By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'
चिकित्सक और रोगी के सम्बन्ध पवित्रता एवं प्रामाणिकता के तन्तुओं
से बुने होते हैं। चिकित्सा की प्रणाली चाहे कोई हो अथवा फिर रोगी की प्रकृति किसी
तरह की हो, सम्बन्धों
का आधार यही होता है।
वैसे भी इन सम्बन्धों
को निभाने की, गरिमापूर्ण
बनाने की ज्यादा जिम्मेदारी चिकित्सक की होती है। वैसे भी रोगी तो रोगी ठहरा। उसका
जीवन तो अनेकों शारीरिक- मानसिक दुर्बलताओं से ग्रसित होता है। ये दुर्बलताएँ एवं कमजोरियाँ
ही तो उसे रोगी बनाती हैं। उसके अटपटे आचरण को क्षमा के योग्य माना जा सकता है। किन्तु
चिकित्सक की कोई भी कमी- कमजोरी सदा अक्षम्य होती है। उसे अपनी किसी भूल के लिए कभी
क्षमा नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि चिकित्सक को अपनी पवित्रता व प्रामाणिकता सदा
कसौटी पर कसते हुए खरा साबित करते रहना चाहिए। उसमें तनिक सा खोटापन असहनीय है। इसे
बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
चिकित्सक के संवेदन सूत्रों से रोगी का जुड़ाव होता है। उसकी
संवेदना पर भरोसा करके ही रोगी अपनी परेशानी कहने- बताने की हिम्मत जुटा पाता है। इस
संसार में सबसे ज्यादा कमी अपनेपन की है। रोगी के जो अपने सम्बन्ध है,
जरूरी नहीं कि वहाँ वह अपनी व्यथा कह पाता हो। क्योंकि अपने
और अपनों का खोखलापन जगविदित है। कभी- कभी तो सम्बन्धों का यह खोखलापन खालीपन ही उसके
रोग का कारण होता है। अपनी वे बातें जो रोगी कहीं नहीं कह सका,
वे दुःख- दर्द जिन्हें किसी से नहीं बाँट सका,
व्यथा की वह कहानी जो अनकही रह गयी केवल अपने चिकित्सक को बताना-
सुनाना चाहता है। चिकित्सक की संवेदना के बलबूते ही वह ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाता
है। रोगी के लिए चिकित्सक से अधिक उसका अपना कोई नहीं होता। इसलिए चिकित्सक का कर्तव्य
है कि वह सम्बन्ध सूत्रों की दृढ़ता को बनाए रखे।
इस दृढ़ता के लिए चिकित्सक में संवेदनशीलता के साथ सहिष्णुता
भी जरूरी है। वैसे तो यह अनुभूत सच है कि संवेदनशीलता,
सहिष्णुता, सहनशीलता को विकसित करती है। फिर भी इसके विकास पर विशेष ध्यान
देना आवश्यक है। क्योंकि रोगी अवस्था में व्यक्ति शारीरिक रूप से असहाय होने के साथ
मानसिक रूप से चिड़चिड़ा हो जाता है। उसमें व्यावहारिक असामान्यताओं का पनपना सामान्य
बात है। यदा- कदा तो ये व्यावहारिक असामान्यताएँ इतनी अधिक असहनीय होती हैं,
जिन्हें उसके सगे स्वजन भी नहीं सहन कर पाते। उनकी भी यही कोशिश
होती है कि अपने इस रोगी परिजन को किसी चिकित्सक के पल्ले बांधकर अपना पीछा छुड़ा लें।
ऐसे में चिकित्सक की सहनशीलता उसकी चिकित्सा विधियों को असरदार एवं कारगर बना सकती
है।
यूं तो सम्बन्धों का स्वरूप कोई भी हो,
पर सम्बन्ध सूत्र हमेशा ही कोमल- नाजुक होते हैं। पर चिकित्सक
एवं रोगी के सम्बन्ध सूत्रों की कोमलता व नाजुकता कुछ ज्यादा ही बढ़ी- चढ़ी होती है।
थोड़ा सा भी आघात इन्हें हमेशा के लिए तहस- नहस कर सकता है। ऐसे में चिकित्सक को विशेष
सावधान होना जरूरी है। क्योंकि रोगी के विगत अनुभवों की कड़वाहट उसे अपनी चिकित्सा साधना
से धोनी होती है। कई बार रोगी के पिछले अनुभव अति दुःखद होते हैं। इनकी पीड़ा उसे हमेशा
सालती रहती है। विगत में मिले हुए अपमान, लांछन, कलंक, धोखे, अविश्वास को वह भूल नहीं पाता। यहाँ तक कि उसका सम्बन्धों एवं
अपनेपन से भरोसा उठ चुका होता है। ऐसी स्थिति में वह चिकित्सक को भी अविश्वसनीय नजरों
से देखता है। उसे भी बेइमान व धोखेबाज समझता है। बात- बात पर उस पर चिड़चिड़ाता व गाली
बकता है। उसकी इस मनोदशा को सुधारना व संवारना चिकित्सक का काम है। संवेदनशील सहनशीलता
का अवरिाम प्रवाह ही यह चमत्कार कर सकता है।
स्थिति जो भी हो रोगी कुछ भी कहे या करे,
उसके प्रत्येक आचरण को भुलाकर उसकी चिकित्सा करना चिकित्सक का
धर्म है,
उसका कर्तव्य है। आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए तो उसकी अनिवार्यता
और भी बढ़ी- चढ़ी है।