जिनके शरीर में विजातीय द्रव्य भरा रहता है उनके लक्षण अलग से दिखते हैं। जिन अंगों में विजातीय द्रव्य जमा रहता है वे अपना स्वाभाविक कार्य उचित रूप से पूरा नहीं कर सकते हैं। वहाँ रक्त प्रवाह में रूकावट होने लगती है और इससे शरीर का पूरा पोषण नहीं हो पाता है। जहाँ विजातीय द्रव्य बहुत अधिक जमा हो जाता है, वहाँ अंग छूने पर ठण्डे जान पड़ते हैं। पहले पहल शरीर के अग्रभाग हाथ-पैर ठंडे जान पड़ते हैं, पर जल्दी ही दूसरे अंगों के हिस्सों पर भी इसका असर होने लगता है।
विजातीय द्रव्य गैस रूप में मस्तिष्क में पहुँच जाता है, वहाँ सिर में दर्द होने लगता है। बीच के जो शारीरिक अवयव हैं वे विजातीय द्रव्य को ऊपर चढ़ने से रोकते हैं, फलस्वरूप पारस्परिक संघर्ष के कारण सिर गर्म हो उठता है और अगर मल अधिक होता है तो उसकी गर्मी से बुखार भी हो जाता है।
शारीरिक अस्वस्थता के अतिरिक्त ऐसे मलभारयुक्त लोगों की आकृति भी बिगड़ने लगती है। मुखाकृति खराब होकर मस्तक भी बैडोल हो जाता है। गर्दन अपेक्षाकृत छोटी या बड़ी दिखलायी पड़ती है। अनेक लोगों का मुँह फूला हुआ जान पड़ता है। ऐसे फूले शरीर को कुछ लोग स्वस्थता, पुष्टता या शक्ति का चिन्ह समझते हैं परन्तु उनका यह विचार सर्वथा भ्रमपूर्ण होता है। यह लक्षण शक्ति की वृद्धि के न होकर मल भरे जाने के होते हैं।
छाती ऊँची-नीची हो जाती है, पेट आगे को लटकने लगता है, टांगें खम्भे के समान दिखाई देने लगती हैं। कुछ लोगों के मल अधिक मात्रा में शरीर के भीतरी भागों में ही रहता है, इसलिए उनके शरीर में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और खाल लटक जाती है। गर्दन को इधर-उधर फेरने से खाल तनने लगती है। मुख का रंग फीका, पीला अथवा बहुत लाल हो जाता है। शरीर का रंग यदि बहुत चमकने लगे तो यह भी विजातीय द्रव्य इकट्ठा होने का लक्षण है।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ‘जीवेम शरदः शतम्’ में लिखते हैं कि ‘‘मल के इकट्ठे होने की पहचान यह भी है कि उससे शरीर की फूर्ती जाती रहती है और उसका स्थान आलस्य ग्रहण कर लेता है। ऐसा व्यक्ति सदैव निकम्मा बनकर पड़ा रहना चाहता है और अपना कोई काम स्वयं करना पसंद नहीं करता। उसे सब प्रकार का परिश्रम, चलना-फिरना, खेलना, कूदना बहुत बुरा जान पड़ता है अर्थात आलस्य के कारण उससे हो नहीं पाता है।
डा. पी.डी. मिश्रा ‘प्राकृतिक चिकित्सा- सिद्धान्त एवं व्यवहार’ में लिखते हैं कि विजातीय द्रव्य के चुपचाप शरीर में पड़े रहने से यह अवसर पाकर रोग के रूप में बाहर फूट निकलता है। विजातीय द्रव्य में जब सड़न पैदा होती है तो उसमें कीड़े पड़ जाते हैं और उसमें गर्मी की मात्रा बढ़ जाती है। विजातीय द्रव्य के कण एक दूसरे से रगड़ खाते हैं, इसलिए तापक्रम बढ़ता है। मौसम के बदलाव, क्रोध, भय और इसी प्रकार के दूसरे विकारों से भी सड़न बढ़ती है। जब विजातीय द्रव्य की सड़न शरीर के ऊपरी भाग में पहुंचती है तो सिरदर्द होने लगता है। सड़न से गर्मी पैदा होती है, जिसके कारण रक्त का तापक्रम बढ़ जाता है। इसी को ज्वर कहते हैं। जब पाखाना साफ नहीं होता, पेशाब खुलकर नहीं होता, त्वचा के छिद्र गंदे रहते हैं और पसीना नहीं आता, तब ज्वर होता है। उपर्युक्त सभी लक्षण विजातीय द्रव्य से भरे शरीर में दिखते हैं।
विजातीय द्रव्य से भरे शरीर की मुख्य पहचान यह है कि उसके शरीर के किसी न किसी भाग में दर्द रहेगा, सिरदर्द, कमरदर्द, पीठ में दर्द या और भी किसी अंग में दर्द रहेगा। कब्ज या अतिसार होगा। मलत्याग के पूर्व या बाद में कमजोरी होगी। काम करने में कष्ट का अनुभव होना या थोड़ा भी काम करने, मेहनत करने या चलने से कष्ट होना एवं हांफ चढ़ना। शरीर का भार एकाएक कम या अधिक होना। हृदय में भारीपन, दबाव का अनुभव, वक्षस्थल को कष्ट या उसके आसपास के हिस्से में कष्ट का अनुभव होना। शरीर में कमजोरी, शरीर के ऊपरी हिस्से अथवा नीचे के हिस्से में गर्मी की कमी। कभी-कभी एकाएक शरीर का ठंडा हो जाना। वाणी में विकार, कफ का लगातार दो-तीन सप्ताह तक निकलना, भूख का कम लगना, उदर के दायीं ओर पीड़ा होना तथा भारीपन रहना, बार-बार मूत्र त्याग करके जाना, बार-बार सर्दी, जुकाम होना, किसी कार्य में मन न लगना, सुस्ती रहना, थकान अनुभव होना आदि विजातीय द्रव्य से भरे शरीर के लक्षण हैं।
विजातीय द्रव्य से भरे व्यक्ति को नींद नहीं आती, मन बुझा-बुझा, निराशा से भरा होता है, कई प्रकार के मानसिक विकार भी हो जाते है। भय, निराशा, काम, क्रोध, आशंका, अहंकार आदि उसे घेर लेते हैं। जब विजातीय द्रव्य बहुत अधिक हो जाता है तो रोग, भय, पीड़ा एवं निराशा से व्यक्ति ग्रसित हो जाता है और जीने की आशा छोड़कर व्यक्ति आत्महत्या करने तक का विचार करने लगता है। अतः व्यक्ति को हर हाल में अपना आहार-विहार ठीक कर तथा प्राकृतिक चिकित्सा को अपनाकर विजातीय द्रव्य को हटाने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए।
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