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जल चिकित्सा के सिद्धांत



पँच तत्वों में जल तत्व का अपना एक विशिष्ट स्थान है। स्थूलता के आधार पर जल तत्व दूसरा स्थूलतम् तत्व है जिसे सामान्य भाषा में पानी, वारि, नीर, तोय, अम्बु, सलिल, आप, उदक तथा अमृत आदि नामों से जाना जाता है। यह जल तत्व पृथ्वी पर प्रर्याप्त मात्रा में उपस्थित है। वैज्ञानिकों के अनुसार सम्पूर्ण पृथ्वी का 70 प्रतिशत जल तत्व से र्निमग्न है। जिस प्रकार पृथ्वी का 70 प्रतिशत भाग जल तत्व से परिपूर्ण है ठीक उसी प्रकार मानव शरीर का भी 70 प्रतिशत भाग जल तत्व ही है। यह जल तत्व जीवधारियों के जीवन का आधार होता है। इस तत्व के अभाव में जीवन की कल्पना ही नही की जा सकती है। मनुष्य के जीवन का आधार भी यह जल तत्व ही है। इन तत्व के द्वारा मनुष्य विभिन्न दैनिक एवं निमेतिक कार्यों के करने में सक्ष्म होता है। इस तत्व के अभाव में मनुष्य के दैनिक एवं निमैतिक कार्यों में अवरोध उत्पन्न हो जाता है।
यद्यपि सामान्य रुप से मनुष्य इस तत्व का प्रयोग पीने के रुप में, स्नान के रुप में एवं अन्य शरीर शोधक क्रियाओं के रुप में प्रतिदिन प्रातःकाल से लेकर रात्रिकाल तक करता रहता है किन्तु जब जल तत्व का प्रयोग एक चिकित्सक द्वारा वैज्ञानिक विधिनुसार रोगों क उपचार के उद्देश्य से किया जाता है तब वह जल चिकित्सा कहलाती है। जल चिकित्सा के अन्तर्गत उषापान, एनीमा क्रिया, विभिन्न प्रकार के स्नान एवं अंगों की लपेट का वर्णन आता है। यद्यपि जल चिकित्सा प्राचीन काल से प्रचलित चिकित्सा है। परन्तु मध्य काल में इस चिकित्सा का प्रचलन कम हो गया था। इस चिकित्सा के पुनरुथान में पश्चिमी चिकित्सकों ने अपना विशेष योगदान देकर इसको समाज में पुनः प्रचलित करने में
विशेष भूमिका वहन की। इस क्रम में विनसेंज प्रिस्निज, सेबस्टियन नीप एवं लुई कूने आदि प्राकृतिक चिकित्सकों ने जल चिकित्सा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। फादर सेबस्टियन
नीप द्वारा रचित पुस्तक (My Water Cure) जल चिकित्सा की एक श्रेष्ठ पुस्तक है। इन चिकित्सकों के प्रयोगों से प्रभावित होकर भारतीय चिकित्सकों एवं विद्वानों ने जल चिकित्सा के महत्व को समझकर इसका अनुप्रयोग स्वमं पर किया तथा स्वंम पर इसके सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने पर इन्होने इस अपना जीवन इस चिकित्सा पद्धति के प्रचार प्रसार में लगाया। इस प्रकार वर्तमान समय में सम्पूर्ण भारत वर्ष में जगह जगह अनेकों स्थानों पर जल चिकित्सा (प्राकृतिक चिकित्सा) केन्द्र खुले हुए हैं जहाँ नियमित रुप से जल तत्व के प्रयोग द्वारा अच्छे स्वास्थ को प्राप्त किया जाता है। जल तत्व शरीर शुद्धिकरण का सबसे प्रमुख एवं मूल साधन है। जल तत्व के भलिभांति प्रयोग करने से शरीर में शुद्धता एवं स्वच्छता बनी रहती है जबकि इस तत्व के भलि भांति प्रयोग नही करने पर
शरीर में इस तत्व का योग विषम हो जाता है तथा इस तत्व का विषम योग होने पर अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होती है। मानव शरीर में जल तत्व को सम बनाने हेतु अनेक विधियों का प्रचलन है। जल तत्व से चिकित्सा को प्राकृतिक चिकित्सा में जल चिकित्सा के नाम से जाना जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा में जल तत्व को एक महाऔषधि के रुप में प्रयोग किया जाता है। वास्तव में जल तत्व का प्रयोग करने से शरीर को एक विशेष प्रकार ताजगी एवं स्फूर्ति प्राप्त होती है। प्रायः हम अनुभव करते हैं कि कार्य की गहरी थकान होने पर ठंडे जल से स्नान करने पर जो ताजगी प्राप्त होती है वह ताजगी एवं स्फूर्ति संसार की किसी अन्य दवाई से प्राप्त नही की जा सकती है। जल तत्व के इस गुण का प्रयोग प्राकृतिक चिकित्सा में किया जाता है।
प्राकृतिक चिकित्सा में जल तत्व का प्रयोग विभिन्न रोगों के उपचार में विशेष लाभकारी प्रभाव रखता है। विदेशों में प्रमुख रुप से जर्मनी एवं इग्लैण्ड आदि देशों में प्राकृतिक चिकित्सा के नाम से विभिन्न जल केन्द्र खुले हुए हैं जहां पर जल को एक सुपर मैडिसन के रुप में प्रयोग किया जाता है। प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक डाॅ0 लिण्डलहार के अनुसार बुखार ठीक करने में अन्य औषधियों की तुलना में जल 1/10 समय लेता है अर्थात औषधियों का प्रयोग करने से यदि बुखार दस दिनों में ठीक होता है तो वहीं जल के प्रयोग (गीली चादर, एनीमा एवं अन्य प्रयोगों द्वारा) से बुखार एक दिन में ही ठीक हो जाता है। प्रायः तेज बुखार होने पर माथे पर ठंडे जल की गीली पट्टी देने से बुखार में तुरन्त लाभ मिलता है एवं शरीर का तापक्रम सामान्य हो जाता है। वर्तमान समय में जल चिकित्सा एक वृहद्ध शास्त्र के रुप में विकसित हो चुकी है। विश्व के अन्य देशों के साथ साथ भारत वर्ष के अनेक भागों में जल चिकित्सा के केन्द्र हाइड्रोथेरेपी सेंटर के रुप में एवं वाटर किंगडम के रुप में विकसित हो रहे हैं। इन केन्द्रों में जल को आधार मानकर विभिन्न ऐसी क्रियाएं अथवा कार्य कराए जाते हैं जिनका मानव के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर अनुकूल एवं सकारात्मक प्रभाव पडता है।
मानव शरीर का निर्माण कोशिकाओं से हाता है। शरीर की कोशिकाओं का प्रमुख घटक द्रव्य जल तत्व ही होता है। कोशिकाओं में उपस्थित कोशिका द्रव्य का मूल आधार जल तत्व ही होता है। शरीर की कोशिका जल तत्व के माध्यम से ही पोषण प्राप्त करती है एवं अपने अन्दर उपस्थित विषाक्त विजातीय पदार्थों को जल तत्व के माध्यम से अर्थात द्रवीय रुप में निष्कासित करती है। उम्र बढने पर कोशिकाओं के जल ग्रहण करने की क्षमता एवं निष्कासन की क्षमता धीमी पड जाती है जिसके परिणामस्वरुप अंगों की क्रियाशीलता कम हो जाती है, त्वचा पर झुर्रियाँ पडने लगती हैं एवं बुढापे के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। मानव शरीर की सबसे प्रमुख धातु रक्त का प्रमुख घटक द्रव्य भी जल तत्व ही होता है। जल तत्व की उपस्थिति के कारण रक्त शरीर में पोषक तत्वों के परिवहन एवं शरीर शोधन में प्रमुख भूमिका वहन करता है। जल चिकित्सा के माध्यम से शरीर की कोशिकाओं की जल
ग्रहण करने की क्षमता को बढ़ाया जाता है। जल चिकित्सा के द्वारा शरीर में जल तत्व को अधिक मात्रा में प्रदान करते हुए इस तत्व की विषमता से उत्पन्न रोगों का उपचार किया जाता है।
इस प्रकार उपरोक्त तथ्य स्पष्ट करते हैं कि जल तत्व मानव शरीर के लिए अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण तत्व है जिसके अभाव में जीवन की कल्पना नही की जा सकती है। सामान्य रुप से एक स्वस्थ मानव प्रतिदिन लगभग ढाई लीटर जल का उत्सर्जन मूत्र, स्वेद एवं प्रश्वास आदि के रुप करता है। जल की इस मात्रा को प्रतिदिन ग्रहण करना भी अनिवार्य होता है इसीलिए चिकित्सक प्रतिदिन तीन लीटर शुद्ध जल के सेवन का निर्देश देते हैं। इससे कम मात्रा में जल तत्व का सेवन करने से शरीर की आन्तरिक क्रियाओं में बाधाएं उत्पन्न होने लगती हैं एवं विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होने लगते हैं।