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प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांत




प्राकृतिक चिकित्सा के अनेकों सिद्धान्त है। परन्तु उनमें से 10 मुख्य है। जिनका वर्णन आगे किया जा रहा है।


1. सभी रोग एक हैं, उनके कारण एक हैं, उनकी चिकित्सा भी एक है :
रविन्द्रनाथ टैगोर ने एक स्थान पर लिखा है कि भारत देश की सदैव एक कोशिश रहती है कि वह अनेकता में एकता की स्थापना करना चाहता है वह विश्व में अनेक मार्गो को मोड़कर एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर करना चाहता है। वह अनेकों में से किसी एक को संशय रहित रूप से उपलब्ध कराना चाहता है। उसका उद्देश्य यह है कि जो बाहरी विभिन्नता दिखायी देती है। उस भिन्नता को दूर करके उसके भीतर जो गूढ़ संयोग होता है। उसे प्राप्त करना चाहिये। 
रविन्द्रनाथ जी का उपर्युक्त कथन सत्य है, इसका कारण यह है कि हमारे शास्त्रों में आया है कि ‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्मं’ अर्थात ब्रह्म एक ही है दूसरा नहीं है। सभी दर्शनों में इस अद्वैत सिद्धान्त का एक विशेष स्थान है। 
प्राकृतिक चिकित्सा भी एक दर्शन ही है। तथा इस दर्शन का प्रथम सिद्धान्त है। सभी रोग एक कारण एक, चिकित्सा एक । जिस प्रकार एक सत्य वस्तु विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। जिस प्रकार एक स्वर्ण विभिन्न नामों व रूपों में प्रदर्शित होता है। उसी प्रकार प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान का यह सिद्धान्त है कि मानव के शरीर में स्थित एक ही कारण विजातीय द्रव्य अनेक रोगों के रूप में विभिन्न नामों से प्रकट होता है। 
उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार मानव का शरीर एक और अभिन्न होता है। समूचा मनुष्य एक और अभिन्न है। सारा विश्व एक और अभिन्न है। सारा ब्रह्माण्ड एक और अभिन्न है। सारे ब्राह्मण्ड को एक नियम व एक सूत्र में बांधने वाली सत्ता भी एक ही है। और यही ‘सर्वखाल्विदं ब्रह्म’ का अर्थ है। एकता का यही दार्शनिक सिद्धान्त प्राकृतिक चिकित्सा का भी प्रमुख सिद्धान्त है।
यदि हम मनुष्य में होने वाले सभी रोगों का सूक्ष्मता से निरीक्षण करें और उन पर विचार करें तो हमें उन सभी रोगों में एक रूपता दिखायी देगी। सभी रोग अनेक होते हुए भी वास्तव में एक ही है। केवल उनके रूप और प्रकार में ही भिन्नता दिखायी देती है। इसे एक दृष्टान्त के माध्यम से और अधिक अच्छी तरह से समझा जा सकता है। माना एक घर में चार लोग रहते है। जो पूर्ण रूप से अप्राकृतिक जीवन यापन करते हैं। उत्तेजक व मादक पदार्थों का सेवन करते हैं। अधिक मात्रा में ठूंस-ठूंस कर अनाप-शनाप चीजें खाते है। व्यायाम नहीं करते, प्रकृति के वरदान स्वरूप, सूर्य प्रकाश, शुद्ध वायु,निर्मल जल आदि उचित सेवन नहीं करते। इसका परिणाम यह होता है। कि उनका रक्त विषाक्त हो जाता है। शरीर दूषित द्रव्यों जिन्हें हम चिकित्सा की भाषा में विजातीय द्रव्य कहते हैं से भर जाता है और इसका परिणाम यह होता है कि आज नहीं तो कल उन लोगों की रोगी होना ही पड़ता है। ताकि उन रोगों के माध्यम से शरीर अपने भीतर स्थित विजातीय द्रव्यों को बाहर निकाल सके तथा शरीर पुनः स्वस्थ हो सके। 
परिस्थिति उनकी आयु व शारीरिक प्रकृति आदि के अनुसार उन चारों प्राणियों में से प्रत्येक में एक ही रोग नहीं हो सकता। बल्कि सभी के शरीर में अलग-अलग रोग उत्पन्न होते हैं। किसी को दस्त आना शुरू हो सकते है। किसी को ज्वर हो सकता है। किसी को गठिया और किसी को बवासीर हो सकता है। देखने पर ये सभी रोग एक दूसरे से भिन्न लगते है। परन्तु वास्तव में एक ही हैं क्योंकि सभी का कारण एक ही अर्थात विजातीय द्रव्यों का शरीर में जमा होना है। 
अब प्रकृति के मल बहिष्करण की क्रिया जो कि मनुष्य के रोगी होने की दशा में होती है में रोगी और उसके चिकित्सक का क्या कार्य है। उनका कार्य मल बहिष्करण में प्रकृति को सहयोग करना चाहिये अर्थात उपवास, युक्ताहार, जलोपचार, जीवनी शक्ति को बढ़ाना तथा मल विसर्जन के सभी मार्गो को खोलकर इस कल्याणकारी प्रक्रिया को आसान बनाना होना चाहिये। 
इस प्रकार हम देखते हैं कि संसार के सभी रोग वास्तव में एक ही है। तथा उनके कारण निदान व चिकित्सा भी एक ही है। अधिकांश ऐसा देखा जाता है कि कोई रोगी अपने किसी एक रोग विशेष के उपचार के लिये प्राकृतिक चिकित्सक के पास आता है। परन्तु जब वह चिकित्सा करवा रहा होता है तब उसे पता चलता है। कि और कई अन्य रोग सामने आ गये हैं जो पहले दिखायी नहीं दे रहे थे और अन्त में वह पूर्णतः स्वस्थ होकर जाता है क्योंकि यह सिर्फ रोग की चिकित्सा नहीं करती बल्कि पूरे शरीर की चिकित्सा करती है। एक ही प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा सभी रोग समाप्त हो जाते है। 

2. रोग के कारण कीटाणु नहीं :
प्रथम सिद्धान्त के विवेचन से स्पष्ट है कि रोगों का कारण अन्य कुछ नहीं बल्कि शरीरस्थ विजातीय द्रव्य ही है। कीटाणु के रोग का कारण मानना सर्वथा अनुचित है। परन्तु एलोपैथी में कीटाणु को रोग का कारण माना जाता है। 
वास्तव में हकीकत तो यह है कि संसार में उपस्थित सभी प्रकार के कीटाणु हमारे शरीर में रह ही नहीं सकते। उनके विकसित होकर रोग उत्पन्न होने की तो बात ही दूर है। क्योंकि हमारा शरीर कीटाणु के रहने के लायक ही नहीं है। किटाणुओं को विकसित होने के लिये जिस माध्यम की आवश्यकता होती है ऐसा माध्यम स्वस्थ शरीर में होता ही नहीं, और जब माध्यम ही नहीं होगा तो वे पनपेगें कैसे। हम अपने गलत आहार-विहार से अपने पेट को कूड़ादान समझकर अनाप-शनाप खाते पीते हैं। जिससे शरीर में विजातीय द्रव्यों का स्तर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और उसी विजातीय द्रव्य में कीटाणु पनपते है। 
प्रकृति का एक नियम यह कि सृष्टि में जितने भी पदार्थ मौजूद है। उन सभी के सूक्ष्म परमाणु लगातार वातावरण में गतिशील रहते है। जिस अणु परमाणुओं की गति एक समान होती है। उनमें परस्पर आकर्षण होता है। तथा जिसकी गति विपरीत होती है। वे एक दूसरे से दूर भागते है। यदि हम सिद्धान्त के अनुसार देखे तो पायेंगे कि रोग के कीटाणुओं का अस्तित्व उन्हीं शरीरों में होता है। जिन शरीरों में पहले से ही रोग के कारण विजातीय द्रव्य उपस्थित रहते है। अर्थात जहां पर गन्दगी होगी कीटाणु वहीं पनपेगें और विकसित होगें। 
इसके विपरीत जिन शरीरों में कीटाणुओं के विपरीत पोषक तत्व विद्यमान होगें, अर्थात जो विजातीय द्रव्यों से सर्वथा मुक्त होगें तथा वास्तव में सही मायनों में स्वस्थ होगें उन सभी में उपरोक्त नियमानुसार कीटाणुओं का आक्रमण होना असंभव है और यदि यह मान भी लिया जाये कि स्वस्थ शरीर में भी रोगों के कीटाणुओं का आक्रमण होता है। तो भी स्वस्थ शरीर की निरोधक शक्ति द्वारा कीटाणुओं का विषाक्त प्रभाव स्वतः ही समाप्त हो जायेगा। क्योंकि कीटाणुओं को विकसित होने के लिये उसका आहार एवं भूमि प्राप्त ही नहीं होगी जिससे वे ऐसे शरीर में नहीं रह सकेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि रोग का कारण कीटाणु नहीं है। बल्कि रोग ही कीटाणुओं को आकर्षित करने का कारण होते हैं। 

3. तीव्र रोग शरीर के शत्रु नहीं मित्र होते हैं :
एक सुप्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक ने कहा है कि तुम मुझे ज्वर दो और मैं तुम्हें स्वास्थ्य दूंगा कहने का तात्पर्य है कि मलों से भरा शरीर, मल रहित बनाने के लिये ज्वर, अतिसार, जुकाम आदि तीव्र रोग ही सच्चे उपाय है। हमारे शरीर में मिथ्या आहार-विहार के कारण सदैव विजातीय द्रव्य बनते रहते है। जो साधारण मलों के साथ ही शरीर से बाहर निकल जाते है। किन्तु जब इस प्रक्रिया में बाधा आती है या शरीर इन अतिदूषित पदार्थो को सामान्य मलों के साथ शरीर से बाहर निकालने में असमर्थ हो जाता है। तब शरीर तीव्र रोगों के माध्यम से उन विषों को शरीर बाहर निकालने का प्रयास करता है। तीव्र रोगों को मित्र कहने पीछे यही तर्क है कि वे हमारे शरीर को शुद्ध व निर्मल बनाने के लिये ही उत्पन्न होते है। 
उदाहरण स्वरूप मान लीजिये की प्रकृति को हमारे पेट जनित मलों को निकालना है तो वह इस कार्य को उल्टी या दस्त को उत्पन्न करके कर सकती है। 
हम जिन्हें तीव्र रोगों के नाम से जानते हैं वास्तव में वह रोग नहीं बल्कि रोग की चिकित्सा है रोगी होने की दशा में हमें अपने द्वारा की गयी गलतियों को देखना चाहिये और मन में भावना होनी चाहिये कि हमने जो भी गल्तियां की थी उनका प्रायश्चित हमें रोगी होकर करना पड़ रहा है जो कि हमारे भले के लिये ही है। यदि ये विकार शरीर में रह जाते और हमारे द्वारा गल्तियां करना यूं ही जारी रहता तो उनका परिणाम कितना भयंकर हो सकता था। अतः कहने का तात्पर्य है कि हमें तीव्र रोग से डरना नहीं हैं बल्कि उसका स्वागत करना चाहिये। अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह प्राकृतिक चिकित्सा में रोग को शत्रु समझकर उससे लड़ा नहीं जाता। क्योंकि रोग स्वयं में कुछ नहीं होते जिनसे लड़ा जाये। स्वास्थ्य के अभाव को ही रोग कह दिया जाता है। स्वास्थ्य निर्माण की कोशिश करने पर रोग स्वयं ही समाप्त हो जाता है। 
उपरोक्त सभी कथन सत्य है, परन्तु फिर प्रश्न उठता है कि रोग होने पर लोग मर क्यों जाते हैं इसका उत्तर यह है कि रोगी में जीवनी शक्ति बहुत कम बची होती है या विजातीय द्रव्य पूरे शरीर में अत्यधिक मात्रा में जमा हो चुके होते हैं जो कि रोग को दवाओं द्वारा बार-बार दबाने के कारण होता है। या फिर रोग का उपचार अपर्याप्त या गलत हुआ है। इन परिस्थितियों में प्रकृति अपना सफाई का कार्य करने में असफल हो जाती है। जिस कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है। जो सुख थक कर सोने में मिलता है भूख लगने पर भोजन करने से जो आनन्द मिलता है। विपत्ति आने पर राम नाम और धैर्य से जो शांति प्राप्त होती है वही सुख और शांति रोग से मुक्ति मिलने के बाद मिलती है। मन मस्तिष्क से एक भारी बोझ उतर गया है। यदि यह अनुभूति नहीं होती तो यह समझा जाना चाहिये कि प्रकृति तीव्र रोग द्वारा शरीर का जो उपकार करना चाहती थी उसमें विघ्न पड़ गया है। 



4. प्रकृति स्वयं चिकित्सक है :
प्राकृतिक चिकित्सा की मान्यता है कि हमारे जीवन का संचालन एक विचित्र व सर्वशक्तिमान शक्ति द्वारा होता है। जो प्रत्येक जीवन के साथ रहकर उसके जन्म-मरण, रोग स्वास्थ्य आदि सभी चीजों को देखती है। वह शक्ति विजातीय द्रव्यों की अधिकता होने पर जब शरीर में रोग उत्पन्न करने की आवश्यकता समझती है। तब रोग उत्पन्न करती है और पुनः वही शक्ति उस रोग से मुक्त करके आरोग्य भी प्रदान करती है। चिकित्सा वह शक्ति है जो हमारे शरीर में भीतर वास करती है। वही हमारे स्वास्थ्य को बनाये रखती है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा है कि 
‘‘अहं वैष्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः’’। 
प्राणापान समायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।15/14 गीता 
अर्थात् मैं ही प्राणियों की देह में वेष्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान समीकरण और बहिष्करण इन दोनों प्राण धाकर क्रियाओं से मुक्त हुआ चार प्रकार के अन्न भक्ष्म (खूब चबाकर खाने वाले) भोज्य (सामान्य रूप से चबाकर खाने वाले) लेहय (बिना चबाए ग्रहण करने वाले) चोष्य (पीनी वाले) को पचाता हूं। अतः शरीरस्थ सभी क्रियायें उसी एक अन्तर्भूत शक्ति की उपस्थिति के कारण होती है। वह शक्ति न की मानसिक विकारों को नष्ट करती है बल्कि शारीरिक विकारों को भी दूर करने वाली है। 
जब हम इस विषय पर चिन्तन करते हैं कि किस प्रकार प्रकृति ने मानव के शरीर का निर्माण किया है। तो हम आश्यर्चचकित हुए बिना नहीं रह सकते। हृदय, मस्तिष्क, नाड़ी संस्थान चाहे जो भी अंग हो उसके निर्माण और आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये व्यवस्था करने में जो महान कौशल दिखाया उसे देख चकित हुए बिना रह सकते। ईश्वर ने इस छोटे शरीर के भीतर ही उसके साज संभार के लिये सारी आवश्यक वस्तुएं निर्मित कर रखी है और इन्हीं वस्तुओं के माध्यम से शरीर के रोगी होने की दशा में जीवनी शक्ति इन्हीं वस्तुओं के संयोग से रोगों का शमन करती है। तथा जन्म लेने से लेकर मृत्यु पर्यन्त यही शक्ति शरीर के निर्माण और सुधार का काम करती रहती है।  यह बात बिल्कुल तर्कहीन है कि हमें जन्म देने वाला परमात्मा, हमें पैदा करके सभी प्रकार के भोग उपलब्ध करवाये परन्तु रोगी होने पर उससे मुक्ति पाने की शक्ति न प्रदान करें। 
परन्तु सत्य यह है कि प्रत्येक प्राणी इस संसार में ऐसी शक्ति के साथ ही जन्म लेता है जिसकी सहायता से वह अपने स्वास्थ्य की स्वयं रक्षा कर सके। 
प्रकृति स्वयं चिकित्सक है इसे सिद्ध करने के लिये कुछ उदाहरण प्रस्तुत है। जब पानी पीते समय पानी हवा की नली में प्रवेश कर जाता है तब कौन खांसी को उत्पन्न करके उसे ठीक करता है। जब तम्बाकू व अन्य जहरीली चीज पेट में चली जाती है तो कौन उसे वमन के माध्यम से बाहर निकालता है। घाव होने पर बिना चिकित्सक के भी वह भर कैसे जाता है हड्डी के टूट जाने पर कौन आकर उसे जोड़ता है। डाक्टर तो सिर्फ उसे सीधा करके बांध देता है। परन्तु जुड़ती तो वह स्वयं हैं। 
हमें इस बात का स्मरण रखना चाहिये कि रोग स्वयं ठीक होते हैं। कोई बाहरी वस्तु उन्हें ठीक नहीं करती जो चीजें शरीर में मौजूद हैं वही चीजें बाहर से भी सहायक होती है। अन्य चीजें तो हम व्यर्थ ही ग्रहण करते है। यदि हम दवाओं के प्रयोग के विषय में सोचें तो पायेंगे की वह तो केवल रोग को बढ़ने से रोक रही है। उसे ठीक नहीं कर रही ठीक प्रकृति करती है। प्रकृति का कार्य अपने आप में आये विकार को स्वयं दूर करना है। इसके लिये उसे अन्य की आवश्यकता नहीं है। हम या चिकित्सक तो मात्र उसके सहयोगी है जो इस कार्य में प्रकृति का सहयोग करते हैं। अतः सिद्ध है कि प्रकृति ही वास्तविक चिकित्सक है। 


5. चिकित्सा रोग की नहीं अपितु रोगी के पूरे शरीर की होती है :
प्राकृतिक चिकित्सा कभी भी किसी रोग विशेष की चिकित्सा नहीं करती बल्कि वह सम्पूर्ण शरीर के कल्याण के लिये प्रतिबद्ध होती है। जबकि अन्य पद्धतियां रोगों की चिकित्सा पर ही केन्द्रित रहती है। तथा मुख्यतः लाक्षणिक चिकित्सा करती हैं। प्राकृतिक चिकित्सा अपनाने से समस्त शरीर की चिकित्सा होने पर रोग के चिन्ह स्वयं समाप्त हो जाते है। जिन्हें अन्य पद्धतियां रोग लाभ से जानती है। प्राकृतिक चिकित्सा उन्हें रोगों का चिन्ह मात्र मानती है। क्योंकि जो वास्तविक रोग है वह तो शरीर में अनावश्यक रूप से जमा हुआ विजातीय द्रव्य या विष है। जो समय पाकर किसी विशेष प्रक्रिया (रोग) द्वारा शरीर से बाहर निकालने का प्रयास करता है। अतः चिकित्सा रोग के चिन्ह की न होकर उस कारण की होनी चाहिये जिसका वह चिन्ह है या साधारण शब्दों में कहे तो चिकित्सा रोग की नहीं अपितु पूरे शरीर की होनी चाहिये। इसका एक कारण यह भी है कि विजातीय द्रव्य हमारे पूरे शरीर में विद्यमान रहते है। जहां उसकी अधिकता होती है। उस अंग विशेष से सम्बन्धित रोग उत्पन्न होता है। हम उस अंग विशेष का उपचार करके वहां से विजातीय द्रव्य को निकाल भी दें तो फिर वह अन्य स्थानों पर भी एकत्र होकर रोग को उत्पन्न कर सकता है। क्योंकि हमनें एक विशेष स्थान से उसे निकाला है पूरे शरीर से नहीं। 
प्राकृतिक चिकित्सा से सभी रोगो को दूर किया जा सकता है परन्तु सभी रोगियों को नहीं इसके मुख्य पांच कारण है जिनके द्वारा प्रत्येक रोगी को ठीक नहीं किया जा सकता। 

1. रोगी के शरीर में उपस्थित विजातीय द्रव्य की मात्रा कितनी है। 
2. रोग दूर करने के लिये उसमें यथेष्ट जीवनी शक्ति है या नहीं। 
3. रोगी कितने समय से चिकित्सा करा रहा है कहीं उसका धैर्य जबाव तो नहीं दे रहा। 
4. प्राकृतिक चिकित्सा शुरू करने से पहले रोगी को घातक औषधियां दी गयी या नहीं या फिर कोई बड़ा आप्रेशन हुआ या नहीं। 

5. रोगी को प्राकृतिक चिकित्सा पर विश्वास है या नहीं। 
उपरोक्त विवरण इसी बात की ओर संकेत करती है कि प्राकृतिक चिकित्सा से रोग अवश्य ही ठीक हो जाता है यह अलग बात है कि जीवनी शक्ति के अभाव में प्रत्येक रोगी ठीक नहीं हो पाता। प्रत्येक रोग ठीक होने का कारण यह है कि जब प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा उपचार किया जाता है तो वो उपचार पूरे शरीर का होता है। जिससे एक रोग के साथ-साथ शरीर के अन्य छिपे रोग भी अपने आप ठीक हो जाते है। क्योंकि चिकित्सा रोगों के कारण की होती है न कि लक्षण की। इस सभी तथ्यों से प्रस्तुत सिद्धान्त की पुष्टि होती है। 


6. रोग निदान की विशेष आवश्यकता नहीं :
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि चिकित्सा रोग नहीं अपितु पूरे शरीर की होती हैं। इस दशा में रोग निदान की आवश्यकता क्या है और यदि निदान करना भी है तो देखकर ही किया जा सकता है। उसके महंगे उपकरणों की आवश्यकता नहीं हैं। रोग निदान की आवश्यकता का एक तर्क यह भी है कि यदि प्रकृति चाहती कि रोग अथवा निरोग अवस्था में डाक्टर निदान के लिये लोगों के शरीर के भीतर के अवयवों और उनमें होने वाली क्रियाओं को देख सके तो वह मनुष्य के शरीर में मांस का अपारदर्शी खोल न चढ़ाती बल्कि शरीर को एक ऐसी पारदर्शी झिल्ली लगाकर रखती जिससे शरीर के भीतर होने वाली गड़बड़ी को आसानी से देखा जा सकता। 
यह बात सिद्ध करती है कि प्रकृति स्वयं नहीं चाहती है कि कोई भी रोग निदान हेतु अपना समय और धन खर्च करे। निदान की खींचतान के लिये मानव ने जितने यन्त्र बना रखे हैं। वे सभी प्रकृति और परमात्मा के गूढ़ रहस्यों का पता लगाने में कदापि सक्षम नहीं है। अतः उससे रोग निदान की पूर्ण रूप से सही होने की आशा कैसे की जा सकती है। यही कारण है कि उनके अधिकांश निदान गलत साबित होते हैं। अब इस बात से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि गलत निदानों से चिकित्सा कितनी सही हो पायेगी। पहले तो निदान गलत फिर चिकित्सा गलत तो हम कैसे कह सकते हैं कि इससे रोगी ठीक हो सकता है। इसके परिणाम अत्यन्त भयानक होते हैं जिन्हें रोगी को भुगतना पड़ता है। यदि यह मान भी लिया जाये कि रोग का सही निदान भी हो पाया। लेकिन केवल निदान हो जाने से ही रोग ठीक हो जाये ऐसा नहीं हैं इस विषय में बड़े-बड़े डाक्टरों के अनुभव बताते हैं कि औषधि द्वारा उपचार करने में सही निदान हो जाने के बाद भी कई रोगों पर इस चिकित्सा का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता इसके विपरीत बहुत से रोग चिकित्सा करते-करते जीर्णावस्था को प्राप्त हो जाते है तथा उनमें कुछ को तो असाध्य घोषित कर दिया जाता है।
इस अवस्था में प्राकृतिक चिकित्सा ही ऐसी उत्तम पद्धति है जो निदान पर विशेष बल नहीं देती तथा इस पर निर्भर भी नहीं रहती। जो थोड़ा बहुत नाममात्र का निदान होता भी है उसमें किसी प्रकार की भूल या गलती के कारण रोग के बढ़ने की संभावना नही होती। 
प्राकृतिक चिकित्सा में रोगों का कारण विजातीय द्रव्य का एकत्र होना माना गया है। निदान हेतु एक प्राकृतिक चिकित्सक को केवल यह देखना होता है कि वह विजातीय द्रव्य शरीर के किस भाग में एकत्र है। वह बगल में हो सकता है। सामने पीछे, मुख, गर्दन या फिर पूरे शरीर में हो सकता है। रोगी की शारीरिक दशाओं को देखकर उसके मुख से सुनकर भी निदान कर लिया जाता है। 
डाक्टरों के रोग निदान और प्राकृतिक चिकित्सा के निदान में एक विषेश अन्तर यह है कि डाक्टर मुख्यतः मुर्दों को चीर फाड़कर निदान का ज्ञान प्राप्त करने का काफी समय तक प्रयास करते हैं। परन्तु प्राकृतिक चिकित्सक शरीर में आये परिवर्तन व उसमें होने वाले कार्यो का दृष्टिपात करके मिनटों में रोग के कारण को जान लेता है। 
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राकृतिक चिकित्सा की निदान विधि में भटकने या गलती करने का भय नहीं होता तथा यह एक अत्यन्त साधारण प्रक्रिया है। जिसे कोई आम आदमी भी कर सकता है। इसलिये प्राकृतिक चिकित्सा में निदान को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया गया है। 


7. जीर्ण रोगों के ठीक होने में समय लगता है :
एक बार डॉ. लिण्डहार से प्राकृतिक चिकित्सा पर आक्षेप करते हुए उनके किसी विरोधी ने कहा कि प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा उपचार करने पर तो रोगी बहुत देर में ठीक होते हैं और उपचार कराते-कराते रोगी उकता जाते है। इसके जबाव में उन्होंने तुरन्त कहा कि यह एकमात्र भ्रम है इससे तो रोगी बहुत जल्दी ठीक होते हैं बल्कि आज जितनी भी चिकित्सा पद्धतियाँ हैं उन सबसे तेज रफ्तार से कार्य करती है। मगर हमारी सबसे बड़ी परेशानी यह है कि हमको केवल असाध्य रोग के रोगी ही मिलते हैं जो सब जगह से निराश हो चुके होते हैं। 
प्राकृतिक चिकित्सा की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इसमें वहीं लोग चिकित्सा हेतु आते हैं। जो केवल रेाग से ग्रस्त ही नहीं होता बल्कि उनके शरीर में उन दवाओं का भी जहर होता है जो पूर्व में उसने खायी हैं। इस वजह से प्राकृतिक चिकित्सक को केवल रोग का ही उपचार नहीं करना पड़ता बल्कि उन सभी विषों को भी शरीर से बाहर निकालना होता है। जिसमें महीना, दो महीना और कभी-कभी साल भी लग सकता है। 
इस प्रणाली में निरोग होने का मतलब केवल रोग का दूर होना ही नहीं बल्कि नया जीवन प्राप्त करना है। अतः इस पद्धति में हम यह नहीं कह सकते की रोग तुरन्त ही छूमन्तर हो जायेगा। इसमें काफी समय लगता है। प्रकृति के समस्त कार्य तेजी से नहीं अपितु धीरे-धीरे होते हैं। जैसे बीज बोने के बाद प्रतीक्षा करनी पड़ती है। तभी उस प्रतीक्षा के फलस्वरूप वह बीज पौधा बनकर वृक्ष में परिणित होता है। यदि हम अपनी जल्दी की आदत के कारण बीज बोएं और अगले दिन देखे कि वह उगा नहीं और फिर उसे उखाड़कर दूसरी जगह पर बो दें और यही क्रिया दोहराते रहें तो वह बीज कभी नहीं उगेगा बल्कि एक समय बाद उसमें उगने की शक्ति ही समाप्त हो जायेगी । यही हाल हम अपने शरीर का कर लेते हैं। रोगी हुए नहीं कि चले डाक्टर के पास कुछ दिन दवाएं खायी, ठीक न हुए तो फिर दूसरे डाक्टर के पास गए वहां भी ऐसे ही किया । धीरे-धीरे ऐसे करते हुए न जाने कितने डाक्टरों को दिखाया कितनी दवायें खायी पता ही नहीं और दवाओं का सारा विष अपनी नस नाड़ियों में अपने पूरे शरीर में भर लिया अन्त में आते हैं प्राकृतिक चिकित्सक के पास अब स्वयं चिन्तन कीजिये कि वह कैसे हमें तुरन्त ठीक कर सकता है। परन्तु फिर भी प्राकृतिक चिकित्सा बड़े प्रभावशाली ढंग से चिकित्सा करती है। जिससे रोगी काफी कम समय में साधारण रूप से स्वस्थता का अनुभव करने लगता है और उसे लगता है कि वह ठीक हो चुका है। जिस कारण अपनी जल्दबाजी की आदत के कारण वह उपचार बीच में छोड़ देता है और इस कारण कुछ ही समय बाद पुनः रोगी हो जाता है और इसका दोष की वह प्राकृतिक चिकित्सा को ही देता है। जबकि दोष उसके स्वयं का होता है। उदाहरण के लिये मान लिया जाये कि एक व्यक्ति जो रोगी होने पर दवा खाते-खाते और इंजेक्शन  लेते-लेते अपनी पूरी जीवनी शक्ति खो बैठा है। फिर भी उसका रोग दूर नहीं हो पाया। बल्कि वह साधारण रोग से असाध्य रोग में बदल गया। उसका रक्त विषाक्त हो गया। नाड़ियों की शक्ति क्षीण हो गयी। मलों के विसर्जन में बाधा आने लगी पाचन खराब हो गया। इस प्रकार के रोगी को कोई भी चिकित्सा तुरन्त ठीक नहीं कर सकती, यदि ऐसा रोगी वर्षों में भी ठीक हो जाये तो उसे भगवान की कृपा समझकर उनका धन्यवाद करना चाहिये। 
इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है कि अत्यधिक कष्ट पीड़ित रोगी का रोग से जल्दी मुक्त होने के कारण उसका धैर्य टूटना स्वाभाविक है। परन्तु यहां पर प्राकृतिक चिकित्सक को यह मानना चाहिये कि रोगी का धैर्य न रख पाना भी उसके रोग का ही एक अंग है और उसकी ओर भी ध्यान देते हुए रोगी को लगातार धैर्य बंधाते रहना चाहिये। तथा उसकी चिकित्सा भी निरन्तर लाभ के साथ जारी रखनी चाहिये। 
उपरोक्त सारे विवरण व उदाहरण से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि किसी की रोग को दूर करने में धैर्य की बहुत अधिक आवश्यकता होती है। क्योंकि इस चिकित्सा में जीर्ण रोगों के ठीक होने में समय अधिक लगता है। 


8. प्राकृतिक चिकित्सा में दबे रोग उभरते हैं :
इस सिद्धान्त के अनुसार दबे रोग उभरते हैं परन्तु औषधि चिकित्सा से रोग दब जाते हैं। जैसे कि नाम से स्पष्ट है दवाई या दबाने वाली अतः स्पष्ट है कि औषधि चिकित्सा रोग को समाप्त नहीं करती बल्कि दबाती है परन्तु प्राकृतिक चिकित्सा रोग को दबाती नहीं बल्कि उसे उभारकर रोग को समूल नष्ट कर देती है। उभार का अर्थ चिकित्सीय भाषा में रोग का तीव्र रूप, पुराने रोग का प्रभावर्तन, आरोग्य प्रदारूण स्थिति जीर्ण रोग की चिकित्सा काल में किसी समुचित समय पर उस रोग की तीव्र प्रतिक्रिया का होना, या फिर प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा अर्जित प्रबल जीवनी शक्ति के कारण रोग का सदा के लिए समूल रूप से चले जाने के लिये प्रस्तुत हो जाना और थोड़े समय तक अथवा उग्र रूप दिखाकर फिर रोगी को सदा के लिये छोड़ देना, होता है। उभार शरीर में दो चार दिन या अधिक हुआ तो एक सप्ताह में रोगी को निरोग दशा में छोड़कर चला जाता है। उभार की क्रिया अपने आप में विलक्षण क्रिया है। इसमें शरीर में क्रम से जो-जो रोग दबे होते है। वे उल्टे क्रम से उभरते हैं और एक-एक करके नष्ट होते जाते है। साथ ही एक रोचक तथ्य यह है कि इसमें दो रोगों के बीच उभार का जो अन्तराल होता है वह 7 से भाग देने पर कट जाने वाला कोई अंक होता है। उदहारण स्वरुप  रोगी को पहले दस्त हुए वह दवा से दब गये, दर्द हुआ वह भी दब गया, ज्वर हुआ वह भी दब गया तो प्राकृतिक चिकित्सा करने पर जब उभार शुरू होगें तो सर्वप्रथम ज्वर 7 या 14 दिन में उभरेगा और समाप्त हो जायेगा उसके 7, 14 या 21 दिन बाद दर्द उभरेगा और चला जायेगा और अन्त में दस्त का रोग उभरेगा और रोगी को पूरी तरह से निरोग करके चला जायेगा। इस सिद्धान्त के अपवाद हो सकते है। जैसे अन्य सिद्धान्तों में भी देखा जाता है। परन्तु अधिकांश ऐसा ही देखा जाता है। 
इस प्रकार हम देखते हैं कि दबे हुए रोगों को उभारने में प्रकृति को एक निश्चित समय तक कार्य करना पड़ता है। एक के बाद दूसरा दूसरे के बाद तीसरा और इसी प्रकार अन्य रोग उभरते हैं और हर उभार तैयारी के बाद होता है। उदाहरण स्वरूप मलेरिया ज्वर को ही लीजिये जो लौट-लौट कर आता है। प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा उपचार करने पर वह ज्वर कुछ दिनों तक बढ़ा हुआ रहता है। यहाँ प्रत्येक उभार को स्वास्थ्य के लिये वरदान समझना चाहिये। 
सृष्टि संचालन में प्रकृति की दो शक्तियां काम करती है। एक है रचनात्मक और दूसरी है विनाशक, प्राकृतिक रोगोपचार में प्रकृति की रचनात्मक शक्ति रोगी में रोग उपशम संकट पैदा करके उसे रोग मुक्त बना देती है। तथा विनाशक शक्ति रोगी में विध्वंसकारक रोग संकट पैदा करके मृत्यु का कारण बनती है। यह अवस्था तब उत्पन्न होती है जब रोगी के शरीर में स्थित विजातीय द्रव्य किसी भी मार्ग से शरीर से निष्कासित नहीं हो पाते जैसे मल, मूत्र, स्वेद आदि के माध्यम से जिसका परिणाम यह होता है कि रोगी की मृत्यु हो जाती है और यह मृत्यु तभी होती है जब शरीर में मलों का स्तर इतना अधिक बढ़ जाता है कि शरीर की रोग निवारण शक्ति उसे बाहर निकालने में अक्षम रहती है। 
यह उभार की स्थिति केवल रोग के सम्बन्ध में ही नहीं बल्कि सारे संसार में सर्वत्र मिलती है। जैसे कभी गर्मीयों के दिनों में गर्मी व उमस बहुत अधिक बढ़ जाती है। किन्तु कुछ समय बाद निश्चय ही हवा चलने लगती है या तेज आंधी आने लगती है या कि बारिश की फुहारे पड़ने लगती है और हमें गर्मी से शांति मिल जाती है। प्राकृतिक चिकित्सक डॉ. लिण्डल्हार ने  तो युद्ध व क्रांतियों को भी राज्यों के जीवन से सम्बन्धित आरोग्यपद स्थिति माना है। 
जब हम अपने कमरे की सफाई करते हैं तो कुछ समय के लिये कमरे में धूल ही धूल दिखायी देती है। परन्तु धूल के हट जाने के बाद कमरा पहले से कहीं अधिक साफ सुथरा हो जाता है। सभी प्रकार के तीव्र रोग जैसे ज्वर, दस्त चेचक, हैजा आदि हमारे मलों से भरे शरीर से शरीर की जीवनी शक्ति द्वारा मलों को अत्यधिक तेजी से निकालकर फेंकने में शीघ्रता करते हैं। उसे हम रोग का तीव्र रूप, उभार या तीव्र उपशम संकट कह सकते हैं। 
इस तरह कह सकते हैं कि प्राकृतिक चिकित्सा करते समय रोग का उभरना कितना लाभकारी और आवश्यक है। इससे घबराने की बजाय खुश होना चाहिये। साथ ही यह भी सही बात है कि उभार को जल्दी बुलाना और उसे विकट रूप में लाना उचित नहीं है। क्योंकि इस समय जल्दबाजी से काम लेना हानि पहुंचा सकता है। यहां पर भी प्रकृति का वही नियम लागू होने देना चाहिये जिसमें प्रकृति अपने सभी कार्यो को धीरे-धीरे करती है।देखा जाता है कि परेशान करने वाले उभार अक्सर उन्हीं रोगियों की चिकित्सा के दौरान देखे गये हैं जो चिकित्सा के पहले अनेक विषाक्त दवाईयों का सेवन कर चुके होते हैं। उपरोक्त बातें इस सिद्धान्त की पुष्टि करती है कि प्राकृतिक चिकित्सा से दबे रोगों को उभार कर फिर उन्हें शान्त किया जाता है।ताकि रोग पुनः लौटकर नहीं आये । 


9. मन, शरीर तथा आत्मा तीनों की चिकित्सा एक साथ :
जब हमारा शरीर, मन व आत्मा पूर्ण रूप से स्वस्थ होते हैं तभी पूर्ण स्वास्थ्य की स्थिति समझनी चाहिये, प्राकृतिक चिकित्सा में केवल शरीर ही नहीं अपितु इन तीनों स्तरों पर स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखा जाता है क्योंकि यह एक दूसरे से इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि एक में विकार होने या एक के रोगी होने पर दूसरे भी रोगग्रस्त हो जाते है या कष्ट भोगते है यदि शरीर में कोई रोग होता है और वह समय से ठीक नहीं होता तो उससे मन बहुत कष्ट पाता है और यदि मन कष्ट मुक्त अवस्था में होता है तो मनुष्य आत्मिक शांति व कल्याण के लिये प्रयत्न नहीं कर पाता जिससे मन के साथ-साथ आत्मा भी कष्ट पाता है। इसी प्रकार आत्मा के कष्ट की अवस्था में मन और फिर शरीर भी कष्ट पाता है। यह प्रक्रिया दोनों ओर समान रूप से चलती है। 
प्राकृतिक चिकित्सक मानसिक स्वास्थ्य को शारीरिक स्वास्थ्य से अधिक आवश्यक मानते है तथा आत्मिक बल का स्थान इन दोनों से श्रेष्ठ मानते है। महान दार्शनिक सुकरात कहा करते थे कि यदि मनुष्य केवल बलवान हो तो इसमें उसकी कोई विशेषता नहीं है। मृतक मनुष्य नहीं बल्कि शव मात्र है। परन्तु जीवित मनुष्य के शरीर और उसके मन में अविच्छेद सम्बन्ध है। दोनों को मिलाकर एक ही समझना चाहिये इनका विकास अलग-अलग सम्भव नहीं है। मस्तिष्क की उन्नति व शरीर का बल जिसके पास होता है। वह व्यक्ति सुख की ओर अग्रसर होता है। प्राकृतिक चिकित्सा में हम केवल शरीर के रोगों पर ही ध्यान नहीं देते बल्कि अपने रहन-सहन, खान-पान आदि का भी ध्यान रखते हैं जिससे हमारा मन शांत होकर हमें आत्मिक शांति प्रदान करता है। जिससे हम आध्यात्मिक उन्नति को ओर बढ़ते है। 
यह बात बिल्कुल सत्य है कि यदि मानव प्राकृतिक चिकित्सा ही नहीं बल्कि पूरे प्राकृतिक दर्शन को समझे और अपनाये तो निर्दयता, पैशाचिकता, पाश्विकता सभी संसार से एक दम समाप्त हो जायें और यह पृथ्वी स्वर्ग की भांति दुख रहित हो जाये। मनुष्य के रोगी शरीर निर्बल आत्मा व विकार युक्त मन इन तीनों की चिकित्सा के लिये प्राकृतिक चिकित्सा में ईश प्रार्थना अथवा राम नाम एक अचूक रामबाण चिकित्सा है। 


10. प्राकृतिक उपचार में उत्तेजक दवाओं के दिये जाने का कोई प्रश्न ही नही है :
औषधि उपचार प्रणाली का यह सिद्धान्त है कि रोग शरीर से बाहर की वस्तु है जिसने शरीर पर आक्रमण किया है और जो हमारा घोर शत्रु है। अतः हमें शक्तिशाली से शक्तिशाली साधनों का उपयोग करके उससे लड़ना चाहिये और उसे हराना चाहिये। इस कारण डाक्टर विषैली दवायें जैसे शंखिया पारा अफीम आदि का प्रयोग करके रोगों से लड़ने के लिये करते हैं । परन्तु वे इस बात की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देते कि विष तो आखिर विष ही है, चाहे इसकी मात्रा कम हो या अधिक वह हर परिस्थिति में शरीर के लिये तो घातक ही है। वह शरीर को लाभ कैसे पहुंचा सकता है। यही कारण है कि रोग ठीक होने के बजाय दिन प्रतिदिन और भी गंभीर होते जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग मात्र अनावश्यक ही नहीं बल्कि अत्यधिक घातक भी समझा जाता है। इसका कारण यह है कि प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धान्त उपरोक्त पद्धति से बिल्कुल उल्टा है। प्राकृतिक चिकित्सा में रोग को बाहरी वस्तु नहीं समझा जाता बल्कि शरीर की चीज माना जाता है और रोग को प्राकृतिक साधनों द्वारा ठीक किया जाता है । शरीर की जो शक्ति हमें उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करती है वहीं हमें रोगों से भी मुक्ति दिलाती है। 
औषधियों में शरीर के लिये आवश्यक पोषक जीवन तत्व नहीं होते। उनके प्रयोग से शरीर में जो प्रतिक्रिया मालूम पड़ती है। वह औषधियों की प्रतिक्रिया नहीं होती वास्तव में वह उस शरीर की होती है। जिसमें वे जीवनहीन औषधियां प्रवेश करती है। क्या औषधियां किसी मृत व्यक्ति पर अपना कोई प्रभाव डाल सकती है। बिल्कुल नहीं । प्रश्न यह है कि औषधियों के कुप्रभाव से हमारा शरीर कैसे निपटता है, हमारा शरीर सदैव अपने भीतर अनावश्यक रूप से आये दुर्द्रव्यों को जल्द से जल्द बाहर निकालने का प्रयास करता है। क्योंकि वे शरीर के लिये अनावश्यक होने के साथ-साथ हानिकारक भी होते है। 
औषधियों को उनमें भी विशेष रूप से विषैली औषधियों को जब हम स्वस्थ अवस्था में ग्रहण नहीं करते तो रोगी होने पर कैसे उनका सेवन कैसे कर सकते है और कैसे इस दशा में डाक्टरों द्वारा उन्हें यह औषधियां दी जाती है। स्पष्ट है कि जो औषधियां स्वास्थ्य की अवस्था में हानि पहुंचाती हैं वे रोगी होने पर कैसे हमें लाभ पहुंचा सकती है। प्राकृतिक चिकित्सा के चौथे सिद्धान्त से स्पष्ट है कि प्रकृति स्वयं चिकित्सक है। अर्थात रोगों से मुक्ति प्रकृति देती है दवा नहीं। 
औषधि की वास्तविक और सही परिभाषा यही है जो कि औषधि चिकित्सकों की परिभाषा से अलग है। इस परिभाषा के अनुसार सभी पदार्थ जो भी प्राण शक्ति से भरपूर है वे औषधि ही कहलायेगें, परन्तु ध्यान रहे पहले खाद्य पदार्थ है बाद में औषधि है। 

इस प्रकार हमने 10 प्राकृतिक सिद्धान्तों के विषय में ज्ञान प्राप्त किया जिन पर पूरी प्राकृतिक चिकित्सा टिकी है । इन्हीं सिद्धान्तों के सहारे आज यह पद्धति उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है और दिन प्रतिदिन और अधिक विकसित व प्रचारित हो रही है। प्रकृति के नियमों का पालन करने पर इन सभी सिद्धान्तों का पालन स्वयं ही हो जाता है। क्योंकि ये नियम स्वयं प्रकृति के ही तो है इनका पालन करने वाला सदा स्वस्थ व सुखी होता है। 



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