By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'
वर्तमान काल में जल चिकित्सा एक प्रमुख एवं महत्वपूर्ण चिकित्सा
पद्धति के रुप में विकसित हो चुकी है। चूंकि आधुनिक समय चारों ओर प्रदूषण का स्तर बहुत
तेजी से बढा है एवं मानव के खान पान में रासायनिक पदार्थों एवं परिरक्षक पदार्थों (Preservative) के सेवन की मात्रा बढी है जिनके
परिणाम स्वरुप शरीर में विजातीय विष अधिक मात्रा में एकत्र होते हैं। शरीर को इन विताजीय
विषों से मुक्त बनाने में जल चिकित्सा महत्वपूर्ण भूमिका वहन करती है। दिनचर्या के
अपालन, भोजन
की अनियमितता एवं मानसिक तनाव आदि कारक भी शरीर में विजातीय विषों के बोझ का बढा देते
है इस अवस्था में शरीर शोधन की विशेष आवश्यक्ता होती है। शरीर शोधन में जल चिकित्सा
एक अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका का वहन करती है। वास्तव में जल चिकित्सा एक ओर जहाँ शरीर
शोधन का कार्य करती है तो वहीं दूसरी ओर अंगों की क्रियाशीलता को बढाने में भी महत्वपूर्ण
योगदान देती है। जल चिकित्सा के प्रयोग से शरीर स्वच्छ,
क्रियाशील, रोग रहित एवं स्वस्थ बनता है। शरीर के विभिन्न तंत्रों पर जल
चिकित्सा लाभकारी प्रभाव रखती है। मानव शरीर के तंत्रो पर जल चिकित्सा के लाभकारी प्रभाव
इसके महत्व को सिद्ध करता है। मानव शरीर के तंत्रांे पर लाभकारी प्रभावों के आधार पर
जल चिकित्सा के महत्व को निम्न लिखित बिंदुओं द्वारा आसानी से समझा जा सकता है -
रक्त
परिसंचरण तंत्र पर जल चिकित्सा का प्रभाव
जल तत्व का शरीर के रक्त के साथ सीधा सम्बन्ध होता है। शरीर
में जल तत्व की कमी होने पर रक्त गाढ़ा हाने लगता है। रक्त के गाढ़ा हाने के कारण रक्त
वाहिनीयों में इसके संचरण में बाधा उत्पन्न हाने लगती है जिससे रक्तचाप सम्बन्धी रोग
उत्पन्न होने लगते हैं। इसके अतिरिक्त शरीर में जल तत्व के अभाव से विषाक्त पदार्थों
की मात्रा बढने लगती है जिसका हृदय पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है एवं इसके परिणाम स्वरुप
हृदय से सम्बन्धित रोग उत्पन्न होने लगते हैं।
उपरोक्त अवस्था में जल चिकित्सा लाभकारी प्रभाव रखती है। जल
चिकित्सा के अन्तर्गत उषापान, एनीमा, स्नान एवं लपेट आदि क्रियाओं का अभ्यास रोगी को विधिपूर्वक एवं
नियमित रुप से करने से रक्त शुद्धिकरण की क्रिया त्रीव होती है,
रक्त परिसंचरण में स्वभाविक रुप से तीव्रता उत्पन्न होती है,
रक्तचाप नियमित होता है एवं हृदय स्वस्थ,
शक्तिशाली एवं ऊर्जावान बनता है। जल चिकित्सा के प्रभाव से रक्त
हिमोग्लोबिन से परिपूर्ण बना रहता है एवं रक्त में ऑक्सीजन व कार्बन डाई ऑक्साइड को
ग्रहण करने एवं छोडने की क्षमता अच्छी बनी रहती है। यद्यपि जल चिकित्सा का प्रयोग रक्त
परिसंचरण तंत्र को स्वस्थ एवं रोग मुक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका वहन करता है किन्तु
एक ध्यान देने योग्य प्रमुख तथ्य यह है कि उच्च रक्तचाप रोगी को गर्म
जल से उपचार नही देना चाहिए अथवा अत्यन्त सावधानी पूर्वक देना चाहिए एवं गर्म जल से
उपचार के बाद ठण्डे जल से उपचार अवश्य देना चाहिए।
पाचन
तंत्र पर जल चिकित्सा का प्रभाव
मानव शरीर जल तत्व को पाचन तंत्र के माध्यम से ग्रहण करता है।
जिस कारण पाचन तंत्र का जल तत्व के साथ सीधा सम्बन्ध होता है। जल संसार का एक श्रेष्ठ
घोलक द्रव्य है, इस
द्रव्य में घोलकर विभिन्न पोषक तत्वों एवं लाभकारी पदार्थों को हम भोजन के रुप में
ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार शरीर में जल तत्व की मात्रा को सम एवं विषम बनाने में पाचन
तंत्र महत्वपूर्ण भूमिका वहन करता है उसी प्रकार शरीर में जल तत्व की मात्रा सम एवं
विषम होने का इस तंत्र पर भी अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव पडता है। शरीर में जल तत्व
की मात्रा विषम अथवा कम होने से कब्ज नामक रोग की उत्पत्ति होती है। इसके साथ साथ जल
तत्व शरीर में भोजन के पाचन, अवशोषण एवं उत्सर्जन की क्रिया में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
है। इस तत्व के अभाव में भोजन के पाचन, अवशोषण उवं उत्सर्जन की क्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पडता है।
जल तत्व की विषमता पाचन तंत्र में अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होती है। पाचन
तंत्र के इन रोगों में आँतों की शुष्कता, कब्ज, अपच, भूख नही लगना, पेट दर्द, गैस,
यकृत विकार एवं मधुमेह आदि रोगों का वर्णन प्रमुख रुप से आता
है।
उपरोक्त सभी रोगों में जल चिकित्सा लाभकारी प्रभाव रखती है।
जल चिकित्सा की विभिन्न प्रविधियों द्वारा उपचार करने से इन रोगों में शीघ्र अतिशीघ्र
लाभ प्राप्त होता है। इसके साथ साथ पाचन तंत्र को स्वस्थ एवं सक्रिय बनाने में भी जल
चिकित्सा लाभकारी प्रभाव रखती है। पाचन तंत्र के रोगों में जल चिकित्सा के अन्तर्गत
प्रायः गर्म जल का प्रयोग अधिक लाभकारी प्रभाव रखता है। इसके साथ साथ गर्म के साथ साथ
ठण्डे जल का प्रयोग करने से तंत्र की क्रियाशीलता बढती है एवं रोगों से मुक्ति मिलती
है।
उत्सर्जन
तंत्र पर जल चिकित्सा का प्रभाव
जल तत्व में शुद्धिकरण का अत्यन्त विशिष्ट गुण होता है। शरीर
जल तत्व के माध्यम से अपने अन्दर स्थित विषाक्त अथवा उत्सर्जी पदार्थों को निष्कासित
करते हुए शुद्धता एवं स्वच्छता को धारण करता है। सरल शब्दों में शरीर के अन्दर के विजातीय द्रव्यों
को बाहर निकालने में जल तत्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसीलिए शरीर में जल तत्व
विषम होने पर अथवा जल तत्व की कमी होने पर विजातीय पदार्थों का शरीर से भलिभांति निष्कासन
नही हो पाता है एवं विजातीय विषों की मात्रा शरीर में ही बढने लगती है। शरीर में जल
तत्व की प्रर्याप्त मात्रा होने पर वृक्कों की क्रियाशीलता भलिभांति बनी रहती है जबकि जल तत्व की कमी होने पर वृक्कों की
क्रियाशीलता कम होने के साथ साथ वृक्कों में पथरी आदि रोग उत्पन्न होने लगते हैं। इसके
अतिरिक्त वृक्क भलि भांति रक्त को साफ भी नही कर पाते हैं जिसके कारण अलग अलग प्रकार
के त्वचा विकार भी उत्पन्न होते हैं।
शरीर
की अस्थियों एवं पेशीय तंत्र पर जल चिकित्सा का प्रभाव
मानव शरीर की अस्थियों के अन्दर जल तत्व प्रमुख रुप से विद्यमान
रहता है। चिकित्सा वैज्ञानिकों के अनुसार मानव अस्थि का 25 प्रतिशत भाग जल तत्व होता
है। जल तत्व की उपस्थिति के कारण अस्थियों में लचीलापन एवं दृढता बनी रहती है। इसके
अतिरिक्त शरीर की उपास्थियों में भी जल तत्व की उपस्थिति के कारण ही अधिक लचीलापन पाया
जाता है।
शरीर में जल तत्व की कमी के कारण अस्थियों एवं उपास्थियों में
कड़ापन एवं भंगुरता उत्पन्न हो जाती है। जल तत्व की कमी से अस्थियों एवं जोडों में अनेक
प्रकार के दर्द एवं सूजन उत्पन्न होकर गठिया एवं आर्थाराइटिस आदि रोगों को जन्म देते
हैं। अस्थियों में जल तत्व की कमी होने पर अस्थि मज्जा में रक्त कणों के निर्माण की
क्रिया भी धीमी पड जाती है। अस्थियों के समान मांसपेशियों की क्रियाशीलता में भी जल
तत्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शरीर में जल तत्व की पर्याप्त मात्रा होने पर मांसपेशियों
की क्रियाशीलता बनी रहती है। इसके साथ साथ मांसपेशियों के लचीलेपन एवं शक्ति में भी
जल तत्व का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जल तत्व की कमी होने पर मांसपेशियों में शक्तिहीनता,
कड़ापन एवं पेशियों सम्बन्धी अन्य रोगों की उत्पत्ति होती है।
विभिन्न प्रकार के पेशियों में होने वाले दर्द में भी जल तत्व की कमी प्रमुख कारण होती
है। इस प्रकार के रोगों में जल चिकित्सा के प्रयोग से शीघ्र लाभ प्राप्त होता है।
शरीर
के तंत्रिका तंत्र पर जल चिकित्सा का प्रभाव :
मानव तंत्रिका तंत्र में जल तत्व प्रमुख रुप से उपस्थित तत्व
है। यह तंत्र मकडी के जाले के समान सम्पूर्ण शरीर में फैला रहता है जिसके अन्तर्गत
विभिन्न तंत्रिकाएं जल तत्व के माध्यम से बाह्य वातावरण से संवेदनाओं एवं प्रेरणाओं
को ग्रहण करती हैं। जल तत्व के अभाव में तंत्रिकाओं की
कार्यकुशलता एवं क्षमता कम हो जाती है। मानव मस्तिष्क में भी
जल तत्व प्रमुख रुप से उपस्थित तत्व है। शरीर में जल तत्व के अभाव में विभिन्न प्रकार
मस्तिष्क संम्बन्धी रोगों की उत्पत्ति होती है। जल चिकित्सा के अन्तर्गत ठण्डे जल के
प्रयोग से तंत्रिकाओं को बल मिलता है जबकि गर्म जल के प्रयोग से रक्त संचार तीव्र होने
से तंत्रिकाओं की क्रियाशीलता बढ़ती है। विभिन्न प्रकार के तंत्रिकाओं से सम्बन्धित
रोगों में जल चिकित्सा का प्रयोग विशेष रुप से लाभकारी होता है। मस्तिष्क विकारों में
भी जल चिकित्सा के प्रयोग से लाभ मिलता है।
इस प्रकार उपरोक्त तथ्य के आधार पर स्पष्ट होता है कि जल चिकित्सा
शरीर के विभिन्न अंगों एवं संस्थानों पर लाभकारी प्रभाव रखती है जो जल चिकित्सा के
महत्व को प्रकट करता है। वास्तव में जल में शोधन अथवा शुद्धिकरण का विशिष्ट गुण होता
है। जल तत्व का यह गुण चिकित्सा के क्षेत्र में विशेष महत्वपूर्ण होता है। सामान्य
रुप से विकृत आहार विहार के सेवन, अनियमित दिनचर्या एवं बाह्य प्रदूषण आदि कारकों के परिणामस्वरुप
शरीर में विषाक्त पदार्थों की मात्रा बढ़ती चली जाती है इन विषाक्त तत्वों की बढी हुई
मात्रा अंगों की क्रियाशीलता में बाधा उत्पन्न करती है जिसके परिणामस्वरुप अंगों से
सम्बन्धित तंत्र रोग से ग्रस्त हो जाता है। तंत्र की रोगावस्था को ठीक करने में एवं
अंगों की क्रियाशीलता बढाने में जल चिकित्सा बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जल
चिकित्सा का प्रयोग शरीर के समस्त आन्तरिक बाह्य अंगों का शोधन करते हुए उन्हे स्वस्थ
एवं क्रियाशील बनाता है।
ठन्डे
जल का शरीर के विभिन्न अंगों पर प्रभाव एवं क्रिया –प्रतिक्रिया
श्वास
पर जल का प्रभाव : जल के प्रभाव से सर्वप्रथम श्वास रूकती है,फिर श्वास गति
तीव्र एवं दीर्घ हो जाती है | प्रतिक्रिया स्वरुप गति मंद व दीर्घ हो जाती है |
परिणामस्वरूप आक्सीजन ग्रहण करने एवं कार्बन डाईऑक्साइड निष्कासन की क्रिया तीव्र हो जाती है |
त्वचा
पर जल का प्रभाव : त्वचा पर क्रिया स्वरुप सूक्ष्म रक्त वाहिनियों में ठन्डे
जल से सिकुडन होती है तथा बाह्य रक्त वाहिनियाँ विस्फारित होती हैं | फलस्वरूप
रक्त बाह्य स्तर से त्वचा के अंदरूनी भाग में चला जाता है | अंदरूनी रक्त
वाहिनियाँ विस्फारित होती हैं, फलतः प्रचुर मात्रा में रक्त त्वचा में भर जाता है |
ठण्डे जल की क्रिया से त्वचा पांडुरोग की सी हो जाती है |
प्रतिक्रिया स्वरुप रक्ताभ हो जाती है |
त्वचा के रोम खड़े हो जाते हैं तथा त्वचा रुक्ष हो जाती है |
प्रतिक्रिया स्वरुप त्वचा मुलायम,चिकनी
तथा कोमल हो जाती है |
रक्त
पर जल का प्रभाव : सूक्ष्म रक्त वाहिनियों के संकुचन एवं प्रसार से रक्त संचार
तीव्र होता है |
ह्रदय
गति पर जल का प्रभाव : ह्रदय गति पहले
तेज होती है बाद में धीमी व स्वाभाविक हो जाती है|
रक्तचाप
पर जल का प्रभाव : ठण्डे जल के प्रभाव से पहले रक्तचाप बढ़ता है, फिर सामान्य
हो जाता है |
शारीरिक
ताप पर जल का प्रभाव : ठण्डे पानी के स्पर्श मात्र से तापक्रम थोड़ा सा बढ़ता है |
प्रतिक्रिया स्वरुप बाद में तापक्रम में कमी हो जाती है | कुछ समय पश्चात् ताप की
स्थिति स्वाभाविक हो जाती है |
जल चिकित्सा के लाभकारी प्रभाव एवं महत्व को जानने एवं समझने
के उपरान्त अब आपके मन में यह जिज्ञासा भी अवश्य ही उत्पन्न हुई होगी कि जल चिकित्सा
के प्रयोग में किन किन सावधानियों को ध्यान में रखना चाहिए। चूंकि यहाँ पर जल चिकित्सा
का प्रयोग रोगी पुरुषों पर किया जा रहा है अतः सावधानियों का ज्ञान होना अत्यन्त अनिवार्य
है। अतः अब जल चिकित्सा की प्रमुख सावधानीयों पर विचार करते हैं –
जल
चिकित्सा की सावधानियां
(1) शरीर में कफ दोष
की विकृत अवस्था में ठण्डे जल का अधिक प्रयोग रोगी पर नही करना चाहिए। तीव्र सर्दी,
खाँसी, बुखार, जुकाम, टान्सिल्स, टी0 बी0, दमा, जोडों में दर्द व सूजन, कमर दर्द, गठिया
व आर्थाराइटिस आदि रोगों की तीव्र अवस्था में रोगी पर ठण्डे जल का प्रयोग करने से रोग
ओर अधिक तीव्र अवस्था को प्राप्त हो जाता है। अतः इन रोगों में ठण्डे जल का प्रयोग
अत्यन्त सावधानिपूर्वक अथवा नही करना चाहिए। ठण्डे जल के प्रयोग से गठिया एवं आर्थाराइटिस
रोगी के जोडों में दर्द एवं सूजन बढ जाती है।
(2) उच्च रक्तचाप, हृदय रोगी, मिर्गी एवं मानसिक तनाव से ग्रस्त रोगी को गर्म जल का उपचार
अत्यन्त सावधानीपूर्वक अथवा नही देना चाहिए। इस प्रकार के रोगियों को गर्म जल का उपचार
देने से रक्तचाप, हृदय गति एवं चयापचय दर असामान्य रुप से बढ़ जाती है जिसके परिणाम स्वरुप रोग की
तीव्रता बढ जाती है एवं रोगी स्वयं को अधिक असहज अनुभव करने लगता है अतः इन रोगियों
को गर्म जल का उपचार नही देना चाहिए।
(3) यदि गर्म जल के उपचार के तुरन्त बाद ठण्डे जल का उपचार भी
रोगी को देना है तो सदैव उपचार का प्रारम्भ गर्म जल के साथ करना चाहिए एवं ठण्डे जल
के उपचार से पूर्ण करना चाहिए। अर्थात गर्म जल से उपचार प्रारम्भ करते हुए ठण्डे जल
के प्रयोग के साथ उपचार समाप्त करना चाहिए।
(4) गर्म जल का उपचार देते समय सावधानी रखनी चाहिए। गर्म जल
का उपचार देने से पूर्व रोगी को एक से दो गिलास सामान्य तापक्रम का जल पीलाकर ही उपचार
देना चाहिए। इसके साथ साथ रोगी के सिर को ठण्डे जल में अच्छी प्रकार भिगो लेने के उपरान्त
ही गर्म उपचार जैसे भाप स्नान, गर्म कटि स्नान, गर्म रीढ स्नान आदि देने चाहिए। गर्म जल के उपचार के उपरान्त
रोगी को कुछ समय शवासन में आराम करना चाहिए।
(5) गर्म जल का प्रयोग गर्दन से ऊपर के भाग पर नही करना चाहिए।
विशेष रुप से सिर एवं आँखों पर गर्म जल का प्रयोग कदापि नही करना चाहिए। भाप स्नान
जैसे गर्म उपचार में भी सिर को बाहर रखते हुए इसे गर्मी से बचाना चाहिए।
(6) रोग की अति तीव्र अवस्था, गंभीर जीर्ण रोग से ग्रस्त कमजोर रोगी,
वृद्ध रोगी एवं गर्भवती स्त्री पर अधिक गर्म एवं अधिक ठण्डे
जल का प्रयोग अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना चाहिए। इस प्रकार की अवस्था में एकदम से गर्म
एवं ठण्डे जल का प्रयोग रोगी पर नही करना चाहिए। ठण्डे जल के प्रयोग करने से पूर्व
शरीर को थोडा गर्म अथवा ऊर्जावान बनाकर ही ठण्डे जल का प्रयोग करना चाहिए। ठण्डे जल
के उपचार के उपरान्त रोगी को एकदम से आराम नही करना चाहिए अपितु रोगी को कछ समय टहलना
अथवा भ्रमण करना चाहिए।
(7) जल चिकित्सा के अन्तर्गत भाप एवं बर्फ के प्रयोग में अत्यन्त
सावधानी रखनी चाहिए। बर्फ एवं भाप का प्रयोग तंत्रिका तंत्र की तंत्रिकाओं कर सीधा
प्रभाव रखता है अतः इनका प्रयोग अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
(8) रक्त स्राव की अवस्था में गर्म जल का प्रयोग नही करना चाहिए।
आँतों में घाव एवं आँतों में अल्सर की अवस्था में गर्म जल का आन्तरिक प्रयोग जैसे कुँजल
एवं एनीमा आदि नही करने चाहिए।
(9) गर्म जल के अधिक लम्बे समय तक प्रयोग करने से त्वचा की सबसे
बाहरी परत को हानि पहुँचने लगती है। अधिक गर्म जल के लम्बे समय तक प्रयोग करने से त्वचा
में उपस्थित संवेदी तंत्रिकाएं मृत होने लगती है जिसके कारण त्वचा एवं शरीर में संवेदन
हीनता की अवस्था उत्पन्न होने लगती है। इसके साथ साथ गर्म जल का अधिक लम्बे समय तक
प्रयोग करने से मांसपेसियों का स्वाभाविक बल (Muscle tone) भी कम होने लगता है एवं त्वचा लटकने लगती है।
(10) जल चिकित्सा सदैव खाली पेट ही देनी चाहिए तथा जल चिकित्सा
के तुरन्त बाद कुछ नही खाना चाहिए अपितु कम से कम आधा से एक घटें के उपरान्त ही कुछ
आहार ग्रहण करना चाहिए।
(11) जल चिकित्सा में स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए एवं
सदैव साफ स्वच्छ जल का ही चिकित्सा में प्रयोग करना चाहिए।
इस प्रकार उपरोक्त सावधानीयों को ध्यान में रखकर चिकित्सा करने
से विभिन्न सामान्य एवं गंभीर रोगों के उपचार में जल चिकित्सा लाभकारी प्रभाव देती
है। इन सावधानियों के अनुसार चिकित्सा करने से रोग में शीघ्र प्रभावकारी लाभ प्राप्त
होते हैं एवं इसके साथ साथ सभी प्रकार के दुष्प्रभावों एवं हानियों से भी रोगी मुक्त
रहता है।