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प्राकृतिक चिकित्सा की विभिन्न उपचार व निदान विधियाँ

By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'

प्राकृतिक चिकित्सा की विभिन्न उपचार विधियाँ

 

प्राकृतिक चिकित्सा की विभिन्न उपचार व निदान विधियाँ :

मनुष्य के शरीर में स्वयं रोगों को नष्ट करने की अपूर्व शक्ति है।  यह पांच तत्वों का बना है जिनका असंतुलन ही रोग उत्पन्न करने का मुख्य कारण है।  इन्ही तत्वों - मिटटी, पानी, धुप,हवा और आकाश द्वारा रोगो की चिकित्सा प्राकृतिक चिकित्सा कहलाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में सामान्य रूप से प्रयोग में लायी जाने वाली चिकित्सा  और निदान की विधियाँ निम्न है :

आहार चिकित्सा

इस चिकित्सा के अनुसार आहार को उसके प्राकृतिक या अधिक से अधिक प्राकृतिक रूप में लिया जाना चाहिए।  मौसम के ताजे फल , ताज़ी हरी पत्तेदार सब्जियाँ तथा अंकुरित अन्न इस दृष्टि से उपयुक्त है। इन आहारों को मोटे तौर पर तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है -

1.शुद्धि कारक आहार : रस - निम्बू, खटटे रस, कच्चा नारियल पानी, सब्जियों के सुप, छाछ , गेहूँ घास का रस  आदि।

2.शांतकारक आहार : फल सलाद, उबली /भाप में बनायीं गयी सब्जियाँ, अंकुरित अन्न, सब्जियों की  चटनी आदि।

3.पुष्टि कारक आहार : सम्पूर्ण आटा कन युक्त चावल, कम दाले , अंकुरित अन्न, दही आदि।

क्षारीय  होने के कारण ये आहार स्वास्थ्य  को उन्नत करने में शरीर का शुद्धि करण करने एवं  रोगों  से मुक्त करने में सहायक सिद्ध होते है। इसलिए आवश्यक है कि इन आहारों का आपस में उचित मेल हो। स्वस्थ रहने के लिए हमारा भोजन 20 % अम्लीय और 80 % क्षारीय अवश्य होना चाहिए।  अच्छा स्वास्थ्य बनाये रखने के इच्छुक व्यक्ति को संतुलित आहार लेना चाहिए।  प्राकृतिक चिकित्सा में आहार को ही मुलभुत औषधि माना जाता है।

उपवास चिकित्सा

स्वस्थ रहने के प्राकृतिक तरीको में उपवास एक महत्वपूर्ण तरीका है। उपवास में प्रभावी परिणाम प्राप्त करने के लिए मानसिक तैयारी एक महत्वपूर्ण क्रिया है।एक या दो दिन का उपवास किसी को भी कराया जा सकता है।

 उपवास के बारे में प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि यह पूर्ण शारीरिक और मानसिक विश्राम की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के दौरान पाचन प्रणाली विश्राम में होती है अत: भोजन का पाचन करने

वाली प्राण ऊर्जा पूर्ण रूप से निष्कासन की प्रक्रिया में लग जाती है। यही उपवास का उदेश्य भी है। मस्तिष्क एवं शरीर के विकारो को दूर करने के लिए उपवास एक उत्कृष्ट चिकित्सा है। मंदाग्नि ,

कब्ज , गैस आदि पाचन संबंधी रोगो, दमा-श्वास , मोटापा, उच्च रक्तचाप तथा गठिया आदि रोगो के निवारणार्थ उपवास का परामर्श दिया जाता है।

मिटटी चिकित्सा

मिटटी द्वारा चिकित्सा बहुत ही सरल और प्रभावी है।  इसके लिए प्रयोग में  लायी जाने वाली मिटटी साफ सुथरी और जमीन से 3-4 फ़ीट नीचे की होनी चाहिए। उसमे किसी तरह की कोई मिलावट कंकर पत्थर या रासायनिक खाद आदि न हो।

शरीर को शीतलता प्रदान करने के लिए मिटटी चिकित्सा का प्रयोग किया जाता है। मिटटी शरीर के दूषित पदार्थो को घोलकर एवं अवशोषित कर अंतत: शरीर के बाहर निकाल देती है।  मिटटी की पट्टी तथा मिटटी से स्नान इसके मुख्य उपचार है। विभिन्न रोगो जैसे कब्ज, तनावजन्य सिरदर्द, उच्च रक्तचाप तथा चर्मरोगों आदि में इसका प्रयोग सफलता पूर्वक किया जाता है। सिरदर्द तथा उच्च रक्तचाप की स्थिति में माथे पर मिटटी की पट्टी रखी जाती है।

जल चिकित्सा

मिटटी की तरह जल को भी चिकित्सा का सवार्धिक प्राचीन साधन माना जाता है।  स्वच्छ , ताजे एवं शीतल जल से अच्छी तरह स्नान करना जल चिकित्सा का उत्कृष्ट रूप है। इस प्रकार के स्नान से शरीर के सभी रंध्र खुल जाते है।  शरीर में हल्कापन और स्फूर्ति आती है। शरीर के सभी संस्थान और मांसपेशिया सक्रिय हो जाती है तथा रक्त संचार भी उन्नत होता है।  विशेष अवसरों पर नदी , तालाब तथा झरने में स्नान करने की प्रथा वस्तुत: जल चिकित्सा का ही एक प्राकृतिक रूप है। जल चिकित्सा के अन्य साधनो में कटिस्नान, एनिमा , गर्म-ठंडा सेंक , गर्म पाद स्नान , रीढ़ स्नान , भाप स्नान, पूर्ण टब स्नान, गर्म-ठंडी पट्टियां, पेट , छाती तथा पैरो की लपेट आदि आते है जो इसके उपचारात्मक प्रयोग है। जल चिकित्सा का प्रयोग मुख्यत: स्वस्थ रहने के साथ साथ विभिन्न रोगों के निवारणार्थ किया जाता है।

मालिश चिकित्सा

मालिश भी प्राकृतिक चिकित्सा की एक विधि है तथा स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक है। इसका प्रयोग अंग प्रत्यंगो को पुष्ट करते हुए रक्त संचार को उन्नत करने में होता है।  सर्दी के दिनों में पूरे शरीर की मालिश के बाद धूप स्नान करना सदैव स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहने का एक चिर परिचित तरीका है।  यह सभी के लिए लाभकारी है इससे मालिश एवं सूर्य किरण चिकित्सा दोनों का लाभ मिलता है। रोग की स्थिति में मालिश के विशिष्ट प्रयोगों द्वारा आवश्यक चिकित्सकीय प्रभाव उत्पन्न करके विभिन्न

रोग लक्षणों को दूर किया जाता है।  जो व्यायाम नहीं कर सकते उनके लिए मालिश एक अच्छा विकल्प है। मालिश से व्यायाम के प्रभाव उतपन्न किये जा सकते है।

सूर्य किरण चिकित्सा

सात रंगो से बनी सूर्य की किरणों के अलग अलग चिकित्सीय प्रभाव होते हैं। यह रंग है - बैंगनी , नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी, तथा लाल।  स्वस्थ रहने तथा विभिन्न रोगों के उपचार में ये रंग प्रभावी ढंग से कार्य करते है। रंगीन बोतलों में पानी तथा तेल भर कर निश्चित अवधि के लिए सूर्य की किरणों के समक्ष रखकर तथा रंगीन शीशो को सूर्य किरण चिकित्सा साधनो के रूप में विभिन्न रोगों के उपचारार्थ प्रयोग किया जाता है।  सूर्य किरण चिकित्सा की सरल विधिया स्वास्थ्य सुधार की प्रक्रिया में प्रभावी तरीके में मदद करती हैं।

वायु चिकित्सा

अच्छे स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ वायु अत्यंत आवश्यक है। वायु चिकित्सा का लाभ वायु स्नान के माध्यम से उठाया जा सकता है।  इसके लिए कपड़े उतार  कर या हल्के कपड़े पहन कर किसी स्वच्छ एकांत स्थान पर जहाँ पर्याप्त वायु हो , प्रतिदिन टहलना चाहिए। कई रोगों में चिकित्सक भी वायु स्नान की सलाह देते है।  प्राणायाम का भी वायु चिकित्सा की एक विधि के रूप में चिकित्सात्मक प्रयोग किया जाता है।

निदान की विधियाँ

रोग के मूल कारणो को जानने के लिए प्राकृतिक चिकित्सक दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार क्रम से लेकर वंशानुगत कारणो तक का विश्लेषण करते है।  तात्कालिक रोगिक अवस्था को ज्ञात करने के लिए मुख्यत: निम्न दो नैदानिक विधियाँ प्रयोग की जाती है

1.कनिका निदान : पूरा शरीर कनिका के विभिन्न क्षेत्रो में प्रतिबिम्बित होता है। उनके विश्लेषण द्वारा रोगो की  दशा का अच्छी तरह से निदान किया जा सकता है।

2.आकृति निदान : शरीर के विभिन्न अंगो में विजातीय पदार्थों का जमाव शरीर की आकृति से परिलक्षित होता है। शरीर के विभिन्न अंगो में रोग की स्थिति का निदान उनके अवलोकन से किया जा सकता है।

प्राकृतिक चिकित्सा के कुछ मुख्य उपचार

1.     मिटटी की पट्टी

2.     मिटटी स्नान

3.     सूर्य स्नान

4.     गर्म और ठंडा सेंक

5.     कटि स्नान

6.     मेहन स्नान

7.     पाद स्नान

8.     वाष्प स्नान

9.     पूर्ण टब स्नान

10.  रीढ़ स्नान

11.  गीली चादर लपेट

12.  छाती की पट्टी

13.  पेट की पट्टी

14.  घुटने की पट्ट

15.  एनिमा   


प्राकृतिक चिकित्सा की विभिन्न निदान विधियाँ

 प्राकृतिक चिकित्सा में रोग एक ही माना जाता है, वह है शरीर में विजातीय या दूषित पदार्थों का इकट्ठा होना। उसको बाहर निकलना उपचार होता है। ऐसी स्थिति में निदान की कोई आवश्यकता नहीं होती है। यदि अक्षरशः इसका पालन किया जाय तो यह ज्ञात नहीं हो सकेगा कि शरीर का कौन सा अंग व्याधिग्रस्त है अथवा मल कहाँ पर अधिक एकत्रित है अथवा उसमें विजातीय तत्वों की सीमा क्या है? निदान के द्वारा जब ये सभी बातें ज्ञात हो जाती हैं तो चिकित्सा प्रक्रिया को बहुत अधिक बल मिलता है। रोगों की वास्तविक दशा का पता लगने से उसकी साध्यता-असाध्यता पर विचार हो सकता है। इसके साथ ही साथ कभी-कभी रोगी भी अपने रोग के विषय में जानना चाहता है तथा उसका सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। अतः प्राकृतिक चिकित्सक को रोग की पूरी स्थिति के विषय में जानकारी होनी चाहिए। सारांश में कहा जा सकता है कि प्राकृतिक चिकित्सा में निदान की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कि अन्य चिकित्सा पद्धतियों में होती है।

निदान की विविध विधियाँ

निदान की विविध विधियों के अंतर्गत निम्नलिखित निदान विधियों का वर्णन किया गया है-

1.         मुखाकृति निदान (Facial Diagnosis)

2.         नाड़ी गति से रोग परीक्षण (Pulse rate examination)

3.         जिह्वा परीक्षण (Lingua or tongue Examination)

4.         दांत व मसूढ़ों का परीक्षण (Teeth's and Gum's Examination)

5.         ओंठ परीक्षण (Lips Examination)

6.         आँख परीक्षण (Eyes Examination)

7.         कनीनिका निदान (Iris Diagnosis)

8.         मूत्र परीक्षण  (Urine Examination)

9.         रक्तभार परीक्षण (Blood Pressure Examination)

10.       वक्ष परीक्षण (Chest Examination)

  मुखाकृति निदान

      लुई कूने ने शरीर मल व विजातीय द्रव्यों को तथा उससे संबंधित रोग व शरीर की स्थिति जानने के लिए आकृति से रोग की पहचान नामक पुस्तक लिखी, जिसके माध्यम से लाखों चिकित्सकों ने रोगियों का इलाज कर उन्हें रोगमुक्त करने में अधिक सफलता पायी।

मुखाकृति विज्ञान क्या है : यह एक विज्ञान है जिसके माध्यम से शरीर की रोगावस्था अथवा अस्वस्थता का निदान किया जाता है। इसके द्वारा यह देखा जाता है कि शरीर में दोष संचय कितनी मात्रा में किस भाग में संचित है। बाह्य अंगों तथा उनकी आकृति को देखकर शरीर तंत्र की कार्यात्मकता का ज्ञान होता है।

यहाँ पर मुखाकृति शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में लिया गया है जिसके अंतर्गत न केवल चेहरे को सम्मिलित करते हैं बल्कि शरीर की संपूर्ण आकृति का अध्ययन करते हैं। मुखाकृति विज्ञान शरीर में विजातीय द्रव्यों अथवा विषैले पदार्थों का संचय तथा शरीर तंत्र पर उसके प्रभाव का अध्ययन करता है। इस विज्ञान से यह भी पता चलता है कि शरीर के किस अंग में मल संचय अधिक है। इस विज्ञान का कार्य वर्तमान रोग तथा मल संचय के बीच संबंध का परीक्षण करना है।

मुखाकृति विज्ञान पूरे शरीर को एक इकाई मानता है और उसी रूप में उसकी कार्यात्मकता का परीक्षण करता है। इससे इस बात की भी जानकारी हो जाती है कि भविष्य में रोग किस स्तर तक पहुँच सकता है। यह भी ज्ञात होता है कि किसी सीमा तक रोगग्रस्त स्थिति को सामान्य स्थिति तक लाया जा सकता है।

कुने का विचार है कि शरीर से संबंधित सभी प्रकार की मनोवैज्ञानिक, सांवेगिक तथा शारीरिक प्रतिक्रियाएँ सबसे पहले चेहरे पर परिलक्षित होती हैं। इस प्रकार इस निदान की विधि द्वारा शरीर रचना, गति, भाव तथा सांवेगिक स्थिति का अध्ययन संभव होता है। कुने का मानना है कि रोग शरीर के आकार को बदल देते हैं। उदाहरण के लिए, मोटापे की दशा में पेट बढ़ जाता है, हाथ पांवों पर मोटी तथा ढीली त्वचा होकर लटकने लगती है, जब वसा की कमी होती है तो शरीर दुबला-पतला होकर लम्बा दिखायी देता है। दांत जब गिर जाते हैं तो पूरा चेहरा बदल जाता है। गठिया होने पर गांठें पड़ जाते हैं। लेकिन कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनमें परिवर्तन कम दिखायी पड़ता है। केवल अनुभवी व्यक्ति ही आंखों को देखकर अनुभव कर सकता है।

सभी प्रकार की रोगग्रस्तता में शरीर में परिवर्तन विशेषकर सिर व गर्दन के भाग में होते हैं। कुने का मानना है कि रोगावस्था में चूंकि संपूर्ण शरीर प्रभावित होता है, अतः किसी भी अंग का परीक्षण करके स्वास्थ्य के विषय में जानकारी ली जा सकती है। सबसे महत्वपूर्ण शरीर का अंग पाचनतंत्र है जो स्वास्थ्य को स्पष्ट प्रदर्शित करता है।

मुखाकृति विज्ञान के आधार : इस विज्ञान के निम्नलिखित आधार हैं-

·         सभी रोगों का कारण एक ही है, शरीर में मल संचय।

·         रोग किसी भी रूप में प्रकट हो सकता है।

·         रोगों की उत्पत्ति शरीर में मल संचय के कारण होती है।

·         मल पहले पेडू पर फिर उसके बाद चेहरे पर तथा गर्दन पर संचित होता है।

·         शरीर में मल संचय के लक्षण देखे जा सकते हैं। शरीर की आकृति एवं लक्षणों में परिवर्तन आता है।

·         प्रत्येक रोग की शुरूआत बुखार से होती है तथा बिना रोग के बुखार नहीं आता है।

 

शरीर में दोष संचय

यदि शरीर की आकृति और रंग स्वाभाविक नहीं रह गये हैं या उनकी गतिशीलता में बाधा पड़ने लगी है तो यह इस बात का प्रमाण है कि शरीर में दोष संचय हुआ है। यह संचय कोई पदार्थ ही होता है। यह पदार्थ शरीर से कोई संबंध नहीं रखता, इसलिए विजातीय पदार्थ कहलाता है। पदार्थ शरीर में मुख, नाक और त्वचा के रास्ते जाता है। आंतें, मूत्राशय, त्वचा और फेफड़े स्वस्थ शरीर में निरंतर काम करते रहते हैं और प्रत्येक अनुपयोगी पदार्थ को जिसकी शरीर को कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, बाहर निकालने के काम में लगे रहते हैं। फिर भी शरीर में अत्यधिक मात्रा में दोष पहुँच जाने पर शरीर उसे बाहर निकालने में असमर्थ हो जाता है और उसका कुछ अंश अंदर रह जाता है।

कुछ दोष तो जन्म के साथ ही माता-पिता से आ जाते हैं। अप्राकृतिक भोजन लेते रहने पर परिणाम बुरा होता है। शरीर उस भोजन के मल को ठीक प्रकार से बाहर निकाल नहीं पाता है। साथ ही उस भोजन से वास्तविक भोजन तत्व भी नहीं मिल पाते।

प्रारंभ में मल शरीर के निष्कासन भागों के निकट जमा होता है और कुछ समय तक तो धीरे-धीरे रेागों जैसे- अतिसार, अति स्वेद, अतिरिक्त पेशाब द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है लेकिन कुछ तो प्रायः बच जाता है। जिस भाग में यह द्रव्य दोष जमा होता है उस भाग में उष्णता पैदा हो जाती है। दोष प्रकुपित होने लगता है, और गैसें बननी शुरू हो जाती हैं। यह गैस शरीर में फैल जाती है और शरीर में पसीने के रूप में त्वचा द्वारा गैस के रूप में बना दोष निकल जाता है। लेकिन कुछ अंश फिर ठोस रूप में जमा हो जाता है। यही वह भण्डार द्रव्य है जो शरीर को दोषपूर्ण करता है। संचित द्रव्य किस ओर एकत्र हुआ है यह देखकर रोगी की प्रकृति जानी जा सकती है। आमाशय और आंतों के कमजोर हो जाने पर प्राकृतिक और पूर्ण खुराक भी ठीक प्रकार से पचती नहीं है। ऐसा अधूरा पचा हुआ शरीर द्वारा अभिशोषित सारा द्रव्य दोष का रूप ले लेता है। एक बार इस प्रकार विकार का एकत्र हो जाना शुरू हो जाने पर फिर यह क्रम बड़ी तेजी से बढ़ता है।

दूषित द्रव्य शरीर में प्रायः श्वांस, फेफड़ों और त्वचा द्वारा भी प्रवेश पाता है। कभी-कभी शरीर मल निकालने के लिए कृत्रिम मार्ग बना लेता है जैसे नासूर, खूनी बवासीर, रक्तपित्त, भगंदर, पांवों का पसीजना आदि। ये निर्गम मार्ग तभी बनते हैं जब दोष संचय काफी मात्रा में होता है।

दोषसंचय के कारण शरीर में होने वाले परिवर्तन :  विजातीय द्रव्य अपनी स्थिति के लिए उपयुक्त स्थान की खोज करता है। द्रव्य का यह संग्रह पहले पेडू में होता है। निष्कासन मार्ग के नजदीक जमा होना शुरू होकर विकार दूर तक बढ़ने लगते हैं, जैसे सिर और हाथ पैरों की ओर। यदि कोई विशेष परिस्थिति पैदा न हुई तो यह क्रिया बहुत धीरे-धीरे होती है। द्रव्य का झुकाव प्रायः शरीर की ऊपर सीमा की ओर जाने लगता है। इस प्रयास में वह अपना मार्ग गर्दन के तंत्र भाग में बनाता है। वहाँ इसका संचय आसानी से देखा जा सकता है। पहले तो वह भाग बढ़ा हुआ प्रतीत होता है, फिर सूजन अथवा पिण्ड रूप में हो जाता है। गर्दन की अस्वाभाविक स्थिति हो जाती है। त्वचा का रंग भी बदल जाता है। यह भूरी, स्लेटी अथवा अति सुर्ख दिखायी देती है। शोथ गर्दन और सिर में शक्ल लेती है जो पेडू में और दोनों भागों में समान रूप से बढ़ती है। फिर भी कभी-कभी पेडू का संचय घटता है और गर्दन वाला बढ़ता है।

दोष संचय के प्रमुख भाग :  प्रायः तीन अंगों में संयच मिलते हैं-

1.     सामने का अग्र संचय (Frontal accumulation)

2.     बगल का- दोनों में से किसी बगल का संचय (Accumulation in lateral right or left side)

3.     पीठ का- शरीर के पीछे भाग का संचय (Accumulation in back)

 

अग्र भाग का संचय :

इस प्रकार के संचय में गर्दन सामने की ओर कुछ बड़ी हो जाती है। चेहरा बड़ा तथा भारी हो जाता है। मुंह प्रायः लंबा हो जाता है। यदि सामने का संचय पूरा-पूरा व्यक्त होता है तो चेहरा बहुत फूल जाता है और माथे पर चर्बीदार गद्दी बन जाती है। बहुत से व्यक्तियों में गर्दन पर पिण्ड बन जाते हैं। इससे प्रकट होता है कि संचय भयंकर दशा में है। दूषित पदार्थ के सूख जाने पर मांसपेशियाँ क्षीण होने लगती है। सामने के संचय में सिर को सरलता से पीछे नहीं किया जा सकता है। ऐसा करने पर गर्दन में बड़ा खिंचाव आता है। जब संचय केवल एकतरफा होता है, उस दशा में चेहरा एक ओर से दूसरी ओर की अपेक्षा भरा अथवा लम्बा लगता है।

अग्रभाग के संचय में कोई भी तीव्र रोग होने की संभावना रहती है। जैसे- खसरा, सुर्ख बुखार, डिप्थीरिया, फेफड़े की सूजन आदि। गले और गर्दन के जीर्ण रोग भी सामने के संचय से होते हैं।

केवल सामने के संचय में मानसिक विकृति होना असम्भव है। सामने के संचय के बावजूद मार्मिक अंग प्रायः स्वस्थ रहते हैं क्योंकि दोष संचय प्रायः गालों में और माथे पर रहता है। उस दशा में इन हिस्सों में रोग होता है। सिर दर्द होता है, गालों पर मुहांसे निकलते हैं।सामने मल संचय का दूर होना अपेक्षाकृत सहज होता है। जल चिकित्सा द्वारा सामने का संचय कुछ ही समय में दूर किया जा सकता है।

पार्श्व संचय :

इस प्रकार के मल संचय की दशा में गर्दन लम्बी हो जाती है। प्रायः उस हिस्से के अन्य भाग भी फैल जाते हैं जिससे सारा शरीर बेडौल लगने लगता है। सिर को घुमाकर पार्श्व संचय की ठीक जांच की जा सकती है। क्योंकि इसमें गर्दन के उस हिस्से में खिंचाव होता है। साधारणतः उभरी हुई नसों को देख कर स्पष्ट बताया जा सकता है कि दोष संचय ने कौन सा रास्ता लिया है और वह किधर आगे बढ़ेगा।

साधारणतः पार्श्व संचय का परिणाम सामने के संचय की अपेक्षा अधिक खतरनाक होता है, उसे दूर करने में भी कठिनाई होती है। दोष संचय की दिशा में दांतों में दर्द होने लगता है। दांत क्षय होने लगते हैं। पाश्र्व और सामने के संचय मिल जाने पर प्रायः बहरापन आ जाता है। आंखों पर भी शीघ्र प्रभाव पड़ता है। भूरा या काला मोतियाबिंद हो जाता है। यदि सिर का आधा हिस्सा पूर्णतया दोष संचित हो जाता है तो आधा सीसी दर्द होने लगता है। बायें ओर का संचय प्रायः त्वचा की सक्रियता को मंद कर देता है। इसलिए दाहिने ओर की अपेक्षा यह अधिक भयंकर होता है।

पृष्ठ भाग का संचय

पीठ का संचय सबसे भयंकर होता है। पीठ पर मल संचय ऊपर की ओर बढ़ता है। कभी सिर की ओर न जाकर पीठ में ही रह जाता है। ऐसी हालत में वहाँ सूजन हो जाती है। कंधे गोल हो सकते हैं, कूबड़ तक निकल सकता है। सिर का शीर्ष भाग चैड़ा होने लगता है। पृष्ठ संचय से पीड़ित व्यक्ति प्राथमिक दशओं में मानसिक रूप से सक्रिय होते हैं परन्तु उनमें कुछ न कुछ बेचैनी सी तो रहती ही है। ऐसे व्यक्तियों में समय से पहले काम वासना उत्पन्न हो जाती है। ऐसे युवक तथा युवतियाँ हस्तमैथुन की ओर प्रवृत्त होते हैं। पृष्ठ संचय स्त्रियों में गर्भपात का खतरा उत्पन्न करता है।

 

 

मिश्रित संचय

अकेला एक तरह का संचय बहुत कम ही पाया जाता है। प्रायः दो या सब तरह के संचय एक साथ पाये जाते हैं। प्रायः सामने या बगल का संचय एक साथ और उसी प्रकारबगल का तथा पृष्ठ का संचय एक साथ और कभी-कभी अग्र और पृष्ठ संचय भी एक साथ ही पाया जाता है। जिनके शरीर के विभिन्न भागों में संचय होता है उनकी अवस्था अत्यधिक भयंकर होती है। ऐसे व्यक्ति स्नायुविक रोग से ग्रस्त, अशान्त, असंतुष्ट और सनकी होते हैं।

भीतरी अवयवों के रोग- किसी भी प्रकार का दोषसंचय होने पर पाचन क्रिया सदैव प्रभावित होती है। रोग का प्रारम्भ यहीं से होता है, और जिस सीमा तक विजातीय तत्वों का संचय बढ़ता है, उतना ही उनकी काम करने की शक्ति कम होती है। यह भी सम्भव है कि पीड़ित व्यक्ति को इसकी कोई प्रतीति न हो क्योंकि विकार की जीर्ण दशा आंतरिक अवयवों में बहुत कम पीड़ा देती है। जब संचित मल शुष्क हो जाता है, तो कब्ज अथवा अतिसार की अवस्था में आभास होता है। आंतों की झिल्लियों के शुष्क हो जाने से नमी कम जो जाने के कारण कब्ज हो जाता है। तब मल निकल नहीं पाता, गांठें पड़ जाती हैं। आंतों में अंदर के मल के बाहर फेंकने की शक्ति कम रह जाने पर ही अतिसार होता है। दोनों दशाओं में रक्तहीनता और दिन-प्रतिदिन शरीर कमजोर होता जाता है। पोषक भोजन के बावजूद क्षीणता बढ़ती जाती है।जब संचय दाहिनी ओर होता है तो यकृत जो दाहिनी ओर होता है, प्रभावित होता है। उस दशा में शरीर का रंग पीला पड़ जाता है, क्योंकि यकृत रक्त से पित्त को अलग करने में असमर्थ हो जाता है। यकृत की खराबी और सामान्यतः दाहिनी ओर के संचय का चिन्ह है अधिक पसीना आना। ऐसे व्यक्तियों के पैर पसीजते रहते हैं। पृष्ठ तथा बाएं भाग में संचय होने पर गुर्दे या वृक्क भी प्रभावित होते हैं। आंखों के नीचे की त्वचा सिकुड़ कर थैली सी बन जाती है जो वृक्क की बीमारी का चिन्ह है। महिलाओं में आंतों में अत्यधिक विकार संचय होने से गर्भाशय दबाव पाकर हट जाता है जिसे गर्भाशय का सरकना कहते हैं।

यदि विकार शरीर के ऊपरी या नीचे के हिस्से में बढ़ता है और पसीना नहीं निकलता है तो वात रोग की आशंका रहती है। इसी तरह बायीं दिशा में दोष संचित होने पर गठिया का खतरा बना रहता है। वात का दर्द जोड़ों के आगे की ओर होता है, पीछे की ओर कभी नहीं होता।

मुखाकृति विज्ञान की सहायता से तो रोग का निदान बहुत पहले हो सकता है और फेफड़े का रोग भी ठीक हो सकता है। फेफड़ों के रोग प्रायः अन्य रेागों के विशेषकर ज्वर को दवा द्वारा दबाये जाने के परिणामस्वरूप पैदा होते हैं। दोष ऊपर से फेफड़ों में आकर जमा होता है।सामान्यतः शरीर अपने अंदर से दोष निकालने की कोशिश करता रहता है, और इसी के परिणामस्वरूप प्रायः सर्दी, जुकाम, बुखार, खांसी होती है। अग्र संचय की अपेक्षा यदि संचय बगल में होता है, विशेषकर पृष्ठ की ओर, तो जीवनीशक्ति बहुत शीघ्रता से घटती है। शरीर मल को निकालने के लिए फोड़े-घाव वगैरह की मदद लेता है। कभी-कभी पीठ और छाती पर कष्टदायी फोड़े हो जाते हैं। लेकिन अल्प जीवनीशक्ति वाले लोगों में दोष सख्त होकर गांठों की शक्ल लेता है और यही फेफड़ों की क्षय-ग्रन्थियाँ कहलाती हैं। बवासीर, ट्यूमर, कैंसर आदि भी इसी तरह जन्म लेते हैं।

भयंकर रोग कुष्ठ का आरम्भ भी सिरों पर गांठें या गिल्टियाँ बनने के रूप में होता है। ये गिल्टियाँ पहले वहीं बनती हैं, जहाँ पसीना निकलना बंद हो जाता है। गिल्टियों का होना हमेशा इस बात का लक्षण है कि शरीर की दशा भीतर से बिल्कुल अव्यवस्थित है और जीवनीशक्ति घट गयी है जिसमें शरीर थोड़ा या पूरा फोड़ा और घाव पैदा करने में असमर्थ हो गया है।

 

चेहरे की दशा तथा रोग की पहचान

·         कोमल चेहरा, झालर वाली पलकें, धंसी हुई आँखें, टी.बी. होने का संकेत करती हैं।

·         चेहरे पर मोम के रंग का पीलापन आना गुर्दे या वृक्क की बीमारी का सूचक है।

·         किसी रोग के शुरू-शुरू में ही रोगी के चेहरे का बैठ जाना किसी भयंकर रोग का सूचक है।

·         एकदम चेहरे की कान्ति का नष्ट होना छाती के दर्द का सूचक है।

·         मुँह से बार-बार सांस लेना, गलसुपे की निशानी है।

·         रोगी का चेहरा सुस्त हो जाना कब्ज तथा बुखार का द्योतक है।

·         रोगी के माथे से नासिका की जड़ तक झुर्रियों का पड़ना, बेचैनी, उत्सुकता तथा तीव्र आंतरिक वेदना प्रगट करता है।

·         रोगी के माथे पर झुर्रियां पड़ना तीव्र बाह्य दर्द का द्योतक है।

·         रोगी का चेहरा पीला हो जाना पीलिया रोग का सूचक है।

·         चेहरे में स्वाभाविक लाली की कमी होना रक्ताभाव का सूचक है।

·         रोगी का फीका चेहरा होना टी.बी. प्रदर्शित करता है।

·         मुंह पर दही जैसे सफेद दाग दिखायी देना मुंह के छालों के घाव का द्योतक है।

·         मसूड़ों का रंग नीलापन लिये होता है तो यह हृदय रोग का सूचक है।

·         चेहरे का लाल तथा धब्बों वाला होना खसरे का सूचक है।

नाड़ी गति से रोग परीक्षण

 प्राकृतिक चिकित्सक अपने हाथ के सहारे से रोगी के कोहनी उठाकर और अग्रबाहु को पूरी तरह से फैलाकर अपने हाथ की अंगुलियों तर्जनी, मध्यमा और अनामिका से अंगुष्ठ मूल से नीचे वाली नाड़ी की परीक्षा करता है। परीक्षा सुस्थिर एवं एकचित्त होकर करनी चाहिए तथा तीन बार परीक्षा करनी चाहिए। प्रायः पुरूषों के दायें हाथ की नाड़ी तथा महिलाओं की बायें हाथ की नाड़ी देखी जाती है। स्त्रियों की नाड़ी पुरूषों की अपेक्षा 6 से 15 बार प्रति मिनट अधिक चलती है।

पुरूषों की नाड़ी बड़ी तथा शक्तिशाली होती है क्योंकि उनके स्वभाव में गर्मी तथा शक्ति अधिक होती है तथापि नाड़ी सुस्त तथा ठहर-ठहर कर चलती है। इसके विपरीत स्त्रियों की नाड़ी बड़ी तेज चलती है। इनकी नाड़ी का फैलाव और शक्ति पुरूषों की अपेक्षा कम होता है। एक-एक अंगुली के नीचे नाड़ी की गति 6 प्रकार की होती है, ऊपर उठना, तेज उठना, तेज होकर ऊपर उठना, नीचे धंसना, तेज धसना, तेजी से धंसना। इस प्रकार दोनों हाथों की नाड़ी की गति 18 प्रकार की होती है। इनकी प्रत्येक गति से पृथक-पृथक रोग का ज्ञान होता है। जिस प्रकार वीणा की तंत्री सभी रागों को बताती है, उसी प्रकार मनुष्य की नाड़ी सभी रोगों को बताती है।

स्थान भेद से नाड़ी 8 प्रकार की होती है। हाथ की दौ, पैर की दो, गले और कंठ की दो तथा नासा के समीप की दो, आँखों की दो, कान की दो, पेडू की दो तथा जीभ के समीप की दो-दो। इनके बायें तथा दायें अंग से दो-दो होकर कुल 16 स्थान हो जाते हैं। इन स्थानों पर कहीं भी नाड़ी के स्पर्श द्वारा रक्त संचार का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

 

 

नाड़ी की गति क्यों होती है ?

शुद्ध रक्त संचार के समय रक्तवाहिनी नाड़ियों के अंदर के आवरण पर रक्त की तरंगें जो आघात पहुंचाती हैं, उसी से नाड़ी की गति हुआ करती है। रक्त संचार के स्वरूप जो धड़कन होती है, उसे नाड़ी द्वारा अंगुलियों से ही जाना जा सकता है। धमनी द्वारा रक्त संचार होता है। अतः उसकी परीक्षा की जाती है।

तीन प्रकार की नाड़ियाँ तीन स्थितियों वात, पित्त तथा कफ को दर्शाती हैं। प्रारंभ में वात की नाड़ी, मध्य में पित्त की नाड़ी तथा अन्त में कफ की नाड़ी होती है। जब वात अधिक होता है तो तर्जनी अंगुली के नीचे नाड़ी स्फुरण होता है, पित्त की प्रबलता में मध्यमा अंगुली के नीचे नाड़ी फड़कती है तथा कफ की प्रबलता में अनामिका के नीचे स्फुरण होता है। यदि वात, पित्त की अधिकता हो तो तर्जनी और मध्यमा के बीच स्फुरण होता है और यदि पित्त, कफ की अधिकता हो तो मध्यमा और अनामिका के बीच में नाड़ी का स्फुरण होता है और यदि पित्त, कफ की अधिकता हो तो मध्यमा और अनामिका के बीच में नाड़ी का स्फुरण होता है। यदि वात, पित्त तथा कफ तीनों विकृत हो तो तीनों अंगुलियों के नीचे नाड़ी की विकृत गति जान पड़ती है।

आयु के अनुसार नाड़ी की गति- निम्न तालिका में आयु तथा नाड़ी की संख्या दी गयी है-

नाड़ी तालिका

क्रम      आयु      नाड़ी की संख्या (प्रति मिनट)

1          भ्रूण में               150 बार

2          जन्म के बाद       130-140 बार

3          1 वर्ष तक          115-130 बार

4          1 वर्ष से 2 वर्ष तक          100-115 बार

5          2 से 3 वर्ष तक               90-100 बार

6          3 से 5 वर्ष तक               80-85 बार

7          5 से 14 वर्ष तक             80-85 बार

8          15 से 21 वर्ष तक           75-85 बार

9          22 से 60 वर्ष तक           65-75 बार

10        वृद्धावस्था                      50-70 बार

नाड़ी का स्पंदन एक मिनट में साधारण गति से 8-10 अधिक या कम है तो उस मनुष्य को कोई रोग अवश्य होता है। प्रौढ़ावस्था में एक स्वस्थ व्यक्ति का स्पंदन प्रति मिनट 70-75 बार होता है। शारीरिक गठन, खान-पान, रहन-सहन, स्त्री-पुरूष आदि के अनुसार भी नाड़ी की गति घट-बढ़ सकती है। बैठे हुए मनुष्य की नाड़ी एक मिनट में लेटे हुए मनुष्य की अपेक्षा लगभग 10 बार अधिक चलती है और खड़े हुए व्यक्ति की नाड़ी बैठे हुए की तुलना में एक मिनट में लगभग 20 बार अधिक चलती है। शरीर में ताप की अधिकता से नाड़ी की गति दुगुनी हो जाती है किन्तु सर्दी में नाड़ी की गति कम हो जाती है।

नाड़ी की गति गिनने की विधि (Counting method of puls rote) : नाड़ी सदैव 1 मिनट तक गिनी जाती है। नाड़ी देखते समय गिनती की जाती है। नाड़ी की संख्या मालूम करने के लिए सेकेण्ड की सुई लगी घड़ी का उपयोग करते हैं। नाड़ी परीक्षा में निम्न बातें देखी जाती है।

नाड़ी की गति : स्वस्थ अवस्था में नाड़ी की गति प्रति मिनट 72-80 तक होती है।

1. गति (Rythm) : इसमें दो बातें देखते हैं-नाड़ी सम है या विषम।

1. समयानुसार : नाड़ी स्पंदन ठीक हो रहा है या कभी मंद और तीव्र।

2. आवृति (Volume) : रक्त की उस मात्र को आवृति कहते हैं जो रक्त वहिनियों में संचार करती रहती है। साधारण परिभाषा में स्पंदन साधारण होता है और अधिक में अधिक प्रतीत होता है।

2. वेगानुसार : प्रत्येक स्पंदन का वेग समान है या असमान।

3. संहति (Condition of artes) : धमनी की दीवार की अवस्था को संहित कहते हैं। धमनी की दीवार मृदु है या कठोर, इसे देखने के लिए उस पर तीनों अंगुलियां धीरे-धीरे फेरते हैं।

नाड़ी के प्रकार (Types of pulse)

1. अन्तरगति नाड़ी (Boundung pulse)

स्वस्थ मनुष्य की नाड़ी पहले ठोकर लगाती है फिर शान्त रहकर दूसरी ठोकर लगाती है।

2. ऊँची नाड़ी

इस प्रकार की नाड़ी स्वस्थ अवस्था की अपेक्षा अधिक ऊँची और उभरी हुई होती है। इस प्रकार की नाड़ी से शरीर में गर्मी की अधिकता प्रकट होती है।

3. शीतल नाड़ी (cold pulse)

जिस नाड़ी को छूने से सर्द प्रतीत हो, उसे शीतल नाड़ी कहते हैं। यह नाड़ी यह बताती है कि रोगी के शरीर में गर्मी की काफी कमी है।

4. छोटी नाड़ी (Shoet pulse)

इस प्रकार की नाड़ी स्वस्थ अवस्था से छोटी और लम्बाई में कम प्रतीत होती है। यह नाड़ी रोगों में सर्दी की अधिकता की सूचना देती है।

 

5. निर्बल नाड़ी   (Weak pulse)

 इस प्रकार की नाड़ी को छूने पर अँगुली पर धीमी सी ठोकर लगती है, यह नाड़ी रोगों में जीवनी-शक्ति घट जाने की सूचना देती है।

6. परिपूर्ण नाड़ी (Frequent pulse)

जब नाड़ी पर अंगुलियाँ रखने से उसके नीचे उछल-प्रबल प्रतीत हो, तो उसे परिपूर्ण नाड़ी कहते हैं। कठिन रोगों में ऐसे ही नाड़ी होती है।

7. कठोर नाड़ी (Hard pulse)

जब अंगुलियों के दबाने से नब्ज कठोर प्रतीत हो, तो कठोर नाड़ी कहते है। शरीर में तरल पदार्थ की कमी होने पर ऐसी स्थिति होती है।

8. आन्तरिक नाड़ी (Intermittant pulse)

जो नाड़ी चलते-चलते एक क्षण के लिए रुक जाय तथा फिर चलने लगे अर्थात् अटक-अटक कर चले, उसे आन्तरिक नाड़ी कहते है। जब हृदय में थकान पैदा हो जाने के कारण जब थोड़ा आराम होता है तब ऐसी नाड़ी चलती है एकाएक दुर्घटना से भी ऐसी नाड़ी चलती है।

9. लम्बी नाड़ी (Large pulse)

इस नाड़ी में अंगुलियों के नीचे स्पंदन अधिक होता है। यह रक्त प्रकोप या विषम रोगों में चलती है।

10. निम्न तनाव की नाड़ी (Low tension pulse)

इस प्रकार की नाड़ी लम्बाई, चौड़ाई और गहराई में स्वस्थ अवस्था से कम होती है।

11. शीघ्रगामिनी नाड़ी (Quick pulse)

इस अवस्था में नाड़ी जल्दी-जल्दी चलती है। स्पंदन 100-120 तक हो जाता है। ऐसा तभी होता है जब शरीर में गर्मी की अधिकता होती है।

12. मंद नाड़ी (Slow pulse)

जब सामान्य अवस्था में नाड़ी की गति कम होती है, तो मंद नाड़ी कहते हैं। रक्त चाप की कमी से, मूर्छा अथवा सदमा आदि के समय ऐसी नाड़ी स्पंदन करती है।

विभिन्न रोगों में नाड़ी की गति

यहाँ पर कुछ प्रमुख रोगों में नाड़ी की गति का वर्णन कर रहे हैं।

 

पाचन संस्थान के रोग-

मंदाग्नि रोग में नाड़ी की गति शीतल होती है। अर्जीण में नाड़ी क्षीण और ठण्डी हो जाती है। अतिसार में नाड़ी की गति गर्मी में जोक के समान मंद और निस्तेज होती है। खाने की अरुचि होने पर नाड़ी स्थिर, मन्द पुष्ट तथा कठिन होती है। कब्ज की अवस्था में नाड़़़ी प्रायः रक्त से खाली और वायु से भरी होने से ऊँची होती है। वातज शूल में नाड़ी की गति वक्र होती है। पित्तज शूल में यह ऊष्ण होती है। यकृत दोष में नाड़ी खाली तथा सख्त होती है। वमन में नाड़ी कठोर, ज्वर युक्त, लुप्तप्रायः और सविराम होती है।

श्वास के रोग-

फेफड़े की टी०बी० में रोगी का जिस ओर का फेफड़ा खराब होता है, उस ओर की नाड़ी की गति दूसरी ओर की अपेक्षा ऊँची होती है। निमोनिया में दोनों ओर की नाड़ियाँ लहरदार हो जाती हैं। दमा के रोगी में नाड़ी सदा तीव्र, कड़ी तथा जोक की तरह चलती है।

रक्तवाहक संस्थान के रोग-

उच्च रक्तचाप में नाड़ी की गति ऊँची होती है तथा अंगुलियों को जबरदस्ती हटाती हुई सी प्रतीत होती है। ऐसा लगता है कि नाड़ी में बहती हुई कोई चीज अंगुलियों को ढकेलकर आगे बढ़ रही हो हीन रक्तचाप में नाड़ी की गति क्षीण तथा मन्द होती है धड़कन जब बढ़़ती है तब नाड़ी तीव्र तथा बड़ी होती है। धमनियों के शोध में नाड़ी बड़ी और विभिन्नतायुक्त हो जाती है। रक्तस्राव के समय नाड़ी बड़ी शक्तिशाली तथा छूने में गर्म होती है। हृदय में दुतगामिनि, तथा कर्कश होती है।

मूत्र रोग-

मूत्रघात में नाड़ी मेंढक के समान उछल-उछल कर चलती है। वृक्कशोध में नाड़ी की गति कठोर और नियमित होती है। रक्त पित्तवाहक नाड़ी उत्तेजित, बात व कफ वाहक नाड़ी पतली हो जाती है।

गुप्त रोगों में नाड़ी की गति-

1.पुरुषों में

उपदंश की अवस्था में नाड़ी वक्र कुश तथा गम्भीर होती है। धातुक्षीणता में नाड़ी बहुत धीमी चलती है। नपुंसकता में रोगी के बायें हाथ की नाड़ी में टेढ़ापन पाया जाता है। प्रमेह में नाड़ी सूक्ष्म, जड़, मृदु होती है। वीर्य की कमी होने पर नाड़ी की गति निर्बल होती है तथा धीमे चलती है।

2.स्त्रियों में

गर्भावस्था में नाड़ी भारी और वायु की चाल से चला करती है। योनि रोग में नाड़ी पतली अंगुली के नीचे सख्त होती है, परन्तु धीमी चलती है। श्वेत प्रदर में नाड़ी एक चाल से परन्तु कमजोर चलती है।

 

 

संक्रामक रोग-

मलेरिया में नाड़ी अंगूठे की जड़ से हट जाती है और कुछ देर के बाद फिर अपने स्थान पर लौट आती है। चेचक में नाड़ी तेजी से किन्तु टेढी-मेंढी चलती है। टाइफाइड में नाड़ी की गति 100 से अधिक होती है। अंतिम दिनों में नाड़ी की गति रुक-रुककर चलती है। डिप्थीरीया में नाड़ी की गति तेज और कड़ी होती है। पेचिस में नाड़ी की गति जोंक की तरह होती है। टी०बी० में नाड़ी की गति क्षीण हो जाती है।

 

जिह्वा परीक्षण (Tongue Exameinahan)

·         तीव्र ज्वर, लम्बे उपवास तथा जल की कमी होने पर जीभ पर मैल की तह जम जाती है।

·         रक्त की कमी होने पर जीभ का रंग फीका हो जाता है जीभ की सतह मुलायम तथा समतल हो जाती है।

·         स्नायुरोगी में जीभ संज्ञाहीन हो जाती है।

·         पीलिया में रोगी की जीभ कुछ पीली हो जाती है।

·         हृदय के रोगों में रोगी की जीभ जरा सी बढ़ जाती है। तथा दाँत के निशान पड़े दिखायी देते हैं।

·         हृदय के रोगों में जीभ का रंग कुछ नीला हो जाता है।

·         शोथों के रोग में जीभ अस्वाभाविक रूप से लाल हो जाती है।

·         पाचनशक्ति के विकारों में जीभ लाल हो जाती है तथा उस पर छोटे-छोटे दाने पड़ जाते हैं।

·         अर्जीर्ण रोगों में जीभ मोटी हो जाती है। जीभ तथा उस पर सफेदी दिखायी देती है।

·         आमाशय के रोगों में जीभ फटी हुई होती है।

·         उदर रोगों में मुँह से दुर्गन्ध आने लगती है।

·         शरीर में जल की कमी होने पर जीभ सूखी और रूखी हो जाती है।

·         विटामिन ’’बीकी कमी से जीभ चिकनी हो जाती है।

·         क्षय रोगों में जीभ लाल रंग की तथा खुश्क हो जाती है।

·         पित्त ज्वर में जीभ की नोक और किनारे लाल पड़ जाते हैं।

·         श्वास, हृदय तथा फेफड़े के रोगों में जीभ बैगनी दिखायी देती है। और उसमें बहुत जलन होने लगती है।

दाँत व मसूढ़ों का परीक्षण (Teeth and Gums Examinahian)

·         पाइरिया में दाँतों की जड़ों एव मसूढ़ों से पीप निकलने लगता है।

·         पाण्डुरोग में रोगी के मसूढ़े भी पीले पड़ जाते हैं।

·         शरीर में चूने की कमी होने से दाँत आसानी से टूटने लगते हैं।

·         स्कर्वी (Scurvy) में रोगी के मसूढ़ों को दबाने से खून निकलने लगता है।

·         विष होने पर मसूढ़ों के ऊपर गहरी नीली धारी पड़ जाती है।

·         पेट में कीड़े होने पर रोगी अपने दाँत पीसता है।

·         पेट सम्बन्धी रोगों में दाँतों पर हरा या पीला मैल जम जाता है।

·         बुखार में भी दाँतों पर काला या भूरा मैल जम जाता है।

होंठ परीक्षण (Lip Examinahian)

·         हृदय रोग में रोगी के ओंठ काले या नीले हो जाते है।

·         दिल की कमजोरी में होंठ नीले हो जाया करते है।

·         निमोनिया तथा मलेरिया में होठों पर दाने निकल आते है।

·         पाचन विकारों में होंठ हर समय सूखे रहते हैं तथा कभी-कभी सफेद भी हो जाते हैं।

·         रक्त की कमी होंठ पीले हो जाते हैं, कभी-कभी सफेद भी हो जाते हैं।

 

आँख परीक्षण (Eyes Examinatian)

·         हैजा, क्षय, कमजोरी, अतिसार, रक्तस्राव में रोगी की आँखें धॅसी होती हैं।

·         उच्च रक्त चाप, में नेत्रों से रक्तस्राव होने लगता है।

·         वात रोगों में नेत्र सूखे हो जाते हैं।

·         पित्त रोगों में संतापयुक्त हो जाते हैं तथा पीले दिखायी देते हैं।

 

आँख परीक्षण (Eyes Examinatian)

·         रक्त की कमी, दिल का अधिक धड़कना, सिर चकराना, आदि अवस्था में आँखों के सामने अंधेरा आ जाता है।

·         नजला, जुकाम, पागलपन, और तीव्रज्वर में आँखें लाल हो जाती हैं।

·         हृदय विकार तथा आक्सीजन की कमी में आँखें नीली हो जाती हैं।

·         विटामिन की कमी होने पर आँखों में कैंजापन आ जाता है।

·         पेट के रोगों में आँखों के चारो ओर लाल-लाल, सोसे जैसा नीला फेरा पड़ जाता है।

·         एनीमिया में आँखों की झिल्ली सफेद हो जाती है।

·         टी०बी० तथा अन्य भयानक बीमारियाों में आँखें चिन्तातुर दिखायी देती हैं।

 

       कनीनिका निदान (Ieis Diagnosis)

कनीनिका निदान की खोज डॉ. वान पैक जेली (Dr.Von Pec Zely) ने 1848 में की थी। डॉ. जेली जब 11 वर्ष के थे, उन्होंने बगीचे में उल्लू को पकड़ा, लेकिन पकड़ने में उल्लू की टांग टूट गयी। उन्होंने जब उल्लू की आँखों में ध्यान से देखा तो कुछ धब्बे तथा चिन्ह उभर आये थे। उन्होंने उस उल्लू की टांग का उपचार किया। जैसे-जैसे टांग ठीक होती गयी वैसे-वैसे आँख का धब्बा व धब्बे के रूप में चिन्ह धूमिल होकर गायब हो गए। बड़े होकर वान पैक जेली जब डाक्टर हुये तो एक दिन एक रोगी जिसकी टाँग टूट गयी थी, परामर्श के लिये आया। उन्हें उल्लू की टाँग टूटने की घटना याद आयी। उन्होंने सूक्ष्म यंत्र से रोगी की आँख का निरीक्षण किया तो रोगी के उपतारा मण्डल में एक काला धब्बा दिखायी दिया यह धब्बा भी उसी स्थान पर था, जिस स्थान पर उल्लू की आँख में था। इससे उन्होंने कनीनिका के टांगों का स्थान निश्चित किया। अपने चिकित्सीय व्यावहारिक अनुभव में उन्होंने पाया कि शरीर के आन्तरिक तथा वाह्य अंगों के रोगाग्रस्त होने पर कनीनिका (Iris) में विभिन्न प्रकार के चिन्ह उभर आते हैं। सूक्ष्म दर्शक यंत्र से देखकर यह पता किया जा सकता है कि शरीर के किन अवयवों में रोग बढ़ रहा है। अमरीका के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक हेनरी लिंडाहर (Henry Lindlahar) ने भी कनीनिका का गहन अध्ययन किया। उन्होंने आईरिडागनोसिल (Iridiagnosis) नामक पुस्तक की रचना की। उनके अनुसार कनीनिका (Iris) में 36 प्रतिनिधि बिम्ब होते हैं। जो शरीर के सभी अंगों का प्रतिनिधत्व करते हैं। तीव्र औषधियाँ जो रोगों में खायी जाती हैं, उनका भी प्रवाह कनीनिका में दिखायी देता है।

कनीनिका की रचना

यह आँख का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। आँख में दो स्पष्ट भाग तथा रंग दिखायी देते हैं। काली पुतली तथा आँख का सफेद हिस्सा काली पुतली में एक बिन्दु होता है। बिंदु को छोड़कर बिंदु के चारों ओर काले भाग को कनीनिका  (Iris) कहते हैं। आँख का वर्णन एक गोले अथवा गोल्ब के रूप में किया जाता है, परन्तु वास्तव में यह अण्डाकार होता है। इसका व्यास 2.5 सेंटीमीटर होता है। यह तीन स्तरों का बना होता है।

(1) श्वेत पटल (Scleara) : यह आँख का वाहयतम स्तर है। इससे नेत्र का श्वेत भाग बना है। यह अपारदर्शी होता है तथा कनीनिका ;प्तपेद्ध से मिला हुआ होता है। कनीनिका पारदर्शक होती है, इसीसे प्रकाश आँख के भीतर महुँचता है। श्वेत पटल नेत्र को कोमल अंगों की सुरक्षा करता है।

(2) मध्य पटल (Choroid) : यह आँख का मध्य स्तर है। इसकी रक्त वाहिकायें अन्तः वैरोटिड धमनी से निकलने वाली नेत्र धमनी (Ophthalmic artery) की शाखायें होती हैं। यह कनीनिका का निर्माण करती हैं इस पटल का रंग कालापन लिये हुये भूरा होता है। इसके पुतली (Pupil) कहते हैं। कनीनिका के पीछे द्रव पदार्थ होता है। जिसे रक्त वाहिनियाँ होती हैं, जो आँख को पाषण देती हैं। कनीनिका के पीछे एक पिगमेन्टेशन स्तर होता जिनका कनीनिका उसका रंग प्रदान करता है। नीली, भूरी, भूसर आदि रंग की आँखें इसी कारण होती हैं।

(3) दृष्टि पटल (Retina) : यह नेत्र का भीतरी स्तर है जो अनेक परतों से बना होता है। जिसकी रचना स्नायुओं, कोशिकाओं, शलाओं (Rodes) तथा शंकुओं (Cones) से होती है। मस्तिष्क में दायें तथा बायें भाग में जहाँ से रंग नाड़ी निकल कर आँखों से मिली होती हैं। दाहिनी आँख की नाड़ी मस्तिष्क से बायें भाग से निकालती है तथा बाँयीं आँख की नाड़ी दाहिने मस्तिष्क के रंग केन्द्र से निकलती है। यही फैली हुई नाड़ी रेटिना कहलाती है। बाहरी वस्तुओं का बिम्ब कनीनिका से होकर लेन्स द्वारा रेटिना पर पड़ता है, और वहाँ से रंग नाड़ी द्वारा विम्ब मस्तिष्क के रंग केन्द्र में पहुँचता है, वहाँ पर वस्तु के आकार तथा रंग का निर्णय होता है।

शारीरिक अंगों तथा कनीनिका में सम्बन्ध

दोनों आँखों की कनीनिका में बहुत सी सूक्ष्म से सूक्ष्म नाड़ियाँ तथा स्नायुतंत्र होते हैं। इन सभी का सम्बन्ध शरीर तथा मस्तिष्क से दो प्रकार से होता है। एक तो दृष्टि तथा रंग नाड़ी मस्तिष्क तथा कनीनिका तक फैली होती है। दूसरी नाड़ियों सुषम्ना नाड़ी के सम्पर्क में होती हैं। सुषम्ना नाड़ी का सम्बन्ध पूरे शरीर से होता है। अतः शरीर के किसी भी भाग में परिवर्तन होने से वह तुरन्त कनीनिका

पर अंकित हो जाता है। कनीनिका में माँसपेशियाँ, स्नायु तथा रक्त वहिनियाँ होती हैं, जो पूरे शारीरिक

तंत्र से मिली हुई होती हैं। अतः जब शरीर में किसी प्रकार का कोई बदलाव आता तो उसकी छाप स्पष्ट रूप से कनीनिका पर देखी जा सकती है। कनीनिका में काले-सफेद, तीरछे, हल्के गहरे चिन्ह तथा रेखायें रोग की स्थिति में उभर आती हैं।

कनीनिका के आवरण

कनीनिका के सात आवरण बताये गये हैं। प्रथम आवरण आमाशय का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरे आवरण में छोटी व बड़ी गुर्दे तथा हृदय के लिए निर्धारित हैं। चौथा आवरण श्वसन  संस्थान को दर्शाता है। पाँचवे आवरण में मस्तिष्क तथा ज्ञानेन्द्रियाँ आती हैं। छठा आवरण यकृत, जलग्रन्थियाँ तथा लसीका तंत्र का प्रतिनिधित्व करता है तथा सातवाँ आवरण त्वचा माँसपेशियों व नाड़ी संस्थान का स्थान हैं।

कनीनिका का वर्गीकरण

कनीनिका को 36 भागों में विभक्त किया गया है। शरीर के दायें अंग के अवयव दायी कनीनिका में तथा बांयें अंग के अवयव काफी कनीनिका में दिखायी पड़ते हैं।

कनीनिका में रोग के लक्षण

डॉ. लिण्डलहार ने स्पष्ट किया है कि शरीर में जब किसी रोग के लक्षण जन्म लेते हैं, तो उसके कुछ चिन्ह कनीनिका के निश्चित स्थान पर उत्पन्न होने लगते हैं। कनीनिका में प्रत्येक अंग तथा अवयव का स्थान निश्चित है, वहाँ पर श्वेत रंग की गहरी रेखायें दिखायी देने लगती हैं। यदि इसी अवस्था पर प्राकृतिक चिकित्सा विधि से शरीर में संचित विजातीय तत्त्व को बाहर निकाल दिया जाता है, तो रोग गम्भीर नहीं बनने पाता है। लेकिन यदि शक्तिशाली तथा तेज औषधियों से रोग को दबा दिया जाता है, तो रोग गम्भीर (Chronic) अवस्था में पहुँच जाता है।

यदि ध्यानपूर्वक कनीनिका को देखा जाय, तो पता चलता है कि जैसे-जैसे रोग की दशा बदलती जाती है, वैसे-वैसे कनीनिका में चिन्हों की उभरी हुई दशा भी बदलती हाती है। जब श्वेत रेखाओं के साथ-साथ काली रेखायें दिखने लगें तो इसका तात्पर्य होता है कि रोग की जटिलता बढ़ रही है। जैसे-जैसे काली रेखायें बढ़ती जाती है, रोग गम्भीर होता चला जाता है।

 

मूत्र परीक्षण   (Urine Examinaton)

1. मात्रा

साधारण स्वस्थ व्यक्ति प्रतिदिन 1500 सी०सी० मूत्र परित्याग करता है। शीत तथा वर्षाऋतु में यह मात्रा बढ़ जाती है तथा ग्रीष्म ऋतु में पसीने के अधिक निकलने के कारण मूत्र की मात्रा कम हो जाती है। मधुमेह तथा चिरकालीन वृक्क शोध (Chroinc Nephritis) आदि में मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है। इसी प्रकार रक्त चाप की कमी, हैजा, दस्त आदि में मूत्र की मात्रा ही कम हो जाती है। इस रोग में मूत्र की मात्रा का बढ़ना हृदय में विकृति की कमी का सूचक है।

साधारणतया स्वस्थ अवस्था में व्यक्ति प्रायः दिन में 5 बार तथा रात्रि में 1बार मूत्र का परित्याग करता है। रात्रि में बार-बार मूत्र का परित्याग करना डायबिटीज का सूचक है।

2. रंग

प्राकृत अवस्था में मूत्र हलके पीले रंग का होता है। पीलिया में यह मूत्र अधिक पीला हो जाता है। फाइलेरिया में मूत्र में काइल (Chyluria) आने पर मूत्र दूध के समान सफेद हो सकता है। रक्त आने पर मूत्र लाल तथा हीमोग्लोबिन आने पर काला हो जाता है।

3.पारदर्शिता

प्राकृत अवस्था में मूत्र जल के समान निर्मल होता है। मूत्र मे फास्फेट (Phosphate) बैक्टीरिया आदि रहने पर मूत्र गंबला हो जाता है।

4. गंध

प्राकृत मूत्र की गंध एक विशिष्ट गंध होती है। एसीटोयोंन (Aceton) आने पर मूत्र की गंध सड़े फल के समान मीठी होती है।

मूत्र के सामान्य तत्त्व

मूत्र में 9.60 भाग जल और .40 भाग ठोस पदार्थ होता है। 24 घण्टे में लगभग 2 या 2-1/4 औंस ठोस पदार्थ मूत्र द्वारा हमारे शरीर से बाहर निकलते हैं। ठोस पदार्थों में यूरिया, यूरिक एसिड, सोडियम और क्लोराइट ही अधिक मात्रा में होते है।

मूत्र के असामान्य तत्त्व

विकृत अवस्था में मूत्र में कभी-कभी रक्त, पीठ पित्त,  (Bile) शर्करा, एसीटोन एलबूमिन आदि तत्त्व आ जाते हैं।

सामान्य मूत्र में जल तथा अन्य तत्त्वों की मात्रा

तत्त्व परिमाप

·         यूरिया 2.3 ग्राम प्रति लिटर

·         क्रेटिनाइन 1.5 ग्राम प्रति लिटर

·         यूरिक ऐसिड 0.7 ग्राम प्रति लिटर

·         सोडियम क्लोराइड 9.00 ग्राम प्रति लिटर

·         पोटेशियम क्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लिटर

·         सल्फयूरिक एसिड 1.8 ग्राम प्रति लिटर

·         अमोनिया 0.6 ग्राम प्रति लिटर

मूत्र न्यूनाधिक के कारण-मूत्र का परिमाण कारणों से न्यूनाधिक हो जाता है-

(1) मूत्र के परिमाण में वृद्धि :  हृदय के बायें भाग का विस्तार, उच्च रक्तभार, वृक्क शोथ का प्रारम्भ, फेफड़ों के आवरण में जल भर जाना, जलोदर, मधुमेह, अधिक जलपान, शीतकाल, आदि कारणों से मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है।

(2) मूत्र के परिमाण में कमी : ज्वर, अतिसार, विचिका, वृक्क शोथ, मूत्रवरोध व्यायाम, अधिक रक्त स्राव, वमन, मद्यपान, रक्तभार, न्यूनता और लिवर की विकृति में मूत्र की मात्रा कम हो जाती है।

(3) मूत्र का अपेक्षित गुरुत्व तथा भार कम या अधिक हो जाना : मधुमेह, युरिया की वृद्धि, मांसाहार, आदि में मूत्र का परिमाण कम हो जाना और निमोनिया, टाइफाइड में मूत्र का अपेक्षित गुरुत्व  (specific gravity) बढ़ जाता है। हिस्टीरिया, मूत्र नलिका का रोग, शीतल पेय पक्षाघात, रक्त में गुरुत्व कम हो जाता है।

(4) यूरिया की वृद्धि या कमी :  सामान्यतः यूरिया 2.3 ग्राम प्रति लीटर होती है। मांसाहार, पक्का भोजन मधुमेह गाउट (बालरक्त), निमोनिया, क्षय खट्टे पदार्थों के अधिक सेवन आदि कारणों से यूरिया बढ़ जाती है।

यूरिक एसिड में वृद्धि तथा कमी : सामान्यतः मूत्र में 0.7 ग्राम प्रति ली० यूरिक एसिड होता है। लेकिन तीव्र, ज्वर यकृत के रोग, पौष्टिक अन्न सेवन, मांसाहार, दमा के रोग, प्लीहा का रोग, वात रक्त आदि में यूरिक एसिड बढ़ जाता है। कुनैन औषधि से इसकी मात्रा कम हो जाती है।

क्लोराइड : निमोनिया, शीतज्वर, विषम ज्वर के शमन होने पर रोगी के मूत्र में क्लोराइड या नमक की मात्रा आमतौर पर बढ़ जाती है। निमोनिया में नमक की मात्रा कम हो जाती है।

फास्फेट : कुछ जीर्ण रोग जिसमें मूत्र में स्नायुओं के टुकड़े आते हों तथा मधुमेह में फास्फेट की मात्रा बढ़ जाती है। फेफड़े के चारों ओर वाली झिल्ली में शोथ में कम हो जाता है।

मूत्र का आकार प्रकार तथा रोग

1.     धूमिल रंग का मूत्र होना रक्त की उपस्थिति का सूचक है।

2.     लाल रंग का मूत्र होना अम्लता (Acidity) की अधिकता बताता है।

3.     गहरे पीले रंग का मूत्र होना पित्त की मौजूदगी का सूचक है।

4.     गंदा मूत्र होना श्लेषमा या पीव का सूचक है।

5.     फीका या सफेद मूत्र होना जल की अधिकता, यूरिया या चीनी की अधिकता का सूचक है।

6.     रोगी के मूत्र करने के बाद भी कुछ देर तक झाग रहना श्वेत सार (Albumin) या पित्त के उत्पादन का सूचक है।

7.     मूत्र में अधिक अम्ल होना पथरी की उपस्थिति का सूचक है।

8.     मूत्र प्रवाह में जलन, मूत्र का रुक-रुक कर आना, मूत्र मार्ग में तीव्र दर्द, मूत्राशय में पथरी होने की ओर इंगित करता है।

9.     मूत्र में शर्करा का आना मधुमेह का सूचक है।

10.  मधुमेह, पुराना वृक्क शोथ (Bright"s desease) हिस्टीरिया, रक्त स्राव, आदि में मूत्रल औषधियाँ लेने से पीला मूत्र आता है।

11.  मूत्र में यूरेट्स, फासफेट आदि आने की अवस्था में रोगी के मूत्र का रंग बादल जैसा हो जाता है।

 

 

रक्त भार परीक्षण

जब हृदय रक्त को धमनियों में धकेलता है, तो धमनियों के दीवालों पर एक प्रकार का दबाव पड़ता है इसी को रक्तचाप या रक्ताभार (blood Pressure) कहते हैं। यह दबाव जब तक प्राकृतिक अवस्था में रहता है तब तक रक्तचाप सम्बन्धी कोई रोग नहीं होता है। जब रक्तचाप बढ़ जाता है तो उसे उच्च रक्तचाप (High Blood Pressure) हाइपरटेंशन (Hypertention) कहते हैं। रक्तचाप कम हो जाने पर न्यूनरक्तचाप (Low Blood Pressure) कहते हैं।

दो विधियों द्वारा रक्तचाप देखा जाता है

1. स्पर्शन विधि (Pulpatory method)

2. श्रवण विधि (Ausculatory method)

स्पर्शन विधि में हाथ से नाड़ी का अध्ययन करते हैं।

श्रवण विधि में नाड़ी को स्पर्श करने की अपेक्षा वी0पी0 मापन यंत्र का उपयोग

करते हैं, जिसे स्फिग्मोमेनोमीटर (Sphygmomenouneter) कहते हैं।

रक्तचाप दो प्रकार का होता है।

1. प्रकुंचन रक्त चाप भार (Systolic Blood Pressure)

2. अनुशिथिलन रक्तभार (Diastolic Blood Pressure )

रक्तचाप जानने की सरल विधि

यदि 100 की संख्या में आयु की आधी संख्या जोड़ दी जाय, तो प्रकुंचन रक्त चाप मालूम हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि आयु 50 वर्ष की है, तो प्रकुंचन रक्तचाप 100-50/2=125mn Hg लगभग होगा।

सामान्य रक्तचाप

15 से 19 वर्ष 100 /70

20 से 24 वर्ष 111 / 72

25 से 29 वर्ष 112 / 72

30 से 34 वर्ष 114 / 72

35 से 39 वर्ष 119 / 73

40 से 44 वर्ष 120 / 73

45 से 49 वर्ष 123 / 75

50 से 24 वर्ष 126 / 77

55 से 59 वर्ष 127 / 80

60 से 64 वर्ष 128 / 82

65 से 69 वर्ष 129 / 83

70 वर्ष के ऊपर 130 / 83

रक्तभार बढ़ने तथा घटने के कारण

हृदय की धड़कन की संख्या में वृद्धि होने, धड़कन की शक्ति के बढ़ जाने, रक्त का परिमाप में बढ़ जाने के कारण और धमनियों के अधिक संकुचन हो जाने से रक्त चाप बढ़ जाता है। इसकी विपरीत अवस्था में रक्तचाप घट जाता है।

प्राकृतिक दशाओं में रक्तचाप

1. प्रातः काल की अपेक्षा सायंकाल को प्रकुंचन (Systolic Blood Pressure)रक्तचाप बढ़ जाता है।

2. खड़े होने पर बैठने की अपेक्षा दो मिलीमीटर प्रकुंचन बढ़ जाता है। तथा अनुशिथिलन कम हो जाता है।

3. क्रोध, चिंता तथा घबराहट में प्रकुंचन रक्तचाप बढ़ जाता है।

4. खाना खाते और अधिक पानी पीने से भी प्रकुंचन भार अधिक हो जाता है।

5. व्यायाम से प्रकुंचन भार बढ़ता है।

6. नींद, सोने में प्रकुंचन रक्तचाप कम हो जाता है।

 

 वक्ष परीक्षा  (Chest Examinaton)

वक्ष परीक्षा निम्न प्रकार से की जाती हैः-

1.         देखकर ( Inspection)

2.         स्पर्शन ( Palpation)

3.         परिमापन (Mensuration)

4.         आघातन (हाथ से ठोक कर) (Percussion)

5.         सुनकर (Ascultatuon)

 

 देखकर परीक्षा

इससे वक्ष की गठन में विकार, सांस लेने तथा छोड़ने के समय वक्ष का तानना और उतरने की स्थिति, श्वास-प्रश्वास की प्रकृति आदि का अवलोकन करते हैं।

 स्पर्शन

आँख से देख लेने के बाद वक्ष की परीक्षा करते हैं। इसमें छाती या पीठ पर हथेली रखकर परीक्षा की जाती है। स्पर्शन द्वारा वक्ष की गति, स्पन्दन तथा कम्पन का पता चलता है। हथेली रखने पर रोगी को कैसा महसूस होता है इसका भी ज्ञान होता है।

परिमापन

इसमें वक्ष की माप लेकर यह देखा जाता है कि सांस लेने और छोड़ने के समय दोनों ओर का वक्ष समान रूप से सिकुड़ा तथा फैलता है, या नहीं? वक्ष के रोगों का घटना व बढ़ना भी इससे ज्ञात होता है।

आघातन

इसमें अँगुली से छाती या पीठ को ठोक कर परीक्षा की जाती है। वक्ष, पीठ का या पसली परीक्षा करते समय दाहिनें हाथ की तर्जनी और मध्यमा, को या केवल मध्यमा, अंगुली को टेढ़ा कर नीचे झुकाकर, उसके अगले भाग से चोट देते हैं। जब किसी स्थान पर चोट दी जाती है, तो भीतर से दो तरह की आवाज निकलती है। एक तो धीमी थप सी आवाज आती है दूसरी तरह की आवाज किसी हवा भरी खोखली जगह पर चोट देने से होती है, जैसे ढोल पर थपकी देने से होती है।

सुनकर

स्टेथोस्कोप के माध्यम से हृदय स्पन्दन की आवज सुनी जाती है। इससे हृदय तथा फेफड़ों की आवाज की प्रकृति का ज्ञान होता है।

रुग्णावस्था में वक्ष के शब्द

1.     जब श्वांस की आवाज बहुत तेज हो जाती है तब उसकी वोकियल रेस्पिरेशन रोइनंची ( Bonchial Respiration Roenchi) कहते हैं।

2.     कभी-कभी सांस की आवाज पोली चीज के अन्दर फूंकने जैसी होती है उसे केवरनस ब्रीदिंग (cavernous Beating) कहते हैं।

3.     कभी-कभी आलपीन ठोकने जैसी आवाज होती है, जिसे मैटिलिक टिन्कलिंग कहते हैं।

4.     कभी-कभी तेल गरम करने जैसे शब्द सुनाये देते हैं जिसे क्रेकलिंग (Crackling)कहते हैं।

5.     कभी-कभी वक्ष के अन्दर धातु के बर्तनों को मलने जैसी आवाज होती है जिसे एम्फोटिक रिजोनेन्स कहते हैं।

6.     कभी-कभी हथेली घिसने या आरी चलाने जैसी आवाज आती है, जिसे फ्रिकशन साउण्ड (Friction Sound) कहते हैं।

7.     कभी-कभी बुलबुला बनने जैसे आवाज आती है। जिसे बबलिंग (Bubling) कहते हैं।

 

विभिन्न रोगों में वक्ष की ध्वनि

·         दमा में सीटी देने की ध्वनि जैसी आवाज आती है।

·         प्लूरिसी में रगड़ (Friction) सी आवाज आती है।

·         टी0बी0 रोग में धातु पात्र बजने की तरह ध्वनि होती है।

·         न्यूमोनिया में कागज फाड़ने की जैसी आवाज आती है।

·         ब्रोन्काइटिस में मक्खी की भनभनाहट या घबराहट की आवाज आती है।

·         दिल की धड़कन बढ़ने की तेजी और उसके चोट सी धड़कन साफ सुनायी देती है।