विजातीय द्रव्य जैसा कि नाम से ही पता चलता है, जो शरीर के जाति का नहीं है। शरीर के वे विकार या वस्तु जो स्वस्थ खून और मांस के साथ मिलकर स्वस्थ शरीर का भाग नहीं बन सकती, जो शरीर को पोषण नहीं दे सकती, उल्टे उसके विनाश या नुकसान का कारण बन सकती है, उसी को दोष या विजातीय द्रव्य कहते हैं। विजातीय द्रव्य के कई नाम हैं, जैसे- रोग, मल, विकार, विष, क्लेद, संचित दुर्द्रव्य, विसद्श द्रव्य (Foreign matter) बादीपन, दूषित पदार्थ (morbid matter) जहर, विकृति आदि। आयुर्वेद में विजातीय द्रव्य को दोष कहते हैं और इस दोष को ही रोग का कारण माना गया है।
वाग्भट्ट के अनुसार-
दोष एवहि सर्वेषां रोगाणामेककारणम्। - वाग्भट्ट
अर्थात सब रोगों का एकमेव कारण दोष (विजातीय द्रव्य) है।
चरक ने भी कहा है-
सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः।
तत्प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधाहितसेवनम्।। - चरक
अर्थात सभी रोगों का कारण कुपित (Fermented) सड़ा हुआ मल या विजातीय द्रव्य (foreign matter) ही है और उसके प्रकोप का कारण विविध अहित आहार-विहार का सेवन है।
शरीर के भीतर जो बेकार चीज होती है, जैसे- मल, मूत्र, पसीना, कफ, दूषित सांस, दूषित रक्त, दूषित मांस, पीप आदि जो शरीर को विषाक्त व दूषित करते हैं, शरीर का विनाश करते हैं, शरीर के लिए अनुपयोगी है, उसे ही दोष, विकार, मल या विजातीय द्रव्य के नाम से जाना जाता है।
विजातीय द्रव्य क्या है, इसके बारे में लूई कूने ने कहा है कि ‘‘ विजातीय द्रव्य बिल्कुल बेकार चीज है और शरीर को उसकी आवश्यकता नहीं है। तंदुरूस्त मनुष्य पर विजातीय द्रव्य का प्रभाव नहीं पड़ता। यदि ऐसा होता तो उसमें भी उस पहलू में विजातीय द्रव्य जमा होता, जिस पहलू के बल वह सोता है। खुशी की बात तो यह है कि शरीर अपने आप ही विजातीय द्रव्य को फोड़ा-फुंसी, पसीना आदि के द्वारा बाहर निकालता रहता है। जब विजातीय द्रव्य इस प्रकार काफी निकल जाता है, तब शरीर को बड़ी शांति मिलती है। यदि विजातीय द्रव्य शरीर में जमा होते रहें तो शरीर में रोग उत्पन्न होने लगता है। विजातीय द्रव्य द्रव होता है। उसमें सड़न पैदा होती है और अधिक सड़न से उसका तापमान बढ़ेगा। विजातीय द्रव्य के कण एक दूसरे से और शरीर से रगड़ खाते हैं, इसलिए तापमान बढ़ता है, इसी को हम ज्वर कहते हैं। अर्थात् (1) जब साफ पाखाना नहीं होता, (2) जब पेशाब खुलकर नहीं होता, (3) जब पसीना नहीं आता, तब ज्वर होता है।
जिस अंग पर विजातीय द्रव्य का प्रभाव अधिक पड़ता है, उसी नाम से उस रोग का नामकरण होता है, जैसे- उदर रोग, फेफड़े का रोग, हृदय का रोग आदि। जहाँ यह उबलता हुआ विजातीय द्रव्य अपना स्थान बना लेता है, उसी स्थान में वह रोग उत्पन्न कर देता है और डाक्टर लोग उसका एक नाम रख देते हैं। विजातीय द्रव्य में सड़न से कीटाणुओं की उत्पत्ति होती है। यदि प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा सड़न को रोक दिया जाए व विजातीय द्रव्य को बाहर निकाल दिया जाए तो रोग व कीटाणु दूर हो जाते हैं और व्यक्ति स्वस्थ होकर तंदुरूस्त हो जाता है।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार, रोगों का मुख्य कारण शारीरिक मल जिसे विजातीय द्रव्य कहा जाता है, माना गया है। जब हम प्रकृति के नियमों का विरूद्धाचरण करके आहार-विहार दूषित बना लेते हैं और जिहृा तथा भोगेन्द्रियों की तृप्ति के लिए आवश्यकता से अधिक भोग्य पदार्थों का प्रयोग करने लगते हैं तो हमारे शारीरिक अंगों पर अधिक भार पड़ता है जिनमें आमाशय प्रमुख हैं। जब आमाशय का कार्यभार बढ़ जाता है तो वह खाये हुए भोजन का रस पूर्ण रूप से निकाल नहीं पाता और अर्द्धमुक्त आहार ही हमारे मलाशय में पहुँच जाता है और वहाँ शीघ्र ही सड़ने लगता है और उसमें से गंदगी मिश्रित रस निकलकर रक्त में मिल जाता है। यह दूषित रक्त ही रोगों का मूल कारण है क्योंकि वह रक्तवाहिनी नसों द्वारा समस्त शरीर में संचरण करता रहता है और अपनी उस गंदगी को जगह-जगह अस्वास्थ्यकर अवस्था उत्पन्न करता है। इसके अतिरिक्त जीवकोष (सेल) हमेशा टूटते-फूटते रहते हैं। अगर वे ठीक समय से शरीर के बाहर न निकाल दिये जायें तो वे भी मल की तरह विकार उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार शरीर के विभिन्न अंग यकृत, गुर्दा, आमाशय, फेफड़ा आदि जो कार्य करते रहते हैं, उनकी कार्यप्रणाली से भी कार्बोनिक एसिड, यूरिक एसिड, फास्फोरिक एसिड आदि कई विषाक्त द्रव्य उत्पन्न होते हैं। इनको भी बाहर निकालना आवश्यक होता है। चौथे नंबर पर शरीर के दोषयुक्त अंग, खराब टांसिल, कमजोर दांत, प्रदाहयुक्त श्वांसनली से भी विष उत्पन्न होते हैं। शरीर पूर्ण स्वस्थ न हो तो शरीर के भीतर रहने वाले विभिन्न प्रकार के कीटाणु भी विष के परिमाण को बढ़ाते हैं। यह समस्त विष या मल शरीर के लिए विजातीय ही है और हमारे स्वास्थ्य का आधार इसी पर है कि यह शीघ्र से शीघ्र मलद्वार, मूत्रनली, फेफड़े, चर्म आदि के द्वारा निकलता चला जाय। यदि ये मल मार्ग साफ व खुले रहते हैं तो आसानी से मल को निकालते रहते हैं तो किसी रोग की संभावना नहीं रहती है पर यदि किसी कारणवश इनमें कुछ खराबी आ जाती है तो ये अपना कार्य ठीक ढंग से नहीं कर सकते तो शरीर के भीतर विजातीय द्रव्य की वृद्धि होने लगती है और जब वह एक नियत सीमा को पार कर जाती है तो रोग प्रकट होने लगते हैं।
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