By- Dr. Kailash Dwivedi 'Naturopath'
जल का आन्तरिक प्रयोग मानव शरीर के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
जल के आन्तरिक प्रयोग में मनुष्य जल को पेय के रुप में प्रयोग करता है। प्रातःकाल से
लेकर रात्रिकाल तक वह समय-समय पर जल को पेय के रुप में प्रयोग करता है। पेय के रुप
में जल को प्रयोग करने की विभिन्न क्रियाएं अलग अलग नामों से जानी जाती है। प्रातःकाल
सूर्योदय पूर्व जल का पेय के रुप में प्रयोग करने की क्रिया उषापान कहलाती है। तत्पश्चात
प्रातःकाल खाली पेट गुनगुना जल पीकर उसे तुरन्त मुख मार्ग से बाहर निकालने की क्रिया
वमन कहलाती है। हठयोग के ग्रन्थों में जल के आन्तरिक प्रयोग की अन्य लाभकारी क्रिया
वारिसार आंत्रधौति अथवा शंख प्रक्षालन कहलाती है। जल के आन्तरिक प्रयोग द्वारा बडी
आंत के शोधन की क्रिया एनीमा कहलाती है। इसके अतिरिक्त दिन में सामान्य रुप से जल का
सेवन करना जलपान कहलाता है। उपरोक्त सभी क्रियाएं शरीर के लिए आवश्यक एवं हितकारी हैं
जिनका विधिपूर्वक अभ्यास करने से शरीर स्वस्थ एवं रोग मुक्त रहता है। इन क्रियाओं को
नही करने के कारण अथवा अवैज्ञानिक ढंग से करने पर शरीर में जल तत्व की विषमता उत्पन्न
हो जाती है और इसके परिणाम स्वरुप अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होती है।
जल तत्व का आन्तरिक प्रयोग अत्यन्त व्यवहारिक विषय है प्रत्येक
मनुष्य प्रातःकाल से लेकर दिन भर एवं रात्रिकाल तक इसका प्रयोग करता है। यद्यपि जब
मनुष्य इसका प्रयोग बिना किसी नियमपालन एवं विधि विधानहीन रुप में करने से शरीर पर
इसका दुष्प्रभाव पडता है एवं इसके साथ साथ अनेक रोग भी उत्पन्न होते हैं। विभिन्न चिकित्सकों
के मतानुसार वर्तमान समय में फैल रहे अनेकों रोगों की उत्पत्ति का मूल जल तत्व के आन्तरिक
प्रयोग की विकृति होती है। इस प्रकार जल का आन्तरिक प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है। जल
के आन्तरिक प्रयोग के महत्व को जानने के उपरान्त आपके मन में इसकी प्रमुख विधियों का
सही एवं वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा अवश्य ही उत्पन्न हुई होगी अतः अब
जल के आन्तरिक प्रयोग की प्रमुख विधियों पर विचार करते हैं –
चिकित्सा विज्ञान के अनुसार एक स्वस्थ व्यक्ति को तीन से पांच
लीटर जल का सेवन प्रतिदिन करना चाहिए। जल की इस मात्रा का सेवन करने से शरीर में जल
तत्व सम मात्रा में बना रहता है एवं शरीर स्वस्थ रहता है जबकि इससे कम मात्रा में जल
का सेवन करने से शरीर का शोधन भलि भांति नही हो पाता है एवं शरीर की चयापचय दर असंतुलित
हो जाती है। इसके परिणाम स्वरुप अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होती है। जल सेवन
की मात्रा गर्मी, सर्दी आदि मौसम, कार्य की स्थिति एवं भोजन की प्रकृति पर निर्भर करती है। सर्दी की तुलना में गर्मी
के दिनों में शरीर को अधिक जल की आवश्यक्ता पडती है। इसी प्रकार कठिन शरीरिक श्रम करने
में भी शरीर को जल की अधिक मात्रा की आवश्यक्ता होती है। भोजन की प्रकृति अर्थात रुक्ष-शुष्क
आहार एवं रसीय आहार पर भी जल सेवन की मात्रा निर्भर करती है। रुक्ष-शुष्क आहार के सेवन
के साथ अधिक मात्रा में जल की आवश्यक्ता होती है जबकि रसीय आहार के साथ जल की कम मात्रा
का सेवन किया जाता है। भोजन के साथ जल सेवन की विधि का हमारे स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव
पडता है। इस संर्दभ में विभिन्न चिकित्सक अपने अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। भोजन
के साथ जल सेवन की सही विधि को वर्णित करते हुए आचार्य चाणाक्य कहते हैं
अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारिबल प्रदम्।।
भोजने चामृतंवारि भोजनान्ते विषप्रदम्।।
अर्थात भोजन से पूर्व कुछ मात्रा में जल का सेवन करना अमृत के
समान गुणकारी है। भोजन के मध्य में थोडी थोडी मात्रा में जल का सेवन करना औषधि के समान
लाभकारी प्रभाव रखता है किन्तु भोजन के अंत में जल का सेवन करना विष के समान हानिकारक
प्रभाव रखता है।
आचार्य चाणाक्य के उपरोक्त सूत्र के संर्दभ में समान मत प्रस्तुत
करते हुए चिकित्सक स्पष्ट करते हैं कि भोजन करने से दस से पन्द्रह मिनट पूर्व थोडी
मात्रा में गर्म अथवा गुनगुने जल का सेवन करने से पाचक रसों का स्रावण बढ जामा है एवं
जठराग्नि त्रीव होती है। भोजन के साथ थोडी थोडी मात्रा में जल सेवन करने से भोजन की
अच्छी लुगदी (पेस्ट) तैयार होती है जिससे भोजन का पाचन अच्छी प्रकार होता है। किन्तु
भोजन के तुरन्त बाद जल का सेवन करने से भोजन को पचाने वाले पाचक रसों की सान्द्रता
क्षीण हो जाती है जिससे भोजन का पाचन सही प्रकार नही हो पाता है एवं पेट में भारीपन,
पेट दर्द, गैस एवं अपच आदि रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार भोजन के तुरन्त
बाद जल सेवन करना विष के समान हानिकारक होता है।
इसके साथ साथ जल सेवन में निम्न लिखित तथ्यों को भी ध्यान रखना
चाहिए -
(1)
सदैव साफ स्वच्छ जल का सेवन ही करना चाहिए तथा कभी भी अस्वच्छ,
गन्दगीयुक्त एवं संक्रमित जल का सेवन नही करना चाहिए।
(2)
जल की कम मात्रा का सेवन करने से शरीर की भलि प्रकार सफाई नही
हो पाती है जिससे विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं अतः स्वस्थ रहने के लिए प्रतिदिन
कम से कम तीन लीटर जल का सेवन अवश्य करना चाहिए।
(3)
कठिन शारीरिक श्रम एवं यात्रा से आने पर तुरन्त ठंडे जल का सेवन
नही करना चाहिए।
(4)
गर्मी के दिनों में अधिक ठंडे जल का सेवन नही करना चाहिए,
विशेष रुप से फ्रिज के ठंडे जल सेवन करने से अनेक प्रकार की
वात व्याधियां एवं अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।
(5)
शरीर में कफ दोष की विकृत अवस्था में ठंडे जल के स्थान पर गुनगुने
अथवा गर्म जल का सेवन करना चाहिए। सर्दी-जुकाम एवं खांसी आदि कफ सम्बंधी रोगों में
गर्म जल का सेवन करने से लाभ प्राप्त होता है।
(6)
जुकाम होने की अवस्था में गुनगुना अथवा गर्म जल पीने एवं गुनगुने
जल में नमक मिलाकर स्नान करने से जुकाम रोग में आराम मिलता है।
उषापान
उषापान भारतीय समाज में प्राचीन काल से प्रचलित क्रिया है। उषा
का अर्थ प्रातःकालीन बेला एवं पान का अर्थ पीने से होता है अर्थात प्रातःकाल सूर्योदय
पूर्व खाली पेट एक से तीन लीटर तक अपनी क्षतमानुसार एवं रुचिनुसार साफ स्वच्छ गुनगुने
जल के सेवन की क्रिया उषापान कहलाती है। यह क्रिया शरीर के आन्तरिक शोधन की सबसे सरल
एवं व्यवहारिक क्रिया है। इस क्रिया के प्रभाव से पाचन तंत्र के साथ साथ शरीर के अन्य
तंत्र भी स्वस्थ, सक्रिय एवं रोगमुक्त बनते हैं। उषापान की विधि इस प्रकार है -
विधि :
उषापान के लिए रात्रिकाल में तांबे (कापर) के जग में दो लीटर
शुद्ध जल भरकर रख देते हैं। तत्पश्चात उषाकाल अर्थात सूर्योदय से 45 मिनट पूर्व के समय नींद से जागने पर खाली पेट अपनी क्षमता एवं
रुचिनुसार एक से तीन लीटर जल का सेवन किया जाता है। इस प्रकार जल का सेवन करने के उपरान्त
धीरे धीरे भ्रमण किया जाता है। धीरे धीरे भ्रमण करने से ग्रहण किया गया जल आमाश्य एवं
आँतों में आगे की और बढता है। इसके परिणामस्वरुप शौच की इच्छा होती है।
सर्दी के मौसम में यदि तांबे के जग में रखा जल अधिक ठंडा हो
गया है तब इस जल को थोडा गुनगुना करते हुए प्रयोग करते हैं। सामान्य रुप से जल को हल्का
गर्म अथवा गुनगुना कर देने से इसकी शोधन क्षमता और अधिक बढ़ जाती है जिससे यह और अधिक
प्रभावकारी एवं लाभकारी सिद्ध होता है। जल की इस मात्रा का सेवन करने के उपरान्त 45 मिनट तक अन्य किसी ठोस अथवा द्रव भोज्य पदार्थ का सेवन नही
करना चाहिए।
उषापान का लाभकारी प्रभाव
:
उषापान एक दुष्प्रभावरहित क्रिया है जो शरीर से मृत कोशिकाओं
के निष्कासन की क्रिया को तीव्र करती है। रात्रिकाल के छह से आठ घंटे के विश्रामकाल
के समय शरीर के अंग अवयवों में नई कोशिकाओं का जन्म होता है एवं ये नई कोशिकाएं पूर्व
कोशिकाओं का स्थान ले लेती हैं। अंग अवयवों में स्थित इन मृत कोशिकाओं को हटाने में
जल अत्यन्त आवश्यक है। प्रातःकाल उषापान की क्रिया शरीर के अंग अवयवों में स्थित इन
मृत कोशिकाओं के निष्कासन में सहायता करती है। इसके परिणामस्वरुप अंगों एवं शरीर की
क्रियाशीलता बढती है एवं शरीर में एक नई ऊर्जा का विकास होता है। इसके साथ साथ उषापान
क्रिया निम्न लिखित रोगों को दूर करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है –
· उषापान करने से आमाश्य एवं आँतों की सफाई होती है एवं कब्ज रोग
से मुक्ति मिलती है। नियमित उषापान करने से पेट में अम्लता,
पेट दर्द, गैस, अपच,
भूख की कमी आदि रोग स्वतः ही दूर हो जाते हैं।
· उषापान से सिरदर्द, जोडों में दर्द, गठिया, आर्थाराइटिस एवं मोटापा रोग में लाभ मिलता है।
· उषापान क्रिया से रक्त शुद्ध, स्वच्छ एवं पतला बनता है जिससे रक्तचाप सन्तुलित होता है एवं
हृदय स्वस्थ व मजबूत बनता है।
· उषापान से वृक्कों की क्रियाशीलता बढती है एवं वृक्क की पथरी
व अन्य वृक्क से सम्बन्धित रोगों में आराम मिलता है।
· उषापान करने से आँखों के रोग दूर होते हैं एवं नेत्र ज्योति
बढती है।
· उषापान की क्रिया त्वचा पर लाभकारी प्रभाव डालती है जिससे त्वचा
की झुर्रिया दूर होती है एवं त्वचा में चमक बढती है।
· उषापान क्रिया श्वसन तंत्र के रोगों में लाभकारी प्रभाव रखती
है। नियमित उषापान करने से विभिन्न प्रकार के कफ विकार जैसे जुकाम,
बुखार, खाँसी, नजला, दमा एवं एलर्जी आदि रोग दूर होते हैं
· नियमित उषापान करने से कैन्सर जैसे गंभीर एवं घातक रोग में लाभकारी
प्रभाव पडता है।
इस प्रकार उपरोक्त बिंदु उषापान के महत्व को सिद्ध करते हैं।
यद्यपि उषापान एक दुष्प्रभाव रहित शरीर शोधन की क्रिया है अर्थात इस अभ्यास का शसरीर
पर कोई दुष्प्रभाव नही पडता है किन्तु इस क्रिया में निम्न सावधानियों का पालन करने
से यह क्रिया और अधिक लाभकारी एवं प्रभावशाली हो जाती है विशेष रुप से रोगी मनुष्यों
को इन सावधानियों का पालन करने से रोग में लाभ प्राप्त होता है।
उषापान की प्रमुख सावधानियाँ
:
· उषापान में अधिक ठंडे जल का प्रयोग नही करना चाहिए। विशेष रुप
से ठंड के मौसम में एवं कफ दोष से ग्रस्त रोगियों को गर्म अथवा गुनगुने जल का ही सेवन
करना चाहिए।
· उषापान सदैव सूर्योदय पूर्व एवं खाली पेट करना चाहिए।
· उषापान के 45 मिनट तक कोई भी ठोस अथवा द्रव आहार ग्रहण नही करना चाहिए।
· उषापान से पूर्व चाय आदि पेय पदार्थों का प्रयोग नही करना चाहिए।