आज की तेज रफतार जिन्दगी में स्वस्थ जीवन व्यतीत करना एक चुनौती बन गया है। इसमें अनुचित खान-पान, रहन-सहन की भूमिका प्रमुख है यद्यपि हम अपने दैनिक क्रियाकलापों से स्वयं को स्वस्थ रख सकते हैं किन्तु स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी के अभाव में प्रायः ऐसा सम्भव नहीं हो पाता, और अज्ञान वश मनुष्य अपने स्वास्थ्य के साथ ऐसा व्यवहार भी करता है जो प्रकृति के प्रतिकूल है और ऐसे में उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। स्वस्थ जीवन जीना और दीर्घ आयु प्राप्त करना कौन मनुष्य नहीं चाहता है जीवेम शरदः शतम् स्वास्थ्य की इसी अवधारणा को व्यक्त करता है।
मनुष्य प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है। प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने वाला मुनष्य हमेशा स्वस्थ रहता है। कुछ लोगों का भ्रम है कि प्राकृतिक जीवन का तात्पर्य जंगली जीवन व्यतीत करना तथा कच्चे खाद्य पदार्थ का सेवन करना है। वास्तव में प्राकृतिक जीवन पद्धति एक सहज सरल सामान्य, कम खर्चीली तथा जन सामान्य के लिए उपयोगी है। प्राकृतिक चिकित्सा एक चिकित्सा पद्धति नहीं है अपितु जीवन जीने की कला है जिसे जीवन पद्धति भी कहते है। प्राकृतिक नियमानुसार जीवन को स्वस्थ बनाने के लिए निम्नलिखित बिन्दु बताये गये है-
प्रातःकालीन टहलना :
वायु जीवन का आधार है। शरीर तभी स्वस्थ रह सकता है जब शरीर के सभी कोषाणु में आवश्यक वायु आपूर्ति होती रहे। प्रातःकाल की वायु सबसे लाभदायक और स्वास्थ्यप्रद होती है। प्रातःकालीन वातावरण में सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों में निर्मल वायु की दृष्टि से ऑक्सीजन का बाहुल्य रहता है। प्रातःकाल टहलने से इस प्राणवर्धक ऑक्सीजन से सम्पर्क, पौष्टिक भोजन से भी अधिक स्वास्थ्यवर्धक है। मानव शरीर के विभिन्न अंगों की सफाई के लिए फेफड़ों को स्वच्छ और सक्रिय रखना एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। सांस लेने से वायु फेफड़ों में जाती है उससे फेफड़े प्राण तत्व को ग्रहण कर लेते है तथा जो अनावश्यक तत्व रह जाते है उसे फेफड़े बाहर निकाल देते हैं। अतः प्रातःकाल का टहलना आवश्यक है। लेकिन आज न तो किसी के पास प्रातःकाल टहलने का समय है और इसके साथ ही साथ प्रदूषित वातावरण के कारण शुद्ध वायु कम होती जा रही है ऐसी स्थिति में रोग होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।
उषापान (जल पीने के नियम) :
प्राकृतिक नियमों के अनुसार जल पीने से शरीर की सफाई का कार्य सुचारू रूप से चलता रहता है। प्रातःकाल उठकर जल का सेवन करना शरीर तथा मन दोनों के लिए आवश्यक होता है लेकिन आज प्रातःकाल चाय पीने का प्रचलन हो गया है तथा ये प्यास बुझाने के लिए उपयोग में लायी जाने लगी है परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार के रक्त सम्बन्धी व पाचन सम्बन्धी विकार उत्पन्न हो रहे है।
भोजन सम्बन्धी नियम :
आहार स्वस्थ रहने का महत्वपूर्ण आधार है। प्राकृतिक नियम के अनुसार प्राकृतिक ताजा भोजन, सलाद, हरी सब्जियां, अंकुरित आदि जिसके सेवन से रक्त शुद्ध तथा शक्तिवर्धक होता है। आज अप्राकृतिक भोजन, मसालेयुक्त कड़वे खट्टे मांसाहारी भोजन, जंकफूड की आदत बढ़ती जा रही है। यदि रोगों को दूर करना है तो शाकाहारी भोजन करना आवश्यक है। भोजन करने का एक निश्चित समय होना चाहिए तभी भोजन शरीर के लिए लाभकारी होता है। और भोजन के समय शान्त चित्त होकर भोजन करना चाहिए। अपितु आज सबसे अधिक शीघ्रता भोजन करने में की जाती है। जिसके कारण पाचन के लिए समुचित एंजाइम भोजन के साथ नहीं मिल पाते। इसी कारण आज अधिकांश मनुष्य पेट के रोग से ग्रस्त रहते है। इसके लिए आवश्यक है कि प्राकृतिक नियम को अपनाये और रोग मुक्त हो जाये।
विश्राम के नियम :
विश्राम का आशय है काम के बाद आराम करना, दिनभर परिश्रम करने के बाद जब व्यक्ति शारीरिक रूप से थकान अनुभव करे तो उसे आराम करना चाहिए। शरीर की थकावट दूर होना और मस्तिष्क की शक्ति या शरीर और मन को कुछ समय के लिए विराम देना ही विश्राम कहलाता है। परन्तु आज जब हम आराम करते है उस वक्त विश्राम की मानसिक दशा को हम भूले रहते है। विस्तर शैय्या पर पड़े रहने की हालत में भी हमारे शरीर विशेषकर मस्तिष्क में तनाव बना रहता है जो मन की चंचल अवस्था के कारण होता है। यह विश्राम नहीं है, जैसे बच्चा बेफिक्री से देह, मस्तिष्क को शिथिल किये शैया पर पड़ा रहता है यही विश्राम सही है। परिश्रम में खोई हुई जीवनी शक्ति को पुनः अर्जित करने के लिए ही विश्राम की आवश्यकता है प्राकृतिक चिकित्सा की भाषा में इसे आरोग्य मूलक शिथिलता कहते है।
सोने के नियम :
सोना एक तरह का सूक्ष्म स्नान है जिससे मनुष्य शरीर में ताजगी या स्फूर्ति आती है और यह काम में खर्च हुई शक्ति को पुनः प्राप्ति का साधन है। प्राकृतिक नियम है रात को जल्दी सोना तथा प्रातः काल जल्दी उठना। इससे शरीर स्वस्थ रहता है। लेकिन आज देर रात तक जागना तथा प्रातःकाल देर तक सोना लोगों की आदत बनती जा रही है। जिसके कारण नींद पूरी नहीं हो पाती है और आवश्कता से कम सोने से रक्त में एल्कोहल की मात्रा बढ़ जाती है। फलस्वरूप कई बीमारियां हो जाती है। डॉ. नैथालीन के अनुसार- अनिद्रा पागलपन का पहला लक्षण है यदि समय रहते इसका उपचार नहीं किया जाये तो उच्च रक्तचाप, मोटापा, हृदयरोग, मधुमेह, चिड़चिड़ापन आदि हो सकते है।
सकारात्मक विचार :
स्वस्थ रहने के लिए विचारो की शुद्धता सम्बन्धी नियम की भी आवश्कता है। शरीर विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए मनुष्य के विचारों का विधेयात्मक चिन्तन होना आवश्यक है उसे सदैव सकारात्मक मनोवृत्ति रखनी चाहिए। क्योंकि भावनाओं और विचारों में ऊर्जा होती है अपने विचारों को नयी दिशा देकर हम कार्य करे। आज व्यक्ति नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता चला जा रहा है। दूसरे की सहायता के स्थान पर हानि पहुँचाने की अधिक सोचता है। इसके परिणाम स्वरूप उनकी अपनी विचार शैली दूषित हो जाती है। नकारात्क विचारों से चंचलला बढ़ती है, और सकारात्मक विचारों से दूर होती है।
कार्य का नियम :
प्राकृतिक जीवन पद्धति प्रत्येक कार्य के समय का निर्धारण करती है। कार्य स्थल पर परस्पर प्रेम सहयोग तथा आत्मीयता का भाव रखने की सलाह देती है। व्यक्ति उसी स्थान पर ठीक प्रकार से मन लगाकर काम कर सकता है जहाँ उसकी प्रतिष्ठा हो। वातावरण शान्त हो तथा उन्नति के अवसर हो। आज इन सभी कारणों का अभाव होता चला जा रहा है। प्रत्येक क्षण व्यक्ति चिन्ता भयभीत एवं शंकालु रहता है। वह अपने कार्यों को पूरा न करने में तथा दूसरो का धोखा देने में अपनी शान समझता है।
सामाजिक तथा नैतिक व्यवहार सम्बन्धी नियम :
मनुष्य को सुख-दुःख, लाभ-हानि सभी परिस्थियों में अपने को नियन्त्रित रखना चाहिए। जहाँ तक हो सके मानव की सेवा करना अपना धर्म समझना चाहिए। अपने माता-पिता, वृद्ध, गुरू आदि का सम्मान करना चाहिए। अधिक स्वार्थी नहीं होना चाहिए। सादा जीवन उच्चविचार मे विश्वास रखना चाहिए। सच्चाई में विश्वास करना चाहिए तथा सदैव अच्छी संगति करनी चाहिए। लेकिन आज इन नियमों का उल्लंघन हो रहा है इसी कारण संसार दुःखालय, होता जा रहा है शरीर तथा मन दोनो ही अस्वस्थ होते जा रहे है क्योंकि जैसी पृष्ठिभूमि होगी उसी अनुरूप परिणाम मिलेगा।
संतुलन बना रहता है, तब तक व्यक्ति निरोगी रहता हैं यहाँ पर इन पांच महाभूतों का वर्णन प्रथक-प्रथक कर रहे हैं।
पृथ्वी तत्व :
मानव का निर्माण इसी तत्व से होता है, इसीलिए पृथ्वी को माता कहते हैं। इसका सम्बन्ध जल, वायु, अग्नि तथा आकाश से हैं। मानव के जीवन के लिए समस्त खाद्य पदार्थ चाहे अनाज हो या विविध प्रकार की फल-सब्जी अथवा पशुओं द्वारा दिया गया दूध, दही-मक्खन आदि सब इसी की देन है। पृथ्वी तत्व (मिट्टी) और मानव का सम्बन्ध शाश्वत है यही कारण है कि मिट्टी जीवन के लिए अनिवार्य है। इसमें अनेकानेक गुण विद्यामान है। दुर्गन्ध मिटाने के लिए मिट्टी अति उत्तम वस्तु है। मिट्टी में सर्दी और गरमी रोकने की असीमित शक्ति होती है। विलक्षण विद्रावक क्षमता के कारण बडे से बड़े फोडे पर मिट्टी रखने से वह उसे पका देती है, बहा देती है तथा घाव को भर भी देती है। मिट्टी में विष को शोषण करने की क्षमता होती है। इसमें रोगों को दूर करने की क्षमता होती है, क्योंकि मिट्टी में संसार के सभी वस्तुये, रसायनिक मिश्रण मिले होते हैं, जबकि किसी भी दवाओं के मिश्रण में उतने रसायनिक तत्व नहीं हो सकते हैं ।
जल तत्व :
जल सभी प्राणियों का आधार है। यह सभी- प्राणियों की अमूल्य औषधि है। प्रत्येक जीव जन्तु तथा प्रत्येक वनस्पति में जल की पर्याप्त मात्रा विद्यमान होती है। क्योंकि कोई भी शारीरिक क्रिया चाहे वह भोजन पाचन की हो, रक्त संचार की हो, इस दृव्य के बिना सम्भव नहीं हो सकती है। यह संसार का अनिवार्य तत्व है, जिसमें असीम शक्ति निहित है और जिसका उपयोग मानव विभिन्न प्रकार से करता चला आ रहा है। चिकित्सा के रूप में भी जल का उपयोग सृष्टि के प्रारम्भ से ही होता आया है। व्यक्ति यदि शुद्ध जल का समुचित और संतुलित उपयोग करता रहे, तो वह पूर्ण शक्ति, स्फूर्ति एवं स्वास्थ्य का उपयोग करते हुये दीर्घजीवी और निरोगी रह सकता है।
अग्नि तत्व :
अग्नि का तात्पर्य उष्मा या सूर्य से है, जिसके अभाव में जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। शास्त्रों में सूर्य की उपासना का तात्पर्य यही रहा होगा। क्योंकि सृष्टि के सभी पदार्थ सूर्य-रश्मि के विभिन्न प्रकार के संयोग से ही उत्पन्न होते है। इसमें स्वास्थ्यवर्धक शक्ति होती है। कहा जाता है कि जहाँ सूर्य प्रकाश का प्रवेश नहीं होता है, वहाँ डाक्टर का प्रवेश होता है। इस कहावत में तथ्य है क्योंकि रोग के कीटाणु अंधकार में ही बढ़ते हैं, प्रकाश उनके लिए काल है। सूर्य प्रकाश से शरीर में प्राण का संचार होता है। विभिन्न रोगों में सूर्य किरण और रंगीन रश्मि चिकित्सा बड़ी लाभदायक सिद्ध हुई है।
वायु तत्व :
वायु प्राणों का सबसे मूल आधार है। इसके बिना व्यक्ति कुछ मिनट ही जीवित रह सकता है। अतः अन्न जल शुद्धि की अपेक्षा प्राणदायक वायु की शुद्धि अधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। वायु की सहायता से फेफड़े रक्त को शुद्ध कर देते हैं। इसका उपचार कार्य में भी उपयोग करते हैं। बीमारी को दूर करने के लिए वायु स्नानों तथा मंत्रों द्वारा ठंढी गरम हवा को शरीर पर फेंक कर उपचार कार्य किया जाता है। प्रातः भ्रमण, सायं-भ्रमण, वायु स्नान के ये दो रूप बहुत लाभकारी है।
आकाश तत्व :
आकाश तत्व पांचवां, परन्तु प्रधान तत्व होता है। आकाश का अर्थ है खालीपन अथवा शून्य। जिस प्रकार मछली पानी में और पानी मछली में होता है, उसी प्रकार मानव आकाश में और आकाश मानव में होता है। प्रकृति ने मानव शरीर के अंदर खाली जगह के रूप में आकाश का निर्माण किया है। शरीर के भीतर असंख्य जीवित कोष हैं, जो गतिमान है। रक्त संचार तथा वायु संचार के लिए शरीर में रिक्त स्थान अर्था्त आकाश की आवश्यकता होती है। इसी कारण उपवास का महत्व सभी धर्मों में बताया गया है। क्योंकि उपवास से आकाश तत्व की प्राप्ति होती है।
मानव रोगों के उपचार के लिए यह जान लेना आवश्यक होता है, कि शरीर के किस अंग में कौन सा तत्व अधिक प्रभावकारी है। यदि इसकी जानकारी प्राकृतिक चिकित्सक को होती है, तो वह उपचार योजना बनाने में शत-प्रतिशत सफल होगा।
मनुष्य प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है। प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने वाला मुनष्य हमेशा स्वस्थ रहता है। कुछ लोगों का भ्रम है कि प्राकृतिक जीवन का तात्पर्य जंगली जीवन व्यतीत करना तथा कच्चे खाद्य पदार्थ का सेवन करना है। वास्तव में प्राकृतिक जीवन पद्धति एक सहज सरल सामान्य, कम खर्चीली तथा जन सामान्य के लिए उपयोगी है। प्राकृतिक चिकित्सा एक चिकित्सा पद्धति नहीं है अपितु जीवन जीने की कला है जिसे जीवन पद्धति भी कहते है। प्राकृतिक नियमानुसार जीवन को स्वस्थ बनाने के लिए निम्नलिखित बिन्दु बताये गये है-
प्रातःकालीन टहलना :
वायु जीवन का आधार है। शरीर तभी स्वस्थ रह सकता है जब शरीर के सभी कोषाणु में आवश्यक वायु आपूर्ति होती रहे। प्रातःकाल की वायु सबसे लाभदायक और स्वास्थ्यप्रद होती है। प्रातःकालीन वातावरण में सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों में निर्मल वायु की दृष्टि से ऑक्सीजन का बाहुल्य रहता है। प्रातःकाल टहलने से इस प्राणवर्धक ऑक्सीजन से सम्पर्क, पौष्टिक भोजन से भी अधिक स्वास्थ्यवर्धक है। मानव शरीर के विभिन्न अंगों की सफाई के लिए फेफड़ों को स्वच्छ और सक्रिय रखना एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। सांस लेने से वायु फेफड़ों में जाती है उससे फेफड़े प्राण तत्व को ग्रहण कर लेते है तथा जो अनावश्यक तत्व रह जाते है उसे फेफड़े बाहर निकाल देते हैं। अतः प्रातःकाल का टहलना आवश्यक है। लेकिन आज न तो किसी के पास प्रातःकाल टहलने का समय है और इसके साथ ही साथ प्रदूषित वातावरण के कारण शुद्ध वायु कम होती जा रही है ऐसी स्थिति में रोग होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।
उषापान (जल पीने के नियम) :
प्राकृतिक नियमों के अनुसार जल पीने से शरीर की सफाई का कार्य सुचारू रूप से चलता रहता है। प्रातःकाल उठकर जल का सेवन करना शरीर तथा मन दोनों के लिए आवश्यक होता है लेकिन आज प्रातःकाल चाय पीने का प्रचलन हो गया है तथा ये प्यास बुझाने के लिए उपयोग में लायी जाने लगी है परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार के रक्त सम्बन्धी व पाचन सम्बन्धी विकार उत्पन्न हो रहे है।
भोजन सम्बन्धी नियम :
आहार स्वस्थ रहने का महत्वपूर्ण आधार है। प्राकृतिक नियम के अनुसार प्राकृतिक ताजा भोजन, सलाद, हरी सब्जियां, अंकुरित आदि जिसके सेवन से रक्त शुद्ध तथा शक्तिवर्धक होता है। आज अप्राकृतिक भोजन, मसालेयुक्त कड़वे खट्टे मांसाहारी भोजन, जंकफूड की आदत बढ़ती जा रही है। यदि रोगों को दूर करना है तो शाकाहारी भोजन करना आवश्यक है। भोजन करने का एक निश्चित समय होना चाहिए तभी भोजन शरीर के लिए लाभकारी होता है। और भोजन के समय शान्त चित्त होकर भोजन करना चाहिए। अपितु आज सबसे अधिक शीघ्रता भोजन करने में की जाती है। जिसके कारण पाचन के लिए समुचित एंजाइम भोजन के साथ नहीं मिल पाते। इसी कारण आज अधिकांश मनुष्य पेट के रोग से ग्रस्त रहते है। इसके लिए आवश्यक है कि प्राकृतिक नियम को अपनाये और रोग मुक्त हो जाये।
विश्राम के नियम :
विश्राम का आशय है काम के बाद आराम करना, दिनभर परिश्रम करने के बाद जब व्यक्ति शारीरिक रूप से थकान अनुभव करे तो उसे आराम करना चाहिए। शरीर की थकावट दूर होना और मस्तिष्क की शक्ति या शरीर और मन को कुछ समय के लिए विराम देना ही विश्राम कहलाता है। परन्तु आज जब हम आराम करते है उस वक्त विश्राम की मानसिक दशा को हम भूले रहते है। विस्तर शैय्या पर पड़े रहने की हालत में भी हमारे शरीर विशेषकर मस्तिष्क में तनाव बना रहता है जो मन की चंचल अवस्था के कारण होता है। यह विश्राम नहीं है, जैसे बच्चा बेफिक्री से देह, मस्तिष्क को शिथिल किये शैया पर पड़ा रहता है यही विश्राम सही है। परिश्रम में खोई हुई जीवनी शक्ति को पुनः अर्जित करने के लिए ही विश्राम की आवश्यकता है प्राकृतिक चिकित्सा की भाषा में इसे आरोग्य मूलक शिथिलता कहते है।
सोने के नियम :
सोना एक तरह का सूक्ष्म स्नान है जिससे मनुष्य शरीर में ताजगी या स्फूर्ति आती है और यह काम में खर्च हुई शक्ति को पुनः प्राप्ति का साधन है। प्राकृतिक नियम है रात को जल्दी सोना तथा प्रातः काल जल्दी उठना। इससे शरीर स्वस्थ रहता है। लेकिन आज देर रात तक जागना तथा प्रातःकाल देर तक सोना लोगों की आदत बनती जा रही है। जिसके कारण नींद पूरी नहीं हो पाती है और आवश्कता से कम सोने से रक्त में एल्कोहल की मात्रा बढ़ जाती है। फलस्वरूप कई बीमारियां हो जाती है। डॉ. नैथालीन के अनुसार- अनिद्रा पागलपन का पहला लक्षण है यदि समय रहते इसका उपचार नहीं किया जाये तो उच्च रक्तचाप, मोटापा, हृदयरोग, मधुमेह, चिड़चिड़ापन आदि हो सकते है।
सकारात्मक विचार :
स्वस्थ रहने के लिए विचारो की शुद्धता सम्बन्धी नियम की भी आवश्कता है। शरीर विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए मनुष्य के विचारों का विधेयात्मक चिन्तन होना आवश्यक है उसे सदैव सकारात्मक मनोवृत्ति रखनी चाहिए। क्योंकि भावनाओं और विचारों में ऊर्जा होती है अपने विचारों को नयी दिशा देकर हम कार्य करे। आज व्यक्ति नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता चला जा रहा है। दूसरे की सहायता के स्थान पर हानि पहुँचाने की अधिक सोचता है। इसके परिणाम स्वरूप उनकी अपनी विचार शैली दूषित हो जाती है। नकारात्क विचारों से चंचलला बढ़ती है, और सकारात्मक विचारों से दूर होती है।
कार्य का नियम :
प्राकृतिक जीवन पद्धति प्रत्येक कार्य के समय का निर्धारण करती है। कार्य स्थल पर परस्पर प्रेम सहयोग तथा आत्मीयता का भाव रखने की सलाह देती है। व्यक्ति उसी स्थान पर ठीक प्रकार से मन लगाकर काम कर सकता है जहाँ उसकी प्रतिष्ठा हो। वातावरण शान्त हो तथा उन्नति के अवसर हो। आज इन सभी कारणों का अभाव होता चला जा रहा है। प्रत्येक क्षण व्यक्ति चिन्ता भयभीत एवं शंकालु रहता है। वह अपने कार्यों को पूरा न करने में तथा दूसरो का धोखा देने में अपनी शान समझता है।
सामाजिक तथा नैतिक व्यवहार सम्बन्धी नियम :
मनुष्य को सुख-दुःख, लाभ-हानि सभी परिस्थियों में अपने को नियन्त्रित रखना चाहिए। जहाँ तक हो सके मानव की सेवा करना अपना धर्म समझना चाहिए। अपने माता-पिता, वृद्ध, गुरू आदि का सम्मान करना चाहिए। अधिक स्वार्थी नहीं होना चाहिए। सादा जीवन उच्चविचार मे विश्वास रखना चाहिए। सच्चाई में विश्वास करना चाहिए तथा सदैव अच्छी संगति करनी चाहिए। लेकिन आज इन नियमों का उल्लंघन हो रहा है इसी कारण संसार दुःखालय, होता जा रहा है शरीर तथा मन दोनो ही अस्वस्थ होते जा रहे है क्योंकि जैसी पृष्ठिभूमि होगी उसी अनुरूप परिणाम मिलेगा।
प्रकृति के आधार – पंचतत्व
मानव शरीर की रचना पाँच तत्वों - पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश से हुई है। इन पाँच महाभूतों का वर्णन स्थान-स्थान पर मिलता है। जैसे तुलसीकृत राामयण में लिखा है- ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम शरीरा। अर्थात् इस भौतिक शरीर की रचना पाँच तत्वों से मिलकर हुई है। ये ही प्राकृतिक उपचार के साधन हैं। इनमें से चार तत्व, पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि भोजन की श्रेणी में आते है। और पाँचवा तत्व आकाश उपवास के द्वारा प्राप्त किया जाता है। शरीर की रचना में प्रमुख तत्व आकाश है, और इसकी महत्वपूर्ण भूमिका जीवनी शक्ति की वृद्धि करने में देखी जा सकती है। प्राचाीन भारतीय धर्मग्रन्थों एवं शास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है। मिट्टी, जल, वायु और अग्नि तत्व शरीर निर्माण में प्रत्यक्ष परिलक्षित होते है। जबकि अति उपयोगी एवं प्रभावकारी आकाश तत्व अप्रत्यक्ष रूप से शरीर को निर्मल, शुद्ध एवं दीर्घजीवी बनता है। जब तक इन पाँचों तत्वों का समुचितसंतुलन बना रहता है, तब तक व्यक्ति निरोगी रहता हैं यहाँ पर इन पांच महाभूतों का वर्णन प्रथक-प्रथक कर रहे हैं।
पृथ्वी तत्व :
मानव का निर्माण इसी तत्व से होता है, इसीलिए पृथ्वी को माता कहते हैं। इसका सम्बन्ध जल, वायु, अग्नि तथा आकाश से हैं। मानव के जीवन के लिए समस्त खाद्य पदार्थ चाहे अनाज हो या विविध प्रकार की फल-सब्जी अथवा पशुओं द्वारा दिया गया दूध, दही-मक्खन आदि सब इसी की देन है। पृथ्वी तत्व (मिट्टी) और मानव का सम्बन्ध शाश्वत है यही कारण है कि मिट्टी जीवन के लिए अनिवार्य है। इसमें अनेकानेक गुण विद्यामान है। दुर्गन्ध मिटाने के लिए मिट्टी अति उत्तम वस्तु है। मिट्टी में सर्दी और गरमी रोकने की असीमित शक्ति होती है। विलक्षण विद्रावक क्षमता के कारण बडे से बड़े फोडे पर मिट्टी रखने से वह उसे पका देती है, बहा देती है तथा घाव को भर भी देती है। मिट्टी में विष को शोषण करने की क्षमता होती है। इसमें रोगों को दूर करने की क्षमता होती है, क्योंकि मिट्टी में संसार के सभी वस्तुये, रसायनिक मिश्रण मिले होते हैं, जबकि किसी भी दवाओं के मिश्रण में उतने रसायनिक तत्व नहीं हो सकते हैं ।
जल तत्व :
जल सभी प्राणियों का आधार है। यह सभी- प्राणियों की अमूल्य औषधि है। प्रत्येक जीव जन्तु तथा प्रत्येक वनस्पति में जल की पर्याप्त मात्रा विद्यमान होती है। क्योंकि कोई भी शारीरिक क्रिया चाहे वह भोजन पाचन की हो, रक्त संचार की हो, इस दृव्य के बिना सम्भव नहीं हो सकती है। यह संसार का अनिवार्य तत्व है, जिसमें असीम शक्ति निहित है और जिसका उपयोग मानव विभिन्न प्रकार से करता चला आ रहा है। चिकित्सा के रूप में भी जल का उपयोग सृष्टि के प्रारम्भ से ही होता आया है। व्यक्ति यदि शुद्ध जल का समुचित और संतुलित उपयोग करता रहे, तो वह पूर्ण शक्ति, स्फूर्ति एवं स्वास्थ्य का उपयोग करते हुये दीर्घजीवी और निरोगी रह सकता है।
अग्नि तत्व :
अग्नि का तात्पर्य उष्मा या सूर्य से है, जिसके अभाव में जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। शास्त्रों में सूर्य की उपासना का तात्पर्य यही रहा होगा। क्योंकि सृष्टि के सभी पदार्थ सूर्य-रश्मि के विभिन्न प्रकार के संयोग से ही उत्पन्न होते है। इसमें स्वास्थ्यवर्धक शक्ति होती है। कहा जाता है कि जहाँ सूर्य प्रकाश का प्रवेश नहीं होता है, वहाँ डाक्टर का प्रवेश होता है। इस कहावत में तथ्य है क्योंकि रोग के कीटाणु अंधकार में ही बढ़ते हैं, प्रकाश उनके लिए काल है। सूर्य प्रकाश से शरीर में प्राण का संचार होता है। विभिन्न रोगों में सूर्य किरण और रंगीन रश्मि चिकित्सा बड़ी लाभदायक सिद्ध हुई है।
वायु तत्व :
वायु प्राणों का सबसे मूल आधार है। इसके बिना व्यक्ति कुछ मिनट ही जीवित रह सकता है। अतः अन्न जल शुद्धि की अपेक्षा प्राणदायक वायु की शुद्धि अधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। वायु की सहायता से फेफड़े रक्त को शुद्ध कर देते हैं। इसका उपचार कार्य में भी उपयोग करते हैं। बीमारी को दूर करने के लिए वायु स्नानों तथा मंत्रों द्वारा ठंढी गरम हवा को शरीर पर फेंक कर उपचार कार्य किया जाता है। प्रातः भ्रमण, सायं-भ्रमण, वायु स्नान के ये दो रूप बहुत लाभकारी है।
आकाश तत्व :
आकाश तत्व पांचवां, परन्तु प्रधान तत्व होता है। आकाश का अर्थ है खालीपन अथवा शून्य। जिस प्रकार मछली पानी में और पानी मछली में होता है, उसी प्रकार मानव आकाश में और आकाश मानव में होता है। प्रकृति ने मानव शरीर के अंदर खाली जगह के रूप में आकाश का निर्माण किया है। शरीर के भीतर असंख्य जीवित कोष हैं, जो गतिमान है। रक्त संचार तथा वायु संचार के लिए शरीर में रिक्त स्थान अर्था्त आकाश की आवश्यकता होती है। इसी कारण उपवास का महत्व सभी धर्मों में बताया गया है। क्योंकि उपवास से आकाश तत्व की प्राप्ति होती है।
मानव रोगों के उपचार के लिए यह जान लेना आवश्यक होता है, कि शरीर के किस अंग में कौन सा तत्व अधिक प्रभावकारी है। यदि इसकी जानकारी प्राकृतिक चिकित्सक को होती है, तो वह उपचार योजना बनाने में शत-प्रतिशत सफल होगा।
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