By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'
स्वास्थ्य एवं बीमारी के प्राकृतिक सिद्धांतों
की व्याख्या कीजिए | हम आरोग्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
स्वास्थ्य के प्राकृतिक सिद्धान्त
स्वस्थ का अर्थ होता है -
स्व अर्थात अपने में, स्थ यानि स्थित होना।
स्वास्थ्य की परमात्मा ने सारी व्यवस्था व्यवस्थित रूप से शरीर के अन्दर ही स्थित
कर रखी है। आयुर्वेद में हजारों वर्ष स्वास्थ्य की परिभाषा को आचार्य सुश्रुत ने
बताते हुये कहा है कि –
समदोषः समाग्निश्च समधातु
कालः क्रिया ।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमना
स्वस्थ इत्यमिघयीते ।।
समदोष : अर्थात् शरीर की सभी क्रियाओं को
संचालित करने वाले तीनों वात-पित्त एवं कफ दोष जब सम अवस्था में रहते है तब शरीर
स्वस्थ रहता है।
समाग्नि : मानव शरीर में 5 भूताग्नि पंचतत्व यथा (पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश) एवं
7 धात्वाग्नि अर्थात् (रस,रक्त,मांस,मेद,अस्थि,मज्जा,शुक्र) एवं सबसे सुपर
पावर जाठराग्नि इस प्रकार इन 13 अग्नियों की समान स्थिति
ही खाये हुये अन्न का सम्यक् पाचन करती है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण
है। पाचकाग्नि सहित सभी 13 अग्नियों की असमानता
अर्थात् भूख में भी, या बार-बार खाना या कभी
खाना कभी नहीं खाना या अतिमात्रा में खाना आदि लक्षण पाचकाग्नि पर निर्भर करते है।
समधातु : हमारे शरीर में सात धातुयें रहती है।
सप्त धातुओं से शरीर बलवान एवं पुष्ट बनता है। जब इन धातुओं की कमी या अधिकता होती
है। तो दुबलापन या मोटापन आदि लक्षण प्रकट होकर अस्वस्थता हो जाती है।
सम मलक्रिया : हमारे शरीर से निकलने
वाले मल यथा- मल-मूत्र, पसीने का निर्माण एवं
उनका नियमित रूप से शरीर से निकलना आरोग्य का लक्षण है।
इन्द्रियों की प्रसन्नता
: मनुष्य शरीर में पांच
कर्मेन्द्रियां एवं पांच ज्ञानेन्द्रियां अपने-अपने कार्य को सामान्य रूप से
प्रसन्नतापूर्वक करें तो स्वास्थ्य का लक्षण मानते हैं।
मन की प्रसन्नता : अणुत्व एवं एकत्व ये दोनो मन के गुण
है। मन में तीन प्रकार के यथा - 1.
सात्विक 2. राजसिक एवं 3. तामसिक तत्व की प्रधानता होती है। स्वस्थ व्यक्ति के मन में
सदैव प्रसन्नता का भाव रहता है।
आत्मा की प्रसन्नता : परोपकार से बढ़कर ‘पुण्य’ नहीं एवं दूसरे को पीड़ा पहुंचाने के बराबर पाप नहीं। उक्त ‘परोपकार’के भाव से, निस्वार्थ सामाजिक सेवा
कार्य करने से और दीन दुखियों की मदद करने से आत्मा की ‘प्रसन्नता’ होती है।
उक्त सातों तथ्यों के
आधार पर संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जिसकी शारीरिक क्रियायें, पाचन शक्ति, सप्त धातु निर्माण एवं उनका पोषण, शरीरस्थ मलों का निर्माण एवं उनका सम्यक् निष्कासन, इन्द्रियों की प्रसन्नता, परहित की सेवा भावना वाला व्यक्ति स्वस्थ है। जो
व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ है उसी को
सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ व्यक्ति माना जा सकता है।
बीमारी के प्राकृतिक सिद्धान्त
रोग की अवधारणा
भारत में रोगो की अवधारणा
में वर्तमान समय में ’’भोगवादी संस्कृति’’ से
ऐसे समाज का निर्माण हो रहा है जिसमें ज्यादातर व्यक्ति किसी न किसी रोग से ग्रस्त
है। यदि हम गहराई से रोगो के अवधारणा के विषय का अनुसंधान करें तो प्रथम दृष्टया
या तथ्य उभरकर आता है कि आधुनिक जीवन पद्धति तथा हमारा प्रदूषित खान-पान रोगों को
बढ़ाने में महत्वपूर्ण कारण है।
रोग की परिभाषा : ’’तत्र
व्याधिरामयों मद आतड़ो यक्ष्मा ज्वरों विकारों रोग इत्यनर्थान्तरम् ।। आचार्य चरक
ने व्याधियों के पर्याय बताते हुये इसे आभय, गदा, आतड़, यक्ष्मा, ज्वर, विकार ओर रोग इन्हे एवं सभी एक ही अर्थ को बताने वाले होने कहा है।
रोगों के कारण : प्राकृतिक चिकित्सा के
अनुसार रोगों का एकमात्र कारण ’’विजातीय द्रव्यों’’ का
शरीर में इकट्ठा होना है। वेदों के अन्तर्गत रोगो के तीन प्रमुख कारण बताये गये है
-काल (परिणाम), बुद्धि तथा इन्द्रियों के विषय इनका हीनयोग, मिथ्या योग एवं अतियोग ही सभी रोगों का मूल कारण है।
काल :
काल का तात्पर्य ऋतु से
है। ये 3 प्रकार का शीत, उष्ण एवं वर्षा होता है। उदाहरणार्थ
ग्रीष्म ऋतु गर्मी की ऋतु है। इस ग्रीष्म ऋतु में गर्मी का कम पड़ना ही योग,
गर्मी का अधिक पड़ना-अतियोग एवं कम, अभी अधिक
गर्मी का होना मिथ्यायोग है। स्वास्थ्य की दृष्टि से रोग की अवधारणा के अन्तर्गत
कारणों में काल का सर्वप्रथम वर्णन इसलिए किया गया, क्योकि
यह कारण सभी प्राणियों के लिए ’’दुष्परिहार्य’’ है। इसे तो प्राकृतिक रूप से भोगना ही पड़ता है।
बुद्धि - प्रज्ञापराध, 5
ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय एवं मन सभी मिलाकर इन्द्रियां
मानी जाती है। इन एकादश इन्द्रियों के अपने-अपने विषय नियत है, उन
विषयों का हीनयोग-मिथ्या योग एवं अति योग होना भी रोग का कारण है।
रोग की अवधारणा :
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
रोगों की अवधारणा के अन्तर्गत अनेक ऐसे कारण है जिनके द्वारा ’’रोग
प्रतिरोधक क्षमता’’ को नुकसान होता है, जिससे रोगों की उत्पत्ति होती है जिनका संक्षेपित वर्णन किया जा रहा है।
1. मानसिक तनाव : आज की भागम-भाग की
जिन्दगी में, रोजाना की वैश्विक व्यापार प्रतिस्पर्धा के युग में छोटी-छोटी
बातों से ही व्यक्ति तनावग्रस्त होकर अन्तः स्रावी ग्रंथियों, हार्मोन्स, एंजाइम्स, विटामिनों
पर दूषित असर होते हुये रोगग्रस्त होना प्रायः देखा जा रहा है। अतः आपाधापी का
जीवन मानसिक तनाव उत्पन्न करता है जो कि रोगो का कारण है।
2. पर्यावरण प्रदूषण : आज के इस यान्त्रिक युग
में वाहनो और कल कारखानों के धुएं तथा घटते वन और हरियाली, खेतो में
अन्न के अधिक उपज की मानसिकता के कारण रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के कारण पानी,
हवा एवं उत्पादित आहार सामग्री सब कुछ प्रकृति में चारो तरफ प्रदूषण
ही प्रदूषण नजर आता है। इस प्रकृति के प्रदूषण के कारण ’’इम्यूनिटी
पावर’’ तेजी से घटता है। शरीर के रक्त में स्थित WBC प्लेटलेट्स प्रभावित होकर ’चर्म रोग’ एलर्जी के रोग, श्वास (दमा) के रोग तेजी से बढ़ रहे
है।
3. अप्राकृतिक खान-पान, व्यसन
एवं दवाईयों का सेवन : अत्यधिक चाय-कॉफ़ी, परिशोधित खाद्य, जंक फूड, फास्ट फूड, बाजार
में उपलब्ध प्रोटीन युक्त पाउडर जो टी0वी0 के माध्यम से ’’हेल्थ
टोनिकों’ के रूप में दुष्प्रचारित किये जा रहे है।
कोल्डड्रिंक्स, तम्बाकू के उत्पादक, मद्यपान,
स्मेक, गांजा, चरस,
नशीली गोलियां, दवाओं का “साइड इफेक्ट” (विपरीत प्रभाव) भी रोगो का वर्तमान
में प्रमुख कारण बनता जा रहा है।
रोगो के सामान्य भेद:
सामान्यतः दो प्रकार के
रोग होते हैं - जीर्ण रोग एवं तीव्र रोग ।
आरोग्य प्राप्ति के सिद्धान्त
स्वास्थ्य प्राप्ति
स्वस्थ जीवन शैली अर्थात् आदर्श, संयमित व्यवस्थित
दिनचर्या पर आधारित आहार-विहार से है जिसके नियम एवं निर्देशो के पालन करने से
शरीर एवं मन स्वस्थ रहना संभव है।
1.उषाः पान करना :
रात्रि में ताम्बे के
लोटे या जग में पानी भरकर ढक कर लकड़ी के पटिये पर रख दे। प्रातः उठते ही इस पानी
को ज्यादा से ज्यादा पियें। इस पानी के पीने को उषाः पान कहा जाता है। यह जल शरीर
एवं मन के लिए अमृत के समान लाभदायक होता है। प्राकृतिक चिकित्सा में तो इसे सभी रोगों
की दवा भी मानते है। क्योकि उससे कब्ज ठीक होता है एवं कब्ज/मंदाग्नि ही मूल रूप
से सारे रोगों की जड़ है।
2. शौच की आदर्श पद्धति :
उकडू बैठकर शौच करना
चाहिए। उकडू बैठने की स्थिति में पिंडलियों पर, जांघो का दबाव एवं जांघों पर पेट का दबाव रहने से मल विसर्जन
की प्रक्रिया में सुगमता रहती है।
इसी प्रकार शौच के समय
दांतो को शान्ति के साथ भींचने से पेट की मांसपेशियां आंतो पर पूरा दबाव डालती है
जिससे अपानवायु स्वस्थ रहती है एवं शौच क्रिया पूरी तरह हो जाती है। शौच हेतु ’’वेस्टर्न स्टाइल’’ का कमोड केवल बीमारों के लिए है, यदि स्वस्थ उसका प्रयोग करेगा तो वह धीरे-धीरे कब्ज
का रोगी बन जायेगा। आज बहुत से व्यक्ति व्यवसायिक जीने वाले सुविधा भोगी लोग
शौचालय को ड्राइंग रूम या वाचनालय सहित अनेक कार्यो का केन्द्र बना लेते है जो
स्वास्थ्य की दृष्टि से गलत है।
3.मुखमार्जन एवं दन्तधावन :
शीतल जल से मुंह में पानी
भरकर मुखमंडल पर छीटे मारने से चेहरे पर ओज,तेज-कांति एवं नेत्र ज्योति बढ़ती है। सबसे बड़ी (मध्यमा)
अंगुली से प्रातः सांय भोजन के बाद दांतो की सफाई एवं कुल्ला करने से मुख शुद्धि
ठीक प्रकार से हो जाती है। 12 अंगुल लम्बी कनिष्ठा
अंगुलि जितनी मोटी नीम या बबूल को दातौन करनी चाहिए।
4. संचक्रमण (भ्रमण) :
प्रातः या सांयकाल किसी
बगीचे या उद्यान में टहलना चाहिए। टहलने पर वायु तत्व जिसे प्राण भी कहते हैं उस
प्राण तत्व की शरीर में वृद्धि होगी। शुद्ध एवं ताजा प्राण वायु स्वास्थ्य लाभ में
वृद्धि करेगी। प्राकृतिक वातावरण में शीतल मंद ताजा हवा के साथ-साथ पक्षियों की
चहचहाहट मस्तिष्क को नयी शक्ति देगी। इससे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य तथा
बुद्धि शुद्ध होकर स्मरण शक्ति, बल तथा रोग प्रतिरोधक
क्षमता बढ़ती है, जोकि सुस्वास्थ्य का
महत्वपूर्ण आधार है।
5. अभ्यंग/मालिश :
प्राकृतिक चिकित्सा
विज्ञान एवं आयुर्वेद शास्त्र में स्वास्थ्य सूत्रों के अन्तर्गत मालिश को विशेष
महत्व दिया है। यथासम्भव प्रतिदिन नही तो सप्ताह में 1 या 2 बार सरसों या तिल तैल से आवश्यक रूप से सम्पूर्ण शरीर की
मालिश करनी चाहिए।
6. स्नान :
अभ्यंग एवं व्यायाम के
पश्चात न्यूनतम आधे घण्टे के पश्चात सामान्यतः शीतल जल से सर्दियों में हल्के
गुनगुने जल से स्नान करें। प्रतिदिन स्नान करने से 8 लाभ प्राप्त होते है। 1. स्नायु मण्डल शक्तिशाली होता है। 2. थकान का नाश होता है। 3. शारीरिक शुद्धता रहती है। 4. शरीर में बल बढ़ता है। 5. जर्मनी के वैज्ञानिकों ने शोधकर
निष्कर्ष निकाला है कि ठंडे पानी में नहाने से सर्दी-जुकाम से लड़ने की क्षमता पैदा
होती है। 6. शरीर में फुर्ती आती है। 7. हार्ट अटैक का खतरा भी टलता है। 8. श्री अर्थात् लक्ष्मी की प्राप्ति भी
शुद्धता के कारण बढ़ती है। भारतीय संस्कृति के अनुसार स्नान के बाद बनियान एवं
अधोवस्त्र अर्थात् कच्छा-लंगोट आदि स्वंय को धोना चाहिए एवं तथा शरीर को नरम टावेल
से रगड़ते हुये सुखाना/पोछना चाहिए।
7. ध्यान/ईश्वर प्रार्थना :
स्नानोपरान्त अपने इष्ट
देवता का स्मरण करते हुये स्वंय के लिए परिवार जनों के लिए एवं ’’सर्वेभवन्तु सुखिनः की प्रार्थना करें। हवा-पानी
प्रकाश देने वाले प्रकृति रूपी परमात्मा को हृदय से नमन करते हुये धन्यवाद देना
चाहिए।
8. आसन एवं प्राणायाम :
हमेशा शरीर चुस्त और सदैव
दुरूस्त बना रहे। इस हेतु आसन शारीरिक सौष्ठव एवं प्राणायाम मानसिक शान्ति
स्वास्थ्य हेतु परमावश्यक है।