VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

रोगों को दबाना एवं इसका प्रतिफल


सामान्य तौर पर रोगों के दो प्रकार हैं- तीव्र एवं जीर्ण रोग | रोगों को दबाने का क्या परिणाम होता है,इसके लिए पहले इन रोगों यह समझना आवश्यक है |   

तीव्र रोग  
जिस रोग में तेजी हो, उसे तीव्र रोग कहते हैं, जैसे- हैजा, चेचक, ज्वर, दस्त, जुकाम आदि। ये शीघ्र ठीक हो जाते हैं। तीव्र रोग बच्चों एवं युवाओं को अर्थात जिनकी जीवनीशक्ति प्रबल होती है, उन्हें विशेष रूप से होती है। प्रकृति शरीर से विजातीय द्रवय को तीव्र रोग के रूप में जल्द निकालकर शरीर को निरोग कर देती है। 

जीर्ण रोग  
शरीर स्थित मल में उद्वेग होकर निकलने की उग्र दशा का नाम जिस तरह तीव्र रोग या उग्र रोग है, उसी प्रकार उसके दबकर भीतर प्रवेश करने, अनिष्ट दशा उत्पन्न करने और धीरे-धीरे कष्ट के साथ बहुत काल तक शरीर में पड़े रहने की दशा का नाम जीर्ण रोग है। 

तीव्र रोग के लक्षणों को दवा आदि के सहारे दबा देने से यह कुछ क्षण दब जाते हैं लेकिन विजातीय द्रव्य वहीं दबा रहकर सड़ने-गलने लगता है और जीर्ण रोग में परिवर्तित हो जाता है। जैसे- जुकाम को दवा से यदि बार-बार दबा दिया जाए तो दमा हो सकता है। उसी तरह ज्वर को दबाते रहने से यक्ष्मा होने की संभावना रहती है। तीव्र रोग में सर्वप्रथम रोगी की जीवनीशक्ति बढ़ानी चाहिए क्योंकि इसी की कमी से रोग होता है। जीवनीशक्ति यदि बढ़ जाए तो जीर्ण रोग तीव्र रोग में परिवर्तित होकर रोगी को निरोग कर सकता है। जीर्ण रोग दूर करने के लिए विचारों की शुद्धता, धैर्य और अपने चिकित्सक पर पूर्ण विश्वास की बड़ी जरूरत है। इसमें बहुत सावधानी व धैर्य की आवश्यकता रोगी व चिकित्सक दोनों को रखनी पड़ती है, तभी जीर्ण रोग ठीक हो पाता है। 

रोगों से लाभ 
संसार के अधिकांश व्यक्तियों की धारणा ही नहीं अपितु विश्वास भी है कि रोग उसके मित्र नहीं शत्रु ही हैं। यही नहीं बल्कि कुछ लोगों का विचार तो यहाँ तक है कि रोग मौत का दूत है। किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। रोग तो प्रकृति माता का शुभाशीष और वरदान है। अर्थात् बीमार पड़ना परमात्मा की बड़ी भारी देन है। वे व्यक्ति बड़े ही भाग्यवान हैं जिनके शरीर में कभी रोग का प्राकट्य या उदय होता है क्योंकि ऐसा होते रहने से उनके शरीर का संचित दूषित मल जो विष होता है और जो उस असंयमी जीवन की बुरी कमाई होती है, शीघ्र से शीघ्र निकल जाती है और काया एक बार फिर चमकने लगती है। यदि हम प्रकृति के वास्तविक भक्त हैं और उसके आदेशों पर ही चलते हुए उसके सहज-सुलभ मातृवत व्यवहारों के अनुसार अपना जीवन बनाते हैं तो फिर आवश्यक नहीं है कि हम बीमार पड़ें। रोग वस्तुतः सुधारक और दोस्त होते हैं, विनाशक और दुश्मन कदापि नहीं। रोग शरीर में उत्पन्न होकर हमें चैतन्य करता है कि शरीर का अमुक भाग अथवा अंग कमजोर हो गया है, उसमें विष एकत्रित हो गया है, उसकी सफाई होनी चाहिए। जितनी शीघ्रता से हम उसकी इस चेतावनी पर ध्यान आकृष्ट कर लेंगे उतना ही शीघ्र हमारा शरीर निरोगी हो जाएगा। जिस शरीर में यह चेतावनी नहीं मिलती है, उस शरीर की जीवनीशक्ति क्षीण हुई रहती है। अतः हमें रोग को शत्रु न समझकर मित्र मानना चाहिए। निराशावादी के स्थान पर आशावादी बनना चाहिए तथा यह विश्वास रखना चाहिए कि रोग हमें पूर्ण स्वस्थ कर देगा, संचित विकार निकाल देगा, शरीर के लिए लाभदायक सिद्ध होगा। 

रोग की अवधारणा 
शरीर में जब किसी प्रकार का कष्ट या तकलीफ होता है या जब स्वास्थ्य हमारा साथ नहीं देता अर्थात् हम अपने स्वाभाविक कर्म को ठीक प्रकार से नहीं कर पाते, तब हम कहते हैं कि हमें रोग हो गया या हम बीमार हो गए। स्वास्थ्य की परिवर्तित अवस्था को ही रोग कहते हैं। 
जब हमारा खान-पान अनियमित या प्रकृति विरूद्ध हो, आहार-विहार दूषित होता है, चिन्तन चरित्र विकृत होता है तो हमारे शरीर में धीरे-धीरे विजातीय द्रव्य जिसे हम मल, विकार, विष, संचित दुर्द्रव्य, दोष आदि के नामों से जानते हैं, एकत्र होता रहता है और अंत में हमारा शरीर रूपी घट रोग रूपी विष से लबालब भर जाता है, जिसे प्रकृति अपने नियमानुसार उसे बाहर निकालना चाहती है, क्योंकि इस विष रूपी विजातीय द्रव्य की आवश्यकता शरीर को बिल्कुल नहीं रहती। अतः प्रकृति उसे निकालने हेतु अनेकों तरीकों को अपनाती है, उन्हीं को रोग का नाम देते हैं। 

रोग शब्द से लोग दहल जाते हैं, लेकिन रोग से डरने की जरूरत नहीं है। वस्तुतः रोग हमारा मित्र बनकर आता है और चेतावनी देता है कि संभल जाओ, शरीर में विकार उत्पन्न हो गया है, यदि हम संभल जाते हैं तो आने वाली मुसीबत से छुटकारा पा जाते हैं और यदि उस चेतावनी की अवहेलना करते हैं तो प्रकृति हमें दोहरा सजा देती है, क्योंकि और दरबार में खुशामद चल भी जाती है लेकिन प्रकृति के यहाँ इसकी जरा भी गुंजाइश नहीं है। वहाँ तो अपने को प्रकृति के चरणों में समर्पण करके उसके इशारों पर चलना होता है तभी प्रकृति उसकी मदद और हर प्रकार से रक्षा करती है। प्रकृति की इस मीठी फटकार या दण्ड को हम रोग कहते हैं। 

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के अनुसार- ‘‘रोग प्रकृति की वह क्रिया है जिससे शरीर की सफाई होती है। रोग हमारा मित्र होकर आता है। वह यह बताता है कि आपने अपने शरीर के साथ बहुत अन्याय किया है, अनेक कीटाणुओं को स्थान देकर विष एकत्रित कर लिया है। रोग उस आन्तरिक मल का प्रतीक या बाह्य प्रदर्शन मात्र है। यह प्रकृति का संकेत मात्र है जो आपको बताता है कि आपको अब अपनी गलतियों से सावधान हो जाना चाहिए। शरीर में स्थित गंदगी, विष, विजातीय तत्व या अप्राकृतिक जीवन से शोधन की ओर आपका ध्यान आकर्षित करता है।’’ 

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