VRINDAVAN INSTITUTE OF NATUROPATHY AND YOGIC SCIENCES is an authorized Work Integrated Vocational Education Center (WIVE) of Asian International University in India.

आहार का संयोजन

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

परिवार के सभी सदस्यों को संतुलित भोजन प्रदान करने के लिये गृहणी को कर्इप्र कार के निर्णय लेने पड़ते हैं। जैसे- क्या पकाया जाये, कितनी मात्रा में पकाया जाये, कबपकाया जाये और कैसे परोसा जाये आदि।भोजन बनाने से पूर्व इन सभी प्रश्नों पर विचार करके उचित निर्णय लेना व अपनेनिर्णय को क्रियान्वित करना ही आहार संयोजन कहलाता है।

भोजन निर्माण से पूर्व परिवार के सभी सदस्यों को आवश्यकतानुसार पौष्टिक,रूचिकर एवं समयानुसार भोजन की योजना बनाना ही आहार संयोजन कहलाता है।

 

 

आहार संयोजन के सिद्धांत

प्रत्येक गृहणी चाहती है कि उसके द्वारा पकाया गया भोजन घर के सदस्यों  कीकेवल भूख ही शांत न करें अपितु उन्हें मानसिक संतुष्टि भी प्रदान करे। इसके लिये तालिकाबनाते समय कुछ सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है, जो कि है-

पोषण सिद्धांत के अनुसार-आहार संयोजन करते समय गृहणी को पोषण के सिद्धांतों को ध्यान मेंरखते हुए आहार आयोजन करना चाहिये अर्थात् आहार आयु के अनुसार, आवश्यकताके अनुसार तथा आहार में प्रत्येक भोज्य समूह के खाद्य पदार्थों का उपयोग होनाचाहिये।

परिवार के अनुकूल आहार-भिन्न-भिन्न दो परिवारों के सदस्यों की रूचियाँ तथा आवश्यकता एक दूसरे से अलग-अलग होती है। अत: आहार, परिवार की आवश्यकताओं के अनुकूल होना चाहिये। जैसे उच्च रक्त चाप वाले व्यक्ति के लिये बिना नमक की दालनिकाल कर बाद में नमक डालना। भिन्न-भिन्न परिवारों में एक दिन में खाये जानेवाले आहार की संख्या भी भिन्न-भिन्न होती है। उसी के अनुसार पोषक तत्वों कीपूर्ति होनी चाहिये। जैसे कहीं दो बार नाश्ता और दो बार भोजन, जबकि कुछ परिवारों में केवल भोजन ही दो बार किया जाता है।

आहार में नवीनता लाना-एक प्रकार के भोजन से व्यक्ति का मन ऊब जाता है। चाहे वह कितना हीपौष्टिक आहार क्यों न हो। इसलिये गृहणी भिन्न-भिन्न तरीकों, भिन्न-भिन्न रंगों,सुगंध तथा बनावट का प्रयोग करके भोजन में प्रतिदिन नवीनता लाने की कोशिश करना चाहिये।

तृप्ति दायकता-वह आहार जिसे खाने से संतोष और तृप्ति का एहसास होता है। अर्थात् एकआहार लेने के बाद दूसरे आहार के समय ही भूख लगे अर्थात् दो आहारों के अंतरको देखते हुए ही आहार का संयोजन करना चाहिये। जैसे दोपहर के नाश्ते और रात के भोजन में अधिक अंतर होने पर प्रोटीन युक्त और वसा युक्त नाश्ता तृप्तिदायक होगा।

समय शक्ति एवं धन की बचत-समयानुसार, विवेकपूर्ण निर्णय द्वारा समय, शक्ति और धन सभी की बचत संभव है। उदाहरण- छोला बनाने के लिये पूर्व से चने को भिगा देने से और फिर पकाने से तीनों की बचत संभव है।

आहार संयोजन को प्रभावित करने वाले तत्व

आहार संयोजन के सिद्धातों से परिचित होने के बावजूद ग्रहणी परिवार के सभी सदस्यों के अनुसार भोजन का संयोजन नहीं कर पाती। क्योंकि आहार संयोजन को बहुत से कारक प्रभावित करते हैं-

आर्थिक कारक-गृहणी भोज्य पदार्थों का चुनाव अपने आय के अनुसार ही कर सकती है।चाहे कोर्इ भोज्य पदार्थ उसके परिवार के सदस्य के लिये कितना ही आवश्यक क्यों न हो, किन्तु यदि वह उसकी आय सीमा में नहीं है तो वह उसका उपयोग नहीं कर पाती। उदाहरण- गरीब गृहणी जानते हुए भी बच्चों के लिये दूध और दालों का समावेश नहीं कर पाती।

परिवार का आकार व संरचना-यदि परिवार बड़ा है या संयुक्त परिवार है तो गृहणी चाहकर भी प्रत्येकसदस्य की आवश्यकतानुसार आहार का संयोजन नहीं कर पाती।

मौसम-आहार संयोजन मौसम द्वारा भी प्रभावित होता है। जैसे कुछ भोज्य पदार्थकुछ खास मौसम में ही उपलब्ध हो पाते हैं। जैसे गर्मी में हरी मटर या हरा चनाका उपलब्ध न होना। अच्छी गाजर का न मिलना। अत: गृहणी को मौसमी भोज्य पदार्थों का उपयोग ही करना चाहिये। सर्दी में खरबूज, तरबूज नहीं मिलते।

खाद्य स्वीकृति-व्यक्ति की पसंद, नापसंद, धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाज आदि कुछ ऐसे कारक हैं। जो कि व्यक्ति को भोजन के प्रति स्वीकृति व अस्वीकृति को प्रभावित करते हैं। जैसे परिवारों में लहसुन व प्याज का उपयोग वर्जित है। लाभदायक होनेके बावजूद गृहणी इनका उपयोग आहार संयोजन में नहीं कर सकती।

भोजन संबंधी आदतें-भोजन संबंधी आदतें भी आहार संयोजन को प्रभावित करती हैं। जिसकेकारण गृहणी सभी सदस्यों को उनकी आवश्यकतानुसार आहार प्रदान नहीं करपाती। जैसे- बच्चों द्वारा हरी सब्जियाँ, दूध और दाल आदि का पसंद न किया जाना।

परिवार की जीवन-शैली-प्रत्येक परिवार की जीवन-शैली भिन्न-भिन्न होती है। अत: परिवार में खायेजाने वाले आहारों की संख्या भी भिन्न-भिन्न होती है। जिससे आहार संयोजन प्रभावित होता है।

साधनों की उपलब्धता-गृहणी के पास यदि समय, शक्ति बचत के साधन हो तो गृहणी कम समयमें कर्इ तरह के व्यंजन तैयार करके आहार संयोजन में भिन्नता ला सकती हैअन्यथा नहीं।

भोजन संबंधी अवधारणायें-कभी-कभी परिवारों में भोजन संबंधी गलत अवधारणायें होने से भी आहार संयोजन प्रभावित होता है। जैसे- सर्दी में संतरा, अमरूद, सीताफल खाने से सर्दीका होना।

आहार संयोजन का महत्व

गृहणी के लिये आहार का संयोजन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह इसके द्वारा परिवार के लिये लक्ष्य प्राप्त कर सकती है-

संतुलित भोजन की प्राप्ति-पूर्व में आयु, लिंग, व्यवसाय के अनुसार आहार का संयोजन करने से सभी सदस्यों को संतुलित भोजन प्राप्त हो जाता है।

समय शक्ति और धन की बचत-समयानुसार पूर्व में आहार निर्माण की योजना बना लेने से समय, शक्ति एवंधन की बचत हो जाती है। उदाहरण- आलू और अरवी को एक साथ उबालना,राजमा को 6 घंटे पहले भिगो देना।

आहार में भिन्नता-आहार संयोजन के द्वारा हम पहले से निश्चित करके भोजन में विभिन्नता का समावेश कर सकते हैं। जैसे- दोपहर में राजमा की सब्जी बनायी हो तो रात में आलू गोभी की सब्जी बनायी जा सकती है।

खाद्य बजट पर नियंत्रण-आहार का आयोजन करने से गृहणी बजट पर नियंत्रण रख सकती है।जैसे- हफ्ते में एक दिन पनीर रख सकते हैं। बाकी दिन सस्ती सब्जियों को उपयोग करना।

आकर्षक एवं स्वादिष्ट आहार-आहार आयोजन आकर्षक एवं स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति होती है।

बचे हुए खाद्य पदार्थों का सदुपयोग-आहार द्वारा बचे हुए खाद्य पदाथोर्ं का सदुपयोग किया जा सकता है। जैसे-रात की बची भाजी या दाल का पराठे बनाकर उपयोग करना।

व्यक्तिगत रूचियों का ध्यान आहार संयोजन से सदस्यों की व्यक्तिगत रूचि के खाद्य पदार्थों को किसी न किसी आहार में शामिल किया जा सकता है।

पूरा दिन एक इकार्इ के रूप मे आहार तालिका पूरे दिन को एक इकार्इ मानकर बनार्इ जाती है। इसलि ये यदि पौष्टिकता की दृष्टि से एक आहार पूर्ण नहीं है तो दूसरे आहार में उसकी कमियों को पूरा किया जाता है, जिससे पूरे दिन का आहार संतुलित हो जाता है।

परिवार के लिये आहार का संयोजन

परिवार के लिये आहार संयोजन करने से पूर्व जीवन के विभिन्न सोपान कीजानकारी होना आवश्यक है।जीवन के विभिन्न सोपान

1.     प्रथम सोपान गर्भावस्था-इसके पश्चात् स्तनपान आती है।

2.     द्वितीय सोपान शैशवावस्था

3.     तृतीय सोपान बाल्यावस्था

4.     चतुर्थ सोपान किशोरावस्था

5.     पंचम सोपान प्रौढ़ावस्था

6.     सष्ठम सोपान वृद्धावस्था

1. गर्भावस्था-

गर्भावस्था स्त्री के जीवन की वह अवस्था है। जब उसके शरीर में भ्रूण की वृद्धि और विकास होता है। यह अवस्था लगभग 9 माह की होती है। इस 9 माह के पूर्ण काल को तीन त्रिमासों में बाँटा गया है।

·         पहला त्रिमास- 0-3 माह

·         दूसरा त्रिमास- 3-6 माह

·         तीसरा त्रिमास- 6-9 माह

इन तीनों त्रिमासों में वजन में लगातार वृद्धि होती है, पहले त्रिमास में भ्रूणकाफी छोटा होता है इसलिए इसकी आहार सम्बन्धी आवश्यकताएँ कम होती है,इसलिए इस अवधि में माँ को अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता नहीं होती।किन्तु दूसरे और तीसरे त्रिमास में भ्रूण की वृद्धि व विकास तीव्रगति से होता है।जिससे इस समय माँ को अतिरिक्त पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है।

गर्भावस्था में पोषण आवश्यकताएँ-

गर्भावस्था में निम्नलिखित क्रियाओं केकारण पोषण आवश्यकताएँ बढ़ जाती है।

गर्भ में भ्रूण के वृद्धि और विकास के लिये-भ्रूण अपनी वृद्धि और विकास के लिये सभी पोषक तत्वों को माँ से ग्रहण करता है।अत: माँ और भ्रूण दोनों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए पोषक आवश्यकताएँ बढ़जाती है। इस समय यदि माँ का आहार अपर्याप्त होगा तो वह माँ व भ्रूण दोनों केलिये उचित नहीं होगा।

गर्भाशय, गर्भनाल, प्लेसेण्टा आदि के विकास के लिये-गर्भाशय का आकार इस समय बढ़ जाता है। साथ-साथ दूध स्त्राव के लिए स्तनोंका आकार भी बढ़ जाता है, साथ ही साथ प्लेसेण्टा तथा गर्भनाल का भी विकासहोता है। भार बढ़ने से भी उसकी पोषक आवश्यकताएँ भी बढ़ जाती है।

प्रसवकाल तथा स्तनपान काल के लिये पौष्टिक आवश्यकताएँ-गर्भावस्था के समय जो पोषक तत्व संचित हो जाते हैं। वे ही प्रसवकाल तथास्तनपान काल में उपयोग में आते हैं। यदि ये पोषक तत्व अतिरिक्त मात्रा में नहींहोंगे तो प्रसव के समय स्त्री को कठिनार्इ होती है तथा प्रसव के पश्चात् पर्याप्त मात्रा में  दूध का स्त्राव नहीं हो पाता।

गर्भावस्था में पौष्टिक आवश्यकताएँ-

इस अवस्था में लगभग सभी पोषक तत्वों की आवश्यकताएँ बढ़ जाती है-

ऊर्जा-भ्रूण की वृद्धि के लिये, माँ के शरीर में वसा संचय के लिये तथा उच्चचयापचय दर के लिये इस अवस्था में अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अत:सामन्य स्थिति से 300 कैलोरी ऊर्जा अधिक देनी चाहिये।

प्रोटीन-माँ व भ्रूण के नये ऊतकों के निर्माण के लिये प्रोटीन की आवश्यकता बढ़जाती है। अत: इस अवस्था में 15 ग्राम प्रोटीन प्रतिदिन अधिक देना आवश्यक है।

लौह तत्व-भ्रूण की रक्त कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन के निर्माण के लिये और माँ केरक्त में हीमोग्लाबिन का स्तर सामान्य बनाये रखने के लिये, भू्रण के यकृत में लौहतत्व के संग्रहण के लिये एवं माँ तथा शिशु दोनों को रक्तहीनता से बचाने के लिये लौह तत्व की आवश्यकता होती है। इस समय 38 मि.ग्रा. लौह तत्व प्रतिदिन देनाआवश्यक है।

कैल्शियम एवं फॉस्फोरस-भ्रूण की अस्थियों एवं दाँतों के निर्माण के लिये माँ की अस्थियों को सामान्यअवस्था में बनाये रखने के लिये इस समय अधिक कैल्शियम की आवश्यकता होतीहै। इस अवस्था में कैल्शियम व फॉस्फोरस कम होने से माँ को आस्टोमलेशिया तथाभू्रण में अस्थि विकृति की संभावना रहती है। अत: 1000 मि.ग्रा. कैल्शिय प्रतिदिनदेना आवश्यक होता है।

आयोडीन और जिंक-ये दोनों ही Trace Elements हैं, परन्तु गर्भावस्था के दौरान इनका विशेषमहत्व है। इसकी कमी होने पर नवजात शिशु मानसिक रूप से अपंग या शारीरिकरूप से दुर्बल हो सकता है।

विटामीन बी’-विटामीन बी समूह के विटामीन विशेष तौर पर थायमिन राइबोफ्लेविन एवंनयसिन की कमी होने पर जी मिचलाना, उल्टी होना, माँ को कब्ज होना आदिलक्षण देखे जाते हैं। फोलिक अम्ल की कमी से रक्तहीनता हो सकती है।

विटामीन डी’-कैल्शियम एवं फॉस्फोरस का शरीर में अवशोषण तभी सम्भव है जब कि स्त्रीके आहार में विटामीन डी की मात्रा पर्याप्त हो। इसलिये दूध व दूध से बने पदार्थतथा हरी सब्जियाँ आहार में सम्मिलित होना आवश्यक है।

विटामिन ’-माता के दूध में विटामिन ए पर्याप्त मात्रा में स्त्रावित होता है। इसलिये इससमय विटामिन ए की माँग बढ़ जाती है। इसकी कमी होने पर बच्चे में नेत्रसंबंधी विकार उत्पन्न हो सकते हैं। अत: विटामिन ए युक्त भोज्य पदार्थ पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये।

विटामिन बीसमूह इसकी आवश्यकता भी ऊर्जा के अनुपात मे बढ़ जाती है। ये विटामिन पाचनके लिये आवश्यक है।

विटामिन सी’-स्तनपान काल में विटामिन सी की मात्रा की आवश्यकता सामान्य से दुगुनीहो जाती है। यह 80 मि.ग्रा. प्रतिदिन हो जाती है। इसके लिये विटामिन सी युक्तभोज्य पदार्थ जैसे- ऑवला, अमरूद, संतरा पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये।

गर्भावस्था के दौरान होने वाली समस्याएँ-

इस दौरान गर्भवती स्त्री को स्वास्थ्य सम्बन्धी निम्न समस्याओं से गुजरनापड़ता है-

·         जी मिचलाना व वमन होना,

·         कुष्ठबद्धता,

·         रक्तहीनता,

·         सीने में जलन।

गर्भावस्था के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें-

गर्भावस्था के दौरान सुबह होने वाली परेशानियाँ जैसे-जी का मिचलाना, उल्टी आदि को दूर करने के लिए गर्भवती स्त्री को खालीचाय न देकर चाय के साथ कार्बोज युक्त पदार्थ जैसे बिस्किट आदि देना चाहिए।

जलन तथा भारीपन दूर करने के लिये वसायुक्त तथा मिर्च-मसाले युक्त भोज्य पदार्थ नहीं देना चहिए।

कब्ज को रोकने के लिए रेशेदार पदार्थ (Fiberous Food) देना चाहिएतथा तरल पदार्थों का उपयोग करना चाहिए।

2. स्तनपान अवस्था

यह समय गर्भावस्था के बाद का समय है। सामान्यत: स्तनपान कराने वाली स्त्री एकदिन में औसतन 800 से 850 मि.ली. दूध का स्त्राव करती है। यह मात्रा उसे दिये जाने वालेपोषक तत्वों पर निर्भर करती है। इसीलिये इस अवस्था में पोषक तत्वों की माँग गर्भावस्थाकी अपेक्षा अधिक हो जाती है। क्योंकि 6 माह तक शिशु केवल माँ के दूध पर ही निर्भररहता है।

धात्री माँ के लिये पोषक आवश्यकताएँ-

शुरू के 6 माह में दूध की मात्रा अधिक बनती है। धीरे-धीरे यह मात्रा कमहोने लगती है। इसीलिये शुरू के माह में पोषक तत्वों की आवश्यकता अधिक होतीहै। इस अवस्था में निम्न पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है-

ऊर्जा-पहले 6 माह में दुग्ध स्त्राव के लिये अतिरिक्त ऊर्जा 550 और बाद के 6 माह में 400किलो कैलोरी अतिरिक्त देना आवश्यक है। तभी शिशु के लिये दूध की मात्रा पर्याप्तहो सकेगी। इसके लिये दूध, घी, गिरीदार फल देना चाहिये।

प्रोटीन-शिशु को मिलने वाली प्रोटीन माँ के दूध पर निर्भर करती है। इसलिये माताको इस समय 25 ग्राम प्रोटीन की अतिरिक्त आवश्यकता होती है। इसके लिये माँको उत्तम प्रोटीन वाले भोज्य पदार्थ पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये। जैसे- अंडा,दूध, दालें, सोयाबीन, सूखे मेवे आदि।

कैल्शियम एवं फॉस्फोरस-कैल्शियम की कमी होने पर दूध में कैल्शियम की कमी नहीं होती, परन्तु माँकी अस्थियों और दाँतो का कैल्शियम दूध में स्त्रावित होने लगता है। जिससे माँ कीअस्थियां और दाँत कमजोर हो जाते हैं। अत: दूध (आधा किला प्रतिदिन), दूध सेबने भोज्य पदार्थ देने चाहिये।

लौह तत्व-माता के आहार में अधिक आयरन देने पर शिशु को अतिरिक्त लोहा नहींमिलता, परन्तु आयरन की मात्रा कम होने से माता को एनीमिया हो सकता है।इसलिये पर्याप्त लौह तत्व देना चाहिये। इसके लिये हरे पत्तेदार सब्जियाँ, अण्डा गुड़आदि देना चाहिये।

विटामिन ’-माता के दूध में विटामिन ए पर्याप्त मात्रा में स्त्रावित होता है। इसलिये इससमय विटामिन ए की माँग बढ़ जाती है। इसकी कमी होने पर बच्चे में नेत्रसंबंधी विकार उत्पन्न हो सकते हैं। अत: विटामिन ए युक्त भोज्य पदार्थ पर्यापतमात्रा में देना चाहिये।

विटामिन बीसमूह इसकी आवश्यकता भी ऊर्जा के अनुपात मे बढ़ जाती है। ये विटामिन पाचनके लिये आवश्यक है।

विटामिन सी’-स्तनपान काल में विटामिन सी की मात्रा की आवश्यकता सामान्य से दुगुनीहो जाती है। यह 80 मि.ग्रा. प्रतिदिन हो जाती है। इसके लिये विटामिन सी युक्तभोज्य पदार्थ जैसे- ऑवला, अमरूद, संतरा पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये।

स्तनपान काल ध्यान रखने योग्य बातें-

 

इस समय स्त्री को सभी प्रकार के भोज्य पदाथोर्ं का उपयोग कर सकते हैं,किन्तु यदि किसी खास भोज्य पदार्थ को ग्रहण करने से शिशु को परेशानी होती है, तो उसे नहीं लेना चाहिए।

·         नशीले पदाथोर्ं का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह दूध में स्त्रावितहोकर शिशु के लिए नुकसानदायक हो सकता है।

·         दूध कि उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए तरल पदार्थ तथा जल का अधिकउपयोग करना चाहिए।

·         माँ को संक्रामक बीमारी जैसे तपेदिक होने पर स्तनपान नहीं कराना चाहिए।

·         जब माँ दूध पिलाना बंद कर दे तो आहार की मात्रा कम देना चाहिए अन्यथावजन बढ़ने की सम्भावना रहती है।

3. शैशवावस्था

जन्म से एक वर्ष तक का कार्यकाल शैशवावस्था कहलाता है। यह अवस्था तीव वृद्धिऔर विकास की अवस्था है। यदि इस उम्र में शिशुओं को पर्याप्त पोषक तत्व न दिये जायेतो वे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं।शिशुअुओंं की पोषण आवश्यकताएँशिशुओं को निम्न पोषक तत्वों की आवश्यकताएँ अधिक होती है-

ऊर्जा-इस अवस्था में वृद्धि दर तीव्र होती है। इस आयु में ऊर्जा की आवश्यकतासबसे अधिक होती है। शिशु को एक कठोर परिश्रम करने वाले व्यस्क पुरूष की अपेक्षा प्रति कि.ग्रा. शारीरिक भार के अनुसार दुगुनी कैलोरी ऊर्जा की आवश्यकताहोती है।

प्रोटीन-शिशु के के शरीर के ऊतकों का विकास तीव्र गति से हाने के कारण प्रोटीनकी आवश्यकता बहुत अधिक होती है।

खनिज लवण-हड्डियों का विकास तीव्र गति से हाने के कारण कैल्शियम की आवश्यकताबढ़ जाती है। रक्त कोशिकाओं में हीमोग्लाबिन के निर्माण के लिये लौह तत्व कीमात्रा भी अधिक आवश्यक होती है।

विटामिन-आवश्यक ऊर्जा के अनुसार ही राहबोफ्लेबिन तथा नायसिन की मात्रा बढ़जाती है। शरीर में निर्माण कार्य तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिये विटामिनएवं सीपर्याप्त मात्रा में देना आवश्यकत होता है।

जल-6 माह तक शिशु को अलग से जल देने की आवश्यकता नहीं होती है। यहआवश्यकता माँ के दूध से ही पूरी हो जाती है। इसके पश्चात् जल को उबालकरठंडा करके देना चाहिये।

शिशुओं  के लिए आहार संयोजन -

शिशुओं को दिया जाने वाला प्रथम आहार माँ का दूध है। जो कि बालक केलिये अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि

कोलोस्ट्रम की प्राप्ति-शिशु को जन्म देने के पश्चात् माँ के स्तनों में तीन दिन तक साफ पीले रंगद्रव निकलता है। जिसे नवदुग्ध या कोलस्ट्रम कहते हैं। यह बालक को रोगप्रतिरोधक शक्ति प्रदान करता है।

वृद्धि एवं विकास में  सहायक-माँ के दूध में पायी जाने वाली लेक्टाएल्ब्यूमिन तथा ग्लोब्यूलिन में प्रोटीनपायी जाती है, जो कि आसानी से पच कर वृद्धि एवं विकास में सहायक होती है।

स्वच्छ दूध की प्राप्ति-इसे शिशु सीधे स्तनों से प्राप्त करता है। इसलिये यह स्वच्छ रहता है।

उचित तापमान-माँ के दूध का उचित तापमान रहता है, न वह शिशुओं के लिये ठंडा रहताहै और न ही गर्म।

निसंक्रामक-इस दूध से संक्रमण की संभावना नहीं रहती, क्योंकि व सीधे माँ से प्राप्तकरता है।

भावनात्मक संबंध-माँ का दूध बच्चे और माँ में स्नेह संबंध विकसित करने में सहायक होता है।

समय शक्ति और धन की बचत-चूंकि बालक सीधे माँ के स्तनों से दूध को प्राप्त कर लेता है, जिससे समयशक्ति और धन तीनों की बचत हो जाती है।

पाचक-माँ की दूध में लेक्टोस नामक शर्करा पायी जाती है, जो कि आसानी से पचजाती है एवं माँ का दूध पतला होने के कारण भी आसानी से पच जाता है।

विटामिन सी की प्राप्ति-माँ के दूध में गर्म होने की क्रिया न होने के कारण जो भी विटामिन सीउपस्थित होता है। नष्ट नहीं हो पाता।

विटामिन की प्राप्ति-शुरू के कोलेस्ट्रम में विटामिन ए की मात्रा अधिक पायी जाती है।

परिवार नियोजन में सहायक-डॉक्टर की राय है कि, जब तक माँ स्तनपान कराती रहती है। शीघ्रगर्भधारण की सम्भावना नहीं रहती।

माँसपेशियों के संकुचन में सहायक-

स्तनपान कराने से गर्भाशय की माँसपेशियाँ जल्दी संकुचित होती है, जिससेवह जल्दी पूर्ववत आकार में पहुँच जाता है। नोट माँ के दूध की अनपु स्थिति मे शुष्क दूध देना उत्तम होता है क्योंिकइसकी संरचना माँ के दूध के समान होती है। शिशु इसे आसानी से पचासकता है।

पूरक आहार

6 माह के पश्चात् बालक के लिये माँ का दूध पर्याप्त नहीं रहता। अत: माँके दूध के साथ ही साथ दिया जाने वाला अन्य आहार पूरक आहार कहलाता हैऔर पूरक आहार देने की क्रिया स्तन्यमोचन (Weaning) कहलाती है।उदाहरण गाय का दूध, भैंस का दूध, फल, उबली सब्जियाँ व सबे फल आदि।बच्चों को दिये जाने वाले पूरक आहार को तीन वगोर्ं में वर्गीकृत किया जा सकता है-

तरल पूरक आहार वह आहार जो पूर्णत: ठोस होता है। जैसे- फलों का रस, दाल का पानी,नारियल पानी, दूध आदि।

अर्द्धतरल आहार वह आहार जो पूर्णत: ठोस होता है और नहीं पूर्णत: तरल, अर्द्धतरल आहारकहलाता है जैसे- खिचड़ी, दलिया, कस्टर्ड, मसले फल, उबली सब्जियाँ, खीरआदि।

ठोस आहार ठोस अवस्था में प्राप्त आहार ठोस आहार कहलाता है। एक वर्ष की अवस्थामें देना शुरू कर दिया जाता है। जैसे- रोटी, चावल, बिस्किट, ब्रेड आदि।

4. बाल्यावस्था

2 वर्ष से लेकर 12 वर्ष की अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है। 2-5 वर्ष की अवस्थाप्रारंभिक बाल्यावस्था तथा 6 से 12 वर्ष की अवस्था उत्तर बाल्यावस्था कहलाती है। 6-12वर्ष के बच्चों के लिये स्कूलगामी शब्द का प्रयोग किया गया है।स्कूलगामी बच्चों के लिये पोषण आवश्यकताएँइस अवस्था में निम्नलिखित पोषक तत्व आवश्यक होते हैं-

ऊर्जा-इस अवस्था में वृद्धि दर तेज होने से अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है।साथ ही साथ इस उम्र में बच्चों की शारीरिक क्रियाशीलता बढ़ने से ऊर्जा कीआवश्यकता बढ़ जाती है। इस अवस्था में लड़कों के मॉसपेशीय ऊतक अधिकसक्रिय होने से ऊर्जा की आवश्यकता लड़कियों की अपेक्षा अधिक होती है।

प्रोटीन-यह निरंतर वृद्धि की अवस्था होने के कारण प्रोटीन की आवश्यकता बढ़जाती है।

लोहा-शारीरिक वृद्धि के साथ ही साथ रक्त कोशिकाओं की संख्या भी बढ़ने लगतीहै, जिससे अधिक लौह तत्व की आवश्यकता होती है।

कैल्शियम-स्कूलगामी बच्चों की अस्थियों की मजबूती के लिये तथा स्थायी दाँतो केलिये अधिक कैल्शियम की आवश्यकता होती है। इसलिये भरपूर कैल्शियम मिलनाआवश्यक है।

सोडियम एवं पोटेशियम-अधिक क्रियाऐं करने से पसीना अधिक आता है। जिससे सोडियम औरपोटेशियम जैसे पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। अत: तरल पदार्थ देने चाहिये।

विटामिन-इस समय थायसिन, नायसिन-राइबोफ्लेविन, विटामिन सी, फोलिक एसिडतथा विटामिन ए की दैनिक मात्रा बढ़ जाती है।

5. किशोरावस्था

13 से 18 वर्ष की अवस्था किशोरावस्था कहलाती है। इस अवस्था में शारीरिकमानसिक तथा भावनात्मक परिवर्तन होते हैं। इसलिये पोषक तत्वों की आवश्यकता बढ़ जातीहै। इसलिए भारतीय अनुसंधान परिषद द्वारा किशोर-बालिकाओं के लिये निम्नलिखितपोषक तत्व आवश्यक है-

ऊर्जा-किशोर बालक शारीरिक एवं मानसिक दोनों दृष्टि से अधिक क्रियाशीलहोता है तथा शारीरिक वृद्धि भी होती है और चयापचय की गति भी तीव्र होती है।जिसके कारण अधिक ऊर्जा आवश्यक होती है

प्रोटीन-शारीरिक वृद्धि दर के अनुसार लड़कों में प्रोटीन की आवश्यकता लड़कियोंकी अपेक्षा अधिक होती है। अत: इस अवस्था में उत्तम कोटि के प्रोटीन देना चाहिए।

लौहा-रक्त की मात्रा में वृद्धि होने के कारण लौह तत्व की आवश्यकता बढ़ जातीहै। लड़कियों में मासिक धर्म प्रतिमाह होने के कारण अधिक मात्रा में लौह तत्वआवश्यक होता है।

कैल्शियम-शरीर की आन्तरिक क्रियाओं के लिये, अस्थियों में विकास, दाँतो की मजबूतीके लिए कैल्शियम की अधिक मात्रा आवश्यक होती है। ब्ं के साथ-साथफॉस्फोरस की आवश्यकता स्वत: ही पूरी हो जाती है।

आयोडीन-शारीरिक और मानसिक विकास के लिये किशोरों को आयोडीन की मात्रापर्याप्त मिलना आवश्यक है। इसकी कमी होने पर गलगंड नामक रोग हो सकता है।

विटामिन-किशोरावस्था में कैलोरी की माँग बढ़ने के साथ-साथ विटामिन बीसमूह केविटामिन की आवश्यकता बढ़ जाती है।

6. वृद्धावस्था

यह जीवन के सोपान की अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में शारीरिक तथामानसिक क्रियाशीलता कम हो जाती है। उसकी माँसपेशियाँ कमजोर हो जाती है। अत:पोषक तत्वों की उतनी आवश्यकता नहीं होती। इस अवस्था में निम्नलिखित पोषक तत्व कीआवश्यकता होती है-

ऊर्जा-इस अवस्था में बी.एम.आर. कम होने के कारण तथा क्रियाशीलता कम होनेसे ऊर्जा की आवश्यकता कम हो जाती है। इस ऊर्जा की पूर्ति कार्बोज युक्त भोज्यपदाथोर्ं द्वारा की जानी चाहिए। इस समय 30: ऊर्जा कम कर देनी चाहिए।

प्रोटीन-यह अवस्था विश्राम की अवस्था होती है। अत: न तो शारीरिक वृद्धि ही होतीहै और रहीं टूट-फूट की मरम्मत होती है। अत: 1 ग्राम से कम प्रोटीन प्रति भार केलिये पर्याप्त रहती है। किन्तु सुपाच्य प्रोटीन का प्रयोग करना चाहिए।

कैल्शियम-इसकी आवश्यकता वयस्कों के समान ही होती है। कमी होने पर अस्थियाँकोमल और भंगुर होने लगती है। इसकी पूर्ति के लिये दूध सर्वोत्तम साधन है।

लौहा-रक्तहीनता से बचने के लिये आयरन भी व्यस्कों के समान ही देना चाहिए।

विटामिन-इस समय पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है। जिससे विटामिन बीसमूह केविटामिन पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लियेविटामिन सीकी मात्रा भी आवश्यक होती है।