विजातीय द्रव्य बढ़ने के कुछ कारण निम्नलिखित हैं-
भोजन संबंधी गलत आदतें
आज मनुष्य का आहार विकृत हो गया है। स्वाद के वशीभूत होकर व्यक्ति आवश्यकता से अधिक भोजन करते हैं और बहुत ही चटपटा, मिर्च-मसालायुक्त, तैलीय आहार ग्रहण करते हैं। अम्लीय भोजन अधिक करते हैं। भोजन में क्षार की मात्रा कम रहती है। आहार ऐसा होने चाहिए कि उसमें क्षार की मात्रा 80 प्रतिशत तथा अम्ल की मात्रा 20 प्रतिशत हो क्योंकि हमारे शरीर में खून की बनावट इसी प्रकार की है। प्राकृतिक कच्चा आहार क्षारीय कहलाता है, जबकि अग्नि के संपर्क में बना खाद्य पदार्थ अम्लीय हो जाता है। जब यह अनुपात असंतुलित होने लगता है अर्थात जब शरीर के रक्त में क्षारत्व और अम्लत्व के इस 4 और 1 के अनुपात में कमी या अधिकता हो जाती है अथवा जब रूधिर में क्षारधर्मी खाद्य पदार्थों के कम उपयोग के कारण क्षारत्व की कमी और अम्लत्व की बढ़ती हो जाती है तो प्रकृति रक्त और शरीर के अन्य तंतुओं में से क्षारत्व को खींचकर शरीर के पोषण के काम में उसे लगाने के लिए बाध्य होती है, नतीजा यह होता है कि शरीर का रक्त और अन्य तंतु जिनसे क्षारत्व खींच लिया जाता है- निःसत्व, निर्बल और रोगी हो जाते हैं।
स्नायु और मज्जा की रचना के लिए रक्त में अम्लत्व की बहुत थोड़ी मात्रा होनी चाहिए। इससे अधिक अम्लत्व का रूधिर में होना तो उसका विषाक्त बनना और अत्यंत भयावह है। एक प्रसिद्ध चिकित्सक का कथन है कि प्राकृतिक कारणों से होने वाली जो मौतें बतायी जाती हैं, वे सभी शरीर में अम्लता की अधिकता से ही होती है। इसके विपरीत रूधिर में क्षारत्व वह वस्तु होती है, जो छीजे हुए तंतुओं की मरम्मत करती है, बीजकोषों को नवजीवन प्रदान करती है तथा हमें रोगों से लड़ने की शक्ति देती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि शरीर में क्षारत्व के बिना हम एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते। इसका कारण यह है कि रक्त में क्षारत्व की कमी या अभाव हो जाने से उसमें स्थित श्वेतकणों (White blood cells) जो हमारे स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है की शक्ति क्षीण हो जाती है तथा शरीर यंत्र को सुचारू रूप से परिचालित करने वाली सारी व्यवस्था ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। मधुमेह, नेत्र रोग, सभी प्रकार के ज्वर, वातव्याधियाँ, पेट के रोग तथा हर प्रकार की पाचन संबंधी खराबियाँ आदि सभी रोग केवल रक्त में क्षार की कमी हो जाने से ही उत्पन्न होती है। कुछ चोटी के डाक्टरों के मत से मृत्यु की परिभाषा है- अम्ल विष के शरीर द्वारा सोखे जाने का अंतिम परिणाम और क्षारत्व का शरीर में अभाव।
क्षारधर्मी खाद्य पदार्थों में सभी ताजे, पके और खट्टे फल, विशेषकर नींबू जाति के, धारोष्ण दूध, ताजा मट्ठा, हरे साग, हरी सब्जियाँ छिलके सहित, मूली, प्याज, शहद, गुड़, मक्खन, किशमिश, कच्ची गरी, मीठा दही, गन्ना, गाजर, हरा चना, अंकुरित अन्न, सलाद आदि आते हैं। जबकि अम्लधर्मी खाद्य पदार्थों में मांस, मछली, अंडा, पनीर, रोटी, दालें, सूखा मेवा, सफेद चीनी, मिश्री, मिठाइयाँ, चाय, कॉफी, नशे की सभी चीजें, मुरब्बे, अचार, चटनी, खटाई, सिरका, तली-भूनी चीजें, उबला हुआ दूध, खीर, चटपटे, डब्बों में बंद भोजन, नमक, तेल तथा अग्नि के संपर्क में आयी अन्य वस्तुएँ।
शरीर में जाकर भोजन क्षार अथवा अम्लजातीय पदार्थ में बदल जाता है। भोजन पहले ऑक्सीजन की अग्नि से पकता है और फिर जलकर राख में बदल जाता है। उस राख में जो खनिज लवण विद्यमान होते हैं, वे ही शरीर के भीतर गलकर अम्लत्व अथवा क्षारत्व की वृद्धि करते हैं। कई प्रकार के खनिज लवण खाद्य पदार्थों में पाये जाते हैं। उनमें से कुछ जैसे सोडियम, पोटाशियम, कैल्शियम तथा लोहा आदि शरीर में क्षारत्व उत्पन्न करते हैं और आयोडिन, क्लोरीन, सल्फर तथा फास्फोरस आदि शरीर में अम्लत्व उत्पन्न करते हैं।
डॉ. राकेश जिन्दल ने क्षारधर्मी तत्वों के महत्व पर विशेष बल देते हुए प्राकृतिक आयुर्विज्ञान में लिखते हैं कि हमारा आहार ऐसा होना चाहिए जिसमें क्षारधर्मी और अम्लधर्मी खाद्यों के क्रमशः 4 और 1 के अनुपात हों, तभी हम स्वस्थ रह सकते हैं। इसके अनुपात में कमी या वृद्धि होने से हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य की मात्रा में वृद्धि होने लगती है और यही रोग का कारण हो सकता है।
पंचतत्वों का कम से कम या अधिक उपयोग
हमारा शरीर पंचतत्वों अर्थात मिट्टी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश से मिलकर बना है। इनमें से किसी भी तत्व की कमी या अधिकता से हमारा शरीर विकारग्रस्त हो सकता है।
रोगी होना और निरोग रहना, यह पंचतत्वों की स्थिति पर निर्भर करता है। आहार-विहार की असावधानी के कारण तत्वों का नियत परिणाम घट-बढ़ जाता है। फलस्वरूप बीमारी खड़ी हो जाती है। वायु की मात्रा में अंतर आ जाने से गठिया, लकवा, दर्द, कंपन, अकड़न, गुल्म, हड़फूटन, नाड़ी विक्षेप आदि रोग उत्पन्न होते हैं। अग्नि तत्व के विकार से फोड़े, फुन्सी, रक्तपित्त, हैजा, दस्त, क्षय, श्वांस, उपदंश, आदि बढ़ते हैं। जल तत्व के गड़बड़ी से जलोदर, पेचिश, संग्रहणी, बहुमूत्र, प्रमेह, स्वप्नदोष, सोम, प्रदर, जुकाम, खांसी जैसे रोग पैदा होते हैं। पृथ्वी तत्व बढ़ जाने से फीलपाँव, तिल्ली, जिगर, रसौली, मेदवृद्धि, मोटापा आदि रोग होते हैं। आकाश तत्व के विकार से मूर्छा, मिर्गी, उन्माद, पागलपन, सनक, अनिद्रा, वहम, घबराहट, दुःस्वप्न, गूंगापन, बहरापन, विस्मृति आदि रोगों का आक्रमण होता है।
अग्नि की मात्रा कम हो जाय तो शीत, जुकाम, नपुंसकता, गठिया, मंदाग्नि, शिथिलता, सिकुड़न, सर्दी की सूजन, वायुजनित पीड़ाएँ, पक्षाघात, बुढ़ापे की कमजोरी, निद्रा की अधिकता, कोष्ठबद्धता तथा ठंड आदि रोग उत्पन्न होने लगते हैं और यदि अग्नि की मात्रा बढ़ जाये तो चेचक, ज्वर, फोड़े, फुंसी, भूख, प्यास, जलन, क्रोध, तनाव, सिरदर्द, उच्च रक्तचाप आदि पित्तजनित रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
इसी प्रकार अन्य तत्वों की कमी हो जाना, बढ़ जाना अथवा विकृत हो जाना रोगों का हेतु बन जाता है। शरीर पंच तत्वों का बना है। यदि सब तत्व अपनी नियत मात्रा में यथोचित रूप से रहे तो रोगों का कोई कारण नहीं रहता। जैसे ही इनकी उचित स्थिति में अंतर आता है, वैसे ही रोगों का उद्भव होने लगता है। दो, तीन या चार-पाँच तत्वों के मिश्रित विकारों से विकारों की मात्रा के अनुसार अनेकानेक रोग उत्पन्न होते हैं। ये सभी रोग या विकार पहले विजातीय द्रव्य के रूप में हमारे शरीर में उत्पन्न होते हैं, फिर रोग के रूप में प्रकट होते हैं।
आलस्य की अधिकता
आलस्य की अधिकता से हम अपने शरीर का उचित ध्यान नहीं रखते। मैले, गंदे रहते हैं, शरीर की क्रियाशीलता भी कम हो जाती है, स्वच्छता का ध्यान नहीं रख पाते हैं। आसन व्यायाम जो हमें करना चाहिए, वो भी नहीं कर पाते, फलस्वरूप हमारे शरीर में विकार उत्पन्न होने लगते हैं फिर रोग के रूप में प्रकट होते हैं।
अनियमित भोग विलास
अनियमित भोग विलास से मनुष्य कमजोर और अस्वस्थ हो जाता है। उसकी जीवनीशक्ति क्षीण हो जाती है, शरीर अंदर से खोखला होने लगता है। पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है, आँख, गाल धंस जाते हैं। नाना प्रकार के रोग शरीर में उत्पन्न होने लगता है। सिर के बाल एवं पकने लगते हैं, असमय में ही बुढ़ापा आने लगता है। आज की पीढ़ी के नवयुवकों में यह अधिकता देखा जाता है। विभिन्न रोगों की उत्पत्ति के पूर्व हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य संचित रहता है, फिर रोग के रूप में प्रकट होता है।
जीवनीशक्ति की कमी
शरीर में जितनी अधिक जीवनीशक्ति होती है, उसके अंदर रोगों से लड़ने की उतनी ही अधिक सामर्थ्य होती है। यह सर्वविदित है कि साधारणतः दुर्बल अंगों और दुर्बल व्यक्तियों में ही रोग पैदा होते हैं और पनपते हैं। शक्तिहीन शरीर में, उसमें पड़े हुए कूड़े-कचरे, विकार, मल या विजातीय द्रव्य को बाहर निकालकर निर्मल बनाने की शक्ति नहीं रहती। फलस्वरूप विकारों का बोझ बढ़ने से शरीर निस्तेज, सौन्दर्यहीन और कुरूप होने लगता है, भूख मर जाती है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है, नींद हराम हो जाती है, शरीर का विकास रूक जाता है और शरीर में हमेशा विजातीय द्रव्य के उपस्थित रहने के कारण एक-न-एक रोग डेरा डाले रहते हैं। यह एक निर्विवाद सत्य है कि शरीर में तभी विजातीय द्रव्य एकत्रित होते हैं, उसका निष्कासन सही ढंग से नहीं हो पाता जब शरीर में जीवनीशक्ति का हृास होता है। जीवनीशक्ति को बढ़ाये बिना रोगमुक्त होने की आशा करना दुराशा मात्र है।
जीवनीशक्ति की कमी के प्रधान कारण ये हैं
• शक्ति से अधिक श्रम करना।
• रात्रि में जागरण कर कार्य करना।
• चिंता आदि मानसिक व्याधियाँ।
• अप्राकृतिक औषधियों का सेवन आदि, मिथ्योपचार।
• अप्राकृतिक आहार का सेवन करना।
मिथ्योपचार
मिथ्योपचार का शाब्दिक अर्थ है कि मिथ्या उपचार अर्थात गलत तरीके से रोगी का उपचार करना। प्राकृतिक चिकित्सा में रोग का मूल कारण विजातीय द्रव्य को माना जाता है, इस सिद्धान्त को मानने वाला कभी भी नहीं चाहेगा कि उसके शरीर में बाहर से कोई विजातीय द्रव्य पहुँच कर रोग का रूप धारण करे। हैजा, प्लेग आदि रोगों से बचाव हेतु स्वस्थ शरीर में विषों की सुईयाँ जबरदस्ती देना, इसके उदाहरण हैं। यह मिथ्योपचार है। शरीर के किसी रोगी अवयव को जल्दी में ऑपरेशन कर डालना या काटकर अलग कर देना जैसा कि अन्त्रपुच्छ के रोग में प्रायः अनभिज्ञ डाक्टर कर बैठते हैं जिससे वह रोग और अधिक गंभीर रूप धारण कर लेने के लिए बाध्य होता है, यह भी मिथ्योपचार का उदाहरण है। रोग होने पर ठीक कारण के निराकरण के बदले रोगी को ऊपर से अत्यंत उग्र औषधियों का सेवन मिथ्योपचार का ही उदाहरण है जिससे विविध प्रकार के बाहरी विष जिसे हम विजातीय द्रव्य कहते हैं। शरीर में प्रवेश कर विष की मात्रा यानि रोग को बढ़ा देते हैं तथा रोग को पुराना बनाने में मदद करते हैं।
बाह्य प्रहार या आकस्मिक दुर्घटना
स्वस्थ व्यक्ति को अचानक चोट लगने से अथवा आकस्मिक दुर्घटना, त्वचा, मांस, शिरा, हड्डी आदि के टूटने-फटने से अभिघातज रोगों की उत्पत्ति होती है। शल्यक्रिया भी इसी श्रेणी में आती है क्योंकि चीर-फाड़ भी तो सीधा बाह्य प्रहार ही है। इन सभी के कारण हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य की वृद्धि होने लगती है और शरीर रोगग्रस्त हो जाता है।
रोगोत्पादक जीवाणु
एक स्वस्थ और निर्मल शरीर में संसार के कीटाणु भी किसी रोग को प्रारंभ नहीं कर सकते, किंतु एक मल भरे शरीर में कोई भी रोगाणु उद्रेक उत्पन्न करके रोग के लक्षण उत्पन्न कर सकता है। क्योंकि रोगाणु मल में ही जीते हैं और निर्मलता से वे नष्ट हो जाते हैं। यदि शरीर में जीवन की शक्ति कम है और पहले से ही विजातीय द्रव्य शरीर में भरा हो तो रोगोत्पादक जीवाणु विजातीय द्रव्य की मात्रा को और भी बढ़ा देते हैं और शरीर रोगग्रस्त हो जाता है।
कब्ज
कब्ज सभी रोगों की जड़ है, यह आधुनिक सभ्यता का रोग है। कब्ज को कोष्ठबद्धता, विबंध, मलबंध, मलावरोध आदि कई नामों से पुकारते हैं। अंग्रेजी में इसको कान्स्टीपेशन कहते हैं। मल जब बड़ी आंत में जमा हो जाता है और किसी कारण से अपने रास्ते से बाहर नहीं निकलता बल्कि वहीं पड़ा-पड़ा सड़ा करता है तो उसे कब्ज होना कहते हैं। खान-पान का असंयम कब्ज का मूल कारण है। डॉ. हाव कहते हैं कि शरीर से विजातीय द्रव्य का बाहर निकलना जब बंद हो जाता है तब टाइफाइड तथा हृदय और मूत्राशय के रोग उत्पन्न होते हैं। हैण्डबुक ऑफ फिजियोलाजी के लेखक डॉ. डब्ल्यू.ए. हलीबर्टन, एम.डी. लिखते हैं- ‘‘हमारी आंतों में खाद्य पदार्थों का रस चूसने का कार्य अविराम गति से चलता रहता है। पर जब उन्हीं आंतों में मल जमा होकर सड़ने लगता है तब हमारी आंतें उस जमा हुए मल से उसके विष को भी चूसती हैं और चूसकर उस विष को रक्त में मिला देती हैं जिससे रक्त विषाक्त हो जाता है जो नाना प्रकार के रोगों का कारण है। कब्ज से उत्पन्न होने वाले रोगों में श्वेत प्रदर, मासिक धर्म की अनियमितता, स्वप्नदोष, सिरदर्द, कमर दर्द, नेत्र रोग, मधुमेह, दंत रोग आदि उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त और भी अनेकों रोग पेट संबंधी हैं जो कब्ज से उत्पन्न होते हैं। रोगों की पूर्व स्थिति कब्ज है। कब्ज होने का अभिप्राय मोटे तौर पर यह है कि शरीर से मल निष्कासन की एक महत्वपूर्ण क्रिया मंद पड़ गयी है। फलस्वरूप विजातीय द्रव्य की मात्रा शरीर में बढ़ने लगती है और शरीर में विभिन्न रोग उत्पन्न होने लगते हैं।
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