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उच्च रक्तचाप - कारण, लक्षण एवं चिकित्सा

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

मनुष्य का हृदय एक कड़ा तथा मांसपेशियों से बना पंप है, जिसका काम लगातार 70 -75 बार प्रति मिनट की औसत चाल से रक्त धमनियों में रक्त फेंकना है। हमारा हृदय शरीर के सभी भागों से शिराओं के माध्यम से अपने कक्षों में रक्त पहुंचाता है तथा धमनियों के द्वारा पुनः उस रक्त को शरीर के भागों में भेजता है। इसके माध्यम से शरीर का पोषण होता है। इन रक्त-वाहिनी नलिकाओंमें रक्त का संचार का काम हमारा हृदय ही करता हैं। रक्त को धमनियों में आगे बढ़ाने की हृदय की क्रिया को रक्तचाप कहा जाता है। इसे ही ब्लडप्रेशर भी कहते हैं।वस्तुतः रक्तचाप हृदय की वह स्वाभाविक शक्ति है जिसके माध्यम से हृदय शरीर के रक्त को शरीर के समस्त अंग-अवयवों में अनवरत रूप से प्रवाहित करता रहता हैं। सामान्य स्वस्थ वयस्क का रक्तचाप का परिसर औसतन 120 (mm. Hg.) से 80  (mm. Hg.) होता हैं। अर्थात् सामान्य स्वस्थ व्यक्तियों में 120 मि.मि. पारद प्रकुंचन दाबऔर 80 मि.मि. पारद अनुशिथिलन दाब सामान्य माने जाते है।

उच्च रक्तचाप के कारण-

किसी भी व्यक्ति का रक्तचाप निम्न परिस्थितियों में स्वाभाविक रूप से बढ़ सकता है-

·         क्रोध आदि मानसिक आवेगों में

·         व्यायाम करने से

·         स्त्री प्रसंग (मैथुन) करते समय

·         घबराहट या भय की दशा में

·         भोजन के पश्चात

·         उत्तेजक साहित्य को पढ़ते समय

·         उत्तेजक दृश्य आदि देखते समय

·         किसी प्रकार की खुशी प्राप्त होने पर

·         तीव्र खुशबू या बदबू से

·         जोशीली आवाज सुनने से

·         ठण्डे जल से नहाने से

मानसिक आवेगों एवं शारीरिक श्रम के अनुसार समय-समय पर रक्तदाब सामान्य से अधिक हो जाता है जो स्वाभाविक भी है। इस प्रकार कम समय के लिए बढ़े हुए रक्तदाब को उच्च रक्तचाप नहीं कहते है।जब रक्तचाप स्थायी रूप से अधिक रहने लगता है तब उसे उच्च रक्तचाप की संज्ञा दी जाती है।

उच्च रक्तचाप के कारण निम्नवत हैं-

·         बार बार या अधिक खाना

·         मैदा से बनी हुई चीजों का अधिक सेवन

·         तली-भुनी चीजों का अधिक सेवन करने से

·         अपर्याप्त शारीरिक व्यायाम

·         मद्य, चाय, तम्बाकू, काफी आदि का अधिक मात्रा में तथा अधिक समय तक सेवन करने से

·         शरीर में यूरिक एसिड की वृद्धि अर्थात् गठिया की प्रवृत्ति होने पर

·         ऐलोपैथिक औषधियाँ एड्रीनलीन तथा इफेड्रीन का अधिक प्रयोग करने से

·         थायरायड ग्रंन्थि किसी कारण से अधिक क्रियाशील या निष्क्रिय हो जाती है

·         पियूष ग्रंन्थि की प्रबलता से धमनी संकोच होने से

·         महिलाओं में रजोधर्म बन्द होने पर डिम्ब ग्रंथियों का स्त्राव मन्द पड़ जाने से

·         बड़ी आयु में जब धमनियों का लचीलापन कम हो जाता है तब हृदय संकोच के समय धमनियों के फैल नहीं पाने के कारण

·         जो लोग व्यायामशील तथा अत्यधिक चिन्तनशील एवं आवेश प्रधान होते है उनमें पैरासिम्पेथिटिक की अपेक्षा सिम्पेथिटिक नाड़ियों की प्रबलता रहती है जिससे उनमें रक्तचाप बढ़ जाता हैं

·         वृक्क के लगभग सभी रोगों में जिनमें वृक्क के बहुत बड़े भाग का नाश हो जाता है

उच्च रक्तचाप के लक्षण

मस्तिष्क संबंधी- उच्च रक्तचाप के75 प्रतिशत रोगियों में प्रायः शिरशूल मिलता है। ये शूल सिर के पश्चिम प्रदेश में रहता है तथा विशेष रूप से सुबह के समय जागकर उठने पर होता है, जो बाद में धीरे-धीरे कम होते जाता है। रोगी के सिर में बार-बार चक्कर आता है और खड़े रहने में इधर-उधर धक्के से लगते है।

मस्तिष्क की धमनियों में कठोरता आने से रोगी की बौद्धिक, मानसिक क्षमताओं में कमी आती है। बुद्धि, स्मृति, एकाग्रता आदि की शक्तियाँ घट जाती है। जिसके फलस्वरूप स्वल्प कारणों से ही रोगी व्याकुल एवं अशान्त हो जाता है। किसी किसी रोगी में बोलने की शक्ति नष्ट हो जाती है तो किसी-किसी रोगी में दृष्टि-मन्दता का लक्षण हो जाता है। किसी-किसी रोगी में थोड़े समय के लिए मूच्र्छा अथवा गहरी निद्रा होने का लक्षण भी मिलता है। अन्त में किसी मस्तिष्क धमनी में अवरोध होकर मूच्र्छा तथा पक्षाघात के लक्षण हो जाते हैं।

हृदय संबंधी- उच्च रक्तचाप के आधे के लगभग रोगियों में हृदय कम्पन एवं श्वास काठिन्य के लक्षण होने लगते हैं। श्वास केन्द्र को रक्त के या आक्सीजन कम मिलने तथा रक्त में एसीडोसिस के बढ़ जाने से श्वास काठिन्य हो जाता है अथवा इसकी उत्पत्ति फुफ्फुसों में ओडिमा होने से होती है। श्वास काठिन्य का उपद्रव रात्रि में सोने के 2 घण्टे पश्चात् तीव्र रूप में उत्पन्न हो सकता है, जिसे हृदयजन्य श्वास कहते हैं।

रक्तचाप के बढ़ने पर हृदयशूल के दौरे आने लगते हैं। थोड़े परिश्रम से अथवा बिना परिश्रम के भी दौरे पड़ने लगते हैं। सामान्य हृदयशूल, हृदय धमनी के संकीर्ण होने से होता है परन्तु उच्च रक्तचाप में हृदय धमनी संकीर्णन होते हुए भी दौरा पड़ता हैं। उच्च रक्तचाप से कभी-कभी नासा रक्तस्त्राव भी हो सकता है।

वृक्क संबंधी- वृक्कों की सूक्ष्म धमनियों के कमजोर होने से उनकी ट्यूबूल्स का पोषण कम होता है जिससे उच्च रक्तचाप के आधे के लगभग रोगियों में मूत्र रात्रि  के समय अधिक मात्रा में तथा बार-बार त्याग होने का लक्षण होता है। उच्च रक्तचाप की प्रारम्भिकावस्था से ही यह लक्षण मिलने लगते है। उच्च रक्तचाप के उग्र स्वरूप में मूत्र त्याग की मात्रा और भी अधिक बढ़ जाती है।

·         जंघाओं की माँसगत सूक्ष्म धमनियों के कठोर हो जाने से प्रान्त भागों की माँसपेशियों का पोषण कम हो जाता है जिससे रात्रि के समय उनमें वेदना होने लगती है।

·         पैरों के धमनी काठिन्य के कारण रक्त कम मिलने से उनकी वसा शुष्क हो जाती है और वे कृश होते जाते हैं।

·         पैरों तथा हाथों को रक्त कम मात्रा में मिलने के कारण नाखुन शुष्क तथा कठोर दिखाई देने लगते है।

·         त्वचा को रक्त न मिलने से त्वचा भी पतली, शुष्क एवं झुरीदार हो जाती है।

·         जब आमाशय की धमनियों मंे क्षीणता आती है तो अजीर्ण सम्बन्धी लक्षण होने लगते हैं।

·         कभी-कभी आँत, पित्ताशय तथा प्लीहा की धमनियाँ कठोर हो जाती है तब इनमें तीव्र वेदना होने लगती है।

·         फुफ्फुस की किसी धमनी में अवरोध होने से पाश्र्वशूल और रक्त वमन के लक्षण उत्पन्न होते हैं।

·         नेत्रों की रेटिना की धमनियों के कठोर एवं संकुचित हो जाने से वह चाँदी के तार के समान तुड़ी-मुड़ी दृष्टिगोचर होती है तथा शिराएँ भरी हुई दीखती है।

उपरोक्त लक्षणों के अतिरिक्त रोगी में निम्न लक्षण भी होते है-

·         हमेशा आलस्य बने रहना।

·         शारीरिक एवं मानसिक परिश्रम से अनिच्छा।

·         समय-समय पर श्वास बन्द होने का भाव।

·         रात्रि के समय अच्छी नींद का न आना अथवा बिल्कुल ही न आना।

·         बीच-बीच में नाक से रक्तस्त्राव।

·         हृदय में दर्द।

·         पैरों में झुनझुनी इत्यादि।

उच्च रक्तचाप की प्राकृतिक चिकित्सा

जिन कारणों से रक्तचाप बढ़ने का रोग होता है, उन कारणों से बचना इस रोग की प्रमुख चिकित्सा है। साथ ही साथ स्वास्थ्य रक्षा के साधारण नियमों के नित्य प्रतिपालन करने की आदत डालनी चाहिए।

स्वास्थ्य रक्षा के साधारण नियम इस प्रकार है -

·         सुबह- शाम शक्तिनुसार वायु सेवनार्थ टहलना।

·         उषाःपान करना।

·         नीबू का रस मिला जल में प्रचुर मात्रा में पीना ।

·         भोजन चबा - चबाकर करना ।

·         भोजन के समय पानी न पीना।

·         भोजनोपरान्त मूत्रत्याग करना तथा कम से कम 50 कदम टहलना।

·         तदुपरान्त थोड़ा आराम करना ।

·         भोजन करने के 2 घण्टे बाद खूब पानी पीना।

·         शाम का खाना सूर्यास्त से पूर्व खा लेना।

·         भूख न होने पर खाना न खाना।

·         प्रातः समय सूर्योदय से पूर्व ही बिस्तर से उठ जाना।

·         दिन में न सोना।

·         प्रसन्नचित्त रहना।

रक्तचाप के रोग में औषधियों का प्रयोग बहुत ही हानिकारक सिद्ध होता है। अतः इस रोग में भूलवश भी औषधि का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

इस रोग में यदि हो सके तो कुछ दिनों तक उपवास चलाया जाना चाहिए और यदि यह संभव न हो तो 5 से 10 दिनों तक फलाहार अथवा कच्ची और उबली तरकारियों पर ही रहना चाहिये। यदि तरकारियों पर ही रहा जाए तो जलपान में गाजर, खीरा आदि का एक गिलास रस लिया जाना चाहिए, दोपहर का भोजन केवल सलाद का होना चाहिए और शाम को केवल उबली तरकारियाँ खाई जानी चाहिए। एक समय में केवल एक प्रकार का फल खाना चाहिए तथा इन दिनों प्रतिदिन सुबह-शाम को गुनगुने पानी का एनिमा भी प्रयोग करना चाहिए।

तरकारी अथवा फलाहार का उपर्युक्त क्रम चलाने के बाद से एक माह तक सुबह - शाम मेहनस्नान और शाम को उदरस्नान करना चाहिए तथा रात भर के लिए कमर की पट्टी भी लगानी चाहिए।

सप्ताह में 1 बार एप्सम साल्टबाथ और दो बार पैरों को गरम स्नान भी लेना चाहिए। यदि अधिक कष्ट हो तो 5 से 7 मिनट तक गरम जल में स्नान करना चाहिए और उसके बाद सिर पर गीली मिट्टी बाँधनी चाहिए।

हृदय में धड़कन आदि का रोग हो तो गरम जल में स्नान नहीं करना चाहिए। आवश्यकता हो तो सप्ताह में 1 - 2 बार 45 मिनट से 1 घण्टा तक शरीर की भीगी चादर की लपेट भी लगावें। उस वक्त सिर पर ठण्डे पानी से भीगा गमछा और पैरों के पास गरम पानी से भरी बोलतें अवश्य रखनी चाहिए तथा बाद को रोगी को एक शीतल घर्षण स्नान देना चाहिए।

त्वचा की क्रिया ठीक करने के लिए सुबह-शाम आधा-आधा घण्टा के लिए सारे शरीर की मृदु मालिश करनी चाहिए। मालिश सूखी की जाए तो अति उत्तम है। उसके बाद गीले कपड़े से समूचे शरीर को रगड़ना भी आवश्यक है।

उच्च रक्तचाप में ठण्डा अथवा बहुत ठण्डा स्नान उपयोगी नहीं होता। यदि इससे लाभ मालूम हो तो उस लाभ को स्थायी लाभ नहीं समझना चाहिए क्योंकि ठण्डा स्नान कालान्तर में रक्तचाप के रोगी को हानि ही पहुँचाता है। जब रक्तचाप ठीक हो जाए और शरीर की जीवनीशक्ति लौट आए केवल तभी रोगी को ठण्डा स्नान लाभकारी सिद्ध हो सकता है और तभी उससे स्थायी लाभ भी मिल सकता है। उस वक्त ठण्डा स्नान करने के लिए सर्वप्रथम रोगी को अपनी हथेलियों से अपने अंग-अंग को खूब रगड़-रगड़ कर सूखी मालिश करनी चाहिए। यह मालिश खुरदरें तौलिये से भी की जा सकती है। मालिश कम से कम सात मिनट तक अवश्य की जानी चाहिये। तदुपरान्त ठण्डे अथवा हल्के गरम पानी से नहाना चाहिए किन्तु स्नान देर तक नहीं करना चाहिए। यदि गरम पानी से स्नान किया जाए, तो गरम परनी सिर पर नहीं डालना चाहिए। स्नान कर चुकने के बाद भी स्नान करने से पूर्व की ही भाँति समूचे शरीर की सूखी मालिश करके शरीर का जल सुखा डालना चाहिए।

उच्च रक्तचाप के रोगी के शरीर की त्वचा प्रायः अस्वस्थ होती है, उसके चर्म के छिद्र लाखों -करोड़ों मृतकोषों से भरे होते हैं। परिणामतः रोगी के रक्त की सफाई उनके द्वारा पूर्णतः नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में त्वचा को सक्रिय करने हेतु शरीर को किसी प्रकार गरम कर लेने के उपरान्त आर्द्र घर्षण स्नानका सहारा लेना चाहिए।

उच्च रक्तचाप के रोगियों को अपनी खोपड़ी की त्वचा विशेष रूप से परिष्कृत तथा स्वस्थ रखनी चाहिए क्योंकि उसके द्वारा शरीर का दूषित द्रव्य कम मात्रा में निकलता है। इसलिये खोपड़ी की त्वचा और बालों को भी सप्ताह में कम से कम एक बार तो अवश्य ही ठण्डे पानी से आँवले के पानी से या बेसन के घोल से परिष्कृत कर देना चाहिए।

साबुन का प्रयोग इस कार्य हेतु भूलकर भी नहीं करना चाहिये। सिर को धोते समय गरम पानी का भी प्रयोग नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार रोगी को सिर धोने में अधिक ठण्डे पानी का भी प्रयोग नहीं करना चाहिये।

उच्च रक्तचाप के रोगी के लिए विश्राम सर्वाधिक आवश्यक होता है। यहाँ विश्राम से तात्पर्य शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के विश्राम से है। शिथिलीकरण को विश्राम के अंतगर्त मानना चाहिए तथा गाढ़ी नींद को भी विश्राम के ही अंतर्गत माना जाता है। यदि हो सके तो प्रतिदिन रोगी को 2 से 3 बार लगभग आधा घण्टा शिथिलीकरण में लगाना चाहिये।

शिथिलीकरण के अभ्यास द्वारा पेशियों और स्नायुओं को तनाव दूर होने पर दोहरा लाभ होता है। पहला, रक्तचाप में कमी आ जाती है तथा दूसरा, शारीरिक तनाव दूर होने पर उससे संबद्ध भावनात्मक तनाव भी आते जाते रहते हैं। शिथिलीकरण का सबसे अच्छा ढंग शवासनहै।

उच्च रक्तचाप के आरंभ मे लंबे समय तक निराहार रहना अथवा उपवास करना उपयोगी नहीं होता, किन्तु चिकित्साकाल के बीच-बीच में 2 से 3 दिनों के छोटे उपवास आवश्यकतानुसार करते रहने से रोग में अच्छा सुधार होता है और उपवास की समाप्ति पर रक्तचाप कम हो जाता है। उपवास में अभ्यस्त हो जाने के बाद अन्त में रोगी के बलाबल के अनुसार किसी प्राकृतिक चिकित्सक की देख -रेख में लंबे उपवास करके भी लाभान्वित हुआ जा सकता है।

साधारणतः इस रोग में रोगी को चिकित्सा के आरंभ में 7 दिन और यदि रोगी दुर्बल नहीं हो तो 10 दिन केवल फल खाकर ही रहना चाहिए। आहार 5 - 5 घण्टे के अंतर से दिन मे केवल 3 बार ही लिया जाए। अच्छा हो यदि 1 बार में केवल एक ही प्रकार का फल लिया जाए। जैसे-सबेरे के समय संतरा, दोपहर को अमरूद और शाम के समय टमाटर या सेब। फलाहार के लिए - संतरा, सेब, नाशपाती, आम, अमरूद, अनन्नास, जामुन, रसभरी, खरबूजा, शरीफा आदि लिये जा सकते हैं। केवल केला और कटहल का उपयोग नहीं होना चाहिये। फलाहार के बाद फलों के साथ दुग्धपान भी प्रारंभ किया जाए। दूध गाय या बकरी का शुद्ध व ताजा होना चाहिए। दोपहर को सबेरे का एक उफान का दूध लिया जा सकता है। दूध पर दो सप्ताह तक रहने के बाद अन्न हा उपयोग किया जा सकता है। अन्न शुरू करने पर भी सबेरे -शाम फल व दूध लेना उत्तम रहता है। केवल दोपहर को ही अन्न ग्रहण किया जाए। अन्न में गेहूँ के चोकरयुक्त आटे की रोटी अथवा दलिया लेना ठीक रहता है। रक्तचाप के रोगियों के लिए हरी तरकारियाँ भी उतनी ही लाभकारी है जितने कि फल।

उच्च उक्तचाप की आहार चिकित्सा

रोटी, डबल रोटी, दालें, क्रीम निकाला दूध, क्रीम निकाले दूध का पनीर, हरी सब्जियाँ व इनके पत्ते खाना बहुत लाभकारी है। शलजम और दूसरी सब्जियाँ, दालों और सब्जियों का पका रस, फल तथा उनका रस भी लाभप्रद है। चिकनाई की कमी को पूरा करने तथा शरीर को ताकत देने के लिए - तिली या सूरजमुखी के फूलों के बीजों का खालिस तेल, सब्जियों में डाल कर प्रयोग करना लाभकारी है। यह तेल संकीर्ण धमनियों में पहुँचकर जमें हुए कोलेस्ट्रोल और चर्बी को पतला करके धीरे-धीरे शरीर से निकाल देते हैं जिससे धमनियों की कठोरता और संकीर्णता दूर होकर उनमें लचक उत्पन्न हो जाती है और बिना औषधि सेवन किए ही उच्च रक्तचाप कम हो जाता है और रोगी की कमजोरी दूर होकर उनमें शक्ति उत्पन्न हो जाती है। क्रीम निकाल लेने के बाद भी दूध में प्रोटीन काफी मात्रा में रहता है। अधिक रक्त चाप के रोगी को यह दूध पीना लाभप्रद है। बाजार में क्रीम निकले दूध का पाउडर बंद डिब्बों में बिकता है। उबलते पानी मे इस पाउडर को घोलकर पिया जा सकता है।

इस रोग में चाय, शराब, तम्बाकू, सिगरेट, मसाले वाले भोजन खाना - पीना हानिकारक होते हैं। एकाएक रक्तचाप बढ़ जाने पर दूध पिलाने से बहुत लाभ होता है। ठोस भोजन रोगी की कम मात्रा में दें। फलों का रस, सब्जियों का पका रस बिना घी तथा मसाला डाले थोड़ी - थोड़ी मात्रा में दिए जा सकते हैं।

उच्च रक्तचाप के रोगी के वृक्कों में मूत्र बनना कम हो जाता हे और रोगी को मूत्र नहीं आता। इसलिए उसको पानी, दूध या पेय कम मात्रा में पिलाना चाहिए। इस रोग में जौ का उबला पानी, ग्लूकोज पानी में घोल कर अथवा सोडावाटर में संतरे का रस मिलाकर थोड़ी - थोड़ी मात्रा में पिलाते रहना लाभकारी है। इनमें मूत्र जारी करने का भी गुण हैं। लक्षण कम हो जाने पर रोगी को शक्ति देने वाली खुराक खिलाना प्रारंभ कर दें। 30 - 40 ग्राम प्रोटीन वाले पदार्थ प्रतिदिन खिलाना चाहिए।

उच्च रक्तचाप के रोगी को ताजा दूध, फल, सब्जियों का रस सबसे अच्छी खुराक है। उच्च रक्तचाप के मोटे रोगी जिनके शरीर में बहुत अधिक रक्त होने के कारण चेहरा और शरीर लाल है- वे यदि सप्ताह में 1 - 2 उपवास रख लें तो ब्लड प्रैशर गिराने में बहुत सहायता मिलती है। उपवास से उनके शरीर के विषैले दोष भी निकल जाते हैं। मोटे रोगी जो खाए बिना नहीं रह ही नहीं सकते हैं, वे फलों का रस पीकर शरीर के विषैले अंश निकालकर अपने ब्लड प्रैशर को कम कर सकते हैं।

रोगी को अपने आपको मोटा होने से बचाना चाहिए तथा वजन नार्मल से अधिक नहीं बढ़ने देना चाहिए। यदि वजन नार्मल से अधिक हो तो उसको तुरन्त घटाने का यत्न करना चाहिए।