प्राकृतिक चिकित्सा में विजातीय द्रव्य को ही सभी रोगों का मूल कारण माना गया है। जब हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य आवश्यकता से अधिक एकत्रित हो जाते हैं तो रोग का रूप धारण कर लेते हैं। अप्राकृतिक खान-पान व जीवनयापन के फलस्वरूप हमारे शरीरों में विजातीय द्रव्य का बढ़ जाना और उसका शरीर के मलमार्गों द्वारा साधारणतः न निकल पाना और शरीर में इकट्ठा होते रहना। यह विजातीय द्रव्य वास्तव में हमारे शरीर के दूषित पदार्थ, मल, मूत्र, पसीना, कफ, दूषित वायु, दूषित सांस, दूषित रक्त, दूषित मांस या इसी प्रकार की अन्य कोई वस्तु जो स्वस्थ खून और मांस के साथ मिलकर शरीर का भाग नहीं बन सकती। जो उसको पोषण नहीं दे सकती, उल्टे उसके विनाश का कारण बन सकती है, उसी को दोष या विजातीय द्रव्य कहते हैं। यह ठोस, तरल या वायु किसी भी रूप में हो सकता है।
शरीर में रोग का सूत्रपात शरीर में स्थित विजातीय द्रव्य से ही होता है। मल संचय या विजातीय द्रव्य जब मर्यादा बिंदु को पार कर जाता है तो रोग आ जाता है। शरीर शुद्धि के चार मार्ग या संस्थान हैं जो अपने ढंग से विजातीय पदार्थ बाहर निकालते हैं। श्वसन मार्ग दूषित वायु के रूप में, मूत्रमार्ग तरल मूत्र रूप में, त्वचा मार्ग तरल पसीने के रूप में तथा मल या गुदा मार्ग ठोस मल के रूप में। अर्थात त्वचा, वृक्क या गुर्दे, फेफड़े तथा आँतों से विजातीय पदार्थ शरीर से बाहर निकलता है। हम जानते हैं कि हमारा शरीर कोषाणुओं से निर्मित हैं। प्रत्येक कोष को जीवित रहने के लिए बाहर से भोजन की आवश्यकता होती है, उसे पचाना तथा उसका अवशोषण भी करना होता है। इन कार्यों से कुछ कचरा या मल जो विषैला होता है, वह भी पैदा होता है। अतः, उसको शरीर से बाहर निकालने की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त कोष को हवा की भी जरूरत होती है। ऑक्सीजन लेने की जरूरत होती है। ऑक्सीजन ग्रहण करने के बाद कार्बन डाई ऑक्साइड निकालने की भी आवश्यकता होती है। इसी प्रकार यह भी सत्य है कि कोष स्वयं जीवनलीला समाप्त करते रहते हैं। अतः विषैले तत्व को भी निकालना आवश्यक है। यदि सफाई करने वाले इन अंगों- फेफड़े, त्वचा, गुर्दे और आंतों पर अधिक भोजन या अपाच्य भोजन के द्वारा एवं अनुपयुक्त जीवन पद्धति के द्वारा दबाव डाला जाता है तो विजातीय पदार्थ शरीर में संचय होने लगता है और सामान्य कार्य में अवरोध उत्पन्न करने लगता है।
शरीर में विजातीय पदार्थों के संचय से रोगों का प्रारंभ होता है। पहले पहल यह संचय पेडू में एकत्र होता है। निष्कासन मार्ग के नजदीक जमा होना शुरू होकर विकार दूर तक बढ़ने लगता है, जैसे सिर तथा हाथ पैरों की ओर । कोई विशेष परिस्थिति पैदा न होने पर यह क्रिया बहुत धीरे-धीरे होती है। द्रव्य का झुकाव प्रायः शरीर के ऊपरी भाग की ओर जाने का रहता है। इस प्रयास में वह अपना मार्ग गर्दन के तंत्र भाग से बनाता है। पहले यह भाग बढ़ा हुआ लगता है और फिर सूजा सा लगता है। आगे चलकर वह पिंड के रूप में सूजन, अंग को बिल्कुल ढक लेते हैं और उन भागों का संकुचन होने लगता है। त्वचा का रंग भी बदलने लगता है। पेडू के भाग में भी परिवर्तन आता है। इस प्रकार शरीर की पूरी आकृति प्रभावित होती है। विजातीय पदार्थ शरीर में धीरे-धीरे संचित होता है, अतः शरीर में बदलाव भी धीरे-धीरे होता है। जिसके कारण रोग के प्रारंभ में यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित नहीं होता है। यद्यपि शरीर रोगग्रस्त हो जाता है लेकिन कष्ट के न होने से उसे रोग की अनुभूति नहीं होती है। जब वह अनुभव करने लगता है कि उसे भूख कम लगती है, थकान अधिक अनुभव होती है तथा मानसिक अशान्ति बनी रहती है तब वह महसूस करता है कि उसके शरीर में कोई असामान्यतया आ गयी है। यदि टट्टी पेशाब ठीक होती रहती है, फेफड़े ठीक काम करते रहते हैं, तब तक वह चिंता नहीं करता है। लेकिन जब ये अंग प्रभावित होते हैं, तब वह अपनी शारीरिक स्थिति के प्रति चिंतित हो जाता है।
शरीर में गैसों का बनना चार कारणों से होता है-
• तापक्रम में परिवर्तन
• मन की दशा में परिवर्तन
• मानसिक तनाव
• आदत में एकाएक परिवर्तन
विजातीय पदार्थ पहले पेडू के पास संचय होता है तथा धीरे-धीरे दूसरे अंगों के पास पहुँच जाता है, लेकिन जब फरमेन्टेशन होता है, तो पदार्थ ऊपर की ओर जैसा कि गैसों को ऊपर उठने का स्वभाव होता है, बढ़ता है। इसी कारण सबसे पहले रोग की अवस्था में शरीर के ऊपरी भाग में प्रभाव देखते हैं और सिरदर्द की शिकायत होती है। फरमेन्टेशन ऊष्णता लाता है। रक्त का तापक्रम बढ़ने लगता है, इस कारण बुखार आ जाता है। इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि ज्वर तभी आता है, जब शरीर में दोष संचित होता है तथा मल निष्कासन के तरीके अवरूद्ध हो जाते हैं, पेट साफ नहीं होता है, मूत्र कम निकलता है, त्वचा के रोमकूप बाधित होते हैं तो श्वसन तंत्र प्रभावित होता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि रोग का कारण शरीर में दोष संचय है। जब विजातीय पदार्थ शरीर तंत्र में संचित होते हैं तथा जब फरमेन्टेशन होता है, तो वह पूरे शरीर में फैल जाते हैं। फरमेन्टेशन से शरीर अस्वस्थ हो जाता है और यह विजातीय द्रव्य शरीर से मल निष्कासन यंत्रों द्वारा बाहर नहीं निकल पाता है। अब उस विजातीय द्रव्य को निकालने के लिए एक प्राकृतिक चिकित्सक या रोगी का एकमात्र यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह केवल प्रकृति के उस कल्याणकारी कार्य में सहूलियत पैदा करे तथा उसे मदद दे। अर्थात उपवास या युक्ताहार से जीवनीशक्ति बढ़ाना तथा जलोपचार, मिट्टी की पट्टी, सेंक, मालिश, एनिमा आदि प्राकृतिक चिकित्सा विधियों से शरीर के मल मार्गों को पूर्णतः खोलकर उनको क्रियाशील कर देना ताकि वे शरीर के मल या विजातीय द्रव्य का बहिष्करण करने में सफल हों।
इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर में विजातीय द्रव्य की स्थिति ही रोग या रोग के चिन्ह हैं तथा उसकी अनुपस्थिति ही स्वास्थ्य है। विजातीय द्रव्य का सिद्धान्त हमें यह बताता है कि हमें अपने शरीर में विजातीय द्रव्य को संचित नहीं होने देना है, उसको निकालते रहने का सदैव प्रयास करते रहना है और यह केवल प्राकृतिक जीवनयापन से ही संभव हो सकता है। क्योंकि प्राकृतिक जीवनशैली अपनाकर ही हम स्वस्थ हो सकते हैं। प्राकृतिक जीवनयापन से हमारे शरीर की जीवनीशक्ति बढ़ती है, यही जीवनीशक्ति हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कहलाती है तथा विजातीय द्रव्य को हमारे शरीर से निरंतर निकालने का प्रयास करती है, अतः हमें निरंतर जीवनीशक्ति बढ़ाने हेतु प्रकृति के अनुरूप जीवन जीना होगा, तभी हम विजातीय द्रव्य या रोगों से मुक्त रह सकेंगे।
शरीर में रोग का सूत्रपात शरीर में स्थित विजातीय द्रव्य से ही होता है। मल संचय या विजातीय द्रव्य जब मर्यादा बिंदु को पार कर जाता है तो रोग आ जाता है। शरीर शुद्धि के चार मार्ग या संस्थान हैं जो अपने ढंग से विजातीय पदार्थ बाहर निकालते हैं। श्वसन मार्ग दूषित वायु के रूप में, मूत्रमार्ग तरल मूत्र रूप में, त्वचा मार्ग तरल पसीने के रूप में तथा मल या गुदा मार्ग ठोस मल के रूप में। अर्थात त्वचा, वृक्क या गुर्दे, फेफड़े तथा आँतों से विजातीय पदार्थ शरीर से बाहर निकलता है। हम जानते हैं कि हमारा शरीर कोषाणुओं से निर्मित हैं। प्रत्येक कोष को जीवित रहने के लिए बाहर से भोजन की आवश्यकता होती है, उसे पचाना तथा उसका अवशोषण भी करना होता है। इन कार्यों से कुछ कचरा या मल जो विषैला होता है, वह भी पैदा होता है। अतः, उसको शरीर से बाहर निकालने की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त कोष को हवा की भी जरूरत होती है। ऑक्सीजन लेने की जरूरत होती है। ऑक्सीजन ग्रहण करने के बाद कार्बन डाई ऑक्साइड निकालने की भी आवश्यकता होती है। इसी प्रकार यह भी सत्य है कि कोष स्वयं जीवनलीला समाप्त करते रहते हैं। अतः विषैले तत्व को भी निकालना आवश्यक है। यदि सफाई करने वाले इन अंगों- फेफड़े, त्वचा, गुर्दे और आंतों पर अधिक भोजन या अपाच्य भोजन के द्वारा एवं अनुपयुक्त जीवन पद्धति के द्वारा दबाव डाला जाता है तो विजातीय पदार्थ शरीर में संचय होने लगता है और सामान्य कार्य में अवरोध उत्पन्न करने लगता है।
शरीर में विजातीय पदार्थों के संचय से रोगों का प्रारंभ होता है। पहले पहल यह संचय पेडू में एकत्र होता है। निष्कासन मार्ग के नजदीक जमा होना शुरू होकर विकार दूर तक बढ़ने लगता है, जैसे सिर तथा हाथ पैरों की ओर । कोई विशेष परिस्थिति पैदा न होने पर यह क्रिया बहुत धीरे-धीरे होती है। द्रव्य का झुकाव प्रायः शरीर के ऊपरी भाग की ओर जाने का रहता है। इस प्रयास में वह अपना मार्ग गर्दन के तंत्र भाग से बनाता है। पहले यह भाग बढ़ा हुआ लगता है और फिर सूजा सा लगता है। आगे चलकर वह पिंड के रूप में सूजन, अंग को बिल्कुल ढक लेते हैं और उन भागों का संकुचन होने लगता है। त्वचा का रंग भी बदलने लगता है। पेडू के भाग में भी परिवर्तन आता है। इस प्रकार शरीर की पूरी आकृति प्रभावित होती है। विजातीय पदार्थ शरीर में धीरे-धीरे संचित होता है, अतः शरीर में बदलाव भी धीरे-धीरे होता है। जिसके कारण रोग के प्रारंभ में यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित नहीं होता है। यद्यपि शरीर रोगग्रस्त हो जाता है लेकिन कष्ट के न होने से उसे रोग की अनुभूति नहीं होती है। जब वह अनुभव करने लगता है कि उसे भूख कम लगती है, थकान अधिक अनुभव होती है तथा मानसिक अशान्ति बनी रहती है तब वह महसूस करता है कि उसके शरीर में कोई असामान्यतया आ गयी है। यदि टट्टी पेशाब ठीक होती रहती है, फेफड़े ठीक काम करते रहते हैं, तब तक वह चिंता नहीं करता है। लेकिन जब ये अंग प्रभावित होते हैं, तब वह अपनी शारीरिक स्थिति के प्रति चिंतित हो जाता है।
शरीर में गैसों का बनना चार कारणों से होता है-
• तापक्रम में परिवर्तन
• मन की दशा में परिवर्तन
• मानसिक तनाव
• आदत में एकाएक परिवर्तन
विजातीय पदार्थ पहले पेडू के पास संचय होता है तथा धीरे-धीरे दूसरे अंगों के पास पहुँच जाता है, लेकिन जब फरमेन्टेशन होता है, तो पदार्थ ऊपर की ओर जैसा कि गैसों को ऊपर उठने का स्वभाव होता है, बढ़ता है। इसी कारण सबसे पहले रोग की अवस्था में शरीर के ऊपरी भाग में प्रभाव देखते हैं और सिरदर्द की शिकायत होती है। फरमेन्टेशन ऊष्णता लाता है। रक्त का तापक्रम बढ़ने लगता है, इस कारण बुखार आ जाता है। इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि ज्वर तभी आता है, जब शरीर में दोष संचित होता है तथा मल निष्कासन के तरीके अवरूद्ध हो जाते हैं, पेट साफ नहीं होता है, मूत्र कम निकलता है, त्वचा के रोमकूप बाधित होते हैं तो श्वसन तंत्र प्रभावित होता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि रोग का कारण शरीर में दोष संचय है। जब विजातीय पदार्थ शरीर तंत्र में संचित होते हैं तथा जब फरमेन्टेशन होता है, तो वह पूरे शरीर में फैल जाते हैं। फरमेन्टेशन से शरीर अस्वस्थ हो जाता है और यह विजातीय द्रव्य शरीर से मल निष्कासन यंत्रों द्वारा बाहर नहीं निकल पाता है। अब उस विजातीय द्रव्य को निकालने के लिए एक प्राकृतिक चिकित्सक या रोगी का एकमात्र यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह केवल प्रकृति के उस कल्याणकारी कार्य में सहूलियत पैदा करे तथा उसे मदद दे। अर्थात उपवास या युक्ताहार से जीवनीशक्ति बढ़ाना तथा जलोपचार, मिट्टी की पट्टी, सेंक, मालिश, एनिमा आदि प्राकृतिक चिकित्सा विधियों से शरीर के मल मार्गों को पूर्णतः खोलकर उनको क्रियाशील कर देना ताकि वे शरीर के मल या विजातीय द्रव्य का बहिष्करण करने में सफल हों।
इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर में विजातीय द्रव्य की स्थिति ही रोग या रोग के चिन्ह हैं तथा उसकी अनुपस्थिति ही स्वास्थ्य है। विजातीय द्रव्य का सिद्धान्त हमें यह बताता है कि हमें अपने शरीर में विजातीय द्रव्य को संचित नहीं होने देना है, उसको निकालते रहने का सदैव प्रयास करते रहना है और यह केवल प्राकृतिक जीवनयापन से ही संभव हो सकता है। क्योंकि प्राकृतिक जीवनशैली अपनाकर ही हम स्वस्थ हो सकते हैं। प्राकृतिक जीवनयापन से हमारे शरीर की जीवनीशक्ति बढ़ती है, यही जीवनीशक्ति हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कहलाती है तथा विजातीय द्रव्य को हमारे शरीर से निरंतर निकालने का प्रयास करती है, अतः हमें निरंतर जीवनीशक्ति बढ़ाने हेतु प्रकृति के अनुरूप जीवन जीना होगा, तभी हम विजातीय द्रव्य या रोगों से मुक्त रह सकेंगे।
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