प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली सिर्फ चिकित्सा नही अपितु सम्पूर्ण जीवन विज्ञान है, यह विज्ञान तब से अस्तित्व में है जबसे प्रकृति अस्तित्व में आयी, हालांकि उसका उपयोग मानव ने बाद में सीखा। प्राकृतिक चिकित्सा का उद्भव प्रकृति के पांच तत्वों आकाश, वायु अग्नि, जल व पृथ्वी के द्वारा हुआ है। यदि इस चिकित्सा को सबसे प्राचीन और सभी चिकित्सा प्रणालियों की जननी कहें तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी, वेदों में भी इस चिकित्सा जैसे जल चिकित्सा, उपवास (आकाश तत्व चि0) का वर्णन मिलता है। वेदों के अलावा इसके बाद आये पुराणों में भी इसकी उपस्थिति सिद्ध है। बौद्ध ग्रन्थ ‘महाबग्ग’ में भी एक प्रसंग के साथ इस चिकित्सा की चर्चा है। एक प्रसंग के अनुसार एक बार बुद्ध कलन्द निवाय नामक स्थान पर रूके हुए थे वहां पर एक दिन किसी बौद्ध भिक्षु को सांप ने काट लिया, तभी लोगों ने इसकी सूचना बुद्ध को दी, तब बुद्ध ने उन्हें आदेश देते हुए कहा कि तुम सांप के विष के नाश के लिये मिट्टी, गोबर, राख और मूत्र का उपयोग करो या फिर सभी का उपयोग एक साथ ही करो। लगभग 2500 साल पूर्व की इस घटना से इस बात का प्रमाण मिलता है कि रोगों के उपचार में मिट्टी का प्रयोग हमारे देश में अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रचलित है।
प्रारम्भ में औषधि चिकित्सा नहीं
हुआ करती थी उस समय लंघन (उपवास) को ही रोगों की अचूक चिकित्सा माना जाता था, औषधियों के
प्रयोग का प्रारम्भिक काल रावण के समय से माना जा सकता है। रावण भोग विलासी होने
के कारण उसे उपवास से कष्ट होता था,
अतः उसने वैद्यो को ऐसी औषधियों की खोज करने के लिये कहा, जिनका प्रयोग
करने पर उपवास आदि न करना पड़े,
इसी प्रकार धीरे-धीरे कालान्तर में औषधियां लोगों के मध्य फैलती गयी, परन्तु वह
उतनी प्रभावकारी सिद्ध नहीं हुई जितनी की प्राकृतिक चिकित्सा थी, सृष्टि के
आदि से अब तक इतिहास को यदि देखें तो स्वयं ही विदित हो जायेगा कि पूर्व काल में न
तो इतनी चिकित्सा पद्धतियां थी और न ही इतने चिकित्सक, परन्तु तब भी
आज की अपेक्षा लोग दीर्घायु हुआ करते थे,
तथा इतने अधिक रोग भी नहीं हुआ करते थे जितने की आज है। इसका कारण स्पष्ट हैं, क्योंकि उस
काल में लोग प्रकृति से जुड़े हुए थे। वे प्रकृति के साथ चलते थे, विरूद्ध नहीं
जबकि आज मनुष्य को प्रकृति से तालमेल बैठाने में भारी समस्या का सामना करना पड़ रहा
है। क्योंकि वह अपनी आदतों का गुलाम बन चुका है। प्राचीन काल में लोग असमय निर्बल
व निष्तेज नहीं हुआ करते थे। वे शारीरिक,
मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन पर्यन्त बलशाली, तेजस्वी व
ओजस्वी बने रहते थे। इसका स्पष्ट कारण यह भी है कि वे सच्चे अर्थो में प्रकृति की
उपासना किया करते थे। प्राचीन काल से ही हमारे देश में तीर्थ भ्रमण पंचतत्व पूजन
आदि व्यवस्थाएं स्वास्थ्य हेतु आवश्यक होने के कारण धर्म के अंग के रूप में
स्वीकार कर ली गई, प्राचीन
काल में केवल प्रकृति ही वह साधन थी जिससे स्वास्थ्य लाभ लिया जा सके अन्य कोई
वस्तु इसके लिये उपलब्ध नहीं थी और न ही उसकी कोई आवश्यकता ही महसूस की जाती थी |
उपरोक्त सभी बातों का निचोड़ यह
है कि जिन स्वास्थ्य सम्बन्धी क्रियाओं को हम सभी आजकल अपने जीवन में प्रयोग कर
रहे हैं वे सभी पहले भी प्राचीन भारत में विद्यमान थी, यह अलग बात
है कि उनके नाम आधुनिक चिकित्सा पद्धति के नामों से भिन्न थे। जैसे आजकल के
स्टीमबाथ, हिपबाथ, एनिमा, वाटर सीपींग
आदि को पहले, स्वेद
स्नान, कटि
स्नान, वस्ति, आचमन आदि
नामों से जाना जाता था, जिसे आजकल
सनबाथ कहते हैं, वह
प्राचीन काल में सूर्य नमस्कार के रूप में या सूर्य को अर्ध देकर किया जाता था, इनके अलावा
उपवास भी नया नहीं है,
छन्दोग्यपनिषद में कहा गया है कि व्यक्ति 15 दिनों तक आसानी से व लाभ लेता हुआ उपवास कर सकता है।
उपनिषद में भी उपवास की महत्ता बताते हुए वह किन-किन रोगों में लाभकारी है, यह बताया गया
है। साथ ही साथ उपवास तोड़ने के नियमों को भी बताया गया है। ये सभी बातें यह संकेत
करती है कि केवल भारत ही नहीं अपितु समस्त संसार में किसी ना किसी रूप में
प्राकृतिक चिकित्सा का प्रयोग अवश्य होता था,
लेकिन बाद के समय में धीरे-धीरे औषधियों और औषधि चिकित्सकों का जोर बढ़ता गया
तथा हम प्राकृतिक चिकित्सा से दूर होते चले गये, इसका एक कारण यह भी था कि औषधि चिकित्सा लेना प्राकृतिक
चिकित्सा से काफी आसान था,
तथा उसके लिये प्रकृति के नियमों का पालन करना भी अनिवार्य नहीं समझा जाता था
और साथ ही इससे परिणाम शीघ्र मिलते थे,
परन्तु समय के साथ-साथ इस औषधि चिकित्सा के दुष्परिणाम सामने आने लगे, लोग इस बात
को जानने लगे कि वे जिन औषधियों का सेवन कर रहे हैं वे औषधियां वास्तव में उनके
शरीर में विषाक्त तत्वों को बढ़ा रही है,
तथा यह औषधि (एलोपैथिक) चिकित्सा केवल लाक्षणिक उपचार तक ही सीमित है रोग तो
जहां का तहां बना हुआ हे,
इसने तो केवल उसके लक्षण को दबाया है। तथा बाद में यही रोग गंभीर रोगो के रूप
में प्रकट हो रहे हैं। हम तरह-तरह की दवाईयां रखते हैं। इंजेक्शन लगवाते हैं।
जिनसे हमारे शरीर में दूषित पदार्थो का ढेर जमा हो जाता है। यदि मानव को इन सबकी
वास्तव में आवश्यकता होती तो ईश्वर मानव को इन सभी विषों को पचाने की शक्ति देता, मगर ऐसा नहीं
है, प्रकृति
द्वारा इन सभी विषों को शरीर द्वारा बाहर फेंकने का प्रयास किया जाता है और इसी
प्रयास को हम तीव्र रोगों के नाम से जानते हैं। इन सभी कारणों से कालान्तर में
लोगों इस औषधि चिकित्सा के विरूद्ध आवाज उठानी शुरू कर दी और इसके स्थान पर
प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली को पुनः प्रतिष्ठित करने का संकल्प लिया, इस कार्य की
सबसे रोचक बात यह थी कि प्राकृतिक चिकित्सा का समर्थन करने वालों में अधिकांश
ऐलोपैथी के डाक्टर ही थे।
हालांकि प्राकृतिक चिकित्सा
पद्धति भारत की अपनी प्राचीन पद्धति हैं परन्तु बीच में कुछ समय के लिये इस पद्धति
के लोप हो जाने के बाद इसे पुर्नजन्म या पुर्ननिर्माण का श्रेय पश्चिमी देशों को ही जाता है।
आधुनिक
प्राकृतिक चिकित्सा का विकास (पाश्चात्य संदर्भ में)
प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति पर
विश्वास जागने के पश्चात् अनेक ऐलोपैथी चिकित्सक इसके पुनरूत्थान में लग गये थे, इस श्रेणी
में पहले दो चिकित्सक जेम्स क्यूरी (James
Currie) और सर जॉन फ्लायर (Sir
John Flayer) थे जो अट्ठारवीं शताब्दी से सम्बन्ध रखते हैं, डॉ. फ्लायर
इग्लैंड के रिचफील्ड के रहने वाले थे। एक बार उन्होंने कुछ किसानों को एक स्रोत के
पानी में नहाकर स्वास्थ्य लाभ लेते हुए देखा,
तभी उनके मन में जल के स्वास्थ्यकारक प्रभाव के विषय में अधिकाधिक खोज करने की
प्रबल इच्छा जागृत हुई थी,
डॉ. जेम्स क्यूरी लिवर पूल के रहने वाले थे। सन् 1717 में
इन्होंने जल चिकित्सा के ऊपर एक पुस्तक लिखकर उसका प्रकाशन करवाया था।
विनसेंज
प्रिस्निज (Vincenz
Preisnitz) : वास्तव
में उपरोक्त दोनों डाक्टरों के समय तक लोगों में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार
व्यवहारिक रूप से नहीं हो सका था। इस श्रम को सर्वप्रथम जर्मनी में डॉ. प्रिस्निज
ने ही किया। यही कारण है कि कुछ विद्वानों के अनुसार डॉ. प्रिस्निज ही आधुनिक
प्राकृतिक चिकित्सा के जन्मदाता है। सत्य चाहे जो भी हो किन्तु लगभग 2300 वर्ष पूर्व
हिपोक्रेटस के उठाये हुए रोग उपषम संकट के अनुसंधान के कार्य को इन्होंने ही अपने
समय में पूरा किया। इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि आधुनिक प्राकृतिक
चिकित्सा का आन्दोलन आज से लगभग सवा सौ साल पूर्व ही हुआ था जो कि प्रिस्निज का भी
समय है।
सीलास ओ0 ग्लीसन (Silas O Gleason): यह प्रिस्निज के शिष्य थे जिन्होंने उनके कार्य को
आगे बढ़ाया।
हर्गार्शें, बिजल, फेल्के : यह
तीनों प्राकृतिक चिकित्सक जर्मनी के रहने वाले थे, तथा अपने समय में वहां इनका बहुत नाम था, इन्होंने
अपने जीवन काल में प्राकृतिक चिकित्सा के उत्थान के लिये अथक प्रयास किये।
जेम्स सी0 जैम्सन (James C. Jackson) : जेम्स सी0 जैम्सन
अमेरिका के निवासी थे,
वस्तुतः अमेरिका में इन्हें ही
प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली का उन्नायक माना जाता है। इनका समय 1811 ई0 का है।
जोहान्स
स्क्रार्थ (Johannes
Schroth) : स्क्राथ
ने भी प्राकृतिक चिकित्सा के पुनरूद्धार के लिये अथक प्रयास किये, प्रिस्निज के
ही भांति तथा उनके ही समय में तथा उनके स्थान के आस पास इन्होंने प्राकृतिक
चिकित्सा प्रणाली का पुनरूद्धार किया। पहले इन्होंने अपने घुटने की कड़ी चोट को एक
साधु द्वारा बताई गयी जल चिकित्सा द्वारा ठीक किया। इसके बाद इन्होंने अपने घायल
घोड़ों और कुत्तों पर जल चिकित्सा का प्रयोग करके आशातीत परिणाम प्राप्त किये। बाद
में सिद्धहस्त हो जाने के बाद इन्होंने मनुष्यों की भी चिकित्सा शुरू कर दी, तथा जल्द ही
प्रिस्निज की ही भांति इनकी ख्याति बढ़ने लगी,
जिस कारण औषधि विज्ञान में श्रद्धा रखने वाले लोगों ने इनकी अत्यधिक निन्दा
की। लगभग 20
वर्षो तक इनकी इसी प्रकार निन्दा होती रही यहां तक की उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 1849 ई0 में जेल से
छूटने के बाद लड़ाई में घायल बर्टेम्र्ब के डयूक के घावों को कुछ ही दिनों में ठीक
कर दिया तो इनके शत्रुओं का कहीं पता न रहा,
इनकी चिकित्सा प्रणाली को लोग इनके नाम से स्क्राथ-चिकित्सा पुकारते हैं।
इमेन्युल
स्क्राथ (Emanule
Schoth) : ये
जोहान्स स्क्राथ के पुत्र थे,
इन्होंने अपने पिता के बाद उनकी चिकित्सा विधि को आगे बढ़ाने तथा उसके प्रचार
का कार्य करते हुए अनेक रोगियों का सफल उपचार किया।
फादर
सेबस्टियन नीप (Father
Sebastain Kennepp) :
जोहान्स स्क्राथ के ही समकालीन प्रकृति के प्रबल उपासक पादरी फादर नीप ने भी
अपने पूरे उत्साह और लगन से प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार किया, फादर नीप जल
चिकित्सा के साथ-साथ जड़ी बूटियों द्वारा चिकित्सा करने के पक्षधर थे, इन्होंने एक
स्वास्थ्य गृह बनाया तथा उसका संचालन 45 साल
से अधिक अवधि तक बड़ी तत्परता और सफलता के साथ किया, आज भी जर्मनी में इनके नाम से अनेक संस्थायें कार्यरत है।
जिनमें इनकी ही चिकित्सा प्रणाली प्रचलित है। इन संस्थाओं में सदस्यों की संख्या
लगभग 50,000 से
अधिक है। नीप द्वारा लिखी पुस्तक माई वाटर क्योर आज भी व्यापक रूप से पढ़ी जाती है।
आर्नल्ड
रिक्ली (Arnold
Rickli) : आर्नल्ड पहले एक व्यापारी थे परन्तु बाद में प्राकृतिक
चिकित्सा से प्रभावित होकर इन्होंने अपना सारा जीवन इसी को समर्पित कर दिया यह
आस्ट्रिया के रहने वाले थे। 1848 ई0 में
इन्होंने केन प्रान्त के टेल्डास नामक स्थान पर धूप और वायु का सेनिटोरियम स्थापित
किया जो कि अपने ढंग का प्रथम प्राकृतिक चिकित्सा भवन था जिसे देखकर बाद में अन्य
चिकित्सकों ने भी इसी प्रकार के भवन बनवाये। सबसे पहले इन्होंने ही धूप तथा वायु
के साथ-साथ रोगियों को सात्विक आहार पर रखकर उनके उपचार की प्रणाली विकसित की ओर
इससे सम्बन्धित सिद्धान्तों का प्रचार किया।
डॉ. रसे (Dr. Rause) : उपरोक्त
तीनों डॉ. लुई कुने से पूर्व हुए थे,
जो कि प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक थे इनके आश्रम में जाकर लुई कूने ने अपने
रोग की चिकित्सा करवाई थी जिसके बाद उन्हें प्राकृतिक चिकित्सा पर अटूट विश्वास हो
गया तथा इस चिकित्सा के गुणों को देखकर वे बाद में स्वयं एक सुप्रसिद्ध प्राकृतिक
चिकित्सक बने।
लूई कूने (Luis Kuhne) : प्राकृतिक
चिकित्सा में जल चिकित्सा को पुर्नजीवित करने तथा उसका विकास करने का श्रेय मुख्य
रूप से प्रेस्निज, नीप
व कूने को ही जाता है |
किन्तु यदि देखा जाये तो इन तीनों में से कूने को श्रेष्ठ माना जाता है। यहां
तक की इस प्रणाली का नाम कूने के ही नाम पर पड़ गया। कूने द्वारा लिखी गयी विभिन्न
पुस्तकों में The New
Science of healing तथा The
science of facial exprassion विश्व प्रसिद्ध है। इन पुस्तकों के आज तक लगभग 60-70 एडिसन (आवृतियां) छप चुकी है। इन पुस्तकों का अनुवाद
विश्व की अधिकांश भाषाओं में हो चुका है। इनका जन्म स्थान जर्मनी है। इनके पिता
जुलाहे थे, जिनकी
मृत्यु एलोपैथिक डाक्टरों के हाथों हुई थी। जब यह 19-20 वर्ष के थे तब इन्हें मस्तिष्क तथा फेफड़ों के असाध्य रोग
हुए। एलोपैथी द्वारा काफी इलाज कराने के बाद भी जब यह ठीक न हुए तब इन्होंने
प्राकृतिक चिकित्सा की शरण ली। जिससे यह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गये। इसका परिणाम
यह हुआ कि यह प्राकृतिक चिकित्सा पर पूर्ण विश्वास करने लगे । सन् 1883 में
इन्होंने अपना एक स्वास्थ्य गृह खोला जिससे इनकी ख्याति चारों दिशाओं में फैलने
लगी।
हेनरिच लेमैन
(Heinrich
Lammaon) : हेनरिच लेमैन भी पहले ऐलोपैथी पर ही विश्वास करते थे।
परन्तु प्राकृतिक चिकित्सा के गुणों से प्रभावित होकर बाद में प्राकृतिक चिकित्सक
बन गये। इन्होंने मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिये आवश्यक पोषक तत्वों से सम्पन्न
प्राकृतिक भोजन के महत्व का अनुसंधान करके आहार-विज्ञान में सबसे बड़ी सहायता की।
एडोल्फ जस्ट
(Adalf Just)
: मिट्टी
के प्रयोग द्वारा समस्त रोगों को दूर करने में सक्षम एडोल्फ जस्ट द्वारा लिखी
पुस्तक ‘Return to
Nature’ (प्रकृति की ओर) विश्व विख्यात है। इन्होंने ही अपनी मालिश
स्वयं करने की क्रिया को भी जन्म दिया।
हेनरी
लिण्डल्हार (Henry
Lindlhar) : यह प्राकृतिक चिकित्सक बनने से पूर्व एक उच्च ऐलोपैथिक
चिकित्सक थे। हेनरी अमेरिका के निवासी थे,
और उन चिकित्सकों में से एक थे जो प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्तों के
विरूद्ध जाकर रोग, उपषम, संकट के
उपस्थित होने पर प्राकृतिक उपचारों के साथ-साथ उत्तेजक दवाओं, विशेषकर
होमियोपैथिक औषधियां में दिये जाने के पक्ष में थे। इन्होंने सिद्ध किया कि तीव्र
रोग हमारे मित्र है, ये
शरीर से विजातीय द्रव्यों के निष्कासन के लिये ही उत्पन्न होते हें तथा निष्कासन
बाद स्वतः ठीक हो जाते है। इनके द्वारा लिखी सुप्रसिद्ध पुस्तकें Indiagrosis और The Philosophy and practice of
Natural Therapentio हैं,
जिनकी ख्याति विश्व भर में है।
एडवर्ड हूकर
डेवी (Edward
Hooker Dewey) : डॉ. डेवी उपवास चिकित्सा के बड़े नामी विषेषज्ञ थे। यह
लगातार 30
वर्षो तक उपवास चिकित्सा का प्रयोग करते रहे तथा इसके बाद इन्होंने इस चिकित्सा का
प्रचार आम लोगों में करना शुरू किया। इन्होंने ही सबसे पहले No Break Plan अर्थात
स्वास्थ्य की रक्षा हेतु प्रातःकाल कुछ न खाने की सत्यता को प्रमाणित किया।
बेनिडिस्ट
लस्ट (Benedict
Lust) : इनका
जन्म जर्मनी में सन् 1372 ई0 को हुआ, ये फादर नीप
के प्रिय शिष्यों में से एक थे। 1892 में
जब यह मात्र 20
वर्ष के थे, उस
समय फादर नीप ने इन्हें अमेरिका में जल चिकित्सा का सन्देश देने तथा समस्त संसार
में जल चिकित्सा का प्रचार और प्रसार करने के लिये चुना। अमेरिका में इन्होंने नीप
वाटर केयर नामक मासिक पत्र निकाला तथा न्यूयार्क में एक स्कूल तथा कॉलेज की
स्थापना की। इसके बाद इनके द्वारा एक और पत्र नेचार्न पाथ भी प्रकाशित किया गया।
इनके द्वारा स्थापित स्कूल अमेरिकन स्कूल ऑफ़ नेचुरोपैथी तथा अस्पताल सुप्रसिद्ध
यंग वार्न्स अस्पताल के नाम से परिणित हो गया है।
प्राकृतिक चिकित्सा की प्रगति
प्राकृतिक चिकित्सा ने बहुत कम
समय में ही काफी उन्नति कर ली है। आज साधारण मनुष्य भी इसके गुणों को पहचानने लगे
हैं, तथा
अपने रोगों की चिकित्सा के लिये इस प्रणाली को अपनाने लगे हैं। मात्र इंग्लैण्ड
में ही जो भारत से काफी छोटे क्षेत्रफल में फैला है, आज लगभग 3-4 सौ
प्राकृतिक चिकित्सक अपनी चिकित्सा द्वारा सफलतापूर्वक रोगों का उपचार कर रहे हैं।
इनमें से अधिकतर अमेरिका के प्राकृतिक चिकित्सा की शिक्षा देने वाले कॉलेजों में
तथा अन्य कुछ स्काटलैण्ड के सुप्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक थामसन के कॉलेज में
शिक्षा पाकर चिकित्सक बने हैं। इन दोनों ही स्थानों पर 4 वर्ष का
प्राकृतिक चिकित्सा का कोर्स कराया जाता है। जिसके बाद ये चिकित्सक बनते हैं, इंग्लैण्ड, जर्मनी, स्विटरलैण्ड
आदि लगभग सभी पश्चिमी देशों में प्राकृतिक चिकित्सा का विकास काफी तेजी से हो रहा
है। आज लोग ऐलोपैथी से होने वाले प्रतिप्रभावों को जान चुके हैं और साथ ही ये भी
जान चुके हैं कि यह चिकित्सा रोगों की केवल लाक्षणिक चिकित्सा ही है यह रोग दूर
नहीं करती अपितु केवल रोग के लक्षण को ही मिटाती है। जिस कारण रोग जहां का तहां
बना रहता है और फिर और उग्र रूप लेकर प्रकट होता है।
प्राकृतिक चिकित्सा की प्रगति का
श्रेय उन सभी महान चिकित्सकों को जाता है। जिन्होंने तत्कालीन क्लेशों, मान, अपमान को सहन
करके सभी कठिनाइयों को झेलते हुए प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार- प्रसार किया।
इन प्रचारकों के नाम व संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है। जिनके विषय में पढ़कर
आने वाले समय के भावी प्राकृतिक चिकित्सक प्रेरणा ले सकें, और इस
चिकित्सा पद्धति की प्रगति में अपना योग दान पूर्ण रूप से दे सकें।
एल्फेड डब्लू
मैक्कन : मैक्कन एक अमेरिकन आहार शास्त्री है, जिन्होंने
आहार चिकित्सा पर एक पुस्तक ‘The
Science of Eating’ लिखी है। जो काफी प्रचलित है।
ऐण्ड्रयू ही
स्टिल : डॉ. स्टिल को आस्टियोपैथी का जन्मदाता कहा जाता है।
डॉ. पामर : डॉ.
पामर Chiropractic (कर
चिकित्सा) के संस्थापक है।
हैरी
बैन्जामिन : इनका जन्म लन्दन में सन् 1896 ई0 में
हुआ था। इनकी आंखे बाल्यकाल से ही खराब थी और जैसे-जैसे इनकी उम्र बढ़ती गयी इनकी
आंखे और अधिक खराब होती गयी। परन्तु बाद में इन्होंने डॉ. वेट्स द्वारा लिखी
पुस्तक ‘चश्मे
के बगैर पूर्ण दृष्टि’
पढ़ी और इसके अनुसार चिकित्सा करते हुए
अपनी आंखे पूर्ण रूप से ठीक कर लीं। यह सन् 1929 से
हैल्थ फार आल नामक पत्रिका में काम कर रहे हैं।
डॉ. स्टैनली
लीफ (Dr.
Stanley Lief) : यह लंदन से 50
किमी0 दूर
चंपनी नामक गांव में स्थित एक विशाल प्राकृतिक चिकित्सालय ‘Life’s Nalure cure Resort’ के
संस्थापक है। इनके द्वारा लिखी दो पुस्तकें Diet
Reform Simplified तथा How
to Feed Children from Infancy on ward काफी प्रसिद्ध है। यह आजकल
प्राकृतिक चिकित्सा के लिये बहुत कुछ कर रहे हैं। लंदन का प्रसिद्ध ब्रिटिश कॉलेज
ऑफ़ नेचुरोपैथी इनके तत्वावधान में बहुत तेजी से प्रगति कर रहा है।
थामस डमर (Thomas G. Dummer) : यह डॉ. लीफ के ब्रिटिश कॉलेज ऑफ़
नेचुरोपैथी में अनेक प्रोफेसरों में काफी प्रभावशाली है। यह लंदन में अपनी
प्राकृतिक चिकित्सा की प्रैक्टिस सुचारू रूप से कर रहे हैं।
बरनर मैकफैडन
(Barnarr Mac
Fadden) : यह
आधुनिक प्राकृतिक चिकित्सा के जानकारों में ‘Physical
Culture’ पत्रिका के सम्पादक तथा Book for health तथा Macfuddens Encyclopedia for
physical culture आदि दर्जनों उपयोगी पुस्तकों के प्रणेता हैं। इन्होंने
आजीवन समस्त व्यायाम पद्धतियों का स्वयं अनुभव करके Father of Physical Culture की
उपाधि प्राप्त की है।
डेन्स विली (Dans Villi) : डेन्स विली
न्यूयार्क स्थित सुप्रसिद्ध स्वास्थ्य संस्था जैम्सन सेनीटोरियम के संरक्षक है।
प्रो0 आर्नल्ड
एहरेट (Arnold
Ehret) : इनका
जन्म जर्मनी में हुआ था परन्तु बाद में अपने कार्य क्षेत्र के रूप में इन्होंने
अमेरिका को चुना। इनकी चिकित्सा पद्धति मुख्य रूप से फलाहार व उपवास थी। इनके
द्वारा लिखित पुस्तकें Rotional
Fasting तथा Muculess
Diet Healing System अधिक प्रसिद्ध है।
जे0एच0 केलांग (J.H. Kellog) : यह एम.डी.आर.सी.एस.एल.एल.डी. अमेरिका के महान शल्य
विषेषज्ञ, मालिश
क्रिया, धूप
चिकित्सा आदि अनेक विषयों पर लिख चुके हैं,
तथा मिचिगैन अमेरिका के विश्व
प्रसिद्ध बैटिल क्रीम सेनीटोरियम के डायरेक्टर है। इनके अनेक अविष्कारों
में विद्युत ज्योति स्नान (Electric
Light Bath) भी सम्मिलित है। जिसका प्रयोग आज विश्व के लगभग सभी बड़े-बड़े
अस्पतालों में अच्छी तरह से हो रहा है। बैटल क्रीम सेनीटोरियम अपने आप में एक
अनोखा सेनिटोरियम है। जिसमें एक स्थान पर जल चिकित्सा, आहार
चिकित्सा, शल्य
चिकित्सा, स्वीडिश
मूवमेन्ट तथा विद्युत चिकित्सा आदि से रोगों का उपचार किया जाता है। बुक ऑफ़ हाइजीन
एण्ड मेडिसीन इनके द्वारा प्रसिद्ध पुस्तक है।
जे0एच0 टिल्डेन (J.H. Tildden) : डॉ. टिल्डेन
अमेरिका के एक अग्रणी प्राकृतिक चिकित्सक थे। इनका विचार यह था कि सर्वप्रथम रोग
के कारणों को खोजकर उन कारणों को दूर किया जाये। तथा उसके बाद रोगी को यह शिक्षा
दी जाये कि वह किस प्रकार प्राकृतिक जीवन जी कर स्वस्थ रह सकता है। ये एक महान
लेखक होने के साथ-साथ एक उत्कृष्ट विचारक भी है। इनके द्वारा लिखी पुस्तकें Impenred Health तथा Food काफी
लोकप्रिय है।
श्वेनिगांर (Scheweniger) : यह
प्राकृतिक चिकित्सक बनने से पूर्व में एलोपैथी के डाक्टर थे। इनके द्वारा लिखी गयी
पुस्तक द डाक्टर के द्वारा इन्होंने ऐलोपैथी चिकित्सा के दुष्परिणामों को उजागर
करते हुए इस चिकित्सा की कड़ी आलोचना की है।
सर विलियम
औसलर (Sir
William Oslar) : औसलर ऐलोपैथी डाक्टर होते हुए भी प्राकृतिक चिकित्सा पर
अगाध विश्वास रखते थे,
इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा की प्रगति में काफी सहायता पहुंचायी। ये अमेरिका
के जान हापकिन्स विश्वविद्यालय तथा इंग्लैण्ड के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के
चिकित्सा विभाग के अध्यक्ष पद पर भी रह चुके हैं।
रसेल टी.
ट्राल (Russel
T. Trall) : डॉ. रसेल भी पहले एक ऐलोपैथीक डाक्टर थे, परन्तु बाद
में ये केवल प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं बल्कि एक महान प्राकृतिक चिकित्सक बने, इनके द्वारा
लिखी गयी पुस्तकें जो कि प्राकृतिक जीवन व प्राकृतिक चिकित्सा पर
आधारित है बड़े आदर्श व सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है।
डॉ. लिअनडर
विलियमस (Dr.Leonard
Williams) : इन्होंने
प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार में काफी योगदान दिया। इनकी पुस्तक Minor Maladies and Their
Treatment काफी उत्कृष्ट पुस्तक है।
आटो कार्क : यह
जर्मन निवासी थे तथा अपने समय के उत्कृष्ट प्राकृतिक चिकित्सकों में गिने जाते थे, लंदन से
प्रकाशित होने वाले तीन प्रमुख पत्रों ‘हैल्थ
लाइफ’ ‘हैल्थ
एण्ड लाइफ’ ‘हियर्ज
हैल्थ’ का
इन्होंने सम्पादन किया।
जे.सी.थामसन
(J.C.
Thomson) : किंग्सटन क्लीनिक डाक्टर थामसन का एक सुन्दर चिकित्सालय है।
जो एडिनबर्ग में स्थित है। इस चिकित्सालय में लगभग 35-40 रोगियों की व्यवस्था है। इसी चिकित्सालय के पास इनका एक
कॉलेज भी है। जिसे ब्रिटेन में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रथम और सबसे प्राचीन
शिक्षण केन्द्र माना जाता है। इनका समस्त परिवार प्राकृतिक चिकित्सक है। इनके
द्वारा लिखी पुस्तकें Naturecure
from Inside, Influenja, Two Health problems The heart, Appendictis, High and
low blood pressure आदि काफी प्रसिद्ध है।
हेन्स
माल्टेन (Med.
Hans Malten) : Baden-Baden
(Germany)के रहने वाले डॉ. माल्टेन एलोपैथी व प्राकृतिक चिकित्सक
दोनों ही है। ये केवल हृदय रोग व मधुमेह का ही उपचार करते है। एंजाइना पैक्टोरिस
इनके द्वारा लिखी एक उपयोगी पुस्तक हैं।
विर्चर बर्नर
: इनका स्विटरजरलैण्ड में एक क्लीनिक है। जो आहार सम्बन्धित
अपने अनुसंधानों के लिये विश्व में प्रसिद्ध है। इनके द्वारा उपवास, जलोपचार और
भोजन प्राकृतिक चिकितसा से सम्बन्धित कई पुस्तकें लिखी गयी है जो सभी जर्मन भाषा
में है। केवल दो The
prevention of Incurable diseases तथा Food
science for all का ही अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है।
टी0जे0 (T.J. Elliot) : यह
एक अमेरिकन प्राकृतिक चिकित्सक है। लेकिन बाद में इन्होंने ब्रिस्टल (ब्रिटेन) में
टावर लेज नामक चिकित्सालय की स्थापना की।
एडविन बैबिट
एन0डी0 : कुछ लोग
इन्हें प्राकृतिक चिकित्सा में ‘सूर्य
किरण’ चिकित्सा
का जन्म दाता मानते हैं। इनके दो पुस्तकें लिखी गयी है। रंगों के नियम तथा The Human Culture and Cure काफी
प्रसिद्ध है।
मारग्रेट
ब्रैडी : इन्हें जब प्रथम सन्तान हुई तो गर्भावस्था की सभी स्थितियों
का इन्होंने गहन अध्ययन व निरीक्षण किया,
तथा प्रसव कालीन अवस्थाओं को गंभीरता से जाना। इसी अध्ययन के परिणाम स्वरूप
इन्होंने इंग्लैण्ड से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं, गर्भिणीयों
की समस्याओं पर लिखना प्रारम्भ किया। जिनमें ‘हैल्थ फार आल’
नामक पत्रिका प्रमुख है। ये लगभग 40-50
वर्षो में माताओं और शिशुओं के पालन से सम्बन्धित समस्याओं पर लगभग 15 हजार से
अधिक स्त्रियों को परामर्श दे चुकी है।
सन् 1940 जल
इन्हें लगा कि माताओं की समस्याओं के हल के लिये प्राकृतिक चिकित्सा के दृष्टिकोण
से कोई पुस्तक लिखी जाये तब इन्होंने ‘सुख
प्रसव’ नाम
नाम से अपनी पहली रचना प्रकाशित करायी जिसके अब तक 6 संस्करण निकल चुके हैं। बाद में सन् 1948 में इनकी
दूसरी कृति ‘बाल्यवस्था’ का प्रकाशन
हुआ जिसमें 3-4 से
लेकर 12-14
वर्ष के बच्चों के लालन पालन पर प्रकाश डाला गया है।
मिल्टन पावल
: आप व्यायाम,
आसन और आहार शास्त्र उत्कृष्ट ज्ञाता है। इस समय आपकी आयु 100 से अधिक है।
आपने पहले विश्व युद्ध में सैनिक अस्पताल में भी काम किया आप ब्रिटिश नेचर क्योर
एसोसियेशन के संस्थापको में से एक है। काफी समय तक आप इस संस्था के मंत्री भी रहे
थे। स्टैनली लीक, तथा
जे.सी. थामसन के साथ-साथ आप भी इंग्लैण्ड में अपने व्याख्यानों द्वारा प्राकृतिक
चिकित्सा का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। आजकल आप एक मासिक पत्रिका का सम्पादकीय
लिखते है। तथा एक अन्य मासिक पत्र में पाठक गणों की समस्याओं का समाधान कर रहे
हैं।
एलेन माथेल :
ये मिल्टन पावल के शिष्य है। ये इंग्लैण्ड के प्राकृतिक
चिकित्सा के सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय लेखक है। ये लगभग 40 वर्षो तक ‘हैल्थ फॉर आल’ नामक पत्रिका
में प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति पर लेख लिखते रहे हैं। इस दिशा में काम करने के
लिये लीफ ने इन्हें काफी प्रोत्साहन दिया हैं।
रोलियर ए. :
इन्होंने सन् 1900 में
स्विटजरलैण्ड ने यक्ष्मा में रोगियों के लिये प्रथम धूपशाला खोली जिसके आश्चर्यजनक
परिणाम निकले, जिन्हें
देखकर सारा विश्व धूप की रोग नाशक शक्ति का प्रशंसक बन गया। इस विज्ञान पर
इन्होंने एक सुप्रसिद्ध पुस्तक Helio
Therapy लिखी हैं।
अशाविर लेट
होआनेसियन : संसार में आहार क्रान्ति का श्रेय इन्हें ही जाता है। स्वयं
रोगी होने की दशा में जब इन्होंने किसी भी औषधि से लाभ नहीं पाया तब इन्होंने
अपक्वाहार को अपनाया,
तथा उसी से पूर्ण स्वास्थ्य लाभ लिया। आज समाज में अपक्वाहार लगातार लोकप्रिय
होता जा रहा है।
उपरोक्त सभी चिकित्सकों के अलावा
भी अन्य कई और नाम ऐसे हैं जिन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा की प्रगति के लिये विशेष
योगदान दिया है। इन सभी के नाम नीचे दिये जा रहे हैं।
1.
प्रो. एफ.ई. बिल्ज 2. शेल्टन 3. एडगर जे.
सेक्सन 4. विन्टर
नीट्ज 5. हरबर्ट
स्पेन्सर 6. पेज 7. ओसवाल्ड 8. हैन 9. टर्न वेटर
जॉन 10. एलिन्सन
11. बोन
पीजली 12. सेलमन
एम.डी. 13. बैल 14. राबर्ट
वाल्टर |
पूर्व वर्णित सभी प्राकृतिक
चिकित्सकों ने अपने गहन अभ्यास व अध्ययन के द्वारा समस्त विश्व में प्राकृतिक
चिकित्सा की एक मशाल जलाई है। जिसकी वजह से यह पद्धति आज एक प्रतिष्ठित स्थान
प्राप्त कर चुकी है |
भारत
में प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास व प्रगति
प्राकृतिक चिकित्सा रोगो को दूर
करने का एक अति प्राचीन पद्धति एवं जीने की कला है।यह विज्ञान इतना पुराना है
जितना मानव जीवन । प्रकृति के तत्व जिनसे जीवन की उत्पत्ति होती है सदैव यही तत्व
रोगो को दूर करने में सहायक रहें है। भारत में प्राचीन काल से ही तीर्थ स्थानो में
घूमना, नदी
तट आश्रमों रहना, उपवास
करना, पेड़-पौधों
की पूजा करना, सूर्य
अग्नि की पूजा करना, आदि
कर्म के अंग माने जाते रहें हैं ।यदि किसी प्राकृतिक नियम के तोडने से कोइ अस्वस्थ
हो जाता था तो उपवास जड़ी-बूटियों तथा अन्य प्राकृतिक साधनो का प्रयोग करने से वह
स्वस्थ्य हो जाता था।
वेदकाल के बाद पुराण काल में भी
प्राकृतिक चिकित्सा का उपयोग रोगो को दूर करने के लिए किया जाता था एक प्रंसग में
बताया गया है कि राजा दिलीप ने दुग्ध कल्प एवं राजा दशरथ ने फल कल्प के माध्यम
सन्तान प्राप्ति की थी इस समय उपवास को बेजोड़ औषधि माना जाता था। महाबग्ग नामक
बौद्ध ग्रन्थ में भी भगवान बुद्ध के द्वारा मिटटी चिकित्सा का उपयोग करने के संकेत
मिलते है। इसी प्रकार सिन्धु घाटी सभ्यता और मोहजोदडो सभ्यता में भी जल चिकित्सा
का महत्व था मोहजोदडो सभ्यता में पाए वृहद और सर्वसुलभ स्नानागार जिसमें गर्म व
ठंडे दोनो प्रकार के स्नान का प्रबन्ध था। इससे ज्ञात होता है कि 350 ई.पूर्व भी
जल चिकित्सा महत्वपूर्ण स्थान रखती थी ।
भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का
जिक्र अन्यन्त प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है। जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता
है कि यह पद्धति हमारे देश में ही सर्वप्रथम उपयोग में लायी गयी। परन्तु बाद में
धीरे-धीरे यह पद्धति हमारे देश में लुप्त प्रायः हो गयी। भारत में पुनः प्राकृतिक
चिकित्सा का आरम्भ लुई कुने की प्रसिद्ध पुस्तक ‘New Science of Healing’ के भारतीय
भाषा में अनुवाद के साथ हुआ। इस पुस्तक का अनुवाद प्रारम्भ में मुख्य तीन भाषाओं
में हुआ जिनमें से श्री डी.वेंकट चेलापति शर्मा ने सन् 1894 में तेलगु
भाषा में तथा कृष्ण स्वरूप श्रोत्रिय ने हिन्दी तथा उर्दु में सन् 1904 में किया।
लुई कुने की इस पुस्तक को पढ़कर काफी लोग इसमें रूचि लेने लगे। भारतीय पृष्ठ भूमि
ऐसी थी, जिसमें
पले बढ़े लोगों के लिये कुने की चिकित्सा विधियों को समझना व अपनाना अधिक सरल था।
इसलिये बहुत ही जल्दी यह पद्धति लोकप्रिय होने लगी तथा बहुत कम समय में ही अनेक
जीर्ण रोगों से पीड़ित व्यक्ति इससे लाभ लेने लगे।
वर्तमान शताब्दी में प्राकृतिक
चिकित्सा को नया जीवन देने का श्रेय राष्टपिता महात्मा गांधी को जाता है। उन्हे
भारत का प्रथम प्राकृतिक चिकित्सक कहा जाता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी इस
चिकित्सा पद्धति के अनुयायी थे। एडोल्फ जुस्ट की पुस्तक Return to Nature पढ़कर
वे काफी प्रभावित हुए जिसके फलस्वरूप उन्होंने इस पद्धति का गहन अध्ययन किया तथा
सर्वप्रथम अपने ऊपर और फिर अपने परिवारजनों व अपने आश्रम के लोगों पर प्रयोग किया।
इस प्रयोग से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीयों के स्वास्थ्य संवर्धन के
लिये एक सर्वाधिक उपयुक्त पद्धति है। इनके द्वारा साप्ताहिक पत्रिका हरिजन व
नवजीवन में प्राकृतिक चिकित्सा के सम्बन्ध में अनेक लेख लिखे गए। गाँधी जी चाहते
थे कि इस पद्धति का प्रचार जन-जन तक हो इसके लिये इन्होंने अपने कार्यक्रमों में
प्राकृतिक चिकित्सा को भी शामिल किया। इसी कड़ी में उन्होंने उरुलीकांचन में एक
प्राकृतिक चिकित्सालय की भी स्थापना की जो अभी भी अपनी सेवाएं दे रहा है। उन्होंने
ही प्राकृतिक चिकित्सा में राम नाम को जोड़ा इसमें अपने धर्म व आस्था के अनुसार
प्रार्थना है। इनके ही कारण कई लोग इस पद्धति से जुड़े और इसके प्रचार प्रसार में
अपना जीवन लगा दिया इन सभी लोगों का संक्षिप्त परिचय निम्नवत् है।
कृष्ण स्वरूप क्षेत्रिय : यह उत्तर
प्रदेश स्थित बिजनौर के निवासी थे। इन्होंने ही लुई कूने की प्रसिद्ध पुस्तक न्यू
सांइस ऑफ़ हीलिंग का हिन्दी व उर्दू भाषा में अनुवाद किया। इनकी इन पुस्तकों के कई
संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। ये अपने समय में प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक थे।
विनोवा भावे : महात्मा गांधी के आध्यात्मिक
उत्तराधिकारी विनोवा भावे प्राकृतिक चिकित्सा जीवन और उसके शिक्षण के लिये पूर्ण
रूप से समर्पित रहे। उन्होंने अपने गीता प्रवचन तथा राम नाम एक चिन्तन में
प्राकृतिक जीवन के मूल आदर्शों का बड़े अच्छे ढंग से विवेचन किया है। उनके द्वारा
लिखी पुस्तक गांवों की स्वास्थ्य योजना स्वास्थ्य की दृष्टि से एक मार्गदर्शिका
है।
मोराजी भाई देसाई : इन्होंने
भारत के प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए भी प्राकृतिक चिकित्सा में अपना अमूल्य
योगदान दिया। ये अखिल भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा परिषद के शीर्षस्थ नेताओं में से
एक रहे हैं।
डॉ. लक्ष्मी नारायण चौधरी : यह राजस्थान
स्थित नीम का थाना के रहने वाले थे। ये एक सिविल सर्जन थे, परन्तु
ऐलोपैथी के दुष्प्रभावों को देखकर प्राकृतिक चिकित्सा की ओर मुड़े तथा आखिरी श्वास
तक सैकड़ों रोगियों को प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा रोगों से मुक्ति दिलाई।
जानकी शरण वर्मा : इनके द्वारा
लिखी दो पुस्तकें रोगों की अचूक चिकित्सा और अचूक चिकित्सा के प्रयोग इस पद्धति की
सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से एक है। वे एक सफल चिकित्सक भी थे, परन्तु उनका
नाम इन दो पुस्तकों की वजह से प्राकृतिक चिकित्सा में सदा अमर रहेगा।
डॉ. कुलरंजन मुखर्जी : यह बंगाल के
प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक हुए है। इन्होंने अनेक लोकप्रिय प्राकृतिक चिकित्सा
के ग्रन्थों का बंगला,
हिन्दी, अंग्रेजी
आदि भाषाओं में लेखन व प्रकाशन किया।
डॉ. लक्ष्मण शर्मा : तमिलनाडु में
जन्मे लक्ष्मण शर्मा भारत में प्राकृतिक चिकित्सा के पितामह कहे जाते है। इन्होंने
उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद अपना सारा जीवन प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार
प्रसार में लगा दिया आज इनके अनेक शिष्य विश्व भर में प्राकृतिक चिकित्सा के
प्रचार में लगे हुए हैं।
डॉ. बालेश्वर प्रसाद : इन्होंने
महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर जीवन पर्यन्त समर्पित भाव से प्राकृतिक चिकित्सा की
सेवा की तथा भारत में अनेक स्थानों पर शिविर लगाकर कई लोगों को रोग मुक्त किया।
इनके द्वारा जीवन संध्या मासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया गया।
डॉ. वेगिराज कृष्णम राजू : यह भारत के
प्राकृतिक चिकित्सकों में काफी उत्कृष्ट चिकित्सक माने जाते हैं। इन्होंने दक्षिण
भारत स्थित भीमावरम नामक स्थान में एक विशाल प्राकृतिक चिकित्सालय की स्थापना की
तथा एक आदर्श प्राकृतिक चिकित्सा शिक्षण संस्था का भी संचालन किया साथ ही इन्होंने
दक्षिण भारतीय भाषाओं में साहित्य की रचना भी की।
डॉ. खुशीराम दिलकश : यह आरोग्य
निकेतन (लखनऊ) के संस्थापक व संरक्षण थे। साथ ही इन्होंने वार्षिक पत्र प्राकृतिक
जीवन का सम्पादन भी करते रहे। आप काफी समय तक केन्द्रीय योग एक प्राकृतिक चिकित्सा
अनुसंधान परिषद के सदस्य भी रहे।
डॉ. महावीर प्रसाद पोद्धार : प्राकृतिक
चिकित्सा के क्षेत्र के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. महावीर प्रसाद पोद्धार महात्मां गांधी
की प्रेरणा से प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में आए । यह आरोग्य मन्दिर गोरखपुर
के संस्थापकों में से एक है। इन्होंने अपने अन्तिम समय तक जेसीडीह के प्राकृतिक
चिकित्सालय में हजारों रोगियों का उपचार कर उन्हें एक नया जीवन दिया जो कि अपने
जीर्ण रोगों का उपचार करते-करते निराश हो चुके थे।
डॉ. गंगा प्रसाद गौड़ : गंगा प्रसाद
गौड जी ने अनेकों स्वास्थ्य सत्बन्धी पुस्तको व पत्र पत्रिकाओं का लेखन एंव
सत्पादन कार्य किया । आप 1969 से 1975 तक कलकत्ता
के प्रकृति निकेतन,डायमंड
हार्बर रोड के प्रधान चिकित्सक के पद पर रहे हैं।
डॉ. शरण प्रसाद : यह अनेक
वर्षों तक प्राकृतिक चिकित्सा विद्यापीठ कलकत्ता के प्रधान चिकित्सक रहे हैं। तथा
इसके बाद काफी समय तक निसर्गोपचार केन्द्र उरुली कांचन के मुख्य चिकित्सक रहे। तथा
गुजरात में प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान के निदेशक के पद परे भी रहे हैं।
वाल्कोवा भावे : आप विनोवा
भावे के छोटे भाई थे जिन्होंने कई वर्षो तक उरुली कांचन में प्राकृतिक चिकित्सा
प्रदान की। आप अखिल भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा परिषद के अध्यक्ष भी रहे।
डॉ. विट्ठलदास मोदी : आप आरोग्य
मंदिर गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के संस्थापक व संचालक थे। तथा प्रसिद्ध मासिक
पत्रिका आरोग्य के वरिष्ठ सम्पादक रहे।
डॉ. बी.टी. चिदानंद मूर्ति : आप राष्ट्रीय
प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान पुणे में निदेशक के पद पर कार्यरत रहे। इस पद पर आप
प्रथम प्राकृतिक चिकित्सक है। आपने कई मुख्य संस्थाओ में मुख्य चिकित्सक के रूप
में कार्य किया है।
डॉ. सत्यपाल ग्रोवर : आप प्राकृतिक
चिकित्सा परिषद एवं भारतीय योग संस्थान के संस्थापक सदस्य है। आपके द्वारा लिखी
अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है।
श्री जय प्रकाश : जय प्रकाश जी सूर्या फाउण्डेशन
के चेयरमैन है ये बहुत बडे उद्योगपति होने के कारण इतना व्यस्त रहते थे कि
स्वास्थ्य पर ध्यान नही दे सके जिसके कारण इनका शरीर जर्जर हो गया था । प्राकृतिक
चिकित्सा के माध्यम से ही इन्होने नया जीवन पाया । और सफल प्रयोगों से प्रेरित
होकर प्राकृतिक चिकित्सा के अनन्य भक्त बन गए ।
डॉ. ओंकर नाथ : डॉ.ओंकर नाथ ने प्राकृतिक
चिकित्सा के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है इन्होने कई पुस्तको के
माध्यम से समाज में प्राकृतिक चिकित्सा के प्रति जाग्रति पैदा की है।
उपरोक्त सभी प्राकृतिक चिकित्सकों के अतिरिक्त अन्य कई नाम और है जिन्होंने
प्राकृतिक चिकित्सा की प्रगति में अहम योगदान दिया हैं |इन सभी के
नाम नीचे दिये जा रहे हैं।
महात्मा जगदीश्वरानंद जी 2.
डॉ. मन्नारायण 3.
डॉ.एस.जे. सिंह 4.
डॉ. हीरालाल 5. डॉ.वी.
वेंकटराव 6. विजय
लक्ष्मी 7. डॉ.जे.एम.
जुस्सावाला 8. डॉ.
गौरी शंकर मिश्रा 9. डॉ.
एस.स्वामी नाथन 10. सेठ
धर्मचन्द सरावगी 11. डॉ.
जगदीश चन्द्र ‘जौहर’ 12. डॉ.सुखबीर
सिंह रावत 13. स्वामी
साधना नंद जी 14. डॉ.
एम. एल. राठौर 15. डॉ.
भोजराज छाबड़िया 16. डॉ.
युगल किशोर चौधरी 17.
डॉ.रविन्द्र चैधरी 18.
डॉ. इन्द्र प्रसाद गुप्त 19.
डॉ.देवेन्द्र स्वरूप शर्मा 20.
डॉ. एन.एस. अधिकारी 21.
डॉ.श्याम नारायण पाण्डेय 22.
डॉ. योगेन्द्र नाथ मिश्रा 23.
वैद्य महावीर प्रसाद शर्मा 24.
वैद्य महेन्द्र कुमार गुप्त 25.
डॉ. उषा जिन्दल |