कनीनिका निदान की खोज डॉ. वान पैक जेली (Dr.Von Pec Zely) ने 1848 में की थी। डॉ. जेली
जब 11 वर्ष के थे, उन्होंने बगीचे में उल्लू को पकड़ा,
लेकिन पकड़ने में उल्लू की टांग टूट गयी। उन्होंने जब उल्लू की आँखों
में ध्यान से देखा तो कुछ धब्बे तथा चिन्ह उभर आये थे। उन्होंने उस उल्लू की टांग का
उपचार किया। जैसे-जैसे टांग ठीक होती गयी वैसे-वैसे आँख का धब्बा व धब्बे के रूप में
चिन्ह धूमिल होकर गायब हो गए। बड़े होकर वान पैक जेली जब डाक्टर हुये तो एक दिन एक रोगी
जिसकी टाँग टूट गयी थी, परामर्श के लिये आया। उन्हें उल्लू की
टाँग टूटने की घटना याद आयी। उन्होंने सूक्ष्म यंत्र से रोगी की आँख का निरीक्षण किया
तो रोगी के उपतारा मण्डल में एक काला धब्बा दिखायी दिया यह धब्बा भी उसी स्थान पर था,
जिस स्थान पर उल्लू की आँख में था। इससे उन्होंने कनीनिका के टांगों
का स्थान निश्चित किया। अपने चिकित्सीय व्यावहारिक अनुभव में उन्होंने पाया कि शरीर
के आन्तरिक तथा वाह्य अंगों के रोगाग्रस्त होने पर कनीनिका (Iris) में विभिन्न प्रकार के चिन्ह उभर आते हैं। सूक्ष्म दर्शक यंत्र से देखकर यह
पता किया जा सकता है कि शरीर के किन अवयवों में रोग बढ़ रहा है। अमरीका के प्रसिद्ध
प्राकृतिक चिकित्सक हेनरी लिंडाहर (Henry Lindlahar) ने भी कनीनिका
का गहन अध्ययन किया। उन्होंने आईरिडागनोसिल (Iridiagnosis) नामक
पुस्तक की रचना की। उनके अनुसार कनीनिका (Iris) में 36 प्रतिनिधि
बिम्ब होते हैं। जो शरीर के सभी अंगों का प्रतिनिधत्व करते हैं। तीव्र औषधियाँ जो रोगों
में खायी जाती हैं, उनका भी प्रवाह कनीनिका में दिखायी देता है।
कनीनिका की रचना
यह आँख का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। आँख में दो स्पष्ट भाग तथा रंग दिखायी देते
हैं। काली पुतली तथा आँख का सफेद हिस्सा काली पुतली में एक बिन्दु होता है। बिंदु को
छोड़कर बिंदु के चारों ओर काले भाग को कनीनिका (Iris) कहते हैं। आँख का वर्णन एक गोले अथवा गोल्ब के रूप में किया जाता है,
परन्तु वास्तव में यह अण्डाकार होता है। इसका व्यास 2.5 सेंटीमीटर होता
है। यह तीन स्तरों का बना होता है।
(1) श्वेत पटल (Scleara) : यह आँख का वाहयतम
स्तर है। इससे नेत्र का श्वेत भाग बना है। यह अपारदर्शी होता है तथा कनीनिका ;प्तपेद्ध से मिला हुआ होता है। कनीनिका पारदर्शक
होती है, इसीसे प्रकाश आँख के भीतर महुँचता है। श्वेत पटल नेत्र
को कोमल अंगों की सुरक्षा करता है।
(2) मध्य पटल (Choroid) : यह आँख का मध्य स्तर
है। इसकी रक्त वाहिकायें अन्तः वैरोटिड धमनी से निकलने वाली नेत्र धमनी (Ophthalmic artery) की शाखायें होती हैं। यह कनीनिका
का निर्माण करती हैं इस पटल का रंग कालापन लिये हुये भूरा होता है। इसके पुतली (Pupil) कहते हैं। कनीनिका के पीछे द्रव पदार्थ होता है। जिसे रक्त वाहिनियाँ होती
हैं, जो आँख को पाषण देती हैं। कनीनिका के पीछे एक पिगमेन्टेशन
स्तर होता जिनका कनीनिका उसका रंग प्रदान करता है। नीली, भूरी,
भूसर आदि रंग की आँखें इसी कारण होती हैं।
(3) दृष्टि पटल (Retina) : यह नेत्र का भीतरी
स्तर है जो अनेक परतों से बना होता है। जिसकी रचना स्नायुओं, कोशिकाओं, शलाओं (Rodes)
तथा शंकुओं (Cones) से होती है। मस्तिष्क में दायें
तथा बायें भाग में जहाँ से रंग नाड़ी निकल कर आँखों से मिली होती हैं। दाहिनी आँख की
नाड़ी मस्तिष्क से बायें भाग से निकालती है तथा बाँयीं आँख की नाड़ी दाहिने मस्तिष्क
के रंग केन्द्र से निकलती है। यही फैली हुई नाड़ी रेटिना कहलाती है। बाहरी वस्तुओं का
बिम्ब कनीनिका से होकर लेन्स द्वारा रेटिना पर पड़ता है, और वहाँ
से रंग नाड़ी द्वारा विम्ब मस्तिष्क के रंग केन्द्र में पहुँचता है, वहाँ पर वस्तु के आकार तथा रंग का निर्णय होता है।
शारीरिक अंगों तथा कनीनिका में सम्बन्ध
दोनों आँखों की कनीनिका में बहुत सी सूक्ष्म से सूक्ष्म नाड़ियाँ तथा स्नायुतंत्र
होते हैं। इन सभी का सम्बन्ध शरीर तथा मस्तिष्क से दो प्रकार से होता है। एक तो दृष्टि
तथा रंग नाड़ी मस्तिष्क तथा कनीनिका तक फैली होती है। दूसरी नाड़ियों सुषम्ना नाड़ी के
सम्पर्क में होती हैं। सुषम्ना नाड़ी का सम्बन्ध पूरे शरीर से होता है। अतः शरीर के
किसी भी भाग में परिवर्तन होने से वह तुरन्त कनीनिका पर अंकित हो जाता है। कनीनिका
में माँसपेशियाँ, स्नायु
तथा रक्त वहिनियाँ होती हैं, जो पूरे शारीरिक तंत्र से मिली हुई
होती हैं। अतः जब शरीर में किसी प्रकार का कोई बदलाव आता तो उसकी छाप स्पष्ट रूप से
कनीनिका पर देखी जा सकती है। कनीनिका में काले-सफेद, तीरछे,
हल्के गहरे चिन्ह तथा रेखायें रोग की स्थिति में उभर आती हैं।
कनीनिका के आवरण
कनीनिका के सात आवरण बताये गये हैं। प्रथम आवरण आमाशय का प्रतिनिधित्व करता है।
दूसरे आवरण में छोटी व बड़ी गुर्दे तथा हृदय के लिए निर्धारित हैं। चौथा आवरण श्वसन
संस्थान को दर्शाता है। पाँचवे आवरण में मस्तिष्क
तथा ज्ञानेन्द्रियाँ आती हैं। छठा आवरण यकृत, जलग्रन्थियाँ तथा लसीका तंत्र का प्रतिनिधित्व करता है तथा सातवाँ आवरण त्वचा
माँसपेशियों व नाड़ी संस्थान का स्थान हैं।
कनीनिका का वर्गीकरण
कनीनिका को 36 भागों में विभक्त किया गया है। शरीर के दायें अंग के अवयव दायी कनीनिका
में तथा बांयें अंग के अवयव काफी कनीनिका में दिखायी पड़ते हैं।
कनीनिका में रोग के लक्षण
डॉ. लिण्डलहार ने स्पष्ट किया है कि शरीर में जब किसी रोग के लक्षण जन्म लेते हैं, तो उसके कुछ चिन्ह कनीनिका के निश्चित स्थान
पर उत्पन्न होने लगते हैं। कनीनिका में प्रत्येक अंग तथा अवयव का स्थान निश्चित है, वहाँ पर श्वेत रंग की गहरी रेखायें दिखायी देने लगती हैं। यदि इसी अवस्था
पर प्राकृतिक चिकित्सा विधि से शरीर में संचित विजातीय तत्त्व को बाहर निकाल दिया जाता
है, तो रोग गम्भीर नहीं बनने पाता है। लेकिन यदि शक्तिशाली तथा
तेज औषधियों से रोग को दबा दिया जाता है, तो रोग गम्भीर (Chronic) अवस्था में पहुँच जाता है।
यदि ध्यानपूर्वक कनीनिका को देखा जाय, तो पता चलता है कि जैसे-जैसे रोग की दशा बदलती जाती है, वैसे-वैसे कनीनिका में चिन्हों की उभरी हुई दशा भी बदलती हाती है। जब श्वेत
रेखाओं के साथ-साथ काली रेखायें दिखने लगें तो इसका तात्पर्य होता है कि रोग की जटिलता
बढ़ रही है। जैसे-जैसे काली रेखायें बढ़ती जाती है, रोग गम्भीर
होता चला जाता है।
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