वर्तमान शताब्दी में महात्मा गाँधी को
भारत का प्रथम प्राकृतिक चिकित्सक कहा जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा का मूलाधार
ईश्वर श्रद्धा अथवा महत् तत्व है। महात्मा गाँधी जी का मानना था कि श्रद्धा से मनुष्य
रोग मुक्त हो जाता है उसका रहस्य यही है कि ईश्वर जिसकी हम उपासना करते है स्वयं स्वस्थ
सत्य तथा प्रेम है और वह तो डाक्टर है इसीलिए रामनाम का आश्रय लेने से हर प्रकार रोग
शोक दूर होने में देर नहीं लगती है। गाँधी जी का कहना था कि प्राकृतिक चिकित्सा भारतवासियों
के लिए उपयुक्त है और इसका जन-जन तक प्रचार-प्रसार होना चाहिए। गाँधी जी ने एक साप्ताहिक
पत्रिका ‘नवजीवन’ तथा हरिजन में प्राकृतिक चिकित्सा के सम्बन्ध में अनेकों लेख
लिखे और कई पुस्तके भी लिखी। और 1940 ई0 में पूना के समीप उरूली कांचन में एक प्राकृतिक
चिकित्सालय की स्थापना की। आज वह बहुत बड़ा प्राकृतिक चिकित्सालय है। वे उस चिकित्सालय
के प्रथम चिकित्सक थे।महात्मा गाँधी जी के प्रयासों से प्रशरित होकर प्राकृतिक चिकित्सा
के अनेकों प्रमियों ने प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार में कार्य प्रारम्भ किया।
महात्मा गांधी तथा प्राकृतिक चिकित्सा
गांधी जी और प्राकृतिक चिकित्सा व योग के सम्बन्धों का वर्णन करने के लिए यह बताना
आवश्यक हो जाता है कि गांधी जी को इस ओर प्रेरित करने की पाठशाला उनका परिवार रहा है।
जैसा कि कहा गया है, शिशु की प्रथम पाठशाला परिवार होता है। अर्थात् बाल्यावस्था में बालक परिवार के
सदस्यों से ही सीखता है। बड़ो का आचरण जैसा होगा वैसा ही बालक देखकर सीखता है। उसी प्रकार
से गांधी जी ने अपनी ’’माता पुतली बाई जी’’ से संयम, सेवा, मितव्यता, सहनशीलता, उपवास, ब्रह्मचर्य इत्यादि को अपने जीवन में उतारने के लिए ज्ञान प्राप्त
किया। इन्ही बचपन की शिक्षाओं के पर चलते हुये देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी
अपनी जीवन शैली से अलग नहीं होने दिया। जहां चाह वहाँ राह वाली कहावत को चरितार्थ करते
हुये उन्हे ’एडोल्फ
जस्ट’ द्वारा रचित ’’रिटर्न टू नेचर’’ पुस्तक मिल गयी जिसने उनके पूरे विचार ही परिवर्तित कर दिये।
इसके बाद उन्होने अपने शरीर तथा अपने सभी परिचितों का उपचार भी प्राकृतिक चिकित्सा
द्वारा करना आरम्भ कर दिया। तत्पश्चात गांधी जी ने एक प्राकृतिक चिकित्सालय की स्थापना
की तथा जीवन शैली, योग्य एवं प्राकृतिक चिकित्सा पर पुस्तके लिखी । प्राकृतिक चिकित्सा के पंच महाभूतो
के अतिरिक्त छठे तत्व ’’ महत् तत्व’’ को आधार मानते हुये ’’रामनाम’’ पुस्तक लिखी। उनका विश्वास था कि भारत के ग्रामीण निवासियों
के लिए चिकित्सा हेतु एक सस्ती सरल एवम् सुलभ चिकित्सा पद्धति यदि कोई है तो वह प्राकृतिक
चिकित्सा ही है। गांधी जी ने इस चिकित्सा पद्धति में राम नाम को जोड़ते हुये उसके प्रचार-प्रसार
में जुट गये।
गाँधी जी और रामनाम :
रामनाम या महत तत्व प्राकृतिक चिकित्सा का आधार है । जिस प्रकार प्राण के बिना
शरीर का कोई महत्व नही होता उसी प्रकार महत् तत्व के बिना पंच तत्वों का कोइ अस्तित्व
नही होता क्योकि पंच तत्वों को क्रियान्वित करने का कार्य महत् तत्व द्वारा ही किया
जाता है।सर्वशक्तिमान ईश्वर से अर्विभूत पांच तत्वो का क्रम ही हमारे जीवन स्वास्थ्य
और आनंद के लिए उनकी उपादेयता और मूल्य के
दृष्टि से वास्तविक एवं प्राकृतिक क्रम है। ईश्वर या राम नाम के बिना तो हमारी कोई
सता है ही नही इस महत् तत्व का हमे अनवरत स्मरण रहना चाहिए सर्व शक्तिमान ईश्वर ही
सारी सृष्टि को उत्पन्न करने वाला है इसलिए महत् तत्व ही पंचतत्वो को क्रियान्वित करता
है। राम नाम या ईश्वर नाम (अपने-अपने धर्मानुसार) के बिना प्राकृतिक चिकित्सा पूर्ण
नहीं हो पाती। प्राकृतिक चिकित्सा के साधनों आकाश तत्व,
वायु तत्व, अग्नि तत्व, जल तत्व व पृथ्वी तत्व, इन सभी तत्वों का शक्ति स्रोत राम नाम ही है।
गांधी जी ने कहा कि जो मनुष्य श्रद्धा से रोग से मुक्ति पा लेता है। उसका यही रहस्य
है। कि ईश्वर स्वयं सत्य, स्वास्थ्य तथा प्रेम है और साथ ही वह वैद्य भी है। अतः राम नाम का आश्रय लेने से
सभी प्रकार के रोगों के ठीक होने में देर नहीं लगती। प्रार्थना द्वारा मन के कलमस साफ
हो जाते हैं तथा आत्मा विशुद्ध हो जाती है। आत्मा विशुद्ध हो जाने पर व्यक्ति अपना
सम्बन्ध ईश्वर के साथ स्थापित कर सकता है। जिससे स्थाई सुख शांति की प्राप्ति होती
है।
प्रार्थना का सर्वोत्तम समय सुबह उठते समय व रात्रि में सोने से पूर्व है। सुबह
की प्रार्थना में भगवान से उस दिन हमारे काम अच्छे से हो जायें इस बात की प्रार्थना
करनी चाहिये, तथा शाम
को प्रार्थना में दिन भर जो भी अच्छा या बुरा कार्य किया उसे प्रभु को समर्पित करते
हुए उन्हें प्रणाम करना चाहिये, तथा जो भी बुरा किया गया है उसके लिये क्षमा याचना करनी चाहिये
तथा साथ ही यह भी प्रण करना चाहिये कि इन बुरे कार्यो को फिर नहीं दोहरायेगें,
इस प्रकार से प्रार्थना खुले दिल से करनी चाहिये,
उसमें कोई छल, झूठ या कोई खोट नहीं होना चाहिये। प्रार्थना की मधुरता बढ़ाने
के लिये उसे शुद्ध हृदय से किया जाना अनिवार्य है। प्रार्थना हमारे मुख से नहीं अपितु
हमारे हृदय से होनी चाहिये। प्रार्थना द्वारा कठिन से कठिन रोग भी दूर किया जा सकता
है। जब कोई रोगी या उसका अभिभावक रोग निवृत्ति के लिये प्रार्थना करते है तब प्रार्थना
के सूक्ष्म अणु रोगी शरीर की कोशिकाओं को बदलकर उसे स्वास्थ्य प्रदान करते है।
गांधी जी राम नाम और उससे उत्पन्न पंचमहाभूत दोनों को विशुद्ध प्राकृतिक चिकित्सा
साधन मानते थे जबकि बाकी सभी प्राकृतिक चिकित्सक केवल पांच महाभूतों को ही स्वीकार
करते है। गांधी जी बार-बार कहा करते थे कि राम नाम रोगी के लिए अचूक चिकित्सा है। यह
प्राकृतिक चिकित्सा का केन्द्र बिन्दु है। राम नाम के जप से रोगी को आरोग्यता की प्राप्ति
होती है।
गांधी जी और आकाश तत्व :
महात्मा गांधी ने आकाश तत्व को आरोग्य सम्राट की संज्ञा दी है और साथ ही यह भी
कहा कि जिस प्रकार ईश्वर के भेद को जानना है उसी प्रकार इसका भेद जानना है। इस महान
तत्व का जितना अधिक उपयोग किया जाये उतना अधिक अरोग्य प्राप्त किया जा सकता हैं यदि
बिना आश्रय व वस्त्रों के इस अनन्त आकाश से सम्बन्ध जोड़ लें तो हमारा शरीर हमारी बुद्धि
तथा हमारी आत्मा पूरी तरह से आरोग्य से परिपूर्ण हो जाये। आकाश तब हमारे आस-पास हमारे
ऊपर नीचे,
बाहर, भीतर प्रत्येक रोम छिद्र में उपस्थित है। साधारणतः हम देखते
हैं कि लोग ठूंस-ठूंस कर खाते हैं पेट में जरा भी स्थान खाली नहीं छोड़ते जिस कारण वहां
आकाश तत्व की कमी हो जाती है। तथा भोजन के पाचन में परेशानी होती है। यही स्थिति निरन्तर
रहे तो मनुष्य रोगी हो जाता है। जबकि हम देखते है की अधिक खाने से पूरे शरीर में एक
भारीपन का अनुभव होता है कार्यो में अनिच्छा होती है। परन्तु इसके विपरीत यदि हम भूख
से थोड़ा कम भोजन करते है। तो पूरे शरीर में हल्कापन व स्फूर्ति महसूस होती है। तथा
कार्यो में भी स्वाभाविक रूचि होती है। इसके लिये हो सके तो सप्ताह में एक दिन पूर्ण
उपवास अवश्य रखना चाहिये यदि यह सम्भव न हो सके तो कम से कम एक समय का भोजन त्याग देना
चाहिये। इससे भी काफी लाभ लिया जा सकता है, योग में भी इस सम्बन्ध में मिताहार की चर्चा की गयी है। जिसमें
पेट के आधा भाग भोजन एक चैथाई जल तथा एक चैथाई वायु के लिये खाली छोड़ना चाहिये ताकि
भोजन आसनी से पच सके। हमारी जीवनी शक्ति को बढ़ाने व सभी प्रकार के रोग आदि की निवृत्ति
के लिये आकाश तत्व की प्राप्ति उपवास, सदाचार मानिसक अनुशासन, ब्रह्मचर्य, विश्राम, प्रसन्नता, मनोरंजन व अच्छी निद्रा के द्वारा की जा सकती है।
महात्मा गांधी का बचपन एवंम् प्राकृतिक जीवन :
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को पोरबन्दर अथवा सुदामापुरी में हुआ था । महात्मा गांधी
के बचपन का नाम मोहन दास था उनके पिता का नाम करमचन्द गांधी व माता का नाम पुतली बाई
था। उनके पिता कुटुम्ब प्रेमी, सत्य प्रिय, उदार किन्तु क्रोधी भी थे। वे न्याय के शुद्ध पुजारी थे। गांधी
जी की माता एक साध्वी महिला थी वे श्रद्धालु थी बिना पूजा पाठ के कभी भोजन भी नहीं
किया करती थी, वे कठिन
से कठिन व्रत आरम्भ करती थी और उन्हें निर्विघ्न पूरा करती थीं। धारण किये हुये व्रतों
को वे अस्वस्थ होने पर भी नहीं छोड़ती थी जो उनकी दृढ़प्रतिज्ञा व ईश्वरीय आस्था का प्रमाण
भी है । वे व्यवहार कुशल स्त्री थी। गांधी जी के व्यक्तित्व पर उनकी माता पुतली बाई
का गहरा प्रभाव था । माता के अनन्त् प्रेम, आसीम, तपोमय जीवन और अटल इच्छा शक्ति की अमिट छाप गांधी जी के व्यक्तित्व
में समाहित थी । अपनी माता के वात्सल्य का अंश गांधी जी ने आत्मसात किया और उम्र के
साथ इसका प्रवाह इस तेजी से बढ़ा कि अन्ततः परिवार और समुदाय की सीमाओं को तोड़कर सारी
मानवता में व्याप्त हो गया । यह सर्वविदित है कि प्रत्येक बालक में महान बनने के गुण
होते है । उसे उचित मार्ग दर्शन, परिवेश मिल जाए और भय, क्रोध, लाभ, देशभाव, हिंसा,
छल आदि नकारात्मक मानसिक प्रवृतियों का उन्मूलन कर प्रकृति सर्दृश
गुण,
प्रेम, सत्यवादिता, सहनशीलता, विनम्रता, उदारता, ममता, आत्मसंयम, क्षमा, विवेक, सेवा, त्याग आदि मानवीय मूल्यों का सम्प्रेक्षण बचपन में ही उसके अवचेतन
में स्थापित हो जायें यदि इन मानवीय मूल्यों का परिपालन उसके स्वभाव का अंग बन जाये
तो वह बालक बड़ा होकर एक आदर्श एवं अनुकर्णीय व्यक्तित्व में ढल सकता है जो न केवल अपने
लिए बल्कि अपने परिवार समाज, देश व मानव जाति के लिए अत्यन्त मूल्यवान और उपयोगी भी सिद्ध
हो सकता है। महात्मा गांधी को अपनी माता से रामनाम में श्रद्धा,
तप, विनय व रोगी की सेवा करने का सबक तो मिला ही जिससे वह अपने आश्रम में कुष्ठ रोगी
के घावों को स्वंय ही धोते थे, साथ ही आत्मपीड़न द्वारा दूसरों के हृदय को प्रभावित व द्रवित
भी किया करते थे। यद्यपि पारिवारिक व सामाजिक समस्याओं के कारण मोहन दास की इच्छा न
होते हुये भी विदेश जाना पड़ा व तथापि उन्होने अपनी मां से प्रतिज्ञा की थी कि वह मांस
मदिरा और नारी का स्पर्श नहीं करेंगे। मांस न खाने की प्रतिज्ञा गांधी जी के लिए अक्सर
कष्टकारक भी बनी रहती थी उनके मित्रो को भय रहता था कि खान पान का अत्यधिक परहेज उसके
स्वास्थ्य को खराब कर सकता है। अपने इन आलाचकों को निरुत्तर करने के लिए और यह सिद्ध
करने के लिए कि शाकाहारी भी अपने को नये वातावरण में ढाल सकता है। उन्होने अंग्रेजी
संस्कृति की तड़क-भड़क को अपनाने का निश्चय किया । महात्मा गांधी ने अल्पकाल के लिए पूर्ण
अंग्रेजी तौर तरीको को अपनाया, उन्होने इसके लिए धन की परवाह भी नहीं की और न ही समय की उन्होने
लन्दन के सबसे अच्छे और फैशन में अंग्रेजी दर्जियों से सूट सिलवायें । घड़ी में लगाने
के लिए सोने की चेन मंगवाई तथा कला, नृत्य और संगीत की विधिवत् शिक्षा भी विशेषज्ञों से ली । ईश्वरीय
कृपा के फलस्वरूप महात्मा गांधी एक अच्छे आत्मनिरीक्षक भी थे । अतः उन्होने अनुभव किया
कि इन प्रयोगों में वे स्वंय को बनावटी (कृत्रिम) बना रहे है । अंग्रेजी नाच और गाना
उनकी सहजता में बाधक था उनके अनुसार दर्जी, बजाज और नाचघर उन्हे अंग्रेजी साहब तो अवश्य बना देंगे लेकिन
यह कृत्रिम जीवन ऊपरी ही होगा ।
अन्ततः तीन महीने की चकाचौंध में भटकने के पश्चात उनका सहज अन्तर्मुखी मन पुनः
आत्म स्वभाव में स्थापित हो गया अनावश्यक फिजूल खर्ची ने मितव्ययिता का रूप ले लिया
। अब वह सस्ते कमरे में रहने लगे बस का किराया बचाने के लिए रोज आठ-दस मील पैदल चलते
। इस प्रकार अपना पूरे महीने का खर्च सिर्फ दो पौण्ड में चला लेते थे । परिवार के प्रति
आभार और अपने दायित्व को वह बड़ी गम्भीरता से अनुभव करने लगे अब उन्हे इस बात की विशेष
प्रसन्नता कि अब खर्च के लिए घर से अधिक धन
नहीं मांगना पड़ेगा । शुद्ध शाकाहारी होना जो प्रारम्भ में उनके लिए कष्ट कारक था अब
एक महत्वपूर्ण गुण बन गया । हेनरी एस सावर की लिखी पुस्तक ’’प्ले फार वेजीटेरियनिज्म’’ उनके हाथ लगी और इसके तर्क उनके मन को भा गये । यद्यपि अभी तक
निरामिश भोजन ग्रहण करना उनके लिए भावना का विषय था । क्योकि उन्होने माता को मांस
मदिरा ग्रहण न करने का वचन दिया था तथापि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद यह तर्क संगत विश्वास
और आस्था से परिपूर्ण हो गया । मां के सम्मुख सम्मान भावना से अपनाया गया शाकाहार,
जो एक असुविधाजनक प्रतिज्ञा थी ने अब उनके जीवन में शारीरिक
और मानसिक अनुशासन को जन्म दिया तथा भविष्य में उनके जीवन रूपान्तरण का आधार भी बना
। अब वे नये उत्साह के साथ आहार विज्ञान पर उपलब्ध प्रत्येक साहित्य को मन लगाकर पढ़ने
लगे और अन्ततः इस निर्णय पर पहुंचे कि स्वाद का केन्द्र रसना न होकर मन ही है । उनका
स्वाद पर नियन्त्रण उस आत्मानुशासन की दिशा में पहला कदम था जो कई वर्ष बाद पूर्ण इन्द्रिय
निग्रह के रूप में अपने चरम बिन्दु पर पहुंचा । यद्यपि गांधी जी ने लन्दन जाने के पूर्व
ही अपनी माता के समक्ष सम्मान के भाव से एक पत्नी व्रत धारण किया था । किन्तु कालांतर
में उन्होने आत्ममंथन कर स्वंय को विषय वासना का आसक्त पाया। संयम पालन भी एक कठिन
कार्य था किन्तु सेवा के सिलसिले में संयम पालन के तीव्र विचार उनके मन में स्वतः उत्पन्न
होने लगे और उन्होने जान लिया कि लोक सेवा में तन्मय होने के लिए पुत्रैषणा और वित्तैषणा
का त्याग करना ही चाहिए और वानप्रस्थ धर्म का पालन करना ही चाहिए । अतः उन्हे व्रत
धारण के महत्व का गहराई से अनुभव हुआ अब उन्हे स्वंय के दृढ़निश्चयी न होने का आभास
हुआ जिसके कारण उनका मन अनेक तरंगो और विकारो के घेरे में पड़ा रहता था । उन्होने देखा
कि व्रतबद्ध न होने से मनुष्य मोह में पड़ता है । व्रत से बंधना व्याभिचार से छुटकारा
पाकर एक पत्नी-व्रत का पालन करने के समान है। गांधी जी के शब्दो में,
’’मैं प्रयत्न करने में विश्वास रखता
हूँ,
व्रत से बंधना नहीं चाहता ’’ यह वचन निर्बलता की निशानी है,
और इसमें सूक्ष्म रूप से भोग की वासना छिपी होती है । जो वस्तु
त्याज्य है, उसका
सर्वथा त्याग करने में हानि कैसे हो सकती है ? जो सांप मुझे डसने वाला है, उसका त्याग मैं निश्चय-पूर्वक करता हूँ,
त्याग का केवल प्रयत्न नहीं करता । मैं जानता हूँ कि केवल प्रयत्न
के भरोसे रहने में मृत्यु निहित है । प्रयत्न में सांप की विकरालता के स्पष्ट ज्ञान
का अभाव है । विचारणीय तथ्य यह है कि हम अपने शरीर का उचित उपयोग किस प्रकार कर सकते
हैं । प्रत्येक वस्तु का सदुपयोग और दुरूपयोग किया जा सकता है । यदि स्वार्थ सिद्धि
के लिए इसका उपयोग दूसरों को नुकसान पहुंचाकर किया जायें तो वह इसका दुरूपयोग होगा
यदि शरीर का उपयोग ’सर्वजनहिताय’ के उद्देश्य से किया जाये तो वह इसका सदुपयोग ही होगा। सम्पूर्ण
जगत ईश्वरीय शक्ति का एक नमूना है। यदि हम इस शरीर का उपयोग उस ईश्वरीय तत्व को पहुंचाने
के लिए करते है, तो शरीर
आत्मा अथवा ईश्वरीय तत्व के निवास स्थान का जीता जागता हुआ मन्दिर बन जायेगा । अन्यथा
धरती पर बोझ के रूप में मलमूत्र की खान ही समझा जायेगा।
साधारणतया हीरे और सोने की खान भी ऊपरी तौर पर मिट्टी की खान ही प्रतीत होती है।
लेकिन अमुख स्थान पर हीरे और सोने की खान का ज्ञान होने पर मानव उस पर करोड़ो रूपये
खर्च करता है और अलग से शास्त्रज्ञ बुद्धि का उपयोग भी करता है फिर आत्मा के मन्दिर
रूपी शरीर के लिए अथवा शरीर और आत्मा के उस दिव्य मिलन के लिए हम जितना प्रयत्न करें
उतना कम है।
माना जाता है कि हम इस जगत में अपने मनुष्य होने का ऋण चुकाने के लिए जन्म लेते
है अर्थात् सेवा हेतु इस शरीर की रक्षा के लिए हमें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे वह
सेवा धर्म का पालन पूर्णतया कर सके । सेवा धर्म निर्वाह करने हेतु अहंकार विर्सजन व
इन्द्रिय निग्रह परमावश्यक है। संयमित जीवन का पुनीत मार्ग प्रकट रूप में भले ही नीरस
एवं अग्राह्य प्रतीत हो,
किन्तु परिणामतः वह कितना कल्याणकारी है यह कथन का विषय नहीं
अपितु सोचने, समझने
और व्यवहार में लाकर अनुभव करने का विषय है। अतः वास्तविकता यह है कि संयमशीलता के
अभाव में मनुष्य अपना मनुष्यत्व खो देता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस,
गन्ध, काम, क्रोध, मोह,
लोभ तथा अंहकार के वशीभूत होकर पशुओं के समान जीवन यापन करता
है। विडम्बना तो यह है कि इन वासनाओं की पूर्ति कभी नहीं होती। विश्राम की आशा दुराशा
मात्र होती है। कदाचित् इसका कारण स्वामी सेवक का पद परिवर्तन भी माना जा सकता है।
इन्द्रियों (नौकर) का प्रभुत्व और बुद्धि और विवेक (मालिक) को उसकी दास्यता स्वीकारना
माना जा सकता है। गांधी जी ने इन्द्रियनिग्रह हेतु सात्विक,
आहार विहार और योगाभ्यास को अति आवश्यक माना है। यम,
नियम ब्रह्मचर्य व्रत की धारणा के परिणामस्वरूप बुद्धि के शुद्ध
होने की सम्भावना बढ़ जाती है । गांधी जी ने मन और इन्द्रियों की शुद्धि के सन्दर्भ
में एकांत में आत्मनिरीक्षण को बड़ा सहायक माना है जो महापुरूषों का लक्षण भी है। इससे
शनै-शनै मन की चंचलता समाप्त हो जाती है। कारण हम दूसरों से अपने दुर्गण छुपा सकते
है स्वंय से नहीं अतः स्थिर होकर आत्मअवलोकन करने पर चित्र में छिपे कितने ही दोष हमारे
सम्मुख प्रकट होते है जिन्हे देखकर हम काँप जाते है और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति
न करने का संकल्प उठाते है। तात्पर्य यह कि आत्मनिरीक्षण द्वारा प्राप्त यह ज्ञान हमारे
सच्चे वैराग्य और सच्ची उन्नति की कुंजी है। मन संयम का एक दूसरा साधन है,
ईश्वर प्राणिधान प्रत्येक धर्म में प्रार्थना,
नमाज अथवा अरदास का
प्रावधान मन को पवित्र करने से ही सम्बन्धित है। प्रतिदिन कुछ समय के लिए श्रद्धा भक्ति
से की गयी ईश्वरीय अर्चना से मन वश में हो जाता है। गांधी जी ने पश्चिम में स्वंय को
विषय भोग की एकदम छूट देने का प्रयत्न भी किया किन्तु कुछ ही समय पश्चात उन्हे यह विचार
भ्रम मूलक प्रतीत हुआ । गांधी जी ने वाणी में भी इन्द्रियों को चलायमान करने की शक्ति
का अनुभव किया । अतः उन्होने वचन को संयमित करने का एकमात्र उपाय मौनावलम्बन को भी
बताया मौन में बड़ा बल होता है। इसलिए मौन का नाम शान्ति भी है। अपनी वाणी को संयमित
करने के लिए हमे सप्ताह या महीने में एक दिन बिल्कुल मौन रहना भी आवश्यक है । उस दिन
एकाग्रचित होकर आत्मा और परमात्मा का चिन्तन करना या गत सप्ताह वचन द्वारा यदि किसी
को क्लेश हो किसी से लड़ाई की हो तो मौनावस्था में उस पर आत्म विश्लेषण किया जा सकता
है। जिससे भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न होने देने के लिए ईश्वर से प्रार्थना की जा
सके । गांधी जी मौन व्रत के महत्व को भली-भांति जानते थे । इसी कारण वह सप्ताह में
एक दिन नियमित रूप से मौनव्रत धारण करते थे। कर्म, वाणी, इन्द्रियों की शुद्धता का परिणाम ही सद् आचरण है। श्री मद्भागवत
गीता में तन और मन की पवित्रता सदाचार का दूसरा नाम है। सदाचार विश्वात्मा के उन प्रधान
धर्मों में से एक है जिसके समुचित अनुकरण में मानव जीवन अबाध गति से प्रवाहित होता
रहता है। सदाचार ही सदविचारों की पृष्ठभूमि है। सदाचार ही आत्मा की सच्ची शक्ति का
एक मात्र उपाय है। जिसकी शक्ति से गांधी जी ने सम्पूर्ण विश्व को आंदोलित कर दिया था।
उनकी आत्मा विश्व और विश्वात्मा के साथ आत्मसात हो गयी थी। तभी उन्होंने दूसरों की पीड़ा (दुख दर्द) की अनुभूति अपने भीतर अनुभव की
और वसुधैव कुटम्बकम् की भावना से ओत-प्रोत् हो गये ।
गांधी जी ने सदाचार के सिद्धांतो पर विचार किया क्योकि समस्त मानव जीवन की शारीरिक
उन्नति का स्रोत इसी तत्व में निहित है।
सदाचारी होने के लिए मानसिक अनुशासन व सन्तुलन परमावश्यक है। मन की शक्ति अपरम्पार
है,
इस शक्ति का अभाव ही मनुष्य के शरीर के स्तर पर रोगो का मूल
कारण भी है। तात्पर्य यह है कि रोगावस्था में रोगी की मनोभावना जैसी होगी उसी के अनुरूप
उसकी परिचर्या भी होती है। बुरी मनोभावनाओं का प्रभाव हमारे शरीर पर निश्चय ही पड़ता
है। ऐसे रोग जो मानसिक उद्धेगों का परिणाम हैं, में केवल शरीर की ही चिकित्सा करना बिल्कुल अनुचित होगा । क्योकि
मन आत्मा का स्थूल रूप है और शरीर प्राणों का । अतः जब तक तीनो को चिकित्सीय आधार नहीं
बनाया जायेगा तब तक एक पूर्ण स्वास्थ्य की परिकल्पना निराधार है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार भी अधिकांश रोग मन के भावों के अस्वस्थ होने पर ही उत्पन्न
होते हैं। मानव की भावना का प्रभाव उसके शारीरिक अणुओं पर तुरन्त ही पड़ता है अतः यदि
मन के भावो और श्वासों को सामान्य स्थिति में रखा जाये तो मनुष्य को रोग बहुत कम रहते
हैं।
हवा अथवा प्राण मनुष्य को मन से जोड़ने का कार्य करते है अर्थात् प्राण मन और शरीर
के बीच का सेतु है। हम सांसो के अराजक होते ही मन की गति में परिवर्तन एकदम देख सकते
है। नासिका छिद्रों द्वारा प्राण वायु (सांसों) को खीचकर हम फेफड़ो में भरते है,
वह न मिले तो मनुष्य जिन्दा नहीं रह सकता। हमारे रक्त की शुद्धता
इसी प्राण वायु पर निर्भर करती है। कई लोग मुंह से श्वास लेते है। जो एक बुरी आदत है
नासिका से ग्रहण की गयी प्राण वायु छनकर भीतर जाती है,
और गरम होकर फेफड़ो में पहुंचती है। मुंह से श्वास लेने से वायु
न तो स्वच्छ ही होती है और न गरम ही हो पाती है। इसलिए गांधी जी ने प्रत्येक मनुष्य
के लिए प्राणायाम को अत्यधिक आवश्यक बताया। उनके अनुसार यह क्रिया जितनी आसान है उतनी
ही आवश्यक भी है। अतः गांधी जी ने नियमबद्ध श्वसन की अपील की है। चलते फिरते सोते समय
लोगो को अपना मुंह बन्द रखने का सुझाव भी गांधी जी ने दिया है। क्योकि यदि उनके द्वारा
अपना मुंह बन्द रखा जायेगा तो नासिका कार्य स्वतः ही करेगी। जिसके कारण चित्त प्राण
की गति के अनुसार रहता है। यदि प्राण ऊर्जा प्रबल होती है तो वासनाऐं नियंत्रित रहती
है। इन्द्रियों पर नियंत्रण बना रहता है और मस्तिष्क की स्थिरता भी बनी रहती है। यदि
वासना प्रबल रहती है तो श्वसन अनियमित हो जाता है और मस्तिष्क उत्तेजित हो जाता है।
इसका अभिप्राय यही है कि यदि प्राणिक शरीर ढंग से कार्य न करें तो मन भी विक्षिप्त
हो जाता है। प्राण प्रवाह में संतुलन स्थापित होने पर मन भी शान्त और सन्तुलित हो जाता
है।
हठयोग प्रदीपिका के तीसरे अध्याय में स्वात्माराम ने कहा है कि जब तक श्वास और
प्राण निश्चेष्ट होते है, तब तक चित्त भी स्थिर रहता है। और इस अवस्था में वीर्य (शुक्र) का क्षय नहीं हो
सकता है।
ऐसे समय में ही साधक की बढ़ी हुई ओजस्विता का उत्कृष्ट और उच्च लक्ष्यों की प्राप्ति
के लिए उदात्तीकरण होने लगता है। ऐसे समय में ही वह उध्र्वरेतस (उध्र्व-उपर की ओर,
रेतस-वीर्य) की अवस्था में पहुंच जाता है। यह ऐसी स्थिति है
जिसमें साधक अपनी उर्जा का उदात्तीकरण कर लेता है और उसका चित्त शुद्ध चेतना में विलीन
हो जाता है।
सामान्यतः जब साधक सांस लेते है तो वायु प्रत्यक्ष रूप से हमे तीन-चार स्थानों
पर ही महसूस होती है जो कंठ, हृदय, फेफड़े और पेट हैं । यदि साधक प्राण वायु का अनुभव मस्तिष्क में
भी करें तो मस्तिष्क की जाग्रति होना भी अनिवार्य है। यही जाग्रति कालान्तर में उसकी
स्मृति का कारण भी बन जायेगी। मन संयमित होगा व शरीर का भी रक्षण होगा। भीतर की तीव्र
श्वसन प्रक्रिया से हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। बोन मेरो में नए रक्त का
निर्माण होने लगता है। आंतो में जमा मल विसर्जित होने लगता है। न्यूरान की सक्रियता
से सोचने समझने की क्षमता पुनः जिन्दा हो जाती है। जैसे शीतल सुगंधित वायु प्रवाह से
वातावरण हर्षित दिखाई पड़ता है वैसे ही फेफड़ो द्वारा शुद्ध वायु ग्रहण करने के परिणामस्वरूप्
शरीर का रोम-रोम उल्लास से भर जाता है। प्रायः देखा जाता है कछुए की श्वास लेने व छोड़ने
की गति सामान्य इन्सानों से कही अधिक दीर्घ है जो उसके दीर्घायु होने का प्रमुख कारण
है,
व्हेल मछली के दीर्घ जीवन का रहस्य भी यही है। प्राचीन ऋषि महर्षि
वायु के इस रहस्य को समझते थे सम्भवतः वे कुम्भक लगाकर गुफाओं और कन्दराओं में इसी
कारण बैठे रहते थे। श्वास लेने और छोड़ने में घंटो का समय प्राणायाम के अभ्यास से ही
संभव हो पाता है। यही प्राणायाम का रहस्य भी है। जो शरीर से विजातीय तत्वों के निष्कासन
का एक सुलभ मार्ग भी है। शरीर में दूषित वायु के एकत्र होने की स्थिति में आयु क्षीण
होती है और रोगों की उत्पत्ति होती है। अतः गांधी जी ने प्राणायाम को आरोग्य साधन का
महत्वपूर्ण अंग बताया है। नासिका द्वारा फेफड़ों
में शुद्ध हवा भरनी चाहिए। अतः हम खुले आसमान के नीचे सोने की आदत डालकर भी
कई श्वसन सम्बन्धी रोगो से बच सकते है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हवा के बाद पानी
का स्थान है। क्योकि हवा के बिना कुछ क्षणों तक जीवित रहा जा सकता है और पानी के बिना
कुछ ही दिनों तक इसी कारण बिना पानी की मरूभूमि में मनुष्य अपना निवास नहीं बनाता।
सृष्टि के अन्त में (प्रलय-काल) में सृष्टि जल में समाहित हो जाती है सर्ग काल
में फिर जल से ही उसका उदय होता है अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में भगवान की चेतना-शक्ति
की प्रेरणा से क्रमशः आकाश वायु तथा तेज (अग्नि) के प्रादुर्भाव होने के रूप तन्मात्रमय,
तेज के विकृत होने से रस तन्मात्र होता है जिससे जल तत्व की
उत्पत्ति होती है। यद्यपि जल तत्व अपने शुद्ध रूप में ही स्थापित है तथापि अन्य भौतिक
पदार्थो के सम्प्रेषण से वह कसैला मीठा तीखा हो जाता है।
रोगादि दोषो तथा ताप की निवृत्ति करना एवं सब प्रकार की स्वच्छता प्रदान करना जल
का मुख्य गुण है। इसी कारण वेदों में इसकी महिमा का वर्णन किया गया है तथा ऋग्वेद में
जल को औषधि के रूप में स्वीकार किया गया है। जल को रोगो का दुश्मन माना जाता है। इसी
कारण महात्मा गांधी ने रोग निवारण हेतु जल को उपयोगी साधन माना है। उन्होने पानी को
छानकर व उबालकर पीने की
पद्धति की खूब प्रशंसा की है। हवा, पानी के बिना हमारा जीवित रहना सम्भव नहीं है। वैज्ञानिक तथ्यों
से ज्ञात होता है कि जिन तत्वों से हमारा शरीर निर्मित हुआ है। वे हमारे भोजन में
(खाद्य पदार्थो) में विद्यमान होते है। इन्ही मूल तत्वों को जब हम अपनी अज्ञानता और
असावधानी के कारण आने शरीर को आवश्यकता के अनुरूप नहीं दे पाते तभी हम अस्वस्थ होते
है। आज इसी कारण से संसार में एक भी ऐसे व्यक्ति को खोज निकालता कठिन है जिसे हम पूर्ण
शारीरिक,
मानसिक अथवा आध्यात्मिक स्तर पर स्वस्थ कह सकें। प्रतिदिन परिश्रम
के कारण हमारे शरीर के भीतर विभिन्न तत्वों का ह्रास होता रहता है यदि समयानुसार इनकी
पूर्ति न की जाये तो अधिक दिनों तक स्वस्थ रहना कठिन है। अतः शरीर में विद्यमान इन
तत्वों की पूर्ति समयानुसार अति आवश्यक है जिसकी पूर्ति के मुख्य अंग शुद्ध सात्वविक
आहार,
निद्रा तथा विश्राम है। गांधी जी का मानना था कि बहुत से भोज्य
पदार्थ (मांसाहार) ऐसे है जो किसी दृष्टि से शारीरिक स्तर के लिए भले ही लाभप्रद हो
किन्तु मानसिक अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से विकार उत्पन्न करने वाले ही होते है। मांस
खाने से शरीर मांसल भले ही हो जाये परन्तु उससे मानसिक अथवा आध्यात्मिक स्वास्थ्यों
की आशा दिवा स्वप्न के समान अर्थहीन ही है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा लिखित भक्ति रहस्य
नामक पुस्तक से ज्ञान होता है कि ईश्वर की भक्ति प्राप्त करने के लिए किये गये उपायों
में सात्विक या प्राकृतिक खाद्य का सेवन करना सर्वप्रथम है क्योकि जिससे देह और मन
का गठन होता है वह शक्ति खाद्य पदार्थो में ही विद्यमान है।
अभिप्राय यह है कि मन की शुद्धता सात्विक आहार पर निर्भर करती है और ईश्वर स्मृति
शुद्ध मन पर निर्भर करती है। आहार शुद्धि के होने से बुद्धि शुद्धि होती है इसी कारण महात्मा गांधी ने आहार
को इन्द्रिय निग्रह का मूल तत्व माना है।
गांधी जी ने तीन प्रकार के आहार बताये -मांसाहार,शाकाहार,मिश्राहार
उनके अनुसार असंख्य लोग मिश्राहारी है। दूध को भी वे शाकाहार में नहीं गिनते थे।
उनकी दृष्टि में दूध और मांस लेने में दोष ही है क्योकि मांस के लिए हम पशु पक्षियों
का नाश करते है और मां के दूध के सिवा दूसरा दूध पीने का हमे अधिकार नहीं है किन्तु
फिर भी जब तक कोई डॉक्टर अथवा वैद्य दुग्ध के समान गुणों वाली कोई वनस्पति नहीं ढूंढ
निकालता,
तक तक मनुष्य दुग्धाहार या मांसाहार करता ही रहेगा।
युक्ताहार से उनका तात्पर्य स्नायु बनाने वाले, गर्मी देने वाले, चर्बी बढ़ाने वाले, क्षार देने वाले और मल निकालने वाले द्रव्यों से है। इन कार्यों
के लिए दूध अनाज गेहूं, बाजरा, हरी तरकारियों
व फलों की आवश्यकता होती है। स्टार्च प्रधान शाक को जैसे आलू जमीकन्द,
शकरकद, आलू को उन्होने अनाज की श्रेणी में रखा था। केला,
दूध और भाजी को उन्होने सम्पूर्ण आहार की श्रेणी में रखा था।
मनुष्य की आवश्यकतानुसार चिकनाई तेल से मिल
जाती है। तेलों में तिल का नारियल का और मुंगफली का तेल अच्छा माना जाता है। यह गांधी
जी द्वारा भी स्वीकार्य है।
गांधी जी ने मीठे फलो से पर्याप्त मिठास की प्राप्ति के अतिरिक्त भोजन में गुड़
और खाड़ को भी आवश्यक बताया ।
सत्वहीन, निर्बल
मन वाले लोगो को जीवन शक्ति की प्राप्ति हेतु उन्मुख करने के उद्देश्य से गांधी जी
ने अपने सन्तति नियमन नामक साहित्य में निम्न निर्देष भी दिये—
यम,आत्म संयम, अहिंसा नियम, अस्तेय, सन्तोष, ब्रह्मचर्य स्वाध्याय, अपरिग्रह ईश्वर प्राणिधान आदि की धारणा एवं मन वचन कर्म से इनका
पालन अनिवार्य बताया है |
अशुद्धियों को मिटाने के उपाय
1. उपवास
2. स्वाभाविक श्वास
3. गहरी श्वास
4. योग आसन
5. सहज स्वाभाविक लोचपूर्ण जीवन
6. कम से कम दमन (शरीर की सुनना) आदि
ब्रह्मचर्य अर्थात् परमात्मा जैसे आचरण हेतु जीवन सुक्त :
1. प्रतिपल जीना : कामवासना से मुक्ति और प्रत्येक क्षण में प्रतिष्ठित हो कर
जाना।
2. सृजनात्मकता : जिन्दगी को गम्भीरता से न लेना क्योकि गम्भीरता रोग का आधार
है। अंहकारी आदमी गम्भीर होता है और जितना अधिक गम्भीर उतना अधिक बोझल |
• अधिक बोझल अधिक कामवासना
की जननी है ।
• जिन्दगी खेल बन जाये
तो आदमी आत्म संयम साध सकता है ।
• गुरूकुल में हमने
25 वर्ष तक बच्चो की जिन्दगी को खेल बनाया था ।
• अपने लिए गंभीर न
होने का समय अवश्य निकाले ।
• बच्चो के साथ खेलना
और बाहर जाना ।
• कामवासना है मृत्यु
की खोज,
ब्रह्मचर्य है अमृत की खोज ।
ब्रह्मचर्य पालन हेतु नियम :
1. बच्चो को सादगी भरी कुदरती पद्धति से इस आधार पर पालन कराया जाये कि वे जीवन
भर पवित्र रहे ।
2. सबको मसालों का मिर्च और गरम खाद्यों का त्याग करना चाहिए ।
3. पचने में भारी खुराक मिष्ठान मिठाई तेल पदार्थ खाना छोड़ देना चाहिए ।
4. पति पत्नी एकान्त को टाले तथा शरीर और मन दोनो को सतत अच्छे कार्यो में लगाना
चाहिए ।
5. रात में जल्दी सोने और सवेरे जल्दी उठने का नियम रखें ।
6. किसी भी प्रकार का भीभत्स या अश्लील साहित्य न पढ़ें ।
7. स्वप्नदोष हो जाये तो ठंडे पानी से स्नान करें।
8. पति पत्नी संयम को कठिन मानने के बजाय संयम को जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया
मानकर चले ।
9. नाटक सिनेमा या मनोविकारों को उत्तेजित करने वाले दृश्य नहीं देखने चाहिए ।
10. प्रतिदिन सवेरे उठकर पवित्रता और निर्मलता के लिए एकाग्र मन से प्रभु की प्रार्थना
करनी चाहिए इससे हम प्रतिदिन अधिकाधिक पवित्र और निर्मल बनेंगे ।
गांधी जी का दावा :
विचार व विवेक से काम लेने पर आत्मसंयम निश्चित ।
जल तथा मिट्टी से स्नायु संकुचित होते है।
सादे तथा विशेषकर फलाहारी भोजन से स्नायुओं का वेग शान्त होता है । इससे स्नायु
पुष्ट व बलवान भी होते हैं ।
प्राणायाम के द्वारा भी आत्मसंयम में लाभ मिलता है ।
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