VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

रंग के सिद्धांत एवं दर्शन

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

सूर्य चिकित्सा के सिद्धान्त के अनुसार रोगोत्पत्ति का कारण शरीर में रंगों का घटना-बढना है। सूर्य किरण चिकित्सा के अनुसार अलग‍-अलग रंगों के अलग-अलग गुण होते हैं। लाल रंग उत्तेजना और नीला रंग शक्ति पैदा करता है। इन रंगों का लाभ लेने के लिए रंगीन बोतलों में आठ-नौ घण्टे तक पानी रखकर उसका सेवन किया जाता है।

मानव शरीर रासायनिक तत्वों का बना है। रंग एक रासायनिक मिश्रण है। जिस अंग में जिस प्रकार के रंग की अधिकता होती है शरीर का रंग उसी तरह का होता है। जैसे त्वचा का रंग गेहुंआ, केश का रंग काला और नेत्रों के गोलक का रंग सफेद होता है। शरीर में रंग विशेष के घटने-बढने से रोग के लक्षण प्रकट होते हैं, जैसे खून की कमी होना शरीर में लाल रंग की कमी का लक्षण है।

सूर्य स्वास्थ्य और जीवन शक्ति का भण्डार है। मनुष्य सूर्य के जितने अधिक सम्पर्क में रहेगा उतना ही अधिक स्वस्थ रहेगा| जो लोग अपने घर को चारों तरफ से खिडकियों से बन्द करके रखते हैं और सूर्य के प्रकाश को घर में घुसने नहीं देते वे लोग सदा रोगी बने रहते हैं।

जहां सूर्य की किरणें पहुंचती हैं, वहां रोग के कीटाणु स्वत: मर जाते हैं और रोगों का जन्म ही नहीं हो पाता| सूर्य अपनी किरणों द्वारा अनेक प्रकार के आवश्यक तत्वों की वर्षा करता है और उन तत्वों को शरीर में ग्रहण करने से असाध्य रोग भी दूर हो जाते हैं।

शरीर को कुछ ही क्षणों में झुलसा देने वाली गर्मियों की प्रचंड धूप से भले ही व्यक्ति स्वस्थ होने की बजाय उल्टे बीमार पड जाए लेकिन प्राचीन ग्रंथ अथर्ववेद में सबेरे धूप स्नान हृदय को स्वस्थ रखने का कारगर तरीका बताया गया है। उसमें कहा गया है कि जो व्यक्ति सूर्योदय के समय सूर्य की लाल रश्मियों का सेवन करता है उसे हृदय रोग कभी नहीं होता।

सूर्य पृथ्वी पर स्थित रोगाणुओं 'कृमियों' को नष्ट करके प्रतिदिन रश्मियों का सेवन करने वाले व्यक्ति को दीर्घायु भी प्रदान करता है। सूर्य की रोग नाशक शक्ति के बारे में अथर्ववेद के एक मंत्र में स्पष्ट कहा गया है कि सूर्य औषधि बनाता है, विश्व में प्राण रूप है तथा अपनी रश्मियों द्वारा जीवों का स्वास्थ्य ठीक रखता है, किन्तु ज्यादातर लोग अज्ञानवश अन्धेरे स्थानों में रहते है और सूर्य की शक्ति से लाभ नहीं उठाते |

अथर्ववेद में कहा गया है कि सूर्योदय के समय सूर्य की लाल किरणों के प्रकाश में खुले शरीर बैठने से हृदय रोगों तथा पीलिया के रोग में लाभ होता है। प्राकृतिक चिकित्सा में आन्तरिक रोगों को ठीक करने के लिए भी नंगे बदन सूर्य स्नान भी कराया जाता है।

 

जो बच्चे पैदा होते ही पीलिया रोग के शिकार हो जाते हैं उन्हें सूर्योदय के समय सूर्य किरणों में लिटाया जाता है जिससे अल्ट्रा वायलेट किरणों के सम्पर्क में आने से उनके शरीर के पिगमेन्ट सेल्स पर रासायनिक प्रतिक्रिया प्रारम्भ हो जाती है और बीमारी में लाभ होता है। एलोपैथिक डाक्टर भी नर्सरी में कृत्रिम अल्ट्रावायलेट किरणों की व्यवस्था लैम्प आदि जला कर भी करते हैं।

वेदों में सूर्य पूजा का महत्व है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने सूर्य शक्ति प्राप्त करके प्राकृतिक जीवन व्यतीत करने का सन्देश मानव जाति को दिया था।

हमारे शरीर के मध्य में सूर्य का प्रकाश अर्थात सुन्दर प्रभा मुख्य से प्राणरूप होकर रहती है। इसी से यह सिद्ध हो जाता है कि शरीर का स्वास्थ्य और दीर्घजीवी होना भगवान सूर्य की कृपा पर निर्भर करता है।

         जब सूर्य प्रकाशमान होता है, तब वह समस्त प्राणों को अपनी किरणों में रखता है। इस श्लोक में एक रहस्य यह भी छिपा हुआ है कि, प्रात:काल की सूर्य किरणों (नीलोत्तर किरणों) में अस्वास्थ्यता को नष्ट करने की जो अद्भुत शक्ति है, वह दोपहर और सायंकाल की किरणों में नहीं है।

        वेदों के रचयिता के अनुसार सुबह के समय की सूर्य की नीलोत्तर किरणों से हमारे शरीर के विभिन्न प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं। सूर्य की किरणों में विष को नष्ट करने की असाधारण शक्ति होती है।

        सूर्य की किरणों के प्रभाव से हमारे शरीर से पसीना निकलता है और सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। सूर्य की किरणों से हमारे शरीर की अनावश्यक चर्बी नष्ट हो जाती है जिससे हमें प्रसन्नता का अनुभव होता है।

         सूर्य की किरणों के प्रभाव से हमारे शरीर के विभिन्न प्रकार के रोग रोग जैसे दाद, दाने, कुष्ठ रोग, जलशोथ, बुखार, अतिसार तथा पेट के रोग नष्ट हो जाते हैं।

         सूर्य की किरणों का दैनिक जीवन में प्रयोग करने से मनुष्य के- कफ, पित्त, और वायु के विकार के कारण से उत्पन्न सभी प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं। इससे मनुष्य सौ वर्षों तक जीवित रह सकता है।

        द्वापर युग में भगवान कृष्ण के पुत्र `साम्ब` को लेप्रोसी (कोढ़) हो गया था, तब उसका यह रोग सूर्य उपासना से दूर हुआ था। तब `साम्ब` ने सूर्य की महिमा और उपासना सम्बन्धी एक पुराण की रचना की है जो `साम्बपुराण` के नाम से प्रसिद्ध है।

        प्लीनी नामक एक विद्वान के मतानुसार रोम (इटली) में 600 वर्षों तक कोई भी चिकित्सक नहीं था और रोम देश के निवासी अपने रोगों की चिकित्सा के लिए केवल सूर्य की किरणों का ही प्रयोग करते थे।

         लोगों की यह धारणा है कि सूर्य की किरणों में शरीर को अनावृत रखने से जो लाभ प्राप्त होता है वह सभी वर्तमान समय की खोजें हैं। परन्तु सच्चाई यह है कि प्राचीन काल में भी लोग सूर्य-प्रकाश चिकित्सा से अनभिज्ञ नहीं थे और ईसा के प्रारम्भ से पहले ही यह काम में लाया जाता था। प्राचीन महापुरुषों के लेखों से और आधुनिक पुरातत्त्व सम्बन्धी खुदाई से प्राप्त प्रमाणों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि यूनानी लोग धूपस्नान करने के लिए घर की छतों पर लेट जाते थे।

          ईसा से लगभग 400-500 साल पहले `हिपोक्रेटीज´ जिसे प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली का जनक कहा जाता है। वह अपने रोगियों को नियमित रूप से सूर्यस्नान कराता था। ग्रीक के लोग अपने घर के बाहर सूर्य-प्रकाश में नंगे बदन व्यायाम किया करते थे जिससे उनके शरीर पर वायु और प्रकाश का अधिक प्रभाव पड़ता था।

        `डिमोस्थनीज´ यूनान का एक प्रसिद्ध व्यक्ति था। वह प्रतिदिन नियमित रूप से लगभग 1 घंटे तक अपने शरीर को धूप में तपाया करता था तथा अन्य लोगों को भी धूप सेवन करने के लिए प्रेरित किया करता था। डॉक्टरों के मतानुसार संसार में ईसाई मत द्वारा अनेक प्रकार के स्वास्थ्य सम्बन्धी वैज्ञानिक और प्राकृतिक उपचारों के नियम नष्ट हो गये थे। परन्तु 18वीं शताब्दी के मध्य से धीरे-धीरे प्राकृतिक चिकित्सा का विकास होने लगा। सन 1848 ई. में आस्ट्रिया के निवासी प्राकृतिक चिकित्सक आर्नल्ड रिकली ने फिर से नियमित रूप से सूर्य स्नान करने का नियम बनाया किन्तु आम लोगों ने उनके बनाये गये नियम को स्वीकार नहीं किया। इसके बाद भी विभिन्न चिकित्सकों ने सूर्य चिकित्सा को आम लोगों द्वारा अपनाने का प्रयास किया परन्तु वे भी असफल रहे। लगभग 10 साल बाद स्विटजरलैंड के डा. रोलियर ने यक्ष्मा (टी.बी) के आश्चर्यजनक परिणामों को देखकर सूर्य की किरणों से किया तो उसके परिणामस्वरूप लोगों का विश्वास सूर्य चिकित्सा की ओर बढ़ता गया।

     

  कुछ लोग सूर्य चिकित्सा विज्ञान का खोजकर्त्ता `पालिंगझन होन` को मानते हैं। उसके बाद डां पेनस्काट को, उसके बाद डा. राबर्टवाहे लैंड को। किन्तु इस ज्ञान का जितना अच्छा विवरण डा. एडिबन बेबिट ने दिया है, वैसा अन्य किसी ने नहीं दिया है।

 

शरीरम् व्याधिमंदिरम् के अनुसार मानव-शरीर में रोग होना स्वाभाविक है। सूर्य की आरोग्यदायिनी शक्ति को सबसे पहले भारतीय ऋषि-मुनियों ने ही पहचाना। सूर्य की रोगनाशक शक्ति का परिचय अथर्ववेद (6-83-1) में देते हुए उनकी किरणों को औषधि बताया गया है। अथर्ववेद में ही सर्वप्रथम सूर्य की रश्मियों से विभिन्न रोगों की चिकित्सा का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ। उपवेद आयुर्वेद में सूर्य-चिकित्सा पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

 

 

आरोग्यदायिनी सूर्य-रश्मियां

पाश्चात्य वैज्ञानिकों नेगहन अनुसंधान करके यह तथ्य सत्य पाया है कि सूर्य को आरोग्यदाता मानने की भारतीय विचारधारा पूर्णत: सही है। सूर्य में सात रंग समाहित होने के सिद्धांत की खोज का दावा भले ही पाश्चात्य भौतिक विज्ञानी करते हों, लेकिन यह तथ्य हजारों वर्ष पूर्व भारतीय मनीषियों ने जान लिया था। तभी तो उन्होंने भगवान सूर्यनारायण के रथ में सात घोड़े जुते होने वाले ध्यान का उपदेश दिया। सूर्यदेव के रथ में सप्त अश्व सप्त रश्मियां होने का ही द्योतक हैं। सूर्य चिकित्सा के अनुसार, जब शरीर में किसी रंग की कमी होती है, तब देह में उस रंग से संबंधित रोग उत्पन्न होता है। तब उस रंग की बोतल में जल भरकर कुछ दिन सूर्य की रोशनी में रखा जाता है। मान्यता है कि जल उस रंग की रश्मि के गुणों को ग्रहण कर लेता है और औषधि बन जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा की यह पद्धति क्रोमो थेरेपी कहलाती है। पाश्चात्य देशों में लोग सनबाथ (सूर्य-स्नान) करने के लिए समय निकालते हैं। पाश्चात्य विद्वान डॉ. सोले ने भी कहा है, सूर्य में जितनी रोगनाशक शक्ति है, उतनी संसार के किसी अन्य श्चोत में नहीं।

सूर्योपासना भी है चिकित्सा

शास्त्रों व पुराणों में सूर्योपासना के लाभ बताए गए हैं। सूर्य-नमस्कार को योगियों ने व्यायाम का स्वरूप दे दिया। वाल्मीकि रामायण में रावण पर विजय प्राप्त करने से पूर्व श्रीराम द्वारा सूर्योपासना किए जाने का विवरण मिलता है। श्रीकृष्ण और जांबवती के पुत्र साम्ब ने दुर्वासा ऋषि के शाप से हुए कुष्ठ रोग से मुक्ति सूर्यदेव के पूजन से ही प्राप्त की थी। महाराजा हर्षव‌र्द्धन के दरबार के सुप्रसिद्ध कवि मयूरभ जब कुष्ठ रोग से पीडि़त हुए, तब उन्होंने सूर्यशतकम् की रचना करके सौ श्लोकों से सूर्य की स्तुति की, जिसके फलस्वरूप वे रोग-मुक्त हो गए।