्रकाश में खेलने वाले बच्चे, बलवान, हृष्ट-पुष्ट और निरोगी होते हैं।
सूर्य की किरणें विषनाशक (एण्टीबायोटिक)
होती हैं। ये किरणें दुर्गंध तथा गंदगी को दूर करने में अद्वितीय होती हैं। सूर्य प्रकाश
द्वारा स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु यह आवश्यक है नहीं है कि दिन भर धूप में रहें। प्रतिदिन
सुबह के समय कम से कम 10-20 मिनट तक नंगे बदन धूप लेनी चाहिए। धूप लेते समय सिर और
आंखों को धूप से बचाए रखना चाहिए तथा धूप स्नान के बाद ठण्डे जल से नहाना चाहिए। हमें
शरीर पर कभी भी कसे हुए कपडे़ नहीं पहनने चाहिए। बल्कि इसके बदले स्वच्छ हवादार और
ढीले वस्त्र पहनने चाहिए। जिससे सूर्य की किरणें त्वचा तक पहुंचकर लाभ प्रदान कर सके।
रोगियों को विटामिन `डी´
की आवश्यकता पड़ने पर धूप का सेवन कराया जा सकता है। सूर्य के
प्रकाश से हमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन `डी´ प्राप्त हो जाता है। विटामिन `डी´ का मुख्य कार्य हमारे शरीर की हडि्डयों को मजबूत बनाना होता
है। विटामिन `डी´
की कमी से हमारे शरीर में हडि्डयों का निर्माण नहीं हो सकता
है जो स्त्रियां और बच्चे धूप सेवन नहीं करते है उनके शरीर की हडि्डयां कमजोर रह जाती
हैं तथा उनकी हडि्डयां नरम और लचीली रह जाती हैं। जब ऐसी स्त्रियां बच्चों को जन्म
देती हैं वे बच्चे अधिकतर सूखा रोग से ग्रस्त होकर मर जाते हैं।
जो लोग अंधेरे में रहते हैं अथवा
कार्य करते हैं उनके शरीर और मस्तिष्क दोनों की हालत खराब हो जाती है। सूर्य के द्वारा
सभी प्रकार के रोगों को नष्ट किया जा सकता है। सूर्य कि किरणें हमारे शरीर के रक्त
को शुद्ध करती हैं तथा उसके प्रवाह और पाचन शक्ति को बढ़ाती है। धूप के सेवन के समय
जब सूर्य की किरणें सीधे रूप में हमारे शरीर पर पड़ती है तो ये किरणें हमारे शरीर के
ऊपरी भाग के कीटाणुओं को नहीं बल्कि रोगों से ग्रस्त अंगों को ठीक कर देती हैं। सूर्य
का प्रकाश अपनी उष्मा से न केवल शरीर के रोमछिद्रों को खोलता है बल्कि यह हमारे मस्तिष्क
को भी प्रभावित करता है। सूर्य की किरणें हमारे शरीर की नस-नस में प्रवेश करके उसे
स्वच्छता प्रदान करती हैं। सूर्य प्रकाश के सेवन से मस्तिष्क में चुम्बकीय शक्ति की
वृद्धि होती है जो एक अनूठी वस्तु है।
सृष्टि की रचना में विभिन्न प्रकार के रंगों की उपस्थिति केवल प्रकृति की सुन्दरता
के लिए ही नहीं बल्कि यह स्वास्थ्य के लिए भी उपयोगी होती है। मनुष्यों के शरीर में
विभिन्न रंग हैं और उन्हीं रंगों में से किसी रंग की अधिकता या कमी के कारण बीमारी
उत्पन्न हो जाती है। रंगों की सहायता से रोगों को दूर करने की इस चिकित्सा प्रणाली
को ही `रंग चिकित्सा विज्ञान´ अथवा सूर्य किरण चिकित्सा कहा जाता है।
जिस प्रकार सूर्य की सातों रंगों
की संयुक्त किरणें धूप की आकृति या शक्ल में हमारे शारीरिक रोगों को दूर करने की क्षमता
रखती हैं,
उसी प्रकार उनमें से प्रत्येक रंग की किरणें भी विभिन्न रोगों
को दूर करने में बहुत अधिक लाभकारी और प्रभावशाली होती हैं। सूर्य की किसी भी रंग की
किरण की शक्ति को उसी रंग के पारदर्शक माध्यम द्वारा- जल,
तेल, मिश्री, शक्कर,
वायु आदि में सम्पुटित अथवा भावित (सूर्य तप्त,
चार्ज) करके उसे औषधि की तरह सेवन करने से असाध्य से असाध्य
रोग भी सरलतापूर्वक नष्ट हो जाते हैं।
हमारे शरीर का निर्माण
प्रकृति के पंचतत्वों (मिट्टी, जल, वायु,
आग और आकाश) से मिलकर हुआ है। इस कारण से इन पांचों तत्वों का
हमारे शरीर के स्वास्थ्य से गहरा सम्बंध होता है। जब तक इन सभी तत्वों का संतुलन हमारे
शरीर में बना रहता है तब तक मानव का शरीर रोगों से बचा रहता है। इसके विपरीत हमारे
शरीर में इन पांचों में किसी भी तत्व की मात्रा कम या अधिक होने से हमारा शरीर रोगों
को केन्द्र बन जाता है। अत: शरीर के रोगग्रस्त हो जाने पर इस बात का पता लगाकर कि किस
तत्त्व की हमारे शरीर में अधिकता या कमी हो जाने के कारण शरीर अस्वस्थ हुआ है तथा उस
तत्व को उचित मात्रा में लाना ही प्राकृतिक चिकित्सा कहलाती है। हमारे शरीर में किस
तत्व की अधिकता या कमी है। इसके लिए हमें पंचतत्वों के रंग,
आकार और उसके स्वादों को जानना आवश्यक होता है।यह निम्न तालिका
द्वारा प्रदर्शित होता है।
क्रम |
तत्व का नाम |
तत्व का रंग |
तत्व का आकार |
तत्व का स्वाद |
1 |
आकाश |
नीला |
बूंद-बूंद के समान |
कड़वा |
2 |
वायु |
नीला |
षट्कोण के समान |
खट्टा |
3 |
जल |
नीला |
अर्द्धचंद्राकार |
कसैला |
4 |
पृथ्वी |
पीला |
चौकोर |
मीठा |
5 |
अग्नि |
लाल |
त्रिकोण |
तीखा |
शरीर में पांचों तत्त्वों
में किसी तत्त्व विशेष की कमी या अधिकता जानने की प्रमुख विधियां :
·
अपने
हाथ के दोनों अंगूठों से कान के दोनों छिद्रों, बीच की दोनों उंगुलियों से नाक के नथुनों,
दोनों अनामिका और दोनों कनिष्का उंगुलियों से मुंह तथा दोनों
तर्जनी उंगुलियों से दोनों आंखों को बंद करने पर जिस तत्त्व का रंग दिखाई पड़ता है।
शरीर में उसी तत्त्व की अधिकता समझनी चाहिए।
·
किसी
शीशे पर श्वास छोड़ने पर उसकी भाप से शीशे पर जिस तत्त्व का आकार बन जाए,
शरीर में उसी तत्त्व की अधिकता समझनी चाहिए।
·
हमारे
मुंह में जिस तत्त्व का स्वाद हो, शरीर में उस समय उसी तत्त्व की अधिकता समझनी चाहिए।
·
रोगी
के सामने विभिन्न प्रकार के रंगों को रखकर अथवा अनेक रंगों की वस्तु को दिखाकर उससे
पूछना चाहिए कि उन रंगों में उसे कौन सा रंग सबसे अधिक पसंद है। रोगी को जो रंग सबसे
अधिक प्रिय होता है तो उसी रंग की कमी उसके शरीर में समझनी चाहिए। इसके विपरीत जो रंग
उसे सबसे अधिक अप्रिय हो, उसी रंग की उसके शरीर में अधिकता समझनी चाहिए।
·
यदि
किसी रोगी के शरीर में अग्नि तत्त्व यानी कि लाल रंग की कमी है तो उसके आंख और नाखून
नीले रंग के होंगे। मूत्र का रंग सफेद और नीला होगा तथा दस्त का रंग भी नीला और सफेद
होगा। यदि आकाश, वायु
अथवा जल तत्त्वों अर्थात शरीर में नीले तत्त्वों की कमी हो तो आंखों का रंग गुलाबी,
नाखून लाल तथा मूत्र और दस्त लाल अथवा गाढ़े या पीले रंग के होंगे।
रोगों की चिकित्सा रोगी के रोग के एक ही लक्षण को देखकर करना अधिकतर हानिकारक होता
है जैसे -
शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति
की आंखों का रंग सामान्यत: गुलाबी होता है जिनको देखकर यह समझ लेना कि उस व्यक्ति में
अग्नितत्त्व यानि लाल रंग की अधिकता है, यह बिल्कुल ही गलत है। क्योंकि इसका कारण यह है कि ऐसी स्थिति
में व्यक्ति की आंखों में लाली उसकी दुर्बलता के कारण है न कि उसके शरीर में अग्नितत्त्व
अथवा लाल रंग की कमी के कारण। इसी प्रकार बच्चों की प्राकृतिक रूप से नीली आंखों को
देखकर कहना कि उसके शरीर में लाल रंग यानि कि अग्नि तत्त्व की कमी है और वह बच्चा रोगी
है,
यह धारणा गलत है।
पंचतत्वों के विभिन्न रंग तीन
प्रकार के होते हैं। नीला, पीला और लाल। उसी प्रकार सूर्य की सातों किरणों के रंग भी मुख्य रूप से तीन प्रकार
के होते हैं- नीला, पीला और लाल। जिनका प्रतिबिंब इन्द्रधनुष पर आसानी से देखा जा सकता है।
सूर्य की किरणों के चार प्रकार
के रंग नारंगी, हरा,
आसमानी और बैंगनी उपर्युक्त तीन मुख्य रंगों के भिन्न-भिन्न
अनुपात में से मिलने से बन जाते हैं। अत: इस बात का पता लग जाने पर कि किसी रोगी में
किस तत्त्व की कमी या अधिकता के कारण कोई रोग उत्पन्न हो गया है अथवा दूसरे शब्दों
में किस रंग विशेष की कमी या अधिकता हो गई है। जिसके कारण वह रोगों से ग्रस्त है। सूर्य
किरण चिकित्सा द्वारा उस रोगी के शरीर में उस रंग विशेष की उचित मात्रा में पूर्ति
देने मात्र से ही उसका रोग नि:संदेह नष्ट हो जाएगा। सूर्य किरण चिकित्सा का यही स्वर्ण
सिद्धांत है। साथ ही यह चिकित्सा प्रणाली अधिक सहज, सरल और सस्ती तथा जल्द से जल्द लाभ प्रदान करने वाली होती है।
इस चिकित्सा प्रणाली से धनी, निर्धन, शिक्षित तथा अशिक्षित सभी वर्गों के लोग आसानीपूर्वक लाभ उठा
सकते हैं।