उपवास के इतिहास के परिचित व्यक्ति इस तथ्यों को भलिभांति जानते हैं कि उपवास की परम्परा बहुत पुरानी है। पहले धार्मिक अनुष्ठानों के रूप में उपवास का सहारा लिया करते थे। किन्तु उपवास का वैज्ञानिक अध्ययन अपेक्षाकृत नयी वस्तु है उपवास के द्वारा शरीर में निहित मलों का बाहर कर रोग मुक्त शुद्ध शरीर को प्राप्त किया जा सकता है। उपवास में जब आहार का त्याग किया जाता है तो उस आहार को पचाने वाली ऊर्जा को बचा कर अन्य दिशाओं में मोड़ दिया जाता है। और विष तथा मलों को शरीर से निकालकर शरीर को स्वच्छ करने का काम प्रारम्भ हो जाता है। भोजन को पचाने में उसे और उपयोगी रस बनाने में तथा बेकार पदार्थ को बाहर निकालने में जो ऊर्जा खर्च होती है उसे रोग की स्थिति में उपवास द्वारा बचा कर सही दिशा में लगाकर रोग मुक्त हो सकते हैं।
एक रिपोर्ट मे कहा गया है कि सीनटेर और म्यूलर ने सेटी और बे्रथाप्ट के रक्त का परीक्षण किया और दोनों में लाल रक्त कोशाणुओं में वृद्धि पायी गई। उपवास के कई प्रकार के प्रभाव शरीर से देखने को मिलते है उपवास के प्रारम्भ में लाल रक्त कोषाणुओं की संख्या में कमी हुई किन्तु बाद मे इनमें वृद्धि होते देखा गया। जैसे-2 उपवास बढ़ता है वैसे-2 श्वेतरक्त कोशाणुओं में कमी होती जाती है। साथ ही मोनो न्यूक्लिर कोशाणुओं की संख्या में भी कमी के साथ ही लाल रक्त कण और बहुनाभिकीय कोशाणुओं मे वृद्धि होने लगती है। रक्त से अम्लता की कमी होने लगती है हिमरवर्ड कैरिंगटनने जीवनी-शक्ति और उपवास नामक अपनी पुस्तक में रोगियों के उपवास काल में उनके शरीर का ताप सामान्य से कम रहता है। किन्तु इसका कोई दुष्प्रभाव नही पडता। उपवास से रोगी का शरीर स्वच्छ होने लगता है। चर्बी घटने लगती है। आंते साफ हो जाती है। यकृत और मूत्राशय की भी सफाई हो जाती है। उपवास से रक्त शुद्ध हो जाता है तथा उसमें नई जीवनी शक्ति का संचार होने लगता है। उपवास द्वारा शरीर और मन दोनों प्रभावित होते हैं।
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