प्राकृतिक चिकित्सा की दृष्टि से प्रथम सिद्धान्त यह है कि सभी रोग, उनके कारण एवं उनकी चिकित्सा भी एक ही है। शरीर में विजातीय द्रव्यों के संग्रह एवं उनकी वृद्धि से रोग उत्पन्न होते है। अतः शरीर से उनका निष्कासन-शोधन करना ही चिकित्सा का प्रथमोपचार है।
प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत ’’इम्यूनिटी पावर” बढ़ाने की आहार दिनचर्या प्राणायामादि के द्वारा वैज्ञानिक प्रक्रिया है। जिससे रोगाणु-जीवाणु का प्रथम दृष्ट्या ’’रोग प्रतिरोधक क्षमता” बढ़े होने के कारण नाश होता है। मनुष्य का शरीर पंचतत्वों के द्वारा बना हुआ है। इन्ही पंचतत्वों का विजातीय द्रव्यों के कारण असंतुलन होने पर रोग उत्पन्न होते है। अतः इन्हीं पंचतत्वों के माध्यम से शरीर की मिट्टी-पानी-धूप-हवा एवं आकाश (उपवास) द्वारा चिकित्सा की जाती है। जिससे शरीर के अन्तर्गत जमे हुये, बढ़े हुये विजातीय द्रव्यों का शोधन कर शरीर एवं मन को रोग मुक्त किया जाता है।
पृथ्वी तत्व की मिट्टी चिकित्सा एवं विजातीय द्रव्य
मिट्टी शरीर के विजातीय द्रव्यों को घोलकर अवशोषित कर शरीर के बाहर निकाल देती है। मिट्टी एवं पंक स्नान के द्वारा उच्च रक्तचाप, तनाव जन्य सिर दर्द, चर्म रोग एवं विशेषकर नाभिचक्र के मध्य मिट्टी पट्टी से कब्ज रोग ठीक किया जाता है। जो आयुर्वेद शास्त्र की दृष्टि से रोगों का प्रमुख कारण माना गया है। ’’रोगाः सर्वेदपि मन्दग्नौ” अर्थात् सभी रोगो का वैद्यक शास्त्र ने मन्दाग्नि (कब्ज) कारण माना है जिसे मिट्टी पट्टी एवं आहार (पथ्य) द्वारा ठीक किया जाता है।
जल चिकित्सा एवं विजातीय द्रव्य
जल चिकित्सा के अन्तर्गत स्नानादि के द्वारा शरीर के त्वचा स्थिति सभी रोम कूप खुल जाते है एवं शरीर का सबसे बड़ा आवरणमय मार्ग से पसीना आदि के द्वारा विजातीय द्रव्य बाहर निकलते है एवं आरोग्य प्राप्त होता है। विजातीय द्रव्यों को जल चिकित्सा द्वारा निष्कासन हेतु एनिमा, गरम-ठंडा सेंक, कटिस्नान, रीढ़ स्नान, गरम एवं ठंडी पट्टियां, छाती तथा पैरों की लपेट आदि विधियां के द्वारा विभिन्न प्रकार के रोगों का उपचार किया जाता है। प्राकृतिक स्नान के द्वारा शरीर में हल्कापन, स्फूर्ति, मांसपेशियों में सक्रियता, रक्त संचार, व्यवस्थित व संयमित होता है जिससे शरीर रोग मुक्त होता है।
अग्नि तत्व द्वारा -सूर्य किरण चिकित्सा एवं विजातीय द्रव्य
सूर्य किरणों से विभिन्न सात रंगो की पृथक-पृथक बोतलों में पानी या तेल निश्चित अवधि में सूर्य किरणों के समक्ष रखकर तैयार किया जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा का यह वैज्ञानिक तथ्य है कि सप्त रंगों में बैगनी, नीला, आसमानी एवं हरा रंग शीतल प्रकृति के होते है जिनका गर्मी जन्य रोगों में चिकित्सार्थ प्रयोग करते है। उसी प्रकार शेष तीन रंग लाल-पीला, नारंगी ’उष्ण’ प्रकृति के होते है। अतः इन रंगो से तैयार तेल-पानी की बोतलों का शीत जन्य रोगों में उपचारार्थ प्रयोग करते है। उक्त सात रंगो द्वारा रोगानुसार विजातीय द्रव्यों की चिकित्सा की जाती है।
सूर्य किरण चिकित्सा में- सूर्य से हमें चार प्रकार की किरणें प्राप्त होती हैं
1. दृश्यमान श्वेत किरणें (Visible Rays) : श्वेत किरणें सप्त रंगो से मिलकर बनती है जिसका उपयोग हम रंग चिकित्सा एवं धूप स्नान से करते है। जिनका अलग-अलग प्रयोग शरीर से यथानुरूप विजातीय पदार्थों को निकालता है।
2. अधोरक्त किरणें (Infra Red Rays) : यह किरणे ताप प्रदान करती है जो सुखकर लगती है। ये स्नायुओं को शिथिल व शांत कर वेदना को कम करती है। क्योकि वेदना व थकावट कारक विजातीय द्रव्य- नाइट्रोजन जनित तत्व, लैक्टिक एसिड वहां से दूर होने लगता है।
3. दूरस्थ किरणें (Far Infrared) : यह किरणें अदृश्य श्रेणी में आती है पर उष्म होती है जो शरीर में अस्थि स्तर तक पहुंचकर विटामिन डी के निर्माण में सहायक होती है तथा कैल्शियम व फास्फोरस का अस्थि में उपयोग बढ़ाने में सहायक होती है साथ-साथ तत्तसंबंधी निर्मित विजातीय तत्वों का निष्कासन भी बढ़ा देती है। ये सबसे सुरक्षित किरणें होती है।
4. पराबैंगनी किरणें (Ultra Violet) : ये भी किरणें विटामिन डी के निर्माण में भाग लेती हैं। रिकेट्स जैसे रोग को होने नहीं देती है। इनकी प्राप्ति प्रातः काल के सूर्य से ही अच्छी सम्भव होती है।
उपरोक्त के अतिरिक्त सूर्य प्रकाश में क्रीडा, व्यायाम, कार्य करने से स्नायुओं की पुष्टि होती है जो उनके आकार एवं बल में वृद्धि करता है। कैल्शियम की वृद्धि व उसका पाचन बढ़ जाता है। सूर्य प्रकाश अम्ल जनित विजातीय तत्वों को बाहर कर क्षारत्व में वृद्धि करता है जिससे रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ जाती है।
सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ.आर.टी. ट्राल के अनुसार- खानों में कार्य करने वाला या अंधकार में कार्यरत व्यक्तियों में सामान्य रोग भी उग्र स्वरूप धारण कर लेते है। सूर्य प्रकाश की कमी होने पर रक्त में फाइब्रिन और लाल रक्त कण कम, श्वेत कण व रक्त में पानी बढ़ जाता है जो रोग को और उग्रता प्रदान कर देता है।
डॉ. शेल्टन लिखते है ’’पृथ्वी के जिन हिस्सों में बारह महीने सूर्य प्रकाश उपलब्ध रहता है, वहां कैंसर की मात्रा कम पायी जाती है इसके विपरीत होने पर कैंसर, क्षय रोग, रिकेट्स, न्यूमोनिया, शिशु मृत्यु दर और संक्रमण तेजी से होता है।
4. वायु चिकित्सा एवं विजातीय द्रव्य : पंच प्राण जिन्हे प्राण-उदान-व्यान-समान एवं अपान कहते है। इनकी प्राकृत स्थिति हेतु वायु चिकित्सा का विशेष महत्व है। वायु चिकित्सा का प्राकृतिक चिकित्सा की दृष्टि से ’’विजातीय द्रव्यों’’ के निष्कासन हेतु 2 प्रकार से चिकित्सा की जाती है।
वायु स्नान द्वारा विजातीय द्रव्यों का निष्कासन
हल्के कपड़े पहनकर या मौसम के अनुसार कपड़े उतारकर स्वच्छ एकान्त स्थल पर जहां पेड़ पौधे हो। शुद्ध वायु पर्याप्त मात्रा में हो घूमना चाहिए।
प्राणायाम द्वारा :
अष्टांग योग में प्राणायाम का दीर्घ जीवन एवं आरोग्य प्राप्ति में बिना धन का इलाज इसे माना है। नियमित प्राणायाम द्वारा श्वास-प्रश्वास दीर्घ होता है। फुफ्फुसों में आक्सीजन अर्थात् प्राणतत्व की वृद्धि होती है। जिससे रक्त द्वारा कोशिकाओं में प्राण तत्व (O2) बढ़ाकर उन्हे स्वस्थ रखने में सहायता मिलती है। इससे कोशिकाओं का क्षरण/निक्रोसिस रोका जाता है। पर्याप्त रक्त संचार द्वारा प्राण तत्व की उपस्थिति में बीमार कोशिकाओं का पोषण होकर शरीर स्वास्थ होता है।
आकाश चिकित्सा एवं विजातीय द्रव्य
मस्तिष्क एवं शरीर के विजातीय द्रव्यों को निष्कासित करने हेतु ’’उपवास चिकित्सा” का प्राकृतिक चिकित्सा में आकाश महाभूत के अन्तर्गत समावेश किया गया है। पूर्ण रूप से शारीरिक एवं मानसिक विश्राम की प्रक्रिया के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के उपवास यथा:- प्रातः कालिक उपवास, सांयकालिक उपवास, एक आहारोपवास, रसोपवास, फलोपवास, दुग्धोपवास, मठोपवास, पूर्णोपवास, साप्ताहिक उपवास, लघु उपवास, कड़ा उपवास (असाध्य रोगों में) एवं दीर्घोपवास सहित पूर्णोपवास की वैज्ञानिक अनुसंधानित प्रक्रिया चिकित्सार्थ विजातीय द्रव्यों के निष्कासन हेतु अपनायी जाती है। उपवास चिकित्सा का विजातीय द्रव्यों के निष्कासन हेतु सिद्धान्त यह है कि उपवास प्रक्रिया में शरीर की जठराग्नि (पाचकाग्नि) अर्थात् पाचन प्रणाली विश्राम में रहती है। अतः भोजन को पचाने वाली जठराग्नि की ऊर्जा पूर्ण रूप से विजातीय द्रव्यों को निकालने में लग जाती है। जिससे शरीर सम्यक् पोषण हेतु तैयार होता है। विजातीय द्रव्यों का उपवास द्वारा निर्हरण होने से शीघ्र शरीर रोग मुक्त होकर एसिडिटी (अम्लपित्त) पाचन संस्थान जन्य रोग, मोटापा, श्वास, दमा रोग, उच्च रक्त चाप, गठिया आदि वात रोग तथा जीवन शैली जन्य रोगो से मुक्ति मिलने लगती है।
विजातीय द्रव्य एवं अन्य प्राकृतिक चिकित्सा
मालिश :
स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की सुरक्षा एवं बीमार व्यक्ति के रोग निवारण हेतु प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत वैज्ञानिक मालिश की विधि वर्णित है। मालिश की विधि के द्वारा रक्त संचार उन्नत होने से विजातीय द्रव्यों का नाश होता है। मालिश से अंग-प्रत्यंगो का परिपोषण होकर शरीर पुष्ट होता है। तैल मालिश के पश्चात धूप स्नान करने से शरीर क्रियाशील होकर विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालने में मदद करता है। मालिश से स्नान एवं व्यायाम दोनो प्रकार के लाभ प्राप्त होते है। शरीर के विभिन्न तंत्रो या अवयवों पर मालिश स्वास्थ्यप्रद प्रभाव डालती है जैसे- 1. त्वचा- रोमछिद्रो की सक्रियता में वृद्धि। 2. स्नायु- लैक्टिक एसिड का शीघ्र निष्कासन होकर स्फूर्ति की प्राप्ति। 3. रक्त संचार- रक्त का संचार नियमित होकर रक्त में उपस्थित विषैले तत्वों का निष्कासन होता है। 4. ज्ञानतंत्र- ज्ञानतंतुओं की उत्तेजना शान्त होती है। 5. पाचन तंत्र- मल निष्कासन बढ़, रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। 6. हृदय- हृदय से रक्ताधिक्य कम होती है। 7. मूत्र तंत्र- मूत्र से विष द्रव्य तीव्रता से निकलते है।
आहार चिकित्सा
प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत दो प्रकार के आहारों का चिकित्सा की पृष्टि से वर्णन है। 1. क्षारीय आहार 2. अम्लीय आहार - प्राकृतिक चिकित्सा का यह मानना है कि संतुलित भोजन के अन्तर्गत 20 प्रतिशत अम्लीय एवं 80 प्रतिशत क्षारीय भोजन का आहार में सेवन करना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र एवं गीता के अनुसार आहार तीन प्रकार का सात्विक, राजसिक एवं तामसिक श्रेणी का होता है। शोधन की दृष्टि से शुद्धिकरण आहार शांतकारक आहार 3. पुष्टिकारक आहार के रूप में 3 भागों में विभक्त कर सकते है।
आयुर्वेद शास्त्र कहता है:-
विनापि भैषजैव्र्याधि पथ्यादेव विर्वतते ।
नतुंपथ्य विहीनस्य भेषजानां शतैरपि ।।
अर्थात् बिना किसी औषधि के सभी रोग पथ्य पूर्वक आहार-विहार, सोच-विचार से ठीक हो जाते है। यदि इन्हीं का अपथ्य रखा जाये तो किसी भी औषधि से ये ठीक नहीं किये जा सकते है।
(क) शुद्धिकारक आहार : कच्चा नारियल का पानी, सब्जियों का सूप (टमाटर-लौकी) गेहूँ के जवारे का ताजा रस, एलोवेरा एवं आंवले का जूस, नीबू सहित खट्टे अन्य फल शुद्धिकारक आहार की श्रेणी में आते है।
(ख) शांतकारक आहार : अंकुरित अन्न, मौसम के अनुसार प्राप्त फल, सलाद (टमाटर, पत्ता गोभी, मूली, गाजार, खीरा, चुकन्दर, ककड़ी) उबली हुई भाप में बनायी सब्जियां तथा अंकुरित अन्न (मूंग-मोठ-मैथी) धनिया एवं पुदीने की चटनी, कढ़ी पत्ता आदि शांतकारक आहार की श्रेणी में आते है।
(ग) पुष्टिकारक आहार : दही, दालें, सभी प्रकार के अन्न का आटा, दलिया आदि पुष्टिकारक आहार की श्रेणी में आते है। संक्षेप में आहार चिकित्सा का सार यह है कि क्षारीय आहार स्वास्थ्य का संवर्धन करने के साथ-साथ विजातीय द्रव्यों का निष्कासन कर पाचन संस्थान सहित शरीर का शुद्धिकरण करते हुये रोग मुक्त शरीर का निर्माण करते है। प्राकृतिक चिकित्सा के 10 सिद्धान्तों के साथ-साथ चूंकि इस पद्धति में औषधियों का प्रयोग नहीं होने से इसे आयुर्वेद से पृथक माना है। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार “आहार ही औषधि” है ऐसा माना जाता है।
उपरोक्त बिन्दुओं से स्पष्ट है कि प्रकृति के अनुसार आहार, विहार एवं विचार ही रोग निवारण करते है, दवायें या चिकित्सक नहीं।
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