VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

नाड़ी गति से रोग परीक्षण




प्राकृतिक चिकित्सक अपने हाथ के सहारे से रोगी के कोहनी उठाकर और अग्रबाहु को पूरी तरह से फैलाकर अपने हाथ की अंगुलियों तर्जनी, मध्यमा और अनामिका से अंगुष्ठ मूल से नीचे वाली नाड़ी की परीक्षा करता है। परीक्षा सुस्थिर एवं एकचित्त होकर करनी चाहिए तथा तीन बार परीक्षा करनी चाहिए। प्रायः पुरूषों के दायें हाथ की नाड़ी तथा महिलाओं की बायें हाथ की नाड़ी देखी जाती है। स्त्रियों की नाड़ी पुरूषों की अपेक्षा 6 से 15 बार प्रति मिनट अधिक चलती है।
पुरूषों की नाड़ी बड़ी तथा शक्तिशाली होती है क्योंकि उनके स्वभाव में गर्मी तथा शक्ति अधिक होती है तथापि नाड़ी सुस्त तथा ठहर-ठहर कर चलती है। इसके विपरीत स्त्रियों की नाड़ी बड़ी तेज चलती है। इनकी नाड़ी का फैलाव और शक्ति पुरूषों की अपेक्षा कम होता है। एक-एक अंगुली के नीचे नाड़ी की गति 6 प्रकार की होती है, ऊपर उठना, तेज उठना, तेज होकर ऊपर उठना, नीचे धंसना, तेज धसना, तेजी से धंसना। इस प्रकार दोनों हाथों की नाड़ी की गति 18 प्रकार की होती है। इनकी प्रत्येक गति से पृथक-पृथक रोग का ज्ञान होता है। जिस प्रकार वीणा की तंत्री सभी रागों को बताती है, उसी प्रकार मनुष्य की नाड़ी सभी रोगों को बताती है।
स्थान भेद से नाड़ी 8 प्रकार की होती है। हाथ की दौ, पैर की दो, गले और कंठ की दो तथा नासा के समीप की दो, आँखों की दो, कान की दो, पेडू की दो तथा जीभ के समीप की दो-दो। इनके बायें तथा दायें अंग से दो-दो होकर कुल 16 स्थान हो जाते हैं। इन स्थानों पर कहीं भी नाड़ी के स्पर्श द्वारा रक्त संचार का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

नाड़ी की गति क्यों होती है ?
शुद्ध रक्त संचार के समय रक्तवाहिनी नाड़ियों के अंदर के आवरण पर रक्त की तरंगें जो आघात पहुंचाती हैं, उसी से नाड़ी की गति हुआ करती है। रक्त संचार के स्वरूप जो धड़कन होती है, उसे नाड़ी द्वारा अंगुलियों से ही जाना जा सकता है। धमनी द्वारा रक्त संचार होता है। अतः उसकी परीक्षा की जाती है।
तीन प्रकार की नाड़ियाँ तीन स्थितियों वात, पित्त तथा कफ को दर्शाती हैं। प्रारंभ में वात की नाड़ी, मध्य में पित्त की नाड़ी तथा अन्त में कफ की नाड़ी होती है। जब वात अधिक होता है तो तर्जनी अंगुली के नीचे नाड़ी स्फुरण होता है, पित्त की प्रबलता में मध्यमा अंगुली के नीचे नाड़ी फड़कती है तथा कफ की प्रबलता में अनामिका के नीचे स्फुरण होता है। यदि वात, पित्त की अधिकता हो तो तर्जनी और मध्यमा के बीच स्फुरण होता है और यदि पित्त, कफ की अधिकता हो तो मध्यमा और अनामिका के बीच में नाड़ी का स्फुरण होता है और यदि पित्त, कफ की अधिकता हो तो मध्यमा और अनामिका के बीच में नाड़ी का स्फुरण होता है। यदि वात, पित्त तथा कफ तीनों विकृत हो तो तीनों अंगुलियों के नीचे नाड़ी की विकृत गति जान पड़ती है।
आयु के अनुसार नाड़ी की गति- निम्न तालिका में आयु तथा नाड़ी की संख्या दी गयी है-

नाड़ी तालिका

क्रम
आयु
नाड़ी की संख्या (प्रति मिनट)
1
भ्रूण में
150 बार
2
जन्म के बाद
130-140 बार
3
1 वर्ष तक
115-130 बार
4
1 वर्ष से 2 वर्ष तक
100-115 बार
5
2 से 3 वर्ष तक
90-100 बार
6
3 से 5 वर्ष तक
80-85 बार
7
5 से 14 वर्ष तक
80-85 बार
8
15 से 21 वर्ष तक
75-85 बार
9
22 से 60 वर्ष तक
65-75 बार
10
वृद्धावस्था
50-70 बार

नाड़ी का स्पंदन एक मिनट में साधारण गति से 8-10 अधिक या कम है तो उस मनुष्य को कोई रोग अवश्य होता है। प्रौढ़ावस्था में एक स्वस्थ व्यक्ति का स्पंदन प्रति मिनट 70-75 बार होता है। शारीरिक गठन, खान-पान, रहन-सहन, स्त्री-पुरूष आदि के अनुसार भी नाड़ी की गति घट-बढ़ सकती है। बैठे हुए मनुष्य की नाड़ी एक मिनट में लेटे हुए मनुष्य की अपेक्षा लगभग 10 बार अधिक चलती है और खड़े हुए व्यक्ति की नाड़ी बैठे हुए की तुलना में एक मिनट में लगभग 20 बार अधिक चलती है। शरीर में ताप की अधिकता से नाड़ी की गति दुगुनी हो जाती है किन्तु सर्दी में नाड़ी की गति कम हो जाती है।


नाड़ी की गति गिनने की विधि (Counting method of puls rote) : नाड़ी सदैव 1 मिनट तक गिनी जाती है। नाड़ी देखते समय गिनती की जाती है। नाड़ी की संख्या मालूम करने के लिए सेकेण्ड की सुई लगी घड़ी का उपयोग करते हैं। नाड़ी परीक्षा में निम्न बातें देखी जाती है।

नाड़ी की गति : स्वस्थ अवस्था में नाड़ी की गति प्रति मिनट 72-80 तक होती है।
1. गति (Rythm) : इसमें दो बातें देखते हैं-नाड़ी सम है या विषम।
1. समयानुसार : नाड़ी स्पंदन ठीक हो रहा है या कभी मंद और तीव्र।
2. आवृति (Volume) : रक्त की उस मात्र को आवृति कहते हैं जो रक्त वहिनियों में संचार करती रहती है। साधारण परिभाषा में स्पंदन साधारण होता है और अधिक में अधिक प्रतीत होता है।

2. वेगानुसार : प्रत्येक स्पंदन का वेग समान है या असमान।

3. संहति (Condition of artes) : धमनी की दीवार की अवस्था को संहित कहते हैं। धमनी की दीवार मृदु है या कठोर, इसे देखने के लिए उस पर तीनों अंगुलियां धीरे-धीरे फेरते हैं।

नाड़ी के प्रकार (Types of pulse)
1. अन्तरगति नाड़ी (Boundung pulse)
स्वस्थ मनुष्य की नाड़ी पहले ठोकर लगाती है फिर शान्त रहकर दूसरी ठोकर लगाती है।
2. ऊँची नाड़ी
इस प्रकार की नाड़ी स्वस्थ अवस्था की अपेक्षा अधिक ऊँची और उभरी हुई होती है। इस प्रकार की नाड़ी से शरीर में गर्मी की अधिकता प्रकट होती है।
3. शीतल नाड़ी (cold pulse)
जिस नाड़ी को छूने से सर्द प्रतीत हो, उसे शीतल नाड़ी कहते हैं। यह नाड़ी यह बताती है कि रोगी के शरीर में गर्मी की काफी कमी है।
4. छोटी नाड़ी (Shoet pulse)
इस प्रकार की नाड़ी स्वस्थ अवस्था से छोटी और लम्बाई में कम प्रतीत होती है। यह नाड़ी रोगों में सर्दी की अधिकता की सूचना देती है।
5. निर्बल नाड़ी   (Weak pulse)
 इस प्रकार की नाड़ी को छूने पर अँगुली पर धीमी सी ठोकर लगती है, यह नाड़ी रोगों में जीवनी-शक्ति घट जाने की सूचना देती है।
6. परिपूर्ण नाड़ी (Frequent pulse)
जब नाड़ी पर अंगुलियाँ रखने से उसके नीचे उछल-प्रबल प्रतीत हो, तो उसे परिपूर्ण नाड़ी कहते हैं। कठिन रोगों में ऐसे ही नाड़ी होती है।
7. कठोर नाड़ी (Hard pulse)
जब अंगुलियों के दबाने से नब्ज कठोर प्रतीत हो, तो कठोर नाड़ी कहते है। शरीर में तरल पदार्थ की कमी होने पर ऐसी स्थिति होती है।
8. आन्तरिक नाड़ी (Intermittant pulse)
जो नाड़ी चलते-चलते एक क्षण के लिए रुक जाय तथा फिर चलने लगे अर्थात् अटक-अटक कर चले, उसे आन्तरिक नाड़ी कहते है। जब हृदय में थकान पैदा हो जाने के कारण जब थोड़ा आराम होता है तब ऐसी नाड़ी चलती है एकाएक दुर्घटना से भी ऐसी नाड़ी चलती है।
9. लम्बी नाड़ी (Large pulse)
इस नाड़ी में अंगुलियों के नीचे स्पंदन अधिक होता है। यह रक्त प्रकोप या विषम रोगों में चलती है।
10. निम्न तनाव की नाड़ी (Low tension pulse)
इस प्रकार की नाड़ी लम्बाई, चौड़ाई और गहराई में स्वस्थ अवस्था से कम होती है।
11. शीघ्रगामिनी नाड़ी (Quick pulse)
इस अवस्था में नाड़ी जल्दी-जल्दी चलती है। स्पंदन 100-120 तक हो जाता है। ऐसा तभी होता है जब शरीर में गर्मी की अधिकता होती है।
12. मंद नाड़ी (Slow pulse)
जब सामान्य अवस्था में नाड़ी की गति कम होती है, तो मंद नाड़ी कहते हैं। रक्त चाप की कमी से, मूर्छा अथवा सदमा आदि के समय ऐसी नाड़ी स्पंदन करती है।

विभिन्न रोगों में नाड़ी की गति
यहाँ पर कुछ प्रमुख रोगों में नाड़ी की गति का वर्णन कर रहे हैं।


पाचन संस्थान के रोग-
मंदाग्नि रोग में नाड़ी की गति शीतल होती है। अर्जीण में नाड़ी क्षीण और ठण्डी हो जाती है। अतिसार में नाड़ी की गति गर्मी में जोक के समान मंद और निस्तेज होती है। खाने की अरुचि होने पर नाड़ी स्थिर, मन्द पुष्ट तथा कठिन होती है। कब्ज की अवस्था में नाड़़़ी प्रायः रक्त से खाली और वायु से भरी होने से ऊँची होती है। वातज शूल में नाड़ी की गति वक्र होती है। पित्तज शूल में यह ऊष्ण होती है। यकृत दोष में नाड़ी खाली तथा सख्त होती है। वमन में नाड़ी कठोर, ज्वर युक्त, लुप्तप्रायः और सविराम होती है।

श्वास के रोग
फेफड़े की टी०बी० में रोगी का जिस ओर का फेफड़ा खराब होता है, उस ओर की नाड़ी की गति दूसरी ओर की अपेक्षा ऊँची होती है। निमोनिया में दोनों ओर की नाड़ियाँ लहरदार हो जाती हैं। दमा के रोगी में नाड़ी सदा तीव्र, कड़ी तथा जोक की तरह चलती है।

रक्तवाहक संस्थान के रोग
उच्च रक्तचाप में नाड़ी की गति ऊँची होती है तथा अंगुलियों को जबरदस्ती हटाती हुई सी प्रतीत होती है। ऐसा लगता है कि नाड़ी में बहती हुई कोई चीज अंगुलियों को ढकेलकर आगे बढ़ रही हो हीन रक्तचाप में नाड़ी की गति क्षीण तथा मन्द होती है धड़कन जब बढ़़ती है तब नाड़ी तीव्र तथा बड़ी होती है। धमनियों के शोध में नाड़ी बड़ी और विभिन्नतायुक्त हो जाती है। रक्तस्राव के समय नाड़ी बड़ी शक्तिशाली तथा छूने में गर्म होती है। हृदय में दुतगामिनि, तथा कर्कश होती है।

मूत्र रोग-
मूत्रघात में नाड़ी मेंढक के समान उछल-उछल कर चलती है। वृक्कशोध में नाड़ी की गति कठोर और नियमित होती है। रक्त पित्तवाहक नाड़ी उत्तेजित, बात व कफ वाहक नाड़ी पतली हो जाती है।

गुप्त रोगों में नाड़ी की गति

1.    पुरुषों में

उपदंश की अवस्था में नाड़ी वक्र कुश तथा गम्भीर होती है। धातुक्षीणता में नाड़ी बहुत धीमी चलती है। नपुंसकता में रोगी के बायें हाथ की नाड़ी में टेढ़ापन पाया जाता है। प्रमेह में नाड़ी सूक्ष्म, जड़, मृदु होती है। वीर्य की कमी होने पर नाड़ी की गति निर्बल होती है तथा धीमे चलती है।

2.    स्त्रियों में
गर्भावस्था में नाड़ी भारी और वायु की चाल से चला करती है। योनि रोग में नाड़ी पतली अंगुली के नीचे सख्त होती है, परन्तु धीमी चलती है। श्वेत प्रदर में नाड़ी एक चाल से परन्तु कमजोर चलती है।

संक्रामक रोग
मलेरिया में नाड़ी अंगूठे की जड़ से हट जाती है और कुछ देर के बाद फिर अपने स्थान पर लौट आती है। चेचक में नाड़ी तेजी से किन्तु टेढी-मेंढी चलती है। टाइफाइड में नाड़ी की गति 100 से अधिक होती है। अंतिम दिनों में नाड़ी की गति रुक-रुककर चलती है। डिप्थीरीया में नाड़ी की गति तेज और कड़ी होती है। पेचिस में नाड़ी की गति जोंक की तरह होती है। टी०बी० में नाड़ी की गति क्षीण हो जाती है।

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