लुई कूने ने शरीर मल व विजातीय द्रव्यों को तथा उससे संबंधित रोग व शरीर की स्थिति जानने के लिए आकृति से रोग की पहचान नामक पुस्तक लिखी, जिसके माध्यम से लाखों चिकित्सकों ने रोगियों का इलाज कर उन्हें रोगमुक्त करने में अधिक सफलता पायी।
मुखाकृति विज्ञान क्या है :
यह एक विज्ञान है जिसके माध्यम से शरीर की रोगावस्था अथवा अस्वस्थता का निदान किया जाता है। इसके द्वारा यह देखा जाता है कि शरीर में दोष संचय कितनी मात्रा में किस भाग में संचित है। बाह्य अंगों तथा उनकी आकृति को देखकर शरीर तंत्र की कार्यात्मकता का ज्ञान होता है।
यहाँ पर मुखाकृति शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में लिया गया है जिसके अंतर्गत न केवल चेहरे को सम्मिलित करते हैं बल्कि शरीर की संपूर्ण आकृति का अध्ययन करते हैं। मुखाकृति विज्ञान शरीर में विजातीय द्रव्यों अथवा विषैले पदार्थों का संचय तथा शरीर तंत्र पर उसके प्रभाव का अध्ययन करता है। इस विज्ञान से यह भी पता चलता है कि शरीर के किस अंग में मल संचय अधिक है। इस विज्ञान का कार्य वर्तमान रोग तथा मल संचय के बीच संबंध का परीक्षण करना है।
मुखाकृति विज्ञान पूरे शरीर को एक इकाई मानता है और उसी रूप में उसकी कार्यात्मकता का परीक्षण करता है। इससे इस बात की भी जानकारी हो जाती है कि भविष्य में रोग किस स्तर तक पहुँच सकता है। यह भी ज्ञात होता है कि किसी सीमा तक रोगग्रस्त स्थिति को सामान्य स्थिति तक लाया जा सकता है।
कुने का विचार है कि शरीर से संबंधित सभी प्रकार की मनोवैज्ञानिक, सांवेगिक तथा शारीरिक प्रतिक्रियाएँ सबसे पहले चेहरे पर परिलक्षित होती हैं। इस प्रकार इस निदान की विधि द्वारा शरीर रचना, गति, भाव तथा सांवेगिक स्थिति का अध्ययन संभव होता है। कुने का मानना है कि रोग शरीर के आकार को बदल देते हैं। उदाहरण के लिए, मोटापे की दशा में पेट बढ़ जाता है, हाथ पांवों पर मोटी तथा ढीली त्वचा होकर लटकने लगती है, जब वसा की कमी होती है तो शरीर दुबला-पतला होकर लम्बा दिखायी देता है। दांत जब गिर जाते हैं तो पूरा चेहरा बदल जाता है। गठिया होने पर गांठें पड़ जाते हैं। लेकिन कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनमें परिवर्तन कम दिखायी पड़ता है। केवल अनुभवी व्यक्ति ही आंखों को देखकर अनुभव कर सकता है।
सभी प्रकार की रोगग्रस्तता में शरीर में परिवर्तन विशेषकर सिर व गर्दन के भाग में होते हैं। कुने का मानना है कि रोगावस्था में चूंकि संपूर्ण शरीर प्रभावित होता है, अतः किसी भी अंग का परीक्षण करके स्वास्थ्य के विषय में जानकारी ली जा सकती है। सबसे महत्वपूर्ण शरीर का अंग पाचनतंत्र है जो स्वास्थ्य को स्पष्ट प्रदर्शित करता है।
मुखाकृति विज्ञान के आधार : इस विज्ञान के निम्नलिखित आधार हैं-
• सभी रोगों का कारण एक ही है, शरीर में मल संचय।
• रोग किसी भी रूप में प्रकट हो सकता है।
• रोगों की उत्पत्ति शरीर में मल संचय के कारण होती है।
• मल पहले पेडू पर फिर उसके बाद चेहरे पर तथा गर्दन पर संचित होता है।
• शरीर में मल संचय के लक्षण देखे जा सकते हैं। शरीर की आकृति एवं लक्षणों में परिवर्तन आता है।
• प्रत्येक रोग की शुरूआत बुखार से होती है तथा बिना रोग के बुखार नहीं आता है।
शरीर में दोष संचय
यदि शरीर की आकृति और रंग स्वाभाविक नहीं रह गये हैं या उनकी गतिशीलता में बाधा पड़ने लगी है तो यह इस बात का प्रमाण है कि शरीर में दोष संचय हुआ है। यह संचय कोई पदार्थ ही होता है। यह पदार्थ शरीर से कोई संबंध नहीं रखता, इसलिए विजातीय पदार्थ कहलाता है। पदार्थ शरीर में मुख, नाक और त्वचा के रास्ते जाता है। आंतें, मूत्राशय, त्वचा और फेफड़े स्वस्थ शरीर में निरंतर काम करते रहते हैं और प्रत्येक अनुपयोगी पदार्थ को जिसकी शरीर को कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, बाहर निकालने के काम में लगे रहते हैं। फिर भी शरीर में अत्यधिक मात्रा में दोष पहुँच जाने पर शरीर उसे बाहर निकालने में असमर्थ हो जाता है और उसका कुछ अंश अंदर रह जाता है।
कुछ दोष तो जन्म के साथ ही माता-पिता से आ जाते हैं। अप्राकृतिक भोजन लेते रहने पर परिणाम बुरा होता है। शरीर उस भोजन के मल को ठीक प्रकार से बाहर निकाल नहीं पाता है। साथ ही उस भोजन से वास्तविक भोजन तत्व भी नहीं मिल पाते।
प्रारंभ में मल शरीर के निष्कासन भागों के निकट जमा होता है और कुछ समय तक तो धीरे-धीरे रेागों जैसे- अतिसार, अति स्वेद, अतिरिक्त पेशाब द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है लेकिन कुछ तो प्रायः बच जाता है। जिस भाग में यह द्रव्य दोष जमा होता है उस भाग में उष्णता पैदा हो जाती है। दोष प्रकुपित होने लगता है, और गैसें बननी शुरू हो जाती हैं। यह गैस शरीर में फैल जाती है और शरीर में पसीने के रूप में त्वचा द्वारा गैस के रूप में बना दोष निकल जाता है। लेकिन कुछ अंश फिर ठोस रूप में जमा हो जाता है। यही वह भण्डार द्रव्य है जो शरीर को दोषपूर्ण करता है। संचित द्रव्य किस ओर एकत्र हुआ है यह देखकर रोगी की प्रकृति जानी जा सकती है। आमाशय और आंतों के कमजोर हो जाने पर प्राकृतिक और पूर्ण खुराक भी ठीक प्रकार से पचती नहीं है। ऐसा अधूरा पचा हुआ शरीर द्वारा अभिशोषित सारा द्रव्य दोष का रूप ले लेता है। एक बार इस प्रकार विकार का एकत्र हो जाना शुरू हो जाने पर फिर यह क्रम बड़ी तेजी से बढ़ता है।
दूषित द्रव्य शरीर में प्रायः श्वांस, फेफड़ों और त्वचा द्वारा भी प्रवेश पाता है। कभी-कभी शरीर मल निकालने के लिए कृत्रिम मार्ग बना लेता है जैसे नासूर, खूनी बवासीर, रक्तपित्त, भगंदर, पांवों का पसीजना आदि। ये निर्गम मार्ग तभी बनते हैं जब दोष संचय काफी मात्रा में होता है।
दोषसंचय के कारण शरीर में होने वाले परिवर्तन :
विजातीय द्रव्य अपनी स्थिति के लिए उपयुक्त स्थान की खोज करता है। द्रव्य का यह संग्रह पहले पेडू में होता है। निष्कासन मार्ग के नजदीक जमा होना शुरू होकर विकार दूर तक बढ़ने लगते हैं, जैसे सिर और हाथ पैरों की ओर। यदि कोई विशेष परिस्थिति पैदा न हुई तो यह क्रिया बहुत धीरे-धीरे होती है। द्रव्य का झुकाव प्रायः शरीर की ऊपर सीमा की ओर जाने लगता है। इस प्रयास में वह अपना मार्ग गर्दन के तंत्र भाग में बनाता है। वहाँ इसका संचय आसानी से देखा जा सकता है। पहले तो वह भाग बढ़ा हुआ प्रतीत होता है, फिर सूजन अथवा पिण्ड रूप में हो जाता है। गर्दन की अस्वाभाविक स्थिति हो जाती है। त्वचा का रंग भी बदल जाता है। यह भूरी, स्लेटी अथवा अति सुर्ख दिखायी देती है। शोथ गर्दन और सिर में शक्ल लेती है जो पेडू में और दोनों भागों में समान रूप से बढ़ती है। फिर भी कभी-कभी पेडू का संचय घटता है और गर्दन वाला बढ़ता है।
दोष संचय के प्रमुख भाग : प्रायः तीन अंगों में संयच मिलते हैं-
1. सामने का अग्र संचय (Frontal accumulation)
2. बगल का- दोनों में से किसी बगल का संचय (Accumulation in lateral right or left side)
3. पीठ का- शरीर के पीछे भाग का संचय (Accumulation in back)
अग्र भाग का संचय :
इस प्रकार के संचय में गर्दन सामने की ओर कुछ बड़ी हो जाती है। चेहरा बड़ा तथा भारी हो जाता है। मुंह प्रायः लंबा हो जाता है। यदि सामने का संचय पूरा-पूरा व्यक्त होता है तो चेहरा बहुत फूल जाता है और माथे पर चर्बीदार गद्दी बन जाती है। बहुत से व्यक्तियों में गर्दन पर पिण्ड बन जाते हैं। इससे प्रकट होता है कि संचय भयंकर दशा में है। दूषित पदार्थ के सूख जाने पर मांसपेशियाँ क्षीण होने लगती है। सामने के संचय में सिर को सरलता से पीछे नहीं किया जा सकता है। ऐसा करने पर गर्दन में बड़ा खिंचाव आता है। जब संचय केवल एकतरफा होता है, उस दशा में चेहरा एक ओर से दूसरी ओर की अपेक्षा भरा अथवा लम्बा लगता है।
अग्रभाग के संचय में कोई भी तीव्र रोग होने की संभावना रहती है। जैसे- खसरा, सुर्ख बुखार, डिप्थीरिया, फेफड़े की सूजन आदि। गले और गर्दन के जीर्ण रोग भी सामने के संचय से होते हैं। केवल सामने के संचय में मानसिक विकृति होना असम्भव है। सामने के संचय के बावजूद मार्मिक अंग प्रायः स्वस्थ रहते हैं क्योंकि दोष संचय प्रायः गालों में और माथे पर रहता है। उस दशा में इन हिस्सों में रोग होता है। सिर दर्द होता है, गालों पर मुहांसे निकलते हैं।सामने मल संचय का दूर होना अपेक्षाकृत सहज होता है। जल चिकित्सा द्वारा सामने का संचय कुछ ही समय में दूर किया जा सकता है।
पार्श्व संचय :
इस प्रकार के मल संचय की दशा में गर्दन लम्बी हो जाती है। प्रायः उस हिस्से के अन्य भाग भी फैल जाते हैं जिससे सारा शरीर बेडौल लगने लगता है। सिर को घुमाकर पार्श्व संचय की ठीक जांच की जा सकती है। क्योंकि इसमें गर्दन के उस हिस्से में खिंचाव होता है। साधारणतः उभरी हुई नसों को देख कर स्पष्ट बताया जा सकता है कि दोष संचय ने कौन सा रास्ता लिया है और वह किधर आगे बढ़ेगा।
साधारणतः पार्श्व संचय का परिणाम सामने के संचय की अपेक्षा अधिक खतरनाक होता है, उसे दूर करने में भी कठिनाई होती है। दोष संचय की दिशा में दांतों में दर्द होने लगता है। दांत क्षय होने लगते हैं। पाश्र्व और सामने के संचय मिल जाने पर प्रायः बहरापन आ जाता है। आंखों पर भी शीघ्र प्रभाव पड़ता है। भूरा या काला मोतियाबिंद हो जाता है। यदि सिर का आधा हिस्सा पूर्णतया दोष संचित हो जाता है तो आधा सीसी दर्द होने लगता है। बायें ओर का संचय प्रायः त्वचा की सक्रियता को मंद कर देता है। इसलिए दाहिने ओर की अपेक्षा यह अधिक भयंकर होता है।
पृष्ठ भाग का संचय
पीठ का संचय सबसे भयंकर होता है। पीठ पर मल संचय ऊपर की ओर बढ़ता है। कभी सिर की ओर न जाकर पीठ में ही रह जाता है। ऐसी हालत में वहाँ सूजन हो जाती है। कंधे गोल हो सकते हैं, कूबड़ तक निकल सकता है। सिर का शीर्ष भाग चैड़ा होने लगता है। पृष्ठ संचय से पीड़ित व्यक्ति प्राथमिक दशओं में मानसिक रूप से सक्रिय होते हैं परन्तु उनमें कुछ न कुछ बेचैनी सी तो रहती ही है। ऐसे व्यक्तियों में समय से पहले काम वासना उत्पन्न हो जाती है। ऐसे युवक तथा युवतियाँ हस्तमैथुन की ओर प्रवृत्त होते हैं। पृष्ठ संचय स्त्रियों में गर्भपात का खतरा उत्पन्न करता है।
मिश्रित संचय
अकेला एक तरह का संचय बहुत कम ही पाया जाता है। प्रायः दो या सब तरह के संचय एक साथ पाये जाते हैं। प्रायः सामने या बगल का संचय एक साथ और उसी प्रकारबगल का तथा पृष्ठ का संचय एक साथ और कभी-कभी अग्र और पृष्ठ संचय भी एक साथ ही पाया जाता है। जिनके शरीर के विभिन्न भागों में संचय होता है उनकी अवस्था अत्यधिक भयंकर होती है। ऐसे व्यक्ति स्नायुविक रोग से ग्रस्त, अशान्त, असंतुष्ट और सनकी होते हैं।
भीतरी अवयवों के रोग- किसी भी प्रकार का दोषसंचय होने पर पाचन क्रिया सदैव प्रभावित होती है। रोग का प्रारम्भ यहीं से होता है, और जिस सीमा तक विजातीय तत्वों का संचय बढ़ता है, उतना ही उनकी काम करने की शक्ति कम होती है। यह भी सम्भव है कि पीड़ित व्यक्ति को इसकी कोई प्रतीति न हो क्योंकि विकार की जीर्ण दशा आंतरिक अवयवों में बहुत कम पीड़ा देती है। जब संचित मल शुष्क हो जाता है, तो कब्ज अथवा अतिसार की अवस्था में आभास होता है। आंतों की झिल्लियों के शुष्क हो जाने से नमी कम जो जाने के कारण कब्ज हो जाता है। तब मल निकल नहीं पाता, गांठें पड़ जाती हैं। आंतों में अंदर के मल के बाहर फेंकने की शक्ति कम रह जाने पर ही अतिसार होता है। दोनों दशाओं में रक्तहीनता और दिन-प्रतिदिन शरीर कमजोर होता जाता है। पोषक भोजन के बावजूद क्षीणता बढ़ती जाती है।जब संचय दाहिनी ओर होता है तो यकृत जो दाहिनी ओर होता है, प्रभावित होता है। उस दशा में शरीर का रंग पीला पड़ जाता है, क्योंकि यकृत रक्त से पित्त को अलग करने में असमर्थ हो जाता है। यकृत की खराबी और सामान्यतः दाहिनी ओर के संचय का चिन्ह है अधिक पसीना आना। ऐसे व्यक्तियों के पैर पसीजते रहते हैं। पृष्ठ तथा बाएं भाग में संचय होने पर गुर्दे या वृक्क भी प्रभावित होते हैं। आंखों के नीचे की त्वचा सिकुड़ कर थैली सी बन जाती है जो वृक्क की बीमारी का चिन्ह है। महिलाओं में आंतों में अत्यधिक विकार संचय होने से गर्भाशय दबाव पाकर हट जाता है जिसे गर्भाशय का सरकना कहते हैं।
यदि विकार शरीर के ऊपरी या नीचे के हिस्से में बढ़ता है और पसीना नहीं निकलता है तो वात रोग की आशंका रहती है। इसी तरह बायीं दिशा में दोष संचित होने पर गठिया का खतरा बना रहता है। वात का दर्द जोड़ों के आगे की ओर होता है, पीछे की ओर कभी नहीं होता।
मुखाकृति विज्ञान की सहायता से तो रोग का निदान बहुत पहले हो सकता है और फेफड़े का रोग भी ठीक हो सकता है। फेफड़ों के रोग प्रायः अन्य रेागों के विशेषकर ज्वर को दवा द्वारा दबाये जाने के परिणामस्वरूप पैदा होते हैं। दोष ऊपर से फेफड़ों में आकर जमा होता है।सामान्यतः शरीर अपने अंदर से दोष निकालने की कोशिश करता रहता है, और इसी के परिणामस्वरूप प्रायः सर्दी, जुकाम, बुखार, खांसी होती है। अग्र संचय की अपेक्षा यदि संचय बगल में होता है, विशेषकर पृष्ठ की ओर, तो जीवनीशक्ति बहुत शीघ्रता से घटती है। शरीर मल को निकालने के लिए फोड़े-घाव वगैरह की मदद लेता है। कभी-कभी पीठ और छाती पर कष्टदायी फोड़े हो जाते हैं। लेकिन अल्प जीवनीशक्ति वाले लोगों में दोष सख्त होकर गांठों की शक्ल लेता है और यही फेफड़ों की क्षय-ग्रन्थियाँ कहलाती हैं। बवासीर, ट्यूमर, कैंसर आदि भी इसी तरह जन्म लेते हैं।
भयंकर रोग कुष्ठ का आरम्भ भी सिरों पर गांठें या गिल्टियाँ बनने के रूप में होता है। ये गिल्टियाँ पहले वहीं बनती हैं, जहाँ पसीना निकलना बंद हो जाता है। गिल्टियों का होना हमेशा इस बात का लक्षण है कि शरीर की दशा भीतर से बिल्कुल अव्यवस्थित है और जीवनीशक्ति घट गयी है जिसमें शरीर थोड़ा या पूरा फोड़ा और घाव पैदा करने में असमर्थ हो गया है।
चेहरे की दशा तथा रोग की पहचान
• कोमल चेहरा, झालर वाली पलकें, धंसी हुई आँखें, टी.बी. होने का संकेत करती हैं।
• चेहरे पर मोम के रंग का पीलापन आना गुर्दे या वृक्क की बीमारी का सूचक है।
• किसी रोग के शुरू-शुरू में ही रोगी के चेहरे का बैठ जाना किसी भयंकर रोग का सूचक है।
• एकदम चेहरे की कान्ति का नष्ट होना छाती के दर्द का सूचक है।
• मुँह से बार-बार सांस लेना, गलसुपे की निशानी है।
• रोगी का चेहरा सुस्त हो जाना कब्ज तथा बुखार का द्योतक है।
• रोगी के माथे से नासिका की जड़ तक झुर्रियों का पड़ना, बेचैनी, उत्सुकता तथा तीव्र आंतरिक वेदना प्रगट करता है।
• रोगी के माथे पर झुर्रियां पड़ना तीव्र बाह्य दर्द का द्योतक है।
• रोगी का चेहरा पीला हो जाना पीलिया रोग का सूचक है।
• चेहरे में स्वाभाविक लाली की कमी होना रक्ताभाव का सूचक है।
• रोगी का फीका चेहरा होना टी.बी. प्रदर्शित करता है।
• मुंह पर दही जैसे सफेद दाग दिखायी देना मुंह के छालों के घाव का द्योतक है।
• मसूड़ों का रंग नीलापन लिये होता है तो यह हृदय रोग का सूचक है।
• चेहरे का लाल तथा धब्बों वाला होना खसरे का सूचक है।
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